विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Saturday, March 16, 2024

चम्पू विधा को पुनर्जीवित करने में महती भूमिका निभाएगी : ‘गाँव का महंत’ कृति

साहित्य तीन शैलियों में लिखा जाता है। गद्य, पद्य काव्य और चंपू| गद्य में कहानी, उपन्यास आदि लिखे जाते हैं, वहीं पद्य में कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, दोहे आदि लिखे जाते हैं| जबकि चम्पू काव्य इन दोनों का मिश्रण होता है| यानि इसमें गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है| गद्य और पद्य में हजारों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं और लिखी जा रही हैं। लेकिन  उपलब्ध जानकारी के अनुसार अभी तक चंपू शैली में कुछ चुनिंदा रचनाएँ ही प्रकाशित हुई हैं। जिसमें अथर्ववेद को संस्कृत का पहला प्रमाण माना जाता है, जिसमें गद्य और पद्य दोनों के माध्यम से विषय का प्रतिपादन किया गया है। ऐसा माना जाता है कि 10वीं से 17वीं शताब्दी के बीच सोमदेव सूरी की यशस्तिलक, भोजराज की चंपू रामायण, कवि कर्णपुरी की आनंद वृन्दावन, जीवा गोस्वामी की गोपाल चम्पू, नीलकंठ दीक्षित की नीलकंठ चम्पू और अनंत कवि की काव्य और चम्पू दोनों कविताएँ थीं। ये सभी रचनाएँ संस्कृत में लिखी गई थीं। हालाँकि ये रचनाएँ काव्यात्मक रूप में अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकीं।

हिन्दी में चम्पू शैली में लेखन का श्रेय मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद को है। मैथिलीशरण गुप्त द्वारा हिन्दी में लिखित "यशोधरा" और जय शंकर प्रसाद द्वारा लिखित 'उर्वशी' ने यह ख्याति अर्जित की, जो चम्पू ग्रंथ साहित्य की श्रेणी में गिनी जाती है। इनके अलावा चंपू शैली की एक भी रचना हिन्दी में प्रकाशित हुई हो, प्राप्त नहीं हुई। आज तक किसी भी भाषा में चंपू शैली में कोई "आत्मकथा" लिखी हो इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते|

“गाँव का महंत” चर्चित सरपंच राधेश्याम गोमला की चम्पू काव्य में लिखी गई आत्मकथा है| जिसे निर्मला प्रकाशन दादरी (हरियाणा) ने प्रकाशित किया है| पुस्तक को पाँच खण्डों में बाँटा गया है और आगे प्रत्येक खंड को चार-चार, पाँच-पाँच उपखण्डों में विभक्त किया गया है| प्रथम अध्याय में लेखक ने अपना संक्षिप्त-सा और गाँव का परिचय दिया है| बताया है कि कैसे उनके पिता को गाँव का महंत बने रहने का संत से आशीर्वाद प्राप्त हुआ और वे निर्विरोध सरपंच बने| कैसे वे प्रभावशाली हुए और कैसे एक गलत निर्णय से उनके साथी ही उनके विरोधी हो गए और गाँव में पार्टीबाज़ी का जन्म हुआ|

दूसरे अध्याय के विभिन्न उप-खंडों में पिता के विरोधी के सरपंच बनने और गलत लोगों के हाथों खेलने, गुटबाजी के चरम पर पहुँचने| भाई कि नौकरी लग जाने, ताऊ की मौत हो जाने, खुद पर मुकदमा दर्ज होने और पिता के चुनाव हार जाने आदि घटनाओं का विवरण दिया गया है|

तीसर अध्याय में गाँव में आरक्षित श्रेणी के सरपंच बनने और उसे बनाने में अपनी और अपने परिवार की भूमिका का ज़िक्र लेखक ने किया है| इसके बाद लेखक ने सक्रीय राजनीति में भाग लेने, पत्रकारिता करने और विभिन्न घटनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने कि चर्चा की गई है| उन घटनाओं का ज़िक्र किया गया है, जिन्होंने उन्हें गाँव में लीडर के रूप में मान्यता दिलवानी शुरू की और परिवार का विश्वास मिला|

अध्याय चार और पाँच में उनके सरपंच बनने से प्रदेश और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले उनके कार्यों और अन्य गतिविधियों का सचित्र चम्पू काव्य में विवेचन किया गया है| कैसे उन्होंने पहले सरकार के सहयोग से गाँव का चहुंमुखी विकास किया और फिर बिना शासकीय मदद के गाँव के सहयोग से अपने गाँव को आदर्श गाँव बनाकर देश-दुनिया का ध्यान अपनी और अपने गाँव की ओर खींचा इसका खुलासा किया है|

उनकी यह कृति दो दो तरह से महत्त्वपूर्ण है| एक तो यह चम्पू काव्य में लिखी गई आत्मकथात्मक संभवतः पहली कृती है और दूसरे उनकी इस विकास यात्रा से भावी पीढ़ी और समकालीन जनप्रतिनिधि प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं|

आशा है लुप्तप्राय हो चुकी चम्पू विधा को पुनर्जीवित करने में यह कृति महती भूमिका निभाएगी, वहीं मित्र राधेश्याम की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुँचाने से सफल रहेगी| लेखको को बधाई और शुभकामनाएं |

रघुविन्द्र यादव

Wednesday, November 22, 2023

हाँ मैं गंवार हूँ - रघुविन्द्र यादव

हाँ मैं गंवार हूँ

हाँ मैं गंवार हूँ
आज भी रहता हूँ अपने माँ-बाप के साथ
उनके ही बनाये घर में|
मैं नहीं बन सका आधुनिक
न शहर में जाकर बसा और
न ही माँ-बाप को भेजा अनाथ आश्रम|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं हैं चमचमाती टाइलें
महँगे कालीन या रेशमी पर्दे|
मेरा आँगन आज भी है कच्चा,
जिसकी मिट्टी में खेलकर ही
मेरे बच्चे बड़े हुए हैं|
मैंने उन्हें नहीं भेजा किसी 'क्रेच' में
नहीं रखी उनके लिए आया
मेरी माँ ने ही दिये हैं उन्हें संस्कार|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं है
विदेशी नस्ल का कुत्ता,
जिसे मैं बाज़ार से लाकर
गोश्त खिला सकूं|
मेरे दरवाजे पर बैठते हैं
आज भी तीन आवारा कुत्ते
जिन्हें हम डालते हैं बासी
और बची हुई रोटियाँ|
वे करते हैं, जी-जान से पहरेदारी|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं है बोनसाई|
मेरे आँगन में तो आज भी खड़े हैं दर्जनों फल-फूलों के देशी पौधे

नीम, इमली, शहतूत,

तुलसीदल, दूब और ग्वारपाठा |

जिन पर दिनभर चहकती हैं गौरया
मंडराते हैं भंवरे और तितलियाँ,
कूकती हैं कोयले और फूलों का रस
चूसती हैं मधुमखियाँ|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं है महंगा
सजावटी सामान|
यहाँ तो हैं चिड़ियों के घोंसले,
मधुमखियों के छत्ते,
मोरों की विश्रामस्थली|

हाँ मैं गंवार हूँ
हमारे घर में नहीं है
नक्कासीदार फूलदान और
आयातित नकली फूल|
हमारे यहाँ तो क्यारियों में ही

गुलदाउदी, गुडहलगेंदा और सदाबहार खिलते हैं

रात को हारसिंगार झरते हैं|

हाँ मैं गंवार हूँ
मैंने नहीं पढाये अपने बच्चे कान्वेंट सकूलों मेंनहीं भेजे वातानुकूलित बसों में|
मेरे बच्चे तो पढ़े हैं
गाँव के बस अड्डे वाले स्कूल में|
अपनी प्रतिभा से बन गए हैं-
इंजिनियर और डॉक्टर|
उन्हें नहीं आते नखरे
आज भी चलते हैं सरकारी बसों में
ईमानदारी से निभाते हैं अपना फ़र्ज़|

हाँ मैं गंवार हूँ
हमने नहीं रखी है 'मेड
खाना बनाने और सफाई करने को
मेरी पत्नी ही करती है घर का काम|
प्यार से बनाती है खाना
और करती ही सफाई|

हाँ मैं गंवार हूँ
खुद ही करता हूँ अपने
पेड़-पौधों की नलाई-गुड़ाई|
बोता हूँ पौध और करता हूँ सिंचाई,
भरता हूँ सकोरों में पानी|
बच्चे खिलाते हैं पक्षियों को दाने|

हाँ मैं गंवार हूँ
नहीं होती हमारे यहाँ
कथाएं और प्रवचन,
नहीं होते जागरण और उपवास|
हम तो प्रकृति के उपासक हैं,
उसके हर रूप से है प्यार,
देते हैं सुरक्षा और करते हैं सम्मान|

हाँ मैं गंवार हूँ
मैं नहीं बनना चाहता
इतना सभ्य कि माँ-बाप को घर से निकालना पड़े,
बेटी को गर्भ में मारना पड़े,
दिखावे के लिए दहेज़ मांगना पड़े,
जायदाद के लिए भाइयों से दुश्मनी पालनी पड़े
मैं तो जीना चाहता हूँ सकून से
गंवार रहकर ही सही|

जिन्हें मेरा गंवार होना स्वीकार है
उनका बाँह फैलाकर स्वागत|
- रघुविन्द्र यादव

Sunday, October 22, 2023

समय से संवाद करते दोहों का संग्रह : देगा कौन जवाब

     “देगा कौन जवाब” श्री राजपाल सिंह गुलिया का नवीनतम दोहा संग्रह है| अयन प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस 104 पृष्ठीय हार्ड बाउंड कृति में जीवन जगत से जुड़े विभिन्न विषयों पर उनके 552 दोहे संकलित किये गए हैं|

कवि ने दोहों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, विसंगतियों और राजनैतिक विद्रूपताओं को जमकर बेनकाब किया है, वहीं मनुज के दोगलेपन, स्वार्थ लोलुपता और रिश्तों का खोखलापन भी उजागर किया है| दोहाकार ने बढती महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और कानून व्यवस्था की बदहाली के साथ-साथ न्याय व्यवस्था पर भी सवाल खड़े किये हैं| श्री गुलिया ने भाई भतीजावाद, साम्प्रदायिकता और धर्म की सियासत पर भी अपनी लेखनी चलाई है| उन्होंने मीडिया और तकनीक के दुष्प्रभाव, पर्यावरण-प्रकृति, मदिरापान, बचपन आदि विषयों को भी अपना कथ्य बनाया है| संग्रह में कुछ नीतिपरक दोहे भी शामिल हैं|

स्वार्थ, आपाधापी और भाई भतीजावाद के इस दौर में आम आदमी के लिए कहीं कोई जगह नहीं है| वह हर दिन कुआँ खोदता है और पानी पीता है| उसकी जिन्दगी कोल्हू के उस बैल जैसी हो गई है, जो चलता तो दिनरात है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं है| कवि ने सुंदर दोहे के माध्यम से इसे व्यक्त किया है-

हुई अश्व-सी ज़िन्दगी, दौड़ रहे अविराम|

चबा-चबाकर थक गए, कटती नहीं लगाम||

जिस देश में कल तक माता-पिता को देव कहा जाता था, उसी देश में आज माँ-बाप को अपने ही बच्चों की उपेक्षा और प्रताड़ना झेलनी पड़ रही है| उन्हें प्रतिदिन दो रोटी के लिए ज़लील होना पड़ता है तो अंतिम समय में भी बच्चे उन्हें सहारा देने नहीं आते| कवि ने इस पीड़ा को दोहों के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत किया है-

दे दी सुत को चाबियाँ, कहकर रीतिरिवाज|

उस दिन से वह हो गया, टुकड़ों को मुहताज||

संग्रह के लगभग सभी दोहे कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से परिपक्व हैं| कवि ने मुहावरों, अलंकारों और प्रतीकों का प्रयोग करके दोहों की प्रभावोत्पादकता को बढाया है|

जली-कटी सुन आपकी, बही नयन यूँ पीर|

नम लकड़ी का आग में, रिसता है ज्यूँ नीर||

सहज सरल भाषा में रचे गए इन दोहों में कहीं-कहीं देशज और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी प्रसंगवश हुआ है| कुछ दोहों का कथ्य, शिल्प ही नहीं, भाव और भाषा भी देखने लायक है-

उतना सुलगा यह जिया, जितना भीगा गात|

छनक-छनक कर चूड़ियाँ, जागी सारी रात||

पुस्तक का शीर्षक प्रासंगिक, आवरण आकर्षक और छपाई तथा प्रस्तुतिकरण सुंदर है| हाँ, प्रूफ की अशुद्धियाँ कुछ जगह अवश्य दृष्टिगोचर होती हैं| एक दो दोहों में शिल्पगत दोष भी रह गए हैं| कुल मिलाकर यह एक पठनीय दोहा संग्रह है जो पाठक को इस दौर की कडवी सच्चाईयों से रूबरू करवाता है|

                                                                  -रघुविन्द्र यादव


Saturday, October 14, 2023

दोहा छंद की प्रासंगिकता

दोहा सदाबहार छंद 

दोहा भारतीय सनातनी छंदों में से एक हैं, जो सदियों लम्बी यात्रा तय करके आज नया दोहा या समकालीन दोहा अथवा आधुनिक दोहा बन चुका है। जिस प्रकार भाषाओं का क्रमिक विकास होता है उसी प्रकार साहित्य की विधाओं का विकास भी क्रमिक रूप से ही होता है। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। दोहा छंद के नया दोहा बनने की भी कोई अवधि निश्चित नहीं है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नया दोहा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में फला-फूला। हालांकि इसकी नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। मैथिलिशरण गुप्त जी का यह दोहा इस तथ्य की पुष्टि करता है-

        अरी! सुरभि जा, लौट जा, अपने अंग सहेज।

        तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज।।

दोहा की मारक क्षमता और अर्थ सम्प्रेषण की सटीकता के कारण यह सदाबहार छंद बना हुआ है| समय के साथ इसके कथ्य में परिवर्तन अवश्य होता रहा है, किन्तु इसके शिल्प में कोई बदलाव नहीं हुआ| दोहे की प्रभावी सम्प्रेषण क्षमता आज भी बरक़रार है| यह केवल मिथक है कि ग़ज़ल के शे’र जैसा प्रभाव किसी अन्य छंद में नहीं है| सच तो यह है कि यह रचनाकार की प्रतिभा और कौशल पर निर्भर करता है कि वह किस छंद में कितनी गहरी बात कह सकता है| समर्थ दोहाकार दोहे के चार चरणों अर्थात दो पंक्तियों में जो कह सकता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है| यहाँ कवि चंदबरदाई के दोहे का उल्लेख करना समीचीन होगा-

    चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान|

    ता ऊपर सुल्तान है, मत चूक्कै चौहान||

मात्र 48 मात्राओं में कवि ने अपने सम्राट मित्र पृथ्वीराज चौहान को न केवल सुल्तान की सही स्थिति (लोकेशन) बता दी, बल्कि अवसर नहीं चूकने का सन्देश भी दे दिया| इतना सटीक और प्रभावी सम्प्रेषण केवल दोहा जैसे छंद में ही संभव है| इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब एक दोहा ने पासा पलट दिया| कवि बिहारी का राजा जयसिंह को सुनाया गया यह दोहा भी इसी श्रेणी का है-

    ‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल|

    अली कली में ही बिन्ध्यो, आगे कौन हवाल||

      दोहा अपनी अनेक खूबियों के कारण सदियों से लोगों के मन मस्तिष्क में रचा बसा है| यह कभी सूफिओं और फकीरों का सन्देश वाहक बन जाता है तो कभी दरबारों की शोभा बन जाता है| कभी प्रेमी-प्रेमिका के बीच सेतु बन जाता है तो कभी जन-सामान्य की आवाज़-

    दोहा दरबारी बना, दोहा बना फ़कीर|

    नये दौर में कह रहा, दोहा जीवन पीर||/रघुविन्द्र यादव 

दोहे का कथ्य चाहे जो रहा हो यह हर दौर में महत्वपूर्ण रहा है, दोहा आज भी लोकप्रियता के शिखर पर है| मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि दोहा लघुता में महत्ता समाये हुए है| दोहा भविष्य में भी सामर्थ्यवान कवियों का चहेता रहेगा ऐसी आशा और विश्वास है|

                                                            -रघुविन्द्र यादव


Saturday, September 23, 2023

सोच का अंतर

एक सेठ के पास बहुत पैसा था| समय अनुकूल था जिस भी काम में हाथ डालता था वारे-न्यारे हो जाते थे | पैसा बढ़ने के साथ-साथ सेठ का अहम और दिखावा भी बढ़ने लगा| लिहाजा शानोशौकत पर खूब खर्च करने लगा| जो छोटे व्यापारी उसके साथ मिलकर काम करते थे सबको एक-एक करके बाहर कर दिया| उसे लगने लगा था कि वही अपने धंधे का बेताज बादशाह है| 

लेकिन वक़्त सदा एक जैसा नहीं रहता| उसने एक बड़ा सौदा किया, जिसमें सारी जमा पूँजी लगा दी| किन्तु जिस पार्टी के साथ सौदा किया था उसके हिस्सेदारों में आपसी विवाद हो गया और मामला अदालत में चला गया| नतीजतन सौदा रुक गया और सेठ का पूरा पैसा जो पेशगी दिया था वह फंस गया| अब न सेठ के पास माल था और न पैसा| अपने छोटे हिस्सेदारों को वह पहले ही निकाल चुका था, इसलिए कोई धन देने वाला भी नहीं था| हालत यह हुई कि अपने खर्चे पूरे करने के लिए भी उसे अपनी संपत्तियां बेचनी पड़ रही थी| धीरे-धीरे काम-धंधा सब ठप्प हो गया तो घर बेचने की नौबत आ गई| 

सेठ की पत्नी खानदानी घर की बेटी थी| वह दिखावे पर खर्च करने की बजाये वक़्त-बेवक्त अपने नौकरों, पड़ोसियों और दूसरे ज़रुरतमंदों की मदद कर दिया करती| इसलिए लोग उनके प्रति प्रेम और श्रद्धा रखते थे| 

एक दिन जब सेठ ने सभी नौकरों को इकट्ठा करके बताया कि उनकी माली हालत अब ठीक नहीं है और वे अपना मकान-दुकान बेचकर किसी छोटे शहर में जा रहे हैं| इसलिए सभी अपना हिसाब करलें और कल से कोई काम पर न आये| यह बात आग की तरह शहर में फ़ैल गई | 

जिन लोगों की सेठानी ने वक़्त-बेवक्त मदद की हुई थी, उन तक जब यह बात पहुंची तो वे लोग अपनी जमा पूँजी और गहने लेकर हाजिर हो गए| बोले सेठानी जी, आपने हमारे बुरे वक़्त में मदद की थी, आज आपका वक़्त बुरा है हम भी कुछ सहयोग करना चाहते हैं| सेठानी ने खूब मना किया| लेकिन लोगों ने यह कहकर चुप कर दिया कि आपने दान दिया था, हम उधार दे रहे हैं, जब आपका फंसा हुआ पैसा मिल जाए तो सूद समेत दे देना, लेकिन लेना पड़ेगा| 

सेठानी के पास देखते-देखते लाखों रूपये जमा हो गए| उधर सेठ, जिसे मांगने पर भी शहर में कोई फूटी कौड़ी देने को तैयार नहीं था दूर बैठा यह सब खेल देख रहा था| जब लोग चले गए तो सेठ ने पूछा, यह सब क्या है? मैं तीन महीने से लोगों से पैसा मांग रहा हूँ, मुझे कोई सेठ भी पैसा देने को तैयार नहीं और तुम्हें जबरन वे लोग भी पैसा और गहना दे गए, जो हमारे ही टुकड़ों पर पलते थे|

सेठानी बोली- यह तुम्हारे दिखावे और अहम तथा मेरे दान और स्नेह का अंतर है सेठ जी| आपने दिखावे पर धन बहाया, मैंने लोगों की मदद की| आपने धनी होने का अहम पाला, मैंने इसे कुदरत की कृपा समझकर लोगों के साथ स्नेह बढाया| आपको लगता था लोग आपके टुकड़ों पर पल रहे हैं, मुझे लगता था उन्हीं की बदौलत हमारा व्यापार बढ़ रहा है| आपने जरूरत के समय धन लगाने वाले, अपने छोटे व्यापारी साथियों को भी दुत्कार दिया, मैंने जो रूठे हुए थे, उन्हें भी मनाया है|

सेठ जी, याद रखना जोहड़ का पानी पीने के काम भले ही न आये, पर आग बुझाने के काम तो आ ही जाता है| 

रघुविन्द्र यादव