लिखो किसी भी शिल्प में, मोटा लिखो महीन ।
कलम चले पर इस तरह, पीड़ित करे यकीन॥
कलम चले पर इस तरह, पीड़ित करे यकीन॥
रिश्तों के पर्वत किए, हरियाली से हीन ।
चाह रहा शीतल हवा, कैसा मूरख दीन॥
बंधन तो था जनम का, हुआ बीच में भंग ।
कैसे चलता दूर तक, धुंध-धूप का संग ॥
पश्चिम की आँधी चली, भूले पनघट गीत ।
गमलों में तरु सज रहे, बट-पीपल भयभीत ॥
गहरे पानी रत्न सब, लूट रहे दे घाव ।
केवट भी शामिल हुआ, क्यों न डूबती नाव ॥
पाला रिश्तों पर पड़ा, अपने होते गैर ।
फटी बिवाई हर तरफ, सब देखें निज पैर ॥
बहता या ठहरा हुआ, दलदल अथवा सूम ।
उतरो दरिया में तभी, पहले हो मालूम ॥
मोह भरा आकाश है, काम चलाता तीर ।
उफन रही मद की नदी, कैसे ठहरे पीर ॥
बदली बस्ती, घर, डगर, बदल गया व्यापार ।
सपनों तक में घुस गया, अब तो यह बाजार ॥
सपनों तक में घुस गया, अब तो यह बाजार ॥
पट्टी बाँधे आँख पर, चले जा रहे लोग ।
अंध-भक्ति का बढ़ रहा, खतरनाक अब रोग॥
भूख, गरीबी, यातना, थी पहले भी गाँव ।
पर चमकीले लोग थे, ना जहरीली छाँव ॥
अँधियारे, दुर्गन्ध को, ढोता हिंदुस्तान ।
खुशी, प्यार, सुख तड़पते, फिर भी देश महान ॥
आए दिन अब हादसे, मना रहे त्यौहार ।
प्यार हुआ है बेअसर, असरदार तलवार ॥
बड़ा गहन है यह विषय, सोचो करो विचार ।
कुछ रोटी से खेलते, कुछ भूखे लाचार ॥
क्या होगा उस ज्ञान से, जो देता अभिमान ।
कीट समझता दीन को, दे न श्रेष्ठ को मान ॥
शिक्षा वह बेकार है, देती केवल अर्थ ।
भटकाती मन को सदा, जीवन जाता व्यर्थ ॥
-सी एम उपाध्याय. कोटा
मेरे दोहों को " विविधा " में स्थान देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद भाई Raghuvinder Yadav जी ....
ReplyDeleteस्वागत है आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर दोहे
ReplyDeleteदोहे पसंद करने और सुन्दर टिप्पणी करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद Vijaya Bhargav जी ......
Deleteधन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना है
धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना है