विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Showing posts with label छंद. Show all posts
Showing posts with label छंद. Show all posts

Monday, October 28, 2019

सुशील सरना के दोहे

सुशील सरना के दोहे

माला फेरें राम की, करते गंदे काम।
ऐसे ढोंगी धर्म को, कर देते बदनाम।।
2
तुम तो साजन रात के, तुम क्या जानो पीर।
भोर हुई तुम चल दिए, नैन बहाएँ नीर।।
3
मर्यादा तो हो गई, शब्दकोष का भाग।
पावन रिश्तों पर लगे, बेशर्मी के दाग।।
4
अद्भुत पहले प्यार का, होता है आनंद।
रोम-रोम में रागिनी, श्वास-श्वास मकरंद।।
5
कहाँ गई पगडंडियाँ, कहाँ गए वो गाँव।
सूखे पीपल से नहीं, मिलती ठंडी छाँव।।
6
आभासी इस श्वास का, बड़ा अजब संसार।
मुट्ठीभर अवशेष हैं, झूठे तन का सार।।
7
हाथ जोड़ विनती करें, हलधर बारम्बार।
धरती की जलधर सुनो, अब तो करुण पुकार।।
8
जिसके मन की बन गई, जहाँ कहीं सरकार।
खुन्नस में वे कर रहे, भारी अत्याचार।।
9
काल न देगा श्वास को, क्षण भर की भी छूट।
खबर न होगी, प्राण ये, ले जाएगा लूट।।
10
अपनों से होता नहीं, अपनेपन का बोध।
अपने ही लेने लगे, अपनों से प्रतिशोध।।

गाफिल स्वामी के दोहे

गाफिल स्वामी के दोहे

अधिकारों की चाह में, लोग रहे सब भाग।
मगर कभी कर्तव्य की, जली न दिल में आग।।
2
झूठ द्वेष छल पाप का, पथ दुखदाई मित्र।
मिले सत्य की राह में, सुख की छाँव पवित्र।।
3
तन पर तो सत्संग का, चढ़ा हुआ है रंग।
मगर नहीं मन रह सका, कभी सत्य के संग।।
4
काया बूढ़ी हो गई, रुग्ण हुआ हर अंग।
फिर भी जीने की ललक, मन माया के संग।।
5
पैसा है तो जि़न्दगी, लगती बड़ी हसीन।
बिन पैसे संसार का, हर रिश्ता रसहीन।।
6
बिन धन के जीवन-जगत,  लगता है बेकार।
पैसे से जाता बदल, रहन-सहन व्यवहार।।
7
बिन मतलब जपता नहीं, कोई प्रभु का नाम।
दीन-दुखी धनवान सब, माँगे उससे दाम।।
8
कभी मिले यदि वक्त तो, देखो मेरा गाँव।
जहाँ पे्रम सद्भाव की, घर-घर शीतल छाँव।।
9
जाना इक दिन छोडक़र, धन-दौलत संसार।
फिर भी मूरख कर रहे, लूट ठगी व्यभिचार।।
10
काशी मथुरा द्वारिका, तीरथ किये हजार।
मगर न फिर भी खुल सका, मन मंदिर का द्वार।।
11
सुख-सुविधा से आज भी, गाँव बहुत हैं दूर।
मगर प्रकृति प्रभु प्रेम की, अनुकम्पा भरपूर।।

तारकेश्वरी सुधि के दोहे

तारकेश्वरी सुधि के दोहे

चाहा तो बेहद मगर, हुए न मन के काम।
रोजी-रोटी में हुई, अपनी उम्र तमाम।
2
ले लेंगे रिश्ते सभी, मन माफिक आकार।
लेकिन पहले कीजिए, जिव्हा पर अधिकार।।
3
लगी फैलने व्याधियाँ, जीना हुआ मुहाल।
सुविधाएँ बनने लगीं, अब जी का जंजाल।।
4
नारी कल भी देह थी और आज भी देह।
होगा शायद आपको, मुझे नहीं संदेह।।
5
द्वार खड़ी बेचैनियाँ, अनसुलझी है बात।
मन के आँगन में मचा, भावों का उत्पात।।
6
ये रिश्ते ये उलझनें, रोज नये दायित्व।
संबंधों के जाल में, उलझ गया व्यक्तित्व।।
7
रक्षा बंधन प्रेम का, सुधि विश्वस्त सबूत।
डोरी कच्चे सूत की, लेकिन नेह अकूत।।
8
आँधी ऐसी वक्त की, चली एक दिन हाय।
सपने शाखों से गिरे, भाव हुए असहाय।।
9
भावों को पहचान कर, सजी वक्त अनुरूप।
होठों की मुस्कान भी, रखती है बहुरूप।।
10
चाहे घर में कैद हों, या दफ्तर बाज़ार।
पीछी करती वासना, नारी का हर बार।।
11
पेड़ काटता माफिया, दुख फैले चहुँ ओर।
कीड़े सर्प गिलहरियाँ, बेघर चिडिय़ा मोर।।

श्रीभगवान बव्वा के दोहे

श्रीभगवान बव्वा के दोहे

हमको भी अब लग गया, सच कहने का रोग।
यार सभी नाराज हैं, कटे-कटे से लोग।।
2
इक दूजे की हम सदा, समझा करते पीर।
आँगन-आँगन खींच दी, किसने आज लकीर।।
3
सद-पथ का तुम मान लो, इतना-सा है सार।
मीठे फल ही चाह में, काँटे मिलें हजार।।
4
घर के बाहर तो लिखा, सबका है सत्कार।
नहीं दिलों में पर मिला, ढूँढ़े से भी प्यार।।
5
चौपालें सूनी पड़ी, सब में भरी मरोड़।
अब तो मेरा गाँव भी, करे शहर से होड़।।
6
बेटे को अच्छा लगे, जाना अब ससुराल।
दूरभाष पर पूछतो, अपनी माँ का हाल।।
7
सदा रोकना चाहते, पत्थर मेरी राह।
मेरे जिद्दी पैर हैं, भरते कभी न आह।।
8
तन उजला तो क्या हुआ, दिल है बड़ा मलीन।
करते ओछे काम हैं, कैसे कहूँ कुलीन।।
9
बोझ सभी का ढो रही, फिर भी है चुपचाप।
धरती माँ की देखिए, सहनशीलता आप।।
10
बच्चे मरते भूख से, तरस न खाता एक।
करते हैं पर दूध से, पत्थर का अभिषेक।।
11
कठिन डगर संसार की, हो जाये आसान।
रिश्तों का यदि सीख लें, करना हम सम्मान।।
12
आडम्बर फैला बहुत, बढ़े दिनोंदिन पीर।
अपने युग को चाहिएँ, अब तो कई कबीर।।
13
महज फलसफा एक है और एक ही पाठ।
जिस आँगन में माँ बसे, रहे वहाँ सब ठाठ।।

रामहर्ष यादव 'हर्ष' के दोहे

रामहर्ष यादव 'हर्ष' के दोहे 

जिन पर चलने चाहिएँ, कानूनों के तीर।
शासन उन्हें परोसता, सचिवालय में खीर।।
2
किसे पड़़ी कहता फिरे, पीडि़त जन की पीर।
दरबारों में चाकरी, करने लगे कबीर।।
3
बाबाजी प्रवचन करें, क्या जायेगा साथ।
चेले इधर वसूलते, चंदा दोनों हाथ।।
4
जिनको हितकारी लगें, लालच द्वेष दुराव।
उनकी आँखों किरकरी, सत्य प्रेम सद्भाव।।
5
पत्थर का होता रहा, पंचामृत अभिषेक।
इधर दुधमुँहे भूख से, रोते रहे अनेक।।
6
सहमी-सहमी द्रौपदी, कोस रही तकदीर।
दुष्ट दुशासन आज भी, खींच रहा है चीर।।
7
गोपी-गोकुल-ग्वाल सब, तकें चकित चहुँओर।
स्मृतियाँ नंद किशोर की, करतीं भाव विभोर।।
8
शोषित का शोषण रुके, हो समान व्यवहार।
संविधान की भावना, तब होगी साकार।।
9
लोगों की मतदान पर, मंशा ऊल-जलूल।
बोकर खेत बबूल का, चाह रहे फल-फूल।।
10
दागदार चेहरे हुए, लोगों के सिरमौर।
ऐसे में ईमान पर, कौन करेगा गौर।।
11
मजहब से लिपटे हुए, मानवता को छोड़।
लिखी ग्रंथ में बात का, है क्या यही निचोड़?
12
सहयोगी दल रुष्ट हो, कर बैठे हड़ताल।
चाह रहे वे लूट से, मिले बराबर माल।।
13
कमा-कमा कर थक गए, भरी न मन की जेब।
जीवन भर करते रहे, सारे झूठ फरेब।।
14
सावन सखी-सहेलियाँ, पावस कजरी गीत।
तेरे बिन बैरी लगें, ओ! मेरे मनमीत।।
15
ये कैसी उपलब्धियाँ, कैसा हुआ विकास।
दौलत की चाहत बढ़ी, रिश्तों का उपहास।।

चित्रा श्रीवास के दोहे

चित्रा श्रीवास के दोहे

मंदिर मस्जिद छोडक़र, करो ज्ञान की बात।
होती कोई है नहीं, मानवता की जात।।
2
चावल सब्जी दाल पर, महँगाई की मार।
कीमत सुरसा-सी बढ़ी, चुप बैठी सरकार।।
3
भेदभाव छल झूठ का, रचते माया जाल।
सत्ता सुख को भोगकर होते मालामाल।।
4
बाँट रहे हैं देश को, जाति-धर्म के नाम।
अपनी रोटी सेकना, नेताओं का काम।।
5
पीपल बरगद भी कटे, उजड़ गये हैं नीड़।
गौरैया बेचैन है, किसे सुनाये पीड़।।
6
फितरत सबकी एक-सी, किसको देवें वोट।
जन की आशा रौंदते, करते अक्सर चोट।।
7
जात-पात के भेद में, उलझ गया इंसान।
खून सभी का लाल है, कब समझे नादान।।
8
गुणवत्ता की आड़ में, निजीकरण का खेल।
सत्ता-साहूकार का, बड़ा अजब है मेल।।
9
उजले कपड़ों में मिलें, मन के काले लोग।
जनसेवा के नाम पर, करते सुख का भोग।।
10
अमरबेल से फैलते, कुछ परजीवी रोज
औरों का हक छीनकर, करते शाही भोज।।
11
रिश्ते-नातों से बड़ा, अब पैसा श्रीमान।
पैसे खातिर बेच दें, लोग यहाँ ईमान।।
12
बही बाढ़ में झोपड़ी, महल देखता मौन।
बेबस-बेघर की यहाँ, व्यथा सुनेगा कौन।।
13
बेटी तुलसी मंजरी, है पूजा का फूल।
हरी दूब की ओस है, सब खुशियों की मूल।।
14
दाँव-पेच से हिल गई, रिश्तों की बुनियाद।
जड़ें हुई हैं खोखली, तृष्णा से बर्बाद।।
15
बेटी मारें कोख में, देवी पूजें रोज।
मंदिर-मस्जिद घूमकर, करें देव की खोज।।
16
मनुज बड़ा है दोगला, अंदर-बाहर और।
करे दिखावा दान का, छीने मुँह का कौर।।
17
पाकर सत्ता सुन्दरी, फ़र्ज़ गये हैं भूल।
दोनों हाथों लूटते, छोड़े सभी उसूल।।

हरिओम श्रीवास्तव के दोहे

हरिओम श्रीवास्तव के दोहे

छलनी बोली सूप से, गुप्त रखूँगी भेद।
नहीं कहूँगी मैं कभी, तुझमें कितने छेद।।
2
पति-पत्नि संतान में, सिमट गया परिवार।
मात-पिता ऐसे हुए, ज्यों रद्दी अ$खबार।।
3
टप-टप टपकी रातभर, रमुआ की खपरैल।
बाढ़ बहाकर ले गई, बछड़ा बकरी बैल।।
4
जिसको जो मिलता नहीं, लगे उसे वह खास।
लगे निरर्थक वह सभी, जो है जिसके पास।।
5
सावन से बरसात का, टूट गया अनुबंध।
मेघों को भाती नहीं, अब सौंधी-सी गंध।।
6
जिसको मिल जाए जहाँ, जब भी अपना मोल।
आदर्शों की पोटली, देता है वह खोल।।
7
अपनी भूलों पर सभी, बनते कुशल वकील।
गलती हो जब और की, देते तनिक न ढील।।
8
लक्ष्य प्राप्ति उसको हुई, जिसने किया प्रयास।
प्यासे को जाना पड़े, स्वयं कुए के पास।।
9
जो भी आया है यहाँ, जाएगा हर हाल।
निकट निरंतर आ रहा, काल साल दर साल।।
10
रखना हो जब व्यक्ति को, अपना कोई पक्ष।
मंदबुद्धि भी उस समय, लगता है अति दक्ष।।
11
फैशन की इस देश में, ऐसी चली बयार।
महिलाओं को लग रहा, वस्त्रों का ही भार।।
12
करता है वनराज भी, उठकर स्वयं शिकार।
मृग खुद सोते सिंह का, बने नहीं आहार।।



आशा देशमुख के दोहे

आशा देशमुख के दोहे

इस दुनिया में हो रहा, लक्ष्मी का सम्मान।
विद्या है परिचारिका, चुप बैठे गुणवान।।
2
आडंबर को देखकर, मन हो जाता खिन्न।
लोग हुए हैं दोगले, कथनी करनी भिन्न।।
3
माटी छूटी गाँव की, छूट गया खलिहान।
ऐसी नगरी आ बसे, मुख देखे पहचान।।
4
आदिम युग की वापसी, पाया फैशन नाम।
खान-पान पशुवत हुआ, असुर सरीखे काम।।
5
राह तकें नदियाँ सभी, रख निर्जल उपवास।
कब बरसोगे मेघ तुम, बुझे सभी की प्यास।।
6
महलों की सब क्यारियाँ, हरी-भरी आबाद।
प्यासे हलधर कर रहे, सावन से फरियाद।।
7
दूध दही नवनीत से, पाषाणों का स्नान।
एक बूँद जल के लिए, तरस रहे इंसान।।
8
मौन हुई है साधना, मंत्र हुए वाचाल।
किया स्वेद से आचमन, पूजा हुई निहाल।।
9
कुछ कुत्तों के भोज में, शाही मटन पुलाव।
मरते मानव भूख से, झेलें नित्य अभाव।।
10
असुर सरीखा आचरण, पशुवत है व्यवहार।
मानव से अब साँप भी, माँगे ज़हर उधार।।
11
माया के परिवेश में, घटा ज्ञान का मान।
खड़ी हासिये पर कला, फैशन का अनुदान।।
12
रूढि़-रीति, विज्ञान में, छिड़ा हुआ है द्वंद।
अंध आस्था ने किये, प्रगति द्वार सब बंद।।

Sunday, September 22, 2019

सीमा पाण्डेय मिश्रा के दोहे

सीमा पाण्डेय मिश्रा के दोहे

सरस, सलीकेदार थे, जिन मंचों के कथ्य।
रूखे औ फूहड़ मिले, उनके ही नेपथ्य।।
2
सहमे जैसे नायिका, ऐसे डरे पगार।
महँगाई खलनायिका, खलनायक त्योहार।।
3
सागर के घर जा नदी, लगती है अनिकेत।
भीतर खारा जलमहल, बाहर सूखी रेत।।
4
धरती ऐसे सह रही, बारिश की बौछार।
जैसे बच्चा कर रहा, माँ पर नन्हे वार।।
5
भीख माँगते हाथ ही, हम क्या जानें पीर।
काँधे पर झोला नहीं, लटका हुआ ज़मीर।।
6
रही गरीबी छेंकती, जिनके ड्योढ़ी द्वार।
मुश्किल से आये कभी, उनके घर त्योहार।।
7
दूरी से ही जागते, मोह पाश के राग।
नजदीकी से चाँद में, दिखते काले दाग।।
8
गिरिवर की गोदी पली, नन्हीं पतली धार।
उद्गम का विश्वास है, नदिया का आधार।।
9
गहन प्रेम के भाव भी, नहीं चाँद का ज्ञात।
झाँक रहा है झील में, पर सूखा है गात।।
10
प्रेम सदा रहता नहीं, सदा रहे कब बैर।
लहर डुबो जाती वही, जो छूती है पैर।।
11
फूल सियासी हो गए, भँवरे हैं हैरान।
रंग चुनें अब कौन-सा, कहाँ करे मधुगान।।
12
लगातार संपर्क से, खोती मधुर सुगंध।
है दूरी और प्रेम में, सीधा सा संबंध।।
13
जिन शाखों ने ली तपिश, कर शीतलता दान।
उन शाखों को काटते, हत्यारे इंसान।।
14
याद पड़ा कुछ देर से, मेरे भी अरमान।
लेकिन तब तक हो गया, जीवन ही कुर्बान।।
15
रोटी के आकार से, कम वेतन का माप।
गरम तवे पर नीर के, छींटे बनते भाप।।
16
मैंने तो सींचा फ$कत, इक मुरझाया नीम।
दबे बीज भी हँस पड़े, क़ुदरत हुई करीम।।
17
चख पाते हम प्रेम का, अमरित स्वाद असीम।
उससे पहले चाट ली, घातक धर्म अफीम।।

Thursday, September 19, 2019

संजीव गौतम के दोहे

संजीव गौतम के दोहे

भीड़ धुआँ चुप्पी घुटन, गूँगे बहरे लोग।
कस्बों को भी हो गए, महानगर के रोग।।
2
नए दौर ने गढ़ लिए, अपने नये वसूल।
झूठों को सम्मान दे, सच की आँखों धूल।।
3
सावन सूखा माघ लू, जेठ मास बरसात।
क्या से क्या हैं हो गये, मौसम के हालात।।
4
सोने चाँदी-सी कभी, ताँबे जैसी धूप।
दिन भर घूमे गाँव में, बदल-बदल कर रूप।।
5
कल आँगन में रातभर, रोया बूढ़ा नीम।
दो हिस्सो में देखकर, घर आँगन तकसीम।।
6
एक हुए सब उस जगह, राजा रंक $फकीर।
जहाँ मृत्यु ने खींच दी, अपनी अमिट लकीर।।
7
सबको कमियाँ हैं पता, फिर भी हैं सब मौन।
केवल इतनी बात है, पहले बोले कौन।।
8
सब के सब बेकार हैं, ज्ञानी सिद्ध $फकीर।
खींच अगर पाये नहीं, कोई नयी लकीर।।
9
थोड़ा सा ईमान है, थोड़ी सी पहचान।
मुझमें जि़न्दा है अभी, थोड़ा सा इंसान।।
10
खूब खूब फूले फले, मज़हब के सरदार।
भोली जनता ही मरी, दंगों में हर बार।।
11
कल आँगन में रातभर, रोया बूढ़ा नीम।
दो हिस्सों में देखकर, घर-आँगन तकसीम।।
12
कुछ भी तो जानें नहीं, हम कविता के भेद।
उल्टे कर पढ़ते रहे, अपने-अपने वेद।।
13
बापू तेरे देश में, यह कैसा संयोग।
अंधों से बातें करें, गूँगे बहरे लोग।।
14
फूलों से तो प्यार कर, जड़ में म_ा डाल।
महानगर से सीख ले, कुछ तो मेरे लाल।।
15
थोड़ा-सा ईमान है, थोड़ी-सी पहचान।
मुझमें जि़न्दा है अभी, एक अदद इन्सान।।
16
बुरा वक्त क्या आ गया, बदले सबने रंग।
पत्ते भी जाने लगे, छोड़ पेड़ का संग।।

Wednesday, September 18, 2019

श्लेष चन्द्राकर के दोहे

श्लेष चन्द्राकर के दोहे

निशिदिन अब होने लगी, धरा रक्त से लाल।
नहीं समझती भीड़ क्यों, राजनीति की चाल।।
2
मिलती उसको नौकरी, जिसे किताबी ज्ञान।
अनुभव जिसके पास है, भटके वह इन्सान।।
3
कहो समय पर फैसला, देगा कैसे कोर्ट।
आती बरसों बाद जब, कोई जाँच रिपोर्ट।।
4
मन को अपने मार कर, देनी पड़ती घूस।
अर्जी को स्वीकार तब, करते हैं मनहूस।।
5
बात-बात पर आजकल, उगल रहे विष लोग।
इंसानों को भी लगा, सर्पांे वाला रोग।।
6
भ्रष्टाचारी भेडि़ए, मिलकर करें शिकार।
जनता इनके सामने, हो जाती लाचार।।
7
दिखलाना इन्सानियत, मनुज गया है भूल।
सत्य अहिंसा प्यार अब, हैं गूलर के फूल।।
8
पहले अस्मत लूटते, फिर कर देते खून।
अपराधी बे$खौफ हैं, सोया है कानून।।
9
औरों की आलोचना, करना है आसान।
मूल्यांकन खुद का करें, वे ही बनें महान।।
10
रात-रात भर जागता, सोता कम इन्सान।
सेहत से देता अधिक, मोबाइल पर ध्यान।।
11
नेताओं पर भूलकर, करना मत विश्वास।
घी पीते हैं वे स्वयं, हमें न डालें घास।।
12
न्यूज चैनलों पर चले, दिनभर नित बकवास।
नाटक वाद-विवाद का, तनिक न आये रास।।
13
गायब होती जा रही, मुखड़े से मुस्कान।
रहता है इस दौर में, व्यथित बहुत इन्सान।।
14
भूूल रहे निज सभ्यता, जिस पर था अति गर्व।
मना रहे पाश्चात्य के, नये-नये हम पर्व।।
15
रोजी-रोटी के लिए, हुआ बहुत मजबूर।
आज पलायन कर रहा, श्रम साधक मजदूर।।
16
बिका हुआ है मीडिया, आकाओं के हाथ।
देता रहता है तभी, कुछ लोगों का साथ।।
17
उल्टे-पुल्टे काम से, बन जाती पहचान।
खबरों में रहना हुआ, अब बेहद आसान।।
18
शोर शराबे को कहे, नव-पीढ़ी संगीत।
सुन्दर गीतों का सखे, आता याद अतीत।।




Sunday, September 15, 2019

शिव कुमार दीपक के दोहे

शिव कुमार दीपक के दोहे

मेघा भी करने लगे, द्वेष पूर्ण व्यवहार।
हम जल से लाचार हैं, वे जल से लाचार।।
2
कैसे सुधरेगी यहाँ, हलधर की तकदीर।
गेहूँ से महँगा बिके, व्यापारी का नीर।।
3
कविता में जिनकी नहीं, आम जनों की पीर।
काम भाट का कर रहे, खुद को कहें कबीर।।
4
शोषण दहशत सिसकियाँ, पनपा घोर विषाद।
चोर सिपाही मिल गए, कौन सुने फरियाद।।
5
संकट का पर्वत उठा, पाली थी औलाद।
बूढ़ों की सुनता नहीं, अब कोई रूदाद।।
6
मापा सागर आपने और धरा का भार।
नाप सके कब भूख का, कितना है आकार।।
7
लूट अपहरण धमकियाँ, शोषण अत्याचार।
यक्ष प्रश्र हैं सामने, चुप है चौकीदार।।
8
मोबाइल ने कर दिए, सरल बहुत-से काम।
घर के अंदर लड़कियाँ, फिर भी नींद हराम।।
9
पंखों में कूवत कहाँ, जो भर सकें उड़ान।
पक्षी रखकर हौसला, नापे नभ का मान।।
10
गर्दन में लटका रहे, राम और हनुमान।
चाल-चलन से दिख रहे, रावण की संतान।।
11
जड़ें स्वर्ण के फ्रेम में, या कर दें दो टूक।
दर्पण सच ही बोलता, कभी न रहता मूक।।
12
जिस घर के मुखिया हुए, अवगुण के शौकीन।
उस घर में आदर्श की, बंजर रहे ज़मीन।।
13
क्यों दबंग तू बन रहा, ले टीले की आड़।
माँझी बन हम तोड़ते, मद में खड़े पहाड़।।
14
कहते भ्रष्टाचार पर, किया करारा वार।
दूनी रिश्वत माँगते, बाबू, थानेदार।।
15
निर्धनता करती मिली, हाथ जोड़ मनुहार।
पैसा आया, मद बढ़ा, गया हृदय से प्यार।।
16
दुनिया में मजदूर का, कैसा हाय नसीब।
अपने काँधे उम्रभर, ढोता रहे सलीब।।
17
अल्लाह हु अकबर कहें, या फिर जय श्रीराम।
उन्मादी इस भीड़ में, नफरत भरी तमाम।।
18
आशा रही न भोर की, चेहरे हुए निराश।
जब से तम के जुर्म में, शामिल हुआ प्रकाश।।
19
कवि का होना चाहिए, दर्पण-सा व्यवहार।
सच्चाई जिंदा रखे, करे झूठ पर वार।।
20
हरी मखमली चादरें, दिनभर चढ़ीं मजार।
ठिठुर-ठिठुर बुढिय़ा मरी, उसी पीर के द्वार।।
21
माखन मटकी से कहे, ध्यान न मेरी ओर।
अब मोबाइल माँगता, नन्हा नन्द-किशोर।।
22
आजादी के मायने, क्या जाने सय्याद।
पिंजरे में जो बंद है, करे सही अनुवाद।।







जे.सी. पाण्डेय के दोहे

पाण्डेय जे.सी. के दोहे

कहने को तो सब कहें, माँ से है घर-बार।
छोड़ गया वो कौन था, वृद्धाश्रम के द्वार।।
2
जीना तो संयोग है, साँसें मिली उधार।
मौत खड़ी महबूब-सी, लिए हाथ में हार।।
3
कहाँ चले तुम बाँधकर, पाँवों में ज़ंज़ीर।
तन-मन दोनों पर लगे, घाव बड़े गम्भीर।।
4
हुआ बैल-सा आदमी, बदल गयी है चाल।
किश्तों की रस्सी गले, डाल हुआ बेहाल।।
5
रिश्ते अपने बीच में, कैसे बनें प्रगाढ़।
तू सूखा है जेठ-सा, मैं सावन की बाढ़।।
6
चलता है हर रोज ही, लूटपाट का खेल।
कोई लूटे आबरू, कोई लूटे मेल।।
7
कठिन चुनौती है मगर, उठा हाथ हथियार।
बाहर दुश्मन हैं खड़े, भीतर कुछ गद्दार।।
8
इतराना किस बात का, पूजा के हम फूल।
पल भर को माथे चढ़ें, मिल जायें फिर धूल।।
9
मनसा वाचा कर्मणा, भाँवर लीं थी सात।
जीने दो सुख चैन से, मत देखो अब जात।।
10
दीन-हीन पर आपको, आ जाता है क्रोध।
महाबली को देखकर, हाथ जोड़ अनुरोध।।
11
कैसा ये संयोग है, कैसा मन का भाव।
सहलाया तुमने वहीं, जहाँ बना था घाव।।
12
मरघट में जलती चिता, देती मौन सलाह।
जलकर कुछ मिलता नहीं, मत कर मानव डाह।।
13
कैसे छू लूँ ये बता, हवा नहीं अनुकूल।
माथे का तू है तिलक, मैं चरणों की धूल।।
14
पीपल जैसा प्रेम है, उगे फाड़ चट्टान।
किसके उर में कब उगे, कौन सका है जान।।
15
आँखें उसको ढूँढ़ती, हो जिसकी दरकार।
कौन भला ढूँढ़े मुझे, मैं कल का अ$खबार।।
16
शील नहीं यदि रूप में, कौन कहे नायाब।
शोभा पाता है कहाँ, बिन पानी तालाब।।
17
कितना भी ऊँचा उठें, रहें सदा शालीन।
आसमान हो हाथ में, पाँवों तले ज़मीन।।
18
संघर्षों का दौर है, होना नहीं हताश।
थाम हथौड़ा ज्ञान का, खुद को तनिक तराश।।
19
साहस की दिल में कमी, मंजि़ल हो कुछ दूर।
तब कहती है लोमड़ी, खट्टे हैं अंगूर।।
20
हुआ बैल-सा आदमी, बदल गई है चाल।
किश्तों की रस्सी गले, डाल हुआ बेहाल।।


मिथलेश वामनकर के दोहे

मिथलेश वामनकर के दोहे

लाख लिखो यशगान तुम, मर्यादा के नाम।
सिर्फ विभीषण खोजते, अक्सर देखे राम।।
2
लोग मिले निष्ठुर सदा, देव मिले पाषाण।
केवल भिक्षुक ही रहे, देवालय के प्राण।।
3
लेकर आया राजपथ, जाने कैसी छाँव।
जब-जब चलते हैं पथिक, तब-तब जलते पाँव।।
4
खुश थे रावण को सभी, अग्नि कूप में डाल।
ज़ख्म हरे ले जानकी, देख रही चौपाल।।
5
केसर से बारूद की, रह-रह आती गंध।
घाटी के बन्दूक से, ऐसे हैं अनुबंध।।
6
निश्चित मानो टूटना, तब प्यासे का ख्वाब।
जब सागर के वंशधर, बन जाएँ तालाब।।
7
भूख गरीबी के लिए, निश्चित किया किसान।
सोचो बाकी लोग हैं, कितने चतुर सुजान।।
8
फिर सत्ता के गीत में, खोये हैं मतिमंद।
बिखरे हैं फुटपाथ पर, लोकतंत्र के छंद।।
9
केवल देखे आपने, मेरे शब्द अधीर।
मैंने भोगी है मगर, अक्षर-अक्षर पीर।।
10
अब चिंतित बेचैन-सी, रहती सारी रात।
सीता ने जब से सुनी, रामराज की बात।।
11
कोई कहता पक्ष में, कोई कहे विरुद्ध।
कलयुग में उपलब्ध हैं, सबको अपने बुद्ध।।
12
आँखें ही बेशर्म तो, घूँघट से क्या आस।
नग्न मिला हर आदमी, पहने सभ्य लिबास।।
13
आई सत्ता की कलम, वर्तमान के पास।
बैठे-बैठे अब वही, बदल रहे इतिहास।।
14
दीपक के विश्वास को, आज अचानक तोड़।
देख हवा ने कर लिया, आँधी से गठजोड़।।
15
जहाँ धरा के वक्ष पर, जंगल हो आबाद।
बादल का होगा वहीं, वर्षा में अनुवाद।।
16
खलिहानो के प्रश्र पर, क्या दे खेत जवाब।
मंडी में बेसुध पड़े, पगडंडी के ख्वाब।।
17
सीख रहा हो जब हृदय, पत्थर से व्यवहार।
हँसना भी बेकार तब, रोना भी बेकार।।
18
बुझते चुल्हे से उठी, फिर झुग्गी में गंध।
फिर छप्पर ने कर लिया, वर्षा से अनुबंध।।
19
नार बनी है नीर से, या नारी से नीर।
बहते काजल ने लिखी, युगों-युगों की पीर।।



फणीन्द्र कुमार भगत के दोहे

फणीन्द्र कुमार भगत के दोहे

मुझे शत्रु का एक भी, चुभा नहीं था तीर।
खंज़र अपनों के मगर, गए कलेजा चीर।।
2
अपने कद से हैं बड़े, यूँ तो वृक्ष हजार।
लेकिन छायादार हैं, गिनती के दो चार।।
3
नौका जर्जर हो गई, टूट गई पतवार।
लगती है हर धार अब, मुझको तो मँझधार।।
4
उमरा बैठे हैं सभी, आज लगा चौपाल।
खोज रहे हैं लूट की, सारे मिल नव चाल।।
5
वैर भाव मन में पला, कलुषित हुए विचार।
मरहम विष लगने लगा, कैसे हो उपचार।।
6
गागर छलकी याद की, हुए नयन तट लाल।
पलको ने भी भीगकर, कहा हृदय का हाल।।
7
काँटों ने उलझा लिया, जब-तब रहे झँझोड़।
बिखरेगा गुल टूटकर, कहता यही निचोड़।।
8
सारी राहें बंद हैं, होता एक न काज।
मिली सजा की ही तरह, मुझे गरीबी आज।।
9
फूलों की मुस्कान पर, लगा रहे प्रतिबंध।
पंखुडिय़ों के लालची, जिन्हें न भाती गंध।।
10
कैसा है इन्सान का, यह निज से ही वैर।
कर बैठा है आज खुद, हर अपने को गैर।।
11
खुश था चंदा रात भर, मन में लिए उमंग।
भोर हुई तो चाँदनी, छोड़ गई सब संग।।
12
खाली बरतन और भी, लगने लगे उदास।
गुजरा जब आषाढ़-सा, सावन कर उपहास।।
13
पानी से सरकार के, जलने लगे चिराग।
फोहे केरोसीन के, बुझा रहे हैं आग।।
14
खुले द्वार दालान सब,मिट्टी की दीवार।
वक्त छीनकर ले गया, आपस का वह प्यार।।
15
चिंता करते लोग सब, बातें हर सरकार।
किस्मत मगर किसान की, लिखता सदा उधार।।
16
स्वप्न और सच्चाइयाँ जब हो जाएँ भिन्न।
तब होता है आदमी, हद से ज्यादा खिन्न।।
17
सावन ने नदियाँ भरी, कहीं तोड़ दी झील।
सींचे हैं बिन भेद के, बरगद और करील।।
18
नेह खत्म होने लगा, दिन-दिन घटती छाँव।
बहुत भुरभुरा हो गया, अब रिश्तों का गाँव।।
19
दीपक से भी आँधियाँ, छीन रही हैं नूर।
कैसे होगा रात का, यह अँधियारा दूर।।
20
मैं मानव ही था मगर, जग के पाल उसूल।
काँटे-सा सबको चुभा, क्या पत्ते क्या फूल।।

रमेश शर्मा के दोहे

रमेश शर्मा के दोहे

हुई कागजी योजना, कहाँ कभी साकार।
हुआ नहीं धनहीन का, इसीलिए उद्धार।।
2
कागज पर लिखना नहीं, राज एक भी यार।
कब हो जाए क्या पता, कागज भी गद्दार।।
3
दिखलाओगे जो उसे, वही दिखेगा चित्र।
दर्पण की औ$कात क्या, तुम्हें चिढ़ाए मित्र।।
4
अज्ञानी समझूँ उसे, या बोलूँ नादान।
खाकर ठोकर भी नहीं, सुधरे जो इन्सान।।
5
बँटवारे का हो गया, उनको जब आभास।
बरगद पीपल आम सब, रहने लगे उदास।।
6
बैठाता है नाव में, देता कभी उतार।
जाने कैसा हो गया, नाविक का किरदार।।
7
लहरें उठें दुलार की, सजे हृदय का गाँव।
आँगन में जब भी पडें़, बेटी के दो पाँव।।
8
दिल तोड़े जो आपका, नहीं करूँगा भूल।
मैंने तो तोड़ा नहीं, कभी शाख से फूल।।
9
चले नहीं कानून की, उन पर कभी कटार।
होते हैं जो जुर्म के, असली ठेकेदार।।
10
हो जाते हैं वाकई, सीने में तब छेद।
कोई घर का भेदिया, गैरों को दे भेद।।
11
करें काव्य की आड़ मे, औरों का अपमान।
पंडित वे साहित्य के, होते नहीं महान।।
12
एक छोर पर ख्वाहिशें, दूजे पर औ$कात।
जिनमें फँसकर रह गये, जन, जीवन, जज्बात।।
13
उल्टी-सीधी बेतुकी, अगर करेगा बात।
होना तेरा लाजमी, दुनिया में कुख्यात।।
14
चाहे तो जड़ लीजिए, सोने में श्रीमान।
दर्पण झूठ न बोलता, सच का करे बखान।।
15
सूरत से तासीर की, मुश्किल है पहचान।
मिश्री हो या फिटकरी, दिखतीं एक समान।।
16
औरों को ओछा समझ, निज को कहे महान।
पंडित के पांडित्य का, तब ही घटता मान।।
17
खाने लग जाये अगर, स्वयं फसल को बाड़।
होना है फिर तो वहाँ, निश्चित समझ उजाड़।।
18
खाया जिसने तामसी, जीवन भर आहार।
कैसे होंगे फिर बता, उसके शुद्व विचार।।
19
आते हैं इस देश में, जब भी पास चुनाव।
हिचकौले खाने लगे, सहिष्णुता की नाव।।







Tuesday, September 10, 2019

टीकम चन्दर ढोडरिया के दोहे

टीकम चन्दर ढोडरिया के दोहे

धर्म सत्य की है डगर, सद्गुण का आगार।
हम मूरख करने लगे, उसका ही व्यापार।।
2
बूँदे बरसी रात भर, उठी धरा से गंध।
हरियाएँ फिर से सखी, सुप्त हुए संबंध।।
3
सुबह हिलें इस द्वार पर, शाम हिलें उस द्वार।
आज काइयाँ दौर में, दुमें बनी हथियार।।
4
जाता हूँ जब-जब कभी, मैं पुरखों के गाँव।
लिपट-लिपट जाती सखे, माटी मेरे पाँव।।
5
आजादी का अर्थ हम, समझे नहीं हुज़ूर।
पहले भी मजदूर थे, अब भी हैं मजदूर।।
6
संसाधन लूटे सभी, लूटे पद सम्मान।
हमने अपने हित रचे, सारे नियम विधान।।
7
राजतंत्र से है बुरा, आज तंत्र का रूप।
दो कोड़ी के आदमी, बने फिरे हैं भूप।।
8
खेत बिके जंगल कटे, गयी नदी भी सूख।
गाँवों को नित डस रही, महानगरिया भूख।।
9
काँकड़ से पहुँची नज़र, ज्यों ही मेरे गाँव।
अगवानी को आ गयी, यादें नंगे पाँव।।
10
कभी किया विष-पान तो, कभी पिया मकरंद।
हर पल का लेता रहा, जीवन में आनंद।।
11
सच का मैंने सच लिखा, लिखा झूठ को झूठ।
राजाजी चाहे भले, जायें मुझ से रूठ।।
12
यादों से भीगे हुए, महके-महके राज।
बहा दिये मैंने सभी, $खत दरिया में आज।।
13
जाति मनुज की सब कहें, सबसे उत्तम खास।
उसने ही सबसे अधिक, किया धरा का नाश।।
14
माना होती है कला, ईश्वर का वरदान।
मिलता है पर अब कहाँ, कलाकार को मान।।
15
आँखों पर जाले नहीं, ना मन में है चोर।
कैसे कह दें रात को, बोलो उजली भोर।।
16
औरों की तो बात क्या, तन भी जाता छूट।
जाने है सब कुछ मनुज, फिर भी करता लूट।।
17
मेडें़ सिमटी खेत की, कुएँ हुए वीरान।
आबादी ने डस लिए, सभी खेत-खलिहान।।
18
टूटी हैं कसमें कहीं, किया किसी ने याद।
आयी फिर से हिचकियाँ, मुझको बरसों बाद।।
19
बाँच सको तो बाँच लो, उसके उर की पीर।
अश्कों से लिक्खी हुयी, गालों पर तहरीर।।
20
स्वेद बिंदुओं ने लिखी, पाषाणों पर पीर।
फुरसत हो तो बाँच लें, आओ यह तहरीर।।
21
रोता है पहले सखे, कवि उर सौ-सौ बार।
तब पीड़ा के छंद का, होता है शृंगार।।

विकास रोहिल्ला प्रीत के दोहे

विकास रोहिल्ला प्रीत के दोहे

दृश्य देखकर मंच भी, आज हुआ हैरान।
चंद चुटकुले ले गये, कविता का सम्मान।।
2
भरी कचहरी झूठ ने, किए वार पर वार।
घुटनों के बल आ गया, सच का ताबेदार।।
3
नये दौर में, जी रहे, लेकर सब अवसाद।
सन्नाटों से कर रहे, देखो अब संवाद।।
4
नहीं समझता मर्म को, लिखे काल्पनिक पीर।
देखो बनना चाहता, वो भी आज कबीर।।
5
जंगल में तब्दील है, बस्ती का माहौल।
मूल्यों का उडऩे लगा, अब तो यहाँ मखौल।।
6
थकी-थकी-सी भोर है, भरी उदासी साँझ।
मुस्कानों की तितलियाँ, अब लगती हैं बाँझ।।
7
किसको हम अपना कहें, किसको गैर ज़नाब।
मिलता हर कोई यहाँ, पहने हुए न$काब।।
8
ज़हनों में चालाकियाँ, उर में मिलती घात।
बस्ती से अच्छे मिले, जंगल के हालात।।
9
झूठी हैं खुशियाँ सभी, मिथ्या है मुस्कान।
लिए उदासी घूमता, देखो हर इंसान।।
10
नारी को जिसने सदा, समझा एक शरीर।
वो क्या जानेगा भला, उसके मन की पीर।।
11
राजनीति के ताल में, होगी तेरी जीत।
घडिय़ालों के सीख ले, तौर-तरीके मीत।।
12
ज़हनों में चालाकियाँ, उर में मिलती घात।
जंगल जैसे हो गए, बस्ती के हालात।।
13
गश्त $गमों की बढ़ चली, खुशियों की हड़ताल।
सदियों की ले वेदना, बीत रहे हैं साल।।
14
दिवस लगे हैं हाँफने, थककर बैठी रैन।
अंधी-बहरी दौड़ ने, छीना मन का चैन।।
15
उड़ती हैं अब चिंदियाँ, उड़े रोज उपहास।
सच रफ पुर्जे-सा हुआ, कोई न रखे पास।।
16
नमक छिडक़ना ही रहा, दुनिया का दस्तूर।
कर देती है घाव को, देख बड़ा नासूर।।
17
शेर लोमड़ी, तेंदुए, बिच्छू साँप सियार।
जंगल में चलती सदा, धूर्तों की सरकार।।
18
सोने से तोलो नहीं, दिल के ये जज्बात।
बेशकीमती है सखे, आँखों की बरसात।।
19
तोड़ रही है बेडिय़ाँ, काट रही जंजीर।
नारी अब लिखने लगी, खुद अपनी तकदीर।।
20
पीड़ा की है रागिनी, दर्द भरा है राग।
जाने कैसी वेदना, लेकर आया फाग।।
21
दर्द छुपाता जो रहा, मुख पर ले मुस्कान।
जीवन मे उसका सदा, ऊँचा रहा मचान।।
22
मुस्कानों की याद में, रहे पालते पीर।
हमने तोड़ी ही नहीं, यादों की जंजीर।।
23
जश्र हुआ जब झूठ का, लगे ठहाके खूब।
सच की ऐसी दुर्दशा, जैसे कुचली दूब।।
24
टूट गईं सब डालियाँ, चटके सारे फूल।
अदा तुम्हारी जि़न्दगी, ये भी हमें कबूल।।
25
सीलन से कमरा भरा, आँखों ठहरा नीर।
अन्तर्मन की शाख पर, घाव बहुत गम्भीर।।
26
देख जरा-सा भी हिले, भाई अपना नीड़़।
तभी तमाशा देखने, आ जाती है भीड़।।
27
उतर गया है प्रीत का, रिश्तों से अब ताप।
लिए वेदना मौन की, सभी खड़े चुपचाप।।
28
जिह्वा पर तो मौन है, अंतर्मन में नाद।
जीने के आदि हुए, लेकर हम अवसाद।।
29
लोग यहाँ छलने लगे, करके मीठी बात।
मुख पर तो अपने बनें, करें पीठ पर घात।।
30
मरहम होती बेटियाँ, हर लेती हैं पीर।
मन को ये शीतल करें, चंदन-सी तासीर।।
31
निभर्य घूमें भेडि़ए, हिरनी हैं भयभीत।
बस्ती में भी आ गई, जंगल की यह रीत।।
32
तोड़ रही है बेडिय़ाँ, काट रही जंजीर।
नारी खुद ही लिख रही, अब अपनी तकदीर।।
 

वैशाली चतुर्वेदी के दोहे

वैशाली चतुर्वेदी के दोहे

कैसी मंगल की दशा, कैसी शनि की चाल।
रहना पृथ्वी पर हमें, चलो सुधारें हाल।।
2
कितने भी धारण करो, मूंगा पन्ना रत्न।
श्रम बिन कुछ हासिल नहीं, हैं फिजूल ये यत्न।।
3
सब ने पूजा चाँद को, छत पर था उल्लास।
सूने कमरे में मगर, विधवा रही उदास।।
4
तन्हाई से डर नहीं, लगी डराने भीड़।
जाने कब किस बात पर, उजड़े किसका नीड़।।
5
साँकल सूने द्वार की, आहट को बेचैन।
बूढ़ा पीपल गाँव का, तरस रहा दिन रैन।।
6
नेताजी के शेर पर, संसद में था शोर।
बेटी के अधिकार पर, खामोशी हर ओर।।
7
अधिकारों की माँग पर, मिलते हैं आघात।
बेटी कैसे बच सके, ऐसे जब हालात।।
8
आँगन से जो थे जुड़े, खत्म हुए व्यवहार।
ऊन सलाई क्रोशिया, पापड़ बड़ी अचार।।
9
थाली में भोजन नहीं, छत भी नहीं नसीब।
आजादी के जश्र को, देखे मूक गरीब।।
10
धीरे-धीरे ही सही, बदला जीवन रूप।
यादों में ही रह गई, आँगन की वो धूप।।
11
शामिल होकर भीड़ में, नहीं मिलाते ताल।
सच का पथ हमने चुना, चलते अपनी चाल।।
12
मीरा-सी पीड़ा कहाँ, जो कर ले विषपान।
इस तकनीकी दौर में, भाव हुए बेजान।।
13
भाई-भाई के लिए, होगा तभी अधीर।
जब दिल से महसूस हो, उसके दिल की पीर।।
14
उनके हक में भी लिखो, जिनके खाली हाथ।
सफल वही है लेखनी, जो है सच के साथ।।
15
शायर जी चुन कर कहें, कुछ मुद्दों पर शेर।
जोड़-जोड़ कर रख रहे, सम्मानों के ढेर।।
16
अधिकारों की माँग पर, मिलते हैं आघात।
बेटी कैसे बच सके, ऐसे जब हालात।।
17
आँसू सूखे आँख में, लिए बर्फ-सी पीर।
झील शिकारे देखते, सूना-सा कश्मीर।।
18
कैसे कर दे लेखनी, सत्ता का गुणगान।
जिसमें निर्धन पिस रहा, पनप रहा धनवान।।
19
नहीं जानता योग वो, नहीं जानता ध्यान।
श्रम ही जिसकी साधना, उसका नाम किसान।।

अरुण कुमार निगम के दोहे

अरुण कुमार निगम के दोहे

काट नहीं सकता अगर, कम से कम फँुफकार।
तब तेरे अस्तित्व को, जानेगा संसार।।
2
स्वर्ण जडि़त पिंजरे मिले, पंछी मद में चूर।
मालिक के गुण गा रहे, खा कर नित अंगूर।।
3
बच्चे बिलखें भूख से, पाषाणों को दुग्ध।
ऐसी श्रद्धा देखकर, क्या प्रभु होंगे मुग्ध।।
4
बिके मेघ कुछ कैद हैं, कुछ हैं कहीं फरार।
चार दिनों में गिर गई, सावन की सरकार।।
5
वंचित की आवाज़ को, जिसने किया बुलंद।
शासक ने फौरन उसे, किया जेल में बंद।।
6
ले दे के थे जी रहे, जाग गई तकदीर।
ले दे के मुखिया बने, ले दे हुए अमीर।।
7
वे कहते कुछ और हैं, करते हैं कुछ और।
खिला रहे हैं आँकड़े, बना-बना कर कौर।।
8
भोग रहे हैं कर्मफल, कर के अति विश्वास।
है विनाश चहुँ ओर अब, दिखता नहीं विकास।।
9
नहीं सुहाता आजकल, शब्दों में मकरंद।
इसीलिए लिखता अरुण, कटु सच वाले छंद।।
10
अजगर जैसे आज तो, शहर निगलते गाँव।
बुलडोजर खाने लगे, अमरइया की छाँव।।
11
अंधियारे पर बैठकर, सिर पर रखता आग।
उजियारा तब बाँटता, धन्य दीप का त्याग।।
12
वृक्ष कटे छाया मरी, पसरा है अवसाद।
पनपेगा कंक्रीट में, कैसे छायावाद।।
13
पौष्टिकता लेकर गई, भाँति-भाँति की खाद।
सब्जी और अनाज में, रहा न मौलिक स्वाद।।
14
आहत मौसम दे रहा, रह रह कर संकेत।
किसी नदी में बाढ़ है और किसी में रेत।।
15
वे कहते कुछ और हैं, करते हैं कुछ और।
खिला रहे हैं आँकड़े, बना-बना कर कौर।।
16
वन उपवन खोते गए, जब से हुआ विकास।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास।।
17
मनुज स्वार्थ ने मेघ धन, लिया गगन से छीन।
सावन याचक बन गया, भादों अब है दीन।।
18
रोजगार का दम घुटा, अर्थ व्यवस्था मंद।
ऐसे में शृंगार पर, कैसे गाऊँ छंद।।
19
कुछ कहता है मीडिया, कुछ कहते हालात।
किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ, मानूँ किसकी बात।।
20
तंत्र मत्र षड्यंत्र से, बचकर रहना मित्र।
पग-पग पर माया खड़ी, दुनिया बड़ी विचित्र।।
21
एकलव्य कौन्तेय में, रखे न कोई भेद।
ऐसा गुरुवर ढूँढ़ता, अरुण बहा कर स्वेद।।
22
धनजल ऋणजल का गणित, सिखा रही बरसात।
दिखा रही इंसान की, कितनी है औकात।।
23
भोग रहे हैं कर्मफल, करके अति विश्वास।
है विनाश चहुँओर अब, दिखता नहीं विकास।।
24
प्रायोजित सम्मान हैं, इनका क्या है मोल।
इन्हें दिखाकर बावरे, मत पीटाकर ढोल।।
25
राज हमारा है कहाँ, अब हैं हम भी दास।
दिल्ली भेजा था जिन्हें, तोड़ चुके विश्वास।।
26
अब कलियुग जीवंत है, संत लूटते लाज।
सत्य उठाता सिर जहाँ, गिरे वहीं पर गाज।।
27
कोठी आलीशान है, सम्मुख हैं दरबान।
जन सेवक के ठाठ को, देख सभी हैरान।।
28
मूढ़ बने विद्वान हैं, आज ओढक़र खाल।
इसीलिए साहित्य का, बहुत बुरा है हाल।।