“आयो तातो भादवो” श्री सत्यवीर नाहड़िया को थोड़ा दिन पहल्यां छप्यो अहीरवाटी
बोली को कुण्डलिया छंद संग्रह सै| अमें नाहड़िया का लिक्ख्या हुया 300 छंद छप्या सैं| नाहड़िया नै
दुनियादारी सै जुड़ी घणखरी बातां पै छंद लिक्ख्या सैं| छन्दां म्हं रिश्ता-नाता,
बेरोजगारी, महँगाई, तीज-त्यौहार, भाण-बेटी, खेल-खिलाड़ी, आबादी, संत-फकीर, नेता-महापुरुष,
फौजी, जात-पात, धर्म का झगड़ा, गरमी-सरदी, मेह, लोक-परलोक, खेती-किसानी, चीन,
पकिस्तान, भासा, दान-दहेज़, कैंसर, करोना, तीर्थ-नहाण, चेले-चमचे, गुरु, डीजे,
कर्ज़ा-हर्जा सारी बात कवि नै लिक्खी सैं|
कवि ने गावां म्हं कही जाण आळी कहावत अर मुहवारा भी अपणा छन्दां म्हं ले
राख्या सैं, इनका लेणा सैं छंद बहोत आच्छ्या बणगा| यो छंद देखो-
आयो तातो भादवो, पड़ै कसाई घाम।
के साझा को काम, कहावत घणी पुराणी।
फिक्को साम्मण देख, नहीं झड़ लांबो लायो।
तीन सौ छन्दां म्हं कवि नै गागर म्हं सागर सो भर दियो| या तो बात हुई छन्दां
का बिसय की|
अर जित तायं छन्दां का सिल्प की बात सै कुण्डलिया छंद लिखणा आसान काम ना सै, इसम्हं
दोहा अर रोला छंद को ज्ञान होणों जरुरी सै अर साथ म्हं कुण्डलिया की भी जानकारी
होणी चावै, जब जाकै कुण्डलिया लिक्ख्यो जाय सै| पर नाहड़ियो घणा ही दिनां सै छंद
लिख रह्यो सै अर कती एक्सपर्ट हो रह्यो सै| किताब का छन्दां म्हं कमी को कोई काम
ना सै| अर अं किताब की एक ख़ास बात और सै, वा या के या किताब अहीरवाटी बोली का
छन्दां की पहली किताब सै, अं किताब सै पहल्यां छन्दां की किताब तो घणी ही छप लई,
पर अहीरवाटी बोली म्हं आज तायं ना छपी| यो काम नाहड़िया नै लीक सै हटकै करयो सै| नाहड़िया जी घणी बधाई को पातर
सै| यो छंद भी देख ल्यो-
हरयाणा की रागनी, रही सदा बेजोड़|
कौण करैगो होड़ अनूठी सै लयकारी|
किस्से अर इतिहास, सदा सुर कै म्हं गाणा|
किताब को कवर, छपाई अर कागज सारी चीज बढ़िया सैं, अर रेट भी 175
रुपया वाजिब ही सै| कुल मिलाकै बात या सै कि किताब नै खरीद कै पढोगा तो थारा पैसा
वसूल हो जायंगा|
रघुविन्द्र यादव
उपरोक्त कथनी पर खरी
उतरती हैं ये ग़ज़लें। अपने कथ्य में विशेष हैं ये और विशेष हैं सम्प्रेषणीयता के
गुण में। बात सीधी-सी, पर घाव गहरा। है न कमाल! लुकाव-छुपाव में कुछ नहीं
रखा, भला लगे या बुरा, जो कहना सो डंके की चोट पर कहना। फिर निशाने के सामने राजा
हो या प्रजा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इस आशय से वे लिखते हैं –
दिन को केवल दिन लिखना है हमको तो
कानों को पीड़ा देते हैं
सत्ता की खामियों की
पोल खोलना लेखनी का धर्म समझकर लिखा है –
सच बोला तो चुन देगी,
ग़ज़ल संख्या 10 में भावनात्मकता तथा यथार्थ के अनेकानेक बिम्ब रचे गए हैं। ग़ज़ल संख्या 11 पाठक को स्वयं को भी कसौटी पर कस कर देखने का आह्वान करती है –
एक दर बंद था, दूसरा था खुला,
युवावस्था के लिए यह
निष्कर्षात्मक टिप्पणी काबिलेगौर है –
निराशा में जब तक जवानी रहेगी।
एक अन्य कहन का
सौन्दर्य निहारिए –
सजा तय करेगी अदालत खुदा की
सामाजिक विसंगति पर
कटाक्ष देखिए –
घोड़ों पर पाबंदी है
प्रतीक, बिम्ब तथा
व्यंजना का अनूठा मेल प्रस्तुत करता शे’र है –
कंगूरों पर आँच न आई,
आधी आबादी के प्रति सामाजिक
रवैये के विषय में बहुत कुछ कहता है यह शे’र –
जिसके आँगन बेटी जन्मी
कन्या-भ्रूण हत्या के जिम्मेदार कारकों को कैसे बख्शा जा सकता है –
मार रहे ख़ुद अपनी बेटी
विडम्बना देखिए, जिस प्रेमी-युग्ल के प्यार के किस्से अमर हैं, आज उनके वंशज
प्यार के नाम पर रीते-थोथे हैं-
लैला-मजनूँ के वंशज भी,
जब नेता जी वादे भूल जायें तो वार पर वार करना जनता का कर्तव्य है-
भूल गए नेता जी वादे,
प्राकृतिक विपदा, उसके प्रभाव और लोगों के त्याग का प्रतिबिम्बन एक साथ सामने
आया है –
देश पर संकट पड़ा है लोग डर
कर जी रहे हैं
जनता की तंगहाली देखकर राजाजी का ऐशो-आराम खटकता है इसलिए लेखनी लिखने से नहीं
चूकती –
अच्छे दिन आएँ या जाएँ, कोई
फ़र्क़ नहीं पड़ता,
दुनिया में सम्पूर्ण कोई नहीं इसलिए अपनी भी पड़ताल करनी बनती है –
मौत सभी को आएगी
ऐतिहासिक सत्य बयाँ करती हैं ये पंक्तियाँ–
क़लमों के भी शीश कटे हैं
लेखकीय निर्भीकता से भी रू-ब-रू हो लेते हैं –
मुझको कोई खौफ नहीं,
रचनाकार रचना करे और जागरण की बात न करे, यह हो नहीं सकता। यह तथ्य इन ग़ज़लों पर भी लागू होता है –
मन को तू बीमार न कर।
ग़ज़ल के शिल्प-विधान से अनभिज्ञ हूँ इसलिए इस विषय में चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती हूँ। हाँ, कथ्य से प्रभावित हो कर कहना चाहूँगी कि इन ग़ज़लों की यात्रा पर निकलेंगे तो पग-पग पर ऐसे डेरे मिलेंगे, जो कहेंगे – पल दो पल ठहर कर जाइए, हमारे पास सुच्चे मोती हैं। एक भी मोती नकली निकले तो जो चाहे सजा भुगतेंगे। बेहतर होता, उर्दू के कठिन-शब्दों के अर्थ पृष्ठ के अंत में दर्शा दिए जाते। त्रुटिरहित सुन्दर छपाई, स्तरीय क़ाग़ज और आकर्षक मुखपृष्ठ के होते यह ग़ज़ल संग्रह संग्रहणीय बन पड़ा है।
हार्दिक कामना है, रघुविन्द्र यादव की लेखनी,
रात को रात लिखती हुई, निर्बाध गति से चलती रहे।
आये याद कबीर दोहाकार रघुविन्द्र यादव का तीसरा दोहा संग्रह है| कवि का आक्रोश है– व्यवस्था की कुचालों, सत्ता के दुराचरण, वैयक्तिक आडम्बरप्रियता, रिश्तों के खोखलेपन, अंधभक्ति, तथाकथित संतों की शर्मनाक करतूतों, माता-पिता के प्रति संतान के उपेक्षित व्यवहार, स्वार्थ की पराकाष्ठा, किसान-मजूर की दुर्दशा, घटते भाईचारे, मीडिया की कारगुजारी, नशाखोरी, संवेदनहीनता, कूपमण्डूकता तथा सामाजिक भेदभाव के प्रति। विसंगतियों, विद्रूपताओं को केन्द्र में रखकर कलम चलाई गई है, वहीं कवि मानव मात्र को संदेश देना नहीं भूला है। पीड़ा के इन मजमूनों में खुदा को भी नहीं बख़्शा गया–
जीवन है तो समस्याएँ हैं; उनके निराकरण हेतु कवि का आह्वान है–
हाथ बढाओ साथियो, मन से खौफ निकाल।
संग्रह के अनेक दोहे कालजयी कोटि के हैं, यथा –
कुत्ता बेशक भौंक ले, कितनी ऊँची टेर।
हिन्दी लघुकथा के ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में नजर घुमा कर देखें तो हिन्दी लघुकथा को डेढ़ शताब्दी पूर्ण होने को है। हिन्दी लघुकथा काल विभाजन के अनुसार हिन्दी लघुकथा काल (1875 से 1970) व आधुनिक हिन्दी लघुकथा, हिन्दी लघुकथा का ही एक परिष्कृत एवं संवर्द्धित रूप है, जो उसकी भाषा शैली, शिल्प एवं प्रस्तुतीकरण में साफ़ तौर से देखने को मिलता है। इस डेढ़ सदी के समय में सैंकड़ों लघुकथाकार आये और हजारों लघुकथाएँ लिखी गईं। सामान्य आँकड़ों को देखा जाये तो पिछली सदी के आधुनिक हिन्दी कथाकाल (1971-2000 तक) में रचित लघुकथाओं की संख्या से 21वीं सदी के प्रारम्भिक दो दशकों (2001-2021 तक) में लिखी लघुकथाएँ लगभग पाँच गुना अधिक हैं, जिसमें दूसरे दशक में लघुकथा लेखन अनुपातिक दृष्टि से कहीं अधिक हुआ है। इस पन्द्रह दशकीय लघुकथा लेखन से गुजरने तक एक तथ्य और सामने आया है कि इक्कीसवीं सदी में महिला लघुकथाकारों की संख्या में आश्चर्यजनक इजाफा हुआ है। निश्चित तौर पर इनमें से कुछ महिला लघुकथाकार अच्छा लेखन लेकर लघुकथा साहित्य में आई हैं। कुछ ऐसी महिला लघुकथाकार हैं जो बीसवीं सदी से लघुकथा लेखन से वर्तमान समय तक निरन्तरता बनाए हुए हैं, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य को नये आयाम दिये हैं। उन महिला लघुकथाकारों की प्रथम पंक्ति में खड़ी दिखाई देती हैं श्रीमती कृष्णलता यादव, जिन्होंने अपने पाँच मौलिक एकल लघुकथा संग्रह देकर आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य में श्रीवृद्धि की है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर लघुकथा लेखन की एक समर्पित रचनाकार हैं श्रीमती यादव। इन्होंने बाल साहित्य, काव्य, व्यंग्य व समीक्षात्मक लेखन में भी कलम चलाई है लेकिन मूल रूप से ये एक लघुकथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में पहचानी जाती हैं।
कृष्णलता जी की लघुकथाओं को मैं, इनके शुरुआती लेखन से ही पढ़ता रहा हूँ। इनका लेखन, अपने आप में मौलिक लेखन होने की छाप छोड़ता है। इनकी लघुकथाओं में नकारात्मक सोच नहीं होती, सीधी-सपाट, बिना कोई लाग-लपेट लिये सामान्य भाषा शैली की हुआ करती हैं, जिनके मर्म को पाठक आसानी से समझ सकता है।
कृष्णलता यादव का पाँचवाँ लघुकथा संग्रह ‘उजालों की तलाश’ मेरे सामने है, जो मुझे हर दृष्टि से अच्छा लगा। इस संग्रह के पठनोपरान्त, मुझे साहित्यिक नजरिये से जैसा लगा, वही मैं समीक्षात्मक दृष्टि से आपके समक्ष रख रहा हूँ।
संग्रह की कुछ लघुकथाएँ भावनाप्रधान कथ्य, सुदृढ़ शैली में, वास्तव में मन को छू लेने वाली हैं, जैसे सुबह का भूला, संकीर्णता, मीठी छुअन आदि। मैंने पाया कि लघुकथाकार सकारात्मक सोच की धनी हैं क्योंकि अधिकतर लघुकथाएँ घनात्मक पहलू लिये हुए हैं। किसी भी रचना में ऋणात्मक नजरिया दिखाई नहीं देता। ये लघुकथाएँ लेखकीय मूल्यों को बनाये रखने में सफल रही हैं। उदाहरण के तौर पर खुशियों का मूल्य, नजरिया, पकना उम्र का, सन्मार्ग की ओर, अस्तित्व का अहसास, डरा हुआ मन, पसीने का स्वाद, मुक्ति की तलाश, जेबकतरा, अंजुरी भर सुख आदि।
वर्तमान लघुकथा लेखन में अधिकतर रचनाओं में बुजुर्ग जीवन शैली में उपहास, परेशानी, अपनों द्वारा प्रताडना तथा उपेक्षाभाव दिखाया जाता है लेकिन श्रीमती यादव ने लीक से हटकर बुजुर्गों के प्रति
श्रद्धा व्यक्त करती लघुकथाओं की रचना की है, जो प्रशंसनीय एंव अनुकरणीय लेखन है। पावनता प्यार की, उलझनें, दादी का महात्म्य, भविष्य की चारपाई, सेतु, आत्मा का नाद, दुलार, मन की परतों का खुलना, पनियायी आँखें, संवेदनाएँ, पुरखों की गंध जैसी लघुकथाएँ बुजुर्गों के प्रति मान- सम्मान, अपनापन व श्रद्धा अभिव्यक्त करती हैं।
गरीबी अभिशाप नहीं अपितु एक आर्थिक परिस्थिति है, और जिस पुरुष ने उक्त युक्ति को समझ लिया वह मानव के रुप में मसीहा होता है। निदान, प्रवेश शुल्क, सुपोषण, बेड़ियाँ, समाज, मजबूरी, मापदंड, रतजगा, थिगली जैसी लघुकथाओं के माध्यम से ऐसा ही कुछ बताने की कोशिश लेखिका ने की है।
शाश्वत सत्य माना जाता है कि नारी का कोमल हृदय होना एक नारीत्व मूल्य है। इसी कथन को प्रमाणित करती मानवीय मूल्यों की पक्षधर लघुकथाएँ इस संग्रह में पढ़ने को मिलती हैं। संवेदन के पहलू, जीवन दर्शन, सुधियों के गीत, दुविधा के दोराहे पर, एक समझदार निर्णय, मनोबल, युद्ध का सत्य, हृदय निधि, साझा खाता, वात्सल्य पर्व, ममता का तकाजा, कोरोना काल आदि रचनाओं को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।
नारी होने के नाते कृष्णलता जी ने नारी जीवन को नजदीक से देखा-परखा-भोगा है। अपनी अनुभवी दृष्टि से, नारी जीवन शैली को, सुन्दर शब्दों में नारी विमर्श हित कुछ लघुकथाएँ पाठकों के समक्ष रखी हैं, जैसे कर्मफल, चाहत के पायदान, कायान्तरण, दुनिया के रंग, सयानी औरत, उतरना माँ का, गरीबनी, पत्नी-धर्म तथा कितने वहम।
बाल जीवन अपने आप में एक अनमोल जीवनावस्था है, जो बेबाक, निश्चल, निडर एवं समस्याओं से परे होता है, बात-बात में न जाने कब क्या कह जाये। बाल मनोविज्ञान पर आधारित कला की मूर्तता, भुक्खड़, खुशियों के रंग, आवरण, कुछ उथला कुछ गहरा, प्रतिभा संरक्षण, असली बसंत, मारकता आदि रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं। लेखिका ने ऐसी शख्शियतों की भी पोल खोलने की हिमाकत की है जो कहते कुछ औऱ करते कुछ हैं। चेहरे पर मुखौटा लगाये, समाज के प्रतिनिधि की भूमिका निभाते देखा जाता है उन्हें। करनी-कथनी के अंतर को इंगित करती इनकी रचनाएँ हैं - दिखावे का सत्य, आईना दिखाना, शब्द सुनामी, अनूठी बात, वाह से आह तक, मैं शिव नहीं आदि । सनातन सत्य है कि कला को एक कला पारखी ही समझ पाता है बाकियों के लिये तो वे बेस्वादली हरकतें हैं, इस तथ्य को प्रमाणिकता प्रदान करती लघुकथाएँ भी इनकी कलम से निकली हैं, मन तरंग, भावों की दुनिया, लोकार्पण, किरचें और मरहम, कहानी का संसार लघुकथाएँ इस श्रेणी में गिनी जा सकती हैं।
अपने ही वंश का एक सामाजिक समूह होता है परिवार। परिवार में दुख-सुख व खुशियों भरे पलों की घटनाएँ घटना आम जीवन की सौगातें हैं। ये क्षण ही पारिवारिक सदस्यों को अटूट बंधन में बाँधे रखते हैं। पारिवारिक मोह को दर्शाती लघुकथाएँ संग्रह में अलग ही चमकती दिखाई देती हैं, जो वास्तव में परिवार में सामंजस्य बिठाती, स्नेह-श्रद्धा व अपनेपन को प्रेरित करती लाजवाब रचनाएँ बन पड़ी हैं, बतौर उदाहरण मदद, अपनी मिट्टी अपना देश, यथार्थ बनाम कल्पना, एक दूजे के लिए, दृश्य बदल गया, यूँ बनी बात और शांति के लिए।
वैसे तो लेखिका ने लगभग सभी विषयों पर लेखनी चलाई है लेकिन कुछ विषयों पर बहुत कम लिखा है जैसे पंडे-पुजारियों के आचरण पर, आत्मविश्वास, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ। कुछ विषय लेखिका की नजरों से छूट गये जिन पर एक भी लघुकथा नहीं है, जैसे दलित विमर्श, किन्नर जीवन शैली, कन्या भ्रूण हत्या, पौराणिक संदर्भ, देश विभाजन त्रासदी तथा राजनीति।
पूरे संग्रह से गुजरने पर यह सामने आया कि कुछेक लघुकथाओं में पात्रों को नामों के द्वारा संबोधित किया गया है जैसे मारकता लघुकथा की शुरुआत ‘अपनी पोती नेहा के होठों से ....।’ की गई है। यहाँ सिर्फ पोती शब्द से काम चल सकता था। यूँ बनी बात में भी ‘धीरू, नीरू दोनों भाइयों ....’ से पंक्ति की शुरुआत की गई है जबकि दोनों भाइयों लिखे जाने पर भी लघुकथा का वही भाव रहता। कुछ और लघुकथाएँ भी हैं जो नामित संबोधन शैली में रची गईं हैं।
संग्रह में पुस्तकीय शीर्षक वाली कोई रचना नहीं, लेकिन सभी लघुकथाएँ उजालों की तलाश की ओर प्रेरित करती बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, जो पाठकों को ज्ञानप्रद- प्रेरणास्पद मार्ग की ओर अग्रसर करती हैं। इस रचना संसार में लेखिका का परिश्रम झलकता दिखाई देता है। अहसास होता है कि निश्चित तौर पर ही कृष्णलता जी हिन्दी लघुकथा साहित्य की एक सशक्त लघुकथाकार हैं। इनकी अपनी एक मौलिक शैली है, जो इन्हें भीड़ से अलग खड़ा करती है। ये सभी रचनाएँ अनुभवी जीवन एवं परिपक्व सोच से उपजी बेजोड़ लघुकथाएँ हैं।
कृष्णलता जी की लेखनी को नमन करते हुए मैं इनके सुखद, सफल एवं स्वस्थ लेखकीय जीवन की शुभकामनाएँ देता हूँ।
कविता के लिये छन्द का अनुशासन आवश्यक माना गया है। छन्द ही कविता को गद्य से अलग पहचान देता है, परन्तु विगत वर्षों में किसी प्रकार के छन्द का पालन न करते हुए गद्यनुमा वक्तव्य को भी कविता कहा जाने लगा परिणामस्वरूप तमाम तथाकथित कवियों की बाढ़ सी आ गई। निराला जी ने कविता को छन्द से मुक्त करने की बात नहीं कही बल्कि छन्द को पारम्परिक बंधन से मुक्त करने की बात कही अर्थात कविता में छन्द तो रहे परन्तु वह मुक्त छन्द हो जिसका कवि अपने अनुसार निर्वहन करे साथ ही कविता में लय और प्रवाह भी रहे ताकि कविता कविता जैसी लगे। परन्तु परवर्ती रचनाकारों ने निराला के मुक्तछन्द को छन्दमुक्त मान लिया और गद्य को भी कविता कहने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि सुधी पाठकों का कविता से मोह भंग होने की स्थिति सी आ गई है।
छन्दयुक्त कविता पाठक को आकर्षित करती है और अपना एक प्रभाव छोड़ती है। दोहा, चौपाई, सोरठा, वरबै, सवैया, कवित्त, कुण्डलिया आदि छन्दों में लिखी न जाने कितनी कविताएँ आज भी पाठको को कण्ठस्थ हैं। लोक जीवन में तो आज भी कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाइयाँ और गिरिधर की कुण्डलियाँ बात बात पर लोगों के लिये लोकशिक्षक की तरह उनके दैनिक जीवन में प्रचलित हैं।
कुण्डलिया लोक का अपना बहुत प्रिय छन्द रहा है, कवि गिरिधर ने लोक जीवन की तमाम बातें इस छन्द में कहकर इसे लोकप्रिय बनाया। किसानों के लिये तो गिरिधर की कुण्डलियाँ लोकवेद के समान हो गई थीं, चाहे वह बैलों की पहचान कराने की बात हो या खेत में बीज बोने, निराने, पानी देने, काटने की बात हो या फिर दैनिक जीवन में काम आने वाली छोटी-छोटी बातें हो कुण्डलियों के माध्यम से हर प्रश्न का उत्तर मिलता रहा है। यही कारण रहा कि कुण्डलिया बहुत लोकप्रिय हो गई।
दुर्भाग्य यह रहा कि कुण्डलिया जैसे लोकप्रिय छन्दों को कुचक्र रचकर तिलांजलि सी दे दी गई। यह सच है कि कविता अपने समय को साथ लेकर चलती है जिस कविता में समय को पहचानने की सामर्थ्य नहीं होती है वह कविता अतिशीघ्र कालकवलित हो जाती है। कुण्डलिया में यदि समसामयिक विषयों को कविता का विषय बनाया जा सके तो आज भी कुण्डलिया अपनी पुरानी लोकप्रियता को प्राप्त कर सकती है। यह एक चुनौती भरा कार्य है क्योंकि कुण्डलिया में प्रसादात्मकता होती है इसमें बहुत सहज और सरल ढँग से बात कही जाती है।
त्रिलोक सिंह ठकुरेला बहुत अच्छे नवगीत और हाइकु लिखते रहे हैं परन्तु इस मध्य उन्होंने कुण्डलिया छन्द को पूरी तरह साध लिया। ‘कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर’ पुस्तक का सम्पादन कर उन्होंने कुण्डलिया को पुनर्जीवित करने के दिशा में एक बड़ी पहल की है। मेरे संज्ञान में संभवतः कुण्डलिया कविताओं का यह पहला संकलन है जिसमें सात कवियों की २२-२२ कुण्डलियों को सम्पादित कर प्रकाशित किया गया है। संकलन के कवियों ने समसामयिक विषयों को कुण्डलियों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
महँगाई से सब त्रस्त हैं, आम आदमी के लिये सामान्य जीवन जीना मुश्किल होता जा रहा है। आम आदमी की इस ज्वलन्त पीड़ा को डा. कपिल कुमार की इस कुण्डलिया में महसूस किया जा सकता है-
महँगाई की मार से, बचा न कुछ भी आज
तेल, मसाले, सब्जियाँ, दालें और अनाज
दालें और अनाज, दूध, घी सभी सिसकते
दुगने-तिगुने भाव, फलों को केवल चखते
कहें ‘कपिल’ कविराय, अजब बीमारी आई
मिलता नहीं निदान, नाम जिसका महँगाई।
भ्रष्टाचार से प्रत्येक व्यक्ति त्रस्त है परन्तु इसका कोई निदान निकट भविष्य में सूझ नहीं रहा है, यह एक भयानक कोढ़ है जो समाज में फैलता चला जा रहा है। ‘गाफिल स्वामी’ की यह कुण्डलिया समाज में परिव्याप्त भ्रष्टाचार त्रस्त एक आम आदमी की पीड़ा और विवशता को अभिव्यंजित कर रही है-
ऊपर वाला सो रहा, अपनी चादर ओढ़
फैल रहा संसार में, भ्रष्टाचारी कोढ़
भ्रष्टाचारी कोढ, दुःखी है जनता सारी
चाहे जग मर जाय, मौज में भ्रष्टाचारी
कह गाफिल कविराय, भ्रष्ट का जीवन आला
दीन दुःखी लाचार, सो रहा ऊपर वाला।
-गाफिल स्वामी, (पृष्ठ-३६)
पर्यावरण संतुलित रहे इसके लिये वनों का संरक्षण आवश्यक है परन्तु मनुष्य बिना सोचे समझे जंगलों को अंधाधुंध काटता जा रहा है और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचा रहा है। डा. जगन्नाथ प्रसाद बघेल की इस कुण्डलिया में जंगलों के विनाश की इसी त्रासदी को देखा जा सकता है-
जंगल हैं कंक्रीट के, शहर हमारे आज
हुआ जंगली जीव सा, सारा सभ्य समाज
सारा सभ्य समाज, मात्र सम्पति का भूखा
कुल तक सीमित नेह, रहा संवेदन सूखा
कह ‘बघेल’ कविराय, सभी के स्वार्थ प्रबल हैं
चरागाह की तरह, शहर धन के जंगल हैं।
-डा. जगन्नाथ प्रसाद बघेल, (पृष्ठ-४६)
शहरों को गाँवों में पहुँचने का सपना स्वतंत्रता से पहले देखा गया था परन्तु आज हम देख रहे हैं कि शहर तो गाँवों में नहीं पहुँच सके बल्कि गाँव शहरों में पहुँचने लगे हैं साथ ही गाँव का गाँवपन भी कहीं गुम होने लगा है। गाँवों में पनपती लोक संस्कृति, लोकभाषा, लोकगीत, लोकगाथाएँ, लोक कहावतें, लोकमुहावरे आदि सभी के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। गाँव का सहज भोलापन, रीतिरिवाज, लोकाचार, पारिवारिक अनुशासन आदि सब खोजने पर भी नहीं मिलते हैं, यह सब परिवर्तन शहरों की चकाचौंध के कारण हुआ है। अपने लोकसंस्कारों और लोकसंस्कृति से निरन्तर दूर होते जाना हमारे लिये एक आत्मघाती कदम है। डा. रामसनेही लाल शर्मा यायावर की यह कुण्डलिया लोक के छीजने की इसी वेदना को व्यक्त कर रही है-
भूख शहर की बढ़ गयी, सब कुछ लेता खाय
खेत, गाँव पगडण्डियाँ, भैंस, बैल औ गाय
भैंस, बैल औ गाय, खिलखिलाहट पनघट की
दादा की फटकार, हँसी भोले नटखट की
नेम, क्षेम, उल्लास, प्रीति छीनी घर घर की
चितवन घूँघट छीन, खा गयी भूख शहर की।
-डा. रामसनेही लाल शर्मा यायावर, (पृष्ठ-५६)
आज के बच्चे ही कल का भविष्य होते हैं, जिस देश के बच्चों की ठीक से परवरिश नहीं होती एवं बच्चों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं होती, उस देश का भविष्य कभी अच्छा नहीं हो सकता। हमारे यहाँ बच्चों की शिक्षा पर यूँ तो ध्यान दिया जा रहा है, तमाम योजनाएँ बनाई गयीं हैं फिर भी जिस तरह की शिक्षा बच्चों के लिये होनी चाहिये वह देखने को नहीं मिल रही है। कचरे के ढेर में से बचपन तलाशते बच्चे किसी भी शहर और कस्वों में प्रायः दिख जाते हैं, हमारी व्यवस्था पर यह एक बड़ा प्रश्न चिह्न है। शिवकुमार दीपक की इस कुण्डलिया में यही पीड़ा उभर कर सामने आयी है-
बाल दिवस पर शहर में, सपने मिले उदास
कचरा वाले ढेर पर, जीवन रहे तलाश
जीवन रहे तलाश, नहीं शिक्षा मिल पाती
बढ़ा उदर भूगोल, पेट की आग भगाती
कह ‘दीपक’ कविराय, पढ़ाई नहीं मयस्सर
भोजन रहे तलाश, बाल कुछ बाल-दिवस पर
-शिव कुमार दीपक, (पृष्ठ-६८)
मानव जीवन के लिये वृक्षों का बहुत बड़ा योगदान है, यदि पृथ्वी पर वृक्ष न होते तो मानव जीवन संभव ही नहीं हो पाता, इसलिये वृक्षों को ईष्वरीय वरदान भी माना गया है। सुभाष मित्तल सत्यम ने वृक्षों के द्वारा की जाने वाली प्राणियों की सेवा को प्रस्तुत कुण्डलिया में व्यक्त किया है-
परम पिता की कृपा का, वृक्ष रूप साकार
सभी प्राणियों के लिये, जीवन का आधार
जीवन का आधार, नमी कर घन बरसाते
वर्षा-जल गति रोक, भूमि जल सतह बढ़ाते
भूमि अपरदन रोक, वृद्धि मृद-उर्वरता की
‘सत्यम’ सचमुच वृक्ष, कृपा है परम पिता की।
-सुभाष मित्तल सत्यम, (पृष्ठ-७७ )
त्रिलोक सिंह ठकुरेला अपनी कविताओं में सकारात्मक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं, उनके नवगीत हों या हाइकु, सभी में वे अपने कथ्य को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करते हैं। कविता का उद्देष्य भी यही है कि पाठक को प्रगति की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दे। सफलता और असफलता तो एक दूसरे की पूरक हैं, असफलता ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है, इसलिये असफलता से कभी निराश नहीं होना चाहिए, मंजिल उन्हें ही मिल पाती है जो जीत हार की चिन्ता न करते हुए, बाधाओं का बहादुरी से सामना करते हैं और निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने अपनी इस कुण्डलिया में कर्म पथ पर चलते रहने की यही प्रेरणा दी है-
असफलता को देखकर, रोक न देना काम
मंजिल उनको ही मिली, जो चलते अविराम
जो चलते अविराम, न बाधाओं से डरते
असफलता को देख, जोश दूना मन भरते
‘ठकुरेला’ कविराय, समय टेड़ा भी टलता
मत बैठो मन मार, अगर आये असफलता।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला, (पृष्ठ-९६)
कुण्डलिया के इस अप्रतिम संकलन में सात कवियों की 154 कुण्डलियाँ हैं जो कि विविध विषयों को प्रस्तुत करती हैं। छन्द की दृष्टि से सभी कुण्डलियाँ ठीक हैं। सभी कवि अपने अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। इस संकलन के सम्पादक त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने कुण्डलिया संकलन का सम्पादन करके एक ऐतिहासिक कार्य किया है। उनका यह कार्य छान्दस कविताओं को पुनः उनका स्थान दिलाने की दिशा में संघर्ष कर रहे रचनाकारों के महायज्ञ में एक बड़ी आहुति के समान है। इस संकलन से प्रेरणा लेकर कुछ अन्य कुण्डलिया संकलन तथा कुण्डलिया संग्रह प्रकाश में आयेंगे एवं जो कवि कुण्डलिया तथा अन्य समसामयिक छान्दस कविताओं को लिखकर अपनी डायरी तक ही सीमित रख रहे हैं वे भी अपनी उन कविताओं को प्रकाशित कराने का साहस कर सकेंगे। कुण्डलिया छन्द में यदि वर्तमान सन्दर्भों को प्रस्तुत किया जा सके तो निष्चय ही कुण्डलिया को अपनी खोई हुई लोकप्रियता प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता।
पुस्तक का मुद्रण, आवरण, रचना चयन सब कुछ उत्तम है। राजस्थानी ग्रंथागार से प्रकाशित ९६ पृष्ठ की पक्की जिल्द वाली इस पुस्तक की कीमत १५० रुपए है जो उचित ही है। इस पुस्तक का छन्द प्रेमी पाठक स्वागत करेंगे।
कुण्डलिया संकलन - कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर
सम्पादक - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
प्रकाशक - राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
पृष्ठ - 96
मूल्य -150 रुपये
समीक्षक - डा. जगदीश व्योम