विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, October 14, 2023

दोहा छंद की प्रासंगिकता

दोहा सदाबहार छंद 

दोहा भारतीय सनातनी छंदों में से एक हैं, जो सदियों लम्बी यात्रा तय करके आज नया दोहा या समकालीन दोहा अथवा आधुनिक दोहा बन चुका है। जिस प्रकार भाषाओं का क्रमिक विकास होता है उसी प्रकार साहित्य की विधाओं का विकास भी क्रमिक रूप से ही होता है। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। दोहा छंद के नया दोहा बनने की भी कोई अवधि निश्चित नहीं है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नया दोहा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में फला-फूला। हालांकि इसकी नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। मैथिलिशरण गुप्त जी का यह दोहा इस तथ्य की पुष्टि करता है-

        अरी! सुरभि जा, लौट जा, अपने अंग सहेज।

        तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज।।

दोहा की मारक क्षमता और अर्थ सम्प्रेषण की सटीकता के कारण यह सदाबहार छंद बना हुआ है| समय के साथ इसके कथ्य में परिवर्तन अवश्य होता रहा है, किन्तु इसके शिल्प में कोई बदलाव नहीं हुआ| दोहे की प्रभावी सम्प्रेषण क्षमता आज भी बरक़रार है| यह केवल मिथक है कि ग़ज़ल के शे’र जैसा प्रभाव किसी अन्य छंद में नहीं है| सच तो यह है कि यह रचनाकार की प्रतिभा और कौशल पर निर्भर करता है कि वह किस छंद में कितनी गहरी बात कह सकता है| समर्थ दोहाकार दोहे के चार चरणों अर्थात दो पंक्तियों में जो कह सकता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है| यहाँ कवि चंदबरदाई के दोहे का उल्लेख करना समीचीन होगा-

    चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान|

    ता ऊपर सुल्तान है, मत चूक्कै चौहान||

मात्र 48 मात्राओं में कवि ने अपने सम्राट मित्र पृथ्वीराज चौहान को न केवल सुल्तान की सही स्थिति (लोकेशन) बता दी, बल्कि अवसर नहीं चूकने का सन्देश भी दे दिया| इतना सटीक और प्रभावी सम्प्रेषण केवल दोहा जैसे छंद में ही संभव है| इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब एक दोहा ने पासा पलट दिया| कवि बिहारी का राजा जयसिंह को सुनाया गया यह दोहा भी इसी श्रेणी का है-

    ‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल|

    अली कली में ही बिन्ध्यो, आगे कौन हवाल||

      दोहा अपनी अनेक खूबियों के कारण सदियों से लोगों के मन मस्तिष्क में रचा बसा है| यह कभी सूफिओं और फकीरों का सन्देश वाहक बन जाता है तो कभी दरबारों की शोभा बन जाता है| कभी प्रेमी-प्रेमिका के बीच सेतु बन जाता है तो कभी जन-सामान्य की आवाज़-

    दोहा दरबारी बना, दोहा बना फ़कीर|

    नये दौर में कह रहा, दोहा जीवन पीर||/रघुविन्द्र यादव 

दोहे का कथ्य चाहे जो रहा हो यह हर दौर में महत्वपूर्ण रहा है, दोहा आज भी लोकप्रियता के शिखर पर है| मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि दोहा लघुता में महत्ता समाये हुए है| दोहा भविष्य में भी सामर्थ्यवान कवियों का चहेता रहेगा ऐसी आशा और विश्वास है|

                                                            -रघुविन्द्र यादव


Sunday, October 11, 2020

हरियाणा में रचित दोहा और हरियाणा के दोहाकार


हरियाणा में रचित दोहा साहित्य 

हरियाणा के दोहाकार और उनके दोहा संग्रह 

हरियाणा का प्रथम दोहा संग्रह

अर्द्धसम मात्रिक छंद दोहा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित और लोकप्रिय रहा है| संस्कृत में इसे ‘दोग्धक’ कहा जाता था| जिसका अर्थ है- जो श्रोता या पाठक के मन का दोहन करे| इसे दोहक, दूहा, दोहरा, दोहड़ा, दोहयं, दोहउ, दुवह और दोहअ भी कहा जाता रहा है, लेकिन अब यह दोहा के नाम से ही लोकप्रिय है|

वह लयात्मक काव्य रचना जो 13-11, 13-11 के क्रम में दो पंक्तियों और चार चरणों में कुल 48 मात्राओं के योग से बनी हो, जिसके प्रथम और तृतीय चरणों का अंत लघु-गुरु से तथा दूसरे और चैथे चरणों का अंत गुरु-लघु से होता हो और जो पाठक या श्रोता के मन मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ सके, दोहा कहलाती है।

मात्राओं के अलावा दोहे का कथ्य और भाषा भी समकालीन और प्रभावशाली हो| किसी भी चरण का आरम्भ पचकल और जगण शब्द से न हो| यदि कोई रचना ये शर्तें पूरी करती है तभी उसे ‘मानक दोहा’ माना जाता है|

दोहा छ्न्द सदियों लम्बी यात्रा तय करके आज नया दोहा अथवा आधुनिक दोहा बन चुका है। जिस प्रकार भाषाओं का क्रमिक विकास होता है उसी प्रकार साहित्य की विधाओं का विकास भी क्रमिक रूप से ही होता है। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। दोहा छंद के नया दोहा बनने की भी कोई अवधि निश्चित नहीं है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नया दोहा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में फला-फूला। हालांकि इसकी नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। मैथिलिशरण गुप्त जी का यह दोहा इस तथ्य की पुष्टि करता है-

अरी! सुरभि जा, लौट जा, अपने अंग सहेज।
तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज।।1

    नया दोहा को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक महत्तवपूर्ण भूमिका निभाने वाले वरिष्ठ नवगीतकार और दोहाकार देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जी के अनुसार “नयी कहानी, नयी कविता, नयी समीक्षा की भांति गीत भी नवगीत के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब हुआ तो ग़ज़ल भी नयी ग़ज़ल हो गई और दोहा भी नये दोहे के रूप में जाना जाने लगा।”2

    विभिन्न विद्वानों ने समकालीन दोहा को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है| प्रोफेसर देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ दोहे की विशेषता कुछ यूँ बताते हैं- “दोहा छंद की दृष्टि से एकदम चुस्त-दुरुस्त और निर्दोष हो| कथ्य सपाट बयानी से मुक्त हो| भाषा चित्रमयी और संगीतात्मक हो बिम्ब और प्रतीकों का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में हो| दोहे का कथ्य समकालीन और आधुनिक बोध से सम्पन्न हो| उपदेशात्मक नीरसता और नारेबाजी की फूहड़ता से मुक्त हो|”3

    डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ दोहे की आत्मकथा में लिखते हैं- “भाषा मेरा शरीर, लय मेरे प्राण, और रस मेरी आत्मा है| कवित्व मेरा मुख, कल्पना मेरी आँख, व्याकरण मेरी नाक, भावुकता मेरा हृदय तथा चिंतन मेरा मस्तिष्क है| प्रथम और तृतीय चरण मेरी भुजाएँ एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण मेरे चरण हैं|”4

    श्री जय चक्रवर्ती समकालीन दोहे को परिभाषित करते हुए कहते हैं- “समकालीन दोहे का वैशिष्टय यह है कि इसमें हमारे समय की परिस्थितियों, जीवन संघर्षों, विसंगतियों, दुखों, अभावों और उनसे उपजी आम आदमी की पीड़ा, आक्रोश, क्षोभ के सशक्त स्वर की उपस्थिति प्रदर्शित होने के साथ-साथ मुक्ति के मार्ग की संभावनाएं भी दिखाई दें|”5

    श्री हरेराम समीप परम्परागत और आधुनिक दोहे का भेद स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक रूप से बदला है| अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आम-जन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, पीड़ित है, शोषित है और संघर्षरत है| इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज़ में तीव्र और आक्रामक तेवर लिए हुए हैं| अत: जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है| इसमें आस्वाद का अन्तर प्रमुखता से उभरा है| इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिंबित होता है|”6

    डॉ.राधेश्याम शुक्ल के अनुसार, “आज के दोहे पुरानी पीढ़ी से कई संदर्भों, अर्थों आदि में विशिष्ट हैं| इनमे भक्तिकालीन उपदेश, पारम्परिक रूढ़ियाँ और नैतिक शिक्षाएँ नहीं हैं, न ही रीतिकाल की तरह श्रृंगार| अभिधा से तो ये बहुत परहेज करते हैं| ये दोहे तो अपने समय की तकरीर हैं| युगीन अमानुषी भावनाओं, व्यवहारों और परिस्थितियों के प्रति इनमें जुझारू आक्रोश है, प्रतिकार है, प्रतिवाद है|”7

    समकालीन दोहा देश-विदेश के साथ-साथ हरियाणा में भी बड़े पैमाने पर लिखा जा रहा है| असल में हरियाणा की दोहा यात्रा भी लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी आधुनिक दोहा या नया दोहा की| प्रोफ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने जब सप्तपदी श्रृंखला का सम्पादन किया तो उसमें हरियाणा के श्री पाल भसीन, श्री कुमार रविन्द्र और डॉ. राधेश्याम शुक्ल जैसे कई कवियों के दोहे भी संकलित हुए| बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हरियाणा के दोहकारों के एकल संग्रह भी प्रकशित होने शुरू हो गए थे| सबसे पहले पाल भसीन का ‘अमलतास की छाँव’ 1994 में प्रकाशित हुआ, इसके बाद सारस्वत मोहन मनीषी का ‘मनीषी सतसई’ 1996, रक्षा शर्मा ‘कमल’ का ‘दोहा सतसई’ 1998 और ‘रक्षा-दोहा-कोश’ 1999 में प्रकशित हुआ| रामनिवास मानव का बोलो मेरे राम 1999 में, हरेराम समीप का ‘जैसे’ और अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम, नेताओं के नाम’ 2000 में प्रकाशित हो चुके थे|

    इक्कीसवीं सदी के आते-आते दोहा काफी लोकप्रिय हो चुका था और पिछले दो दशक में बड़ी संख्या में दोहे रचे गए हैं| अब तक हरियाणा में लगभग चार दर्जन दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें पाल भसीन के ‘अमलतास की छाँव’ और ‘जोग लिखी’, सारस्वत मोहन ‘मनीषी’ के ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’, रक्षा शर्मा ‘कमल’ के ‘दोहा सतसई’ और ‘रक्षा दोहा-कोश’, रामनिवास मानव के ‘बोलो मेरे राम’ और ‘सहमी-सहमी आग’, हरेराम समीप के ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’, अमरीक सिंह का ‘दोहा के जाम-नेताओं के नाम’, योगेन्द्र मौदगिल का ‘देश का क्या होगा’, नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’ का ‘विवेक-दोहावली’, महेंद्र शर्मा ‘सूर्य’ का ‘संस्कृति सूर्य-सतसई’, उदयभानु हंस का ‘दोहा-सप्तशती’, मेजर शक्तिराज शर्मा का ‘शक्ति सतसई’, सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ के ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’, हरिसिंह शास्त्री का ‘हरि-सतसई’, रामनिवास बंसल का ‘शिक्षक दोहावली’, ए.बी. भारती का ‘प्रारम्भ दोहावली’, गुलशन मदान का ‘लाख टके की बात’, घमंडीलाल अग्रवाल का ‘चुप्पी की पाजेब’, राधेश्याम शुक्ल का ‘दरपन वक़्त के’, रोहित यादव के ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ रघुविन्द्र यादव के ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’, प्रद्युम्न भल्ला का ‘उमड़ा सागर प्रेम का’, कृष्णलता यादव का ‘मन में खिला वसंत’, पी.डी. निर्मल का ‘निर्मल सतसई’, आशा खत्री का ‘लहरों का आलाप’, महेंद्र जैन का ‘आएगा मधुमास’, सत्यवीर नाहडिया का ‘रचा नया इतिहास’, मास्टर रामअवतार का ‘अवतार दोहावली’, नन्दलाल नियारा का ‘नियारा परिदर्शन’, राजपाल सिंह गुलिया का ‘उठने लगे सवाल’, ज्ञान प्रकाश पीयूष का ‘पीयूष सतसई’, डॉ.बलदेव वंशी का ‘दुख का नाम कबीर’, शारदा मित्तल का ‘मनुआ भयो फ़कीर’, अमर साहनी का ‘दूसरा कबीर’, सुशीला शिवराण का ‘देह जुलाहा हो गई’, उषा सेठी का ‘मरिहि मृगी हर बार’ प्रवीण पारीक 'अंशु' का सन्नाटे का शोर आदि शामिल हैं|

    हरियाणा में ऐसे बहुत से दोहाकार हैं जिनके संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं, लेकिन उनके दोहे पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित होते रहे हैं| इनमें कुमार रविन्द्र, दरवेश भारती, गिरिराजशरण अग्रवाल, सत्यवीर मानव, रमाकांत शर्मा, सत्यवान सौरभ, बेगराज कलवांसिया, विकास रोहिल्ला ‘प्रीत’, नीरज शर्मा, रमेश सिद्धार्थ, अनुपिन्द्र सिंह ‘अनूप’, आशुतोष गर्ग, शील कौशिक, अंजू दुआ जैमिनी, आचार्य प्रकाशचन्द्र फुलेरिया, स्वदेश चरौरा, कपूर चतुरपाठी, प्रदीप पराग, रमन शर्मा आदि शामिल हैं|

    नए-पुराने कुछ और लोग भी दोहा छंद की साधना में लगे हुए हैं, जिनमें मदनलाल वर्मा, पुरुषोत्तम पुष्प, कमला देवी, सुरेश मक्कड़, लोक सेतिया, देवकीनंदन सैनी, अजय अज्ञात, सत्यप्रकाश ‘स्वतंत्र’, संजय तन्हा, बाबूलाल तोंदवाल, शिवदत्त शर्मा, श्रीभगवान बव्वा, सुरेखा यादव, राममेहर ‘कमेरा’ सतीश कुमार और अंजलि सिफर आदि शामिल हैं|

    उपरोक्त संग्रहों के अलावा हरियाणा से प्रकाशित होने वाली विभिन्न पत्रिकाओं यथा- हरिगंधा, बाबूजी का भारतमित्र, शोध दिशा आदि ने दोहा विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं|

    हरियाणा से ही कुछ साझा दोहा संकलनों का भी प्रकाशन हुआ है| जिनमें आधी आबादी के दोहे, आधुनिक दोहा, दोहे मेरी पसंद के और दोहों में नारी (सभी के संपादक रघुविन्द्र यादव), समकालीन दोहा कोश (हरेराम समीप) प्रमुख हैं|

    हिंदी दोहा के अलावा हरियाणा में हरियाणवी बोली में भी दोहे रचे जा रहे हैं और अब तक आधा दर्जन से अधिक दोहकारों के एकल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| जिनमें लक्ष्मण सिंह का हरयाणवी दोहा-सतसई, रामकुमार आत्रेय का सच्चाई कड़वी घणी, श्याम सखा श्याम का औरत बेद पांचमा, हरिकृष्ण द्विवेदी के बोल बखत के, मसाल और पनघट, सारस्वत मोहन मनीषी के मरजीवन सतसई और सरजीवन सतसई, सत्यवीर नाहडिया के गाऊं गोबिंद गीत और बखत-बखत की बात शामिल हैं| संभव है कुछ और दोहाकार भी हरियाणवी दोहे लिख रहे हों, लेकिन अभी तक प्रकाश में नहीं आये हैं|

    हरियाणा में समकालीन दोहा का बिरवा रोपने और उसे पल्लवित-पोषित करने में निसंदेह पाल भसीन, कुमार रविन्द्र, राधेश्याम शुक्ल, सारस्वत मोहन मनीषी, हरेराम समीप, उदयभानु हंस आदि का योगदान रहा है| किन्तु दोहे को लोकप्रियता के शिखर पर ले जाने का श्रेय रघुविन्द्र यादव और हरेराम समीप को जाता है| जहाँ श्री समीप के खुद के चार दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, वहीं उन्होंने ‘समकालीन दोहा कोश’ का सम्पादन कर ऐतिहासिक कार्य किया है| वहीं रघुविन्द्र यादव के तीन दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, उन्होंने छह दोहा संकलनों का सम्पादन किया है| साथ ही पत्रिका के दो दोहा विशेषांक प्रकाशित किये हैं| उनके कुछ दोहों के विडियो पूरे सोशल मीडिया पर छाये हुए हैं| सुपरटोन डिजिटल द्वारा रिकॉर्ड किया गया उनके दोहों का एक विडियो तो अब तक दो करोड़ से अधिक बार देखा जा चुका है| जो संत कबीर के दोहों के बाद सर्वाधिक देखा जाने वाला विडियो बन चुका है|

    श्री पाल भसीन हरियाणा के पहली पीढ़ी के समकालीन दोहाकार हैं| कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से आपके दोहे उत्कृष्ट हैं| उनके संग्रह ‘अमलतास की छाँव’ से बानगी स्वरूप कुछ दोहे-

धूल-धूल हर स्वप्न है, शूल-शूल हर राह|
धुआँ-धुआँ हर श्वास है, चुका-चुका उत्साह||

कलियाँ चुनता रह गया, गुँथी नहीं जयमाल|
झुका पराजय बोझ से, यह गर्वोन्नत भाल||

कर हस्ताक्षर धूप के, खिला गुलाबी रूप|
चले किरण दल पाटने, अन्धकार के कूप||

    डॉ. राधेश्याम शुक्ल सप्तपदी में शामिल प्रमुख दोहकारों में से एक हैं| उनके संग्रह ‘दरपन वक़्त के’ में पारिवारिक रिश्तों, परदेसी की पीड़ा, ग्राम्यबोध, स्त्री विमर्श जैसे अनछुए किन्तु महत्त्वपूर्ण विषयों पर दोहे शामिल हैं| जैसे-

बेटी मैना दूर की, चहके करे निहाल|
वक़्त हुआ तो उड़ चली, तज पीहर की डाल||

प्रत्यय है, उपसर्ग है, औरत संधि, समास|
है जीवन का व्याकरण, सरल वाक्य विन्यास||

छोटी करके थक गए, ज्ञानी संत फ़कीर|
बनी हुई है आज भी, औरत बड़ी लकीर||

     श्री हरेराम समीप जन सरोकार के कवि हैं| उनके दोहों में व्यंग्य एक महत्वपूर्ण तत्व है। चुटीले व्यंग्य के माध्यम से राजनीतिक विसंगति और सत्ता के छद्म का खुलासा करते हैं। उनके दोहा संग्रह ‘जैसे’, ‘साथ चलेगा कौन’ ‘चलो एक चिट्ठी लिखे’ और ‘पानी जैसा रंग’ से कुछ दोहे-

एक अजूबा देश यह, अपने में बेजोड़|  
यहाँ मदारी हाँक ले, बंदर कई करोड़||

पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ|
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ||

अस्पताल से मिल रही, उसी दवा की भीख|
जिसके इस्तेमाल की, निकल गई तारीख||

फिर निराश मन में जगी, नव जीवन की आस|
चिड़िया रोशनदान पर, फिर लाई है घास||

    डॉ. सारस्वत मोहन मनीषी भी समकालीन दोहा के साथ-साथ हरियाणवी दोहा के सशक्त हस्ताक्षर हैं| आपने न केवल हिंदी बल्कि हरियाणवी में भी साधिकार दोहे लिखे हैं। ‘मनीषी सतसई’, ‘सारस्वत सतसई’ और ‘मोहन सतसई’ से बानगी के दोहे-

राजनीति के आजकल, ऐसे हैं हालात|
गणिका जैसा आचरण, संतों जैसी बात||

सिंहासन का सत्य से, नाता दूर-सुदूर|
विधवाओं की माँग में, कब मिलता सिन्दूर||

    प्रख्यात बाल साहित्यकार श्री घमंडीलाल अग्रवाल ने भी दोहा साहित्य को समृद्ध किया है| ‘चुप्पी की पाजेब’ से कुछ दोहे-

कई मुखौटे एक मुख, दुर्लभ है पहचान|
इंसानों के वेश में, घूम रहे शैतान||

कहा पेट ने पीठ से, खुलकर बारम्बार|
तेरे मेरे बीच में, रोटी की दीवार||

निशिगंधा यह देख कर, हुई शर्म से लाल|
भीड़ उन्हीं के साथ थी, जिनके हाथ मसाल||

    हरियाणा से राज्यकवि रहे स्व. उदयभानू हंस यूँ तो रुबाई सम्राट के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन वे अच्छे दोहाकार भी थे| ‘दोहा-सप्तशती’ से दो दोहे-

बीत चुके पचपन बरस, हुआ देश आज़ाद|
कौन राष्ट्रभाषा बने, सुलझा नहीं विवाद||

मैं दुनिया में हो गया, एक फालतू चीज|
जैसे खूँटी पर टँगी, कोई फटी क़मीज||

    श्री रघुविन्द्र यादव के दोहे अनुभूति की कसौटी पर बड़े मार्मिक, प्रभावपूर्ण और दूर तक अर्थ सम्प्रेषण करने वाले कहे जा सकते हैं| सहजता में ही इनका सौष्ठव निहित है| ‘नागफनी के फूल’, ‘वक़्त करेगा फैसला’ और ‘आये याद कबीर’ से कुछ दोहे-

कहाँ रहेंगी मछलियाँ, सबसे बड़ा सवाल|
कब्ज़े में सब कर लिए, घडियालों ने ताल||

गंगू पूछे भोज से, यह कैसा इन्साफ?
कुर्की मेरे खेत की, क़र्ज़ सेठ का माफ़||

अपने भाई हैं नहीं, अब उनको स्वीकार|
चूहे चुनना चाहते, बिल्ली को सरदार||

गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल।
आँगन में उगने लगे नागफनी के फूल।।

साधारण से लोग भी, रचते हैं इतिहास।
सीना चीर पहाड़ का, उग आती ज्यों घास।।

     स्व. सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ ने विविध विषयों पर दोहे रचे हैं, जो ‘भारत दोहावली भाग-1’ और ‘भारत दोहावली भाग-2’ मे प्रकाशित हुये हैं-

हीरे का तो मोल है, ज्ञान सदा अनमोल|
अन्तर मन के भाव को, मत पत्थर से तोल||

उजियारे में बैठकर, करता काले काम|
‘भारत’ से अंधा भला, जपे राम का नाम||

    लोक साहित्यकार रोहित यादव ने दोहे भी लिखे हैं| ‘जलता हुआ चिराग’ और उम्र गुजारी आस में’ से दो दोहे-

अभी बहुत कुछ शेष है, जीवन से मत भाग|
बुझा नहीं है आस का, जलता हुआ चिराग||

ऐसा भी तू क्या थका, मान रहा जो हार|
हिम्मत अपनी बाँध ले, लक्ष्य खड़ा है द्वार||

    वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कृष्णलता यादव का भी एक बहुरंगी दोहा संग्रह ‘मन में खिला वसंत’ प्रकाशित हुआ है| बानगी स्वरूप कुछ दोहे-

आँधी है बदलाव की, होते उलटे काम|
बाबुल को वनवास दे, कलयुग वाला राम||

आग लगी जब महल में, कुटिया लाई नीर|
महल तमाशा देखता, पड़ी कुटी पर भीर||

भारी से भारी हुई, नेताजी की जेब|
ऊँचे दामों बिक रहे, धोखा, झूठ, फरेब||

    श्रीमती आशा खत्री ‘लता’ भी हरियाणा की प्रमुख महिला दोहकारों में से एक हैं। ‘लहरों का आलाप’ उनका प्रकाशित संग्रह है। कुछ दोहे इसी संग्रह से-

जीवन भर तनहाइया, लिये तुम्हारी याद।
पीडा का करती रही, आंसू में अनुवाद॥

उसको ही आता यहाँ, करना सागर पार।
लहरों से जिसकी कभी, थमी नहीं तकरार॥

    हरियाणा के नये दोहकारों के संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं, जो शीघ्र ही प्रकाश में आयेंगे। लघुकथा के बाद दोहा को भी हरियाणा के रचनाकारो का भरपूर प्यार मिल रहा है।

-रघुविंद्र यादव
11.10.2020

संदर्भ सूची-

1. साकेत सर्ग- 9
2. ‘वक़्त करेगा फैसला’ दोहा संग्रह – रघुविंद्र यादव पृष्ठ- 9
3. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 3
4. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5
5. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 5
6. ‘दोहे मेरी पसंद के’ दोहा संकलन (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 6
7. ‘बाबूजी का भारतमित्र’ दोहा विशेषांक (सं. रघुविन्द्र यादव) पृष्ठ- 18

Sunday, September 29, 2019

नयी सदी के दोहे : ''बेटा कहता बाप से'' के आधुनिक कबीर हैं- रघुविन्द्र यादव


आधुनिक कबीर- रघुविन्द्र यादव 

क्यों कहते हैं रघुविंद्र यादव को आधुनिक कबीर  

आधुनिक कबीर के दोहे/ आज के दोहे/  कलयुग के दोहे/ आज अगर कबीर जिन्दा होते तो ये होते आज के दोहे|  नयी सदी के दोहे/  लोकप्रिय दोहे| 
उपरोक्त शीर्षकों से आपने नीचे दिए दोहे सोशल मीडिया (फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ब्लोगस्पॉट, ट्विटर और गूगल के अलावा अख़बारों की साइट्स आदि) पर खूब पढ़े होंगे| पढ़कर मन में कभी यह जिज्ञासा भी उठी होगी कि यह आधुनिक कबीर अथवा इन दोहों का लेखक कौन है| तो आज हम आपका परिचय उस कलमकार से करवा रहे हैं, जिसने इन दोहों की रचना की है| इन दोहों के रचियता नारनौल के वरिष्ठ साहित्यकार श्री रघुविन्द्र यादव हैं| जो हरियाणा प्रदेश ही नहीं देश के जानेमाने दोहाकार हैं| आपकी अब तक दोहे की दो पुस्तकें "नागफनी के फूल" और "वक्त करेगा फैसला" सहित कुल 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं 
 नीचे दिए दोहे उनकी पुस्तक नागफनी के फूल में वर्ष 2011 में प्रकाशित हुए थे| जो सोशल मीडिया पर बेहद लोकप्रिय हुए हैं और अब तक एक करोड़ से अधिक लोग शेयर और कॉपी पेस्ट कर चुके हैं| इन दोहों के यूट्यूब पर दर्जनों विडियो उपलब्ध हैं| सुपरटोन कंपनी द्वारा बनाया गया विडियो अब तक एक ही लिंक पर एक करोड़ से अधिक बार देखा जा चुका है तो दूसरा विडियो 37 लाख से अधिक बार देखा जा चुका है| यह संख्या संत कबीर के बाद दूसरे नंबर पर है|

श्री यादव शोध और साहित्यिक की राष्ट्रीय पत्रिका "बाबूजी का भारतमित्र" और वेब मैगज़ीन "विविधा" के संपादक हैं और महेंद्रगढ़ में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं| इतना ही नहीं आप जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता भी हैं और आजकल राष्ट्रीय जल बिरादरी की अरावली भू-सांस्कृतिक इकाई के समन्वयक और नागरिक चेतना मंच के अध्यक्ष भी हैं| 



नई सदी से मिल रही, दर्द भरी सौगात!
बेटा कहता बाप से, तेरी क्या औकात !!

अब तो अपना खून भी, करने लगा कमाल !
बोझ समझ माँ बाप को, घर से रहा निकाल !!

पानी आँखों का मरा, मरी शर्म औ' लाज!
कहे बहू अब सास से, घर में मेरा राज !!

भाई भी करता नही, भाई पर विश्वास! 
बहन पराई सी लगे, साली खासमखास !!

मंदिर में पूजा करें, घर में करे कलेश !
बापू तो बोझा लगे, पत्थर लगे गणेश !!

बचे कहाँ अब शेष हैं, दया, धर्म, ईमान !
पत्थर के भगवान् हैं, पत्थर दिल इंसान !!

फैला है पाखंड का, अन्धकार सब ओर !
पापी करते जागरण, मचा मचाकर शोर !!

-फीचर डेस्क 


Monday, September 23, 2019

शब्द और उनके अर्थ

शब्द  अर्थ 

कंदरा- गुफा या घाटी 
कंदील- मिट्टी या अभ्रक का लैंप 
कमलगट्टा- कमल का बीज 
कगार- ऊंचा किनारा, नदी का करारा, भूमि का ऊंचा भाग, टीला  
कचोटना- गढ़ना चुभना संताप होना
कोंचना-छेड़ना, गड़ाना, चुभाना 
च्यवन- टपकना,चूना, रसना, झरना, एक ऋषि का नाम 
छटा- प्रकाश, प्रभा, झलक, शोभा, छवि, सौन्दर्य, बिजली
छद्म- छिपाव, बहाना, मिस, छल, धोखा, कपट
जपनी- जपने की माला, गोमुखी 
जू- आकाश, सरस्वती, गमन, गति 
जैव- जीव या जीवन सम्बन्धी 
जोहार- अभिनंदन, नमस्कार, प्रणाम, जुहार 
तनुज- पुत्र, लड़का, बेटा
तनुजा- पुत्री, बेटी, लड़की 

Wednesday, October 14, 2015

छंद दोहा - इं० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

दोहे के माध्यम से दोहे की परिभाषा :-

(छंद दोहा : अर्धसम मात्रिक छंद, चार चरण, विषम चरण तेरह मात्रा, सम चरण ग्यारह मात्रा, अंत पताका अर्थात गुरु लघु से, विषम के आदि में जगण वर्जित, प्रकार तेईस)

तेरह ग्यारह क्रम रहे, मात्राओं का रूप|
चार चरण का अर्धसम, शोभा दिव्य अनूप||

विषम आदि वर्जित जगण, सबसे इसकी प्रीति|
गुरु-लघु अंतहिं सम चरण, दोहे की यह रीति||

विषम चरण के अंत में, चार गणों को त्याग|
यगण मगण वर्जित तगण, भंग जगण से राग||

-अम्बरीष श्रीवास्तव

दोहा चार चरणों से युक्त एक अर्धसम मात्रिक छंद है जिसके पहले व तीसरे चरण में १३, १३ मात्राएँ तथा दूसरे व चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं, दोहे के सम चरणों का अंत 'पताका' अर्थात गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों के प्रारंभ में स्वतंत्र जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है तथा दोहे के विषम चरणों के अंत में यगण(यमाता १२२) मगण (मातारा २२२) तगण (ताराज २२१) व जगण (जभान १२१) का प्रयोग त्याज्य जबकि वहाँ पर सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है
जबकि इसके सम चरणों के अंत में जगण अथवा तगण आना चाहिए अर्थात अंत में पताका (गुरु लघु) अनिवार्य है|

निश्छल निर्मल मन रहे, विनयशील विद्वान्!
सरस्वती स्वर साधना, दे अंतस सद्ज्ञान!!
 
छंद सहज धुन में रचें, जाँचें मात्रा भार!
है आवश्यक गेयता, यही बने आधार !!

दोहे का आन्तरिक रचनाक्रम

तीन तीन दो तीन दो, चार चार धन तीन! (विषम कलात्मक प्रारंभ अर्थात प्रारंभ में त्रिकल)
चार चार धन तीन दो, तीन तीन दो तीन!! (सम कलात्मक प्रारंभ अर्थात प्रारंभ में द्विकल या चौकल)
(संकेत : दो=द्विकल, तीन=त्रिकल, चार= चौकल)

(अ) तीन तीन दो तीन दो : (चौथे त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ वर्जित)
(१) 'राम राम गा(व भा)ई' (चौथे त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ होने से गेयता बाधित)
(२) 'राम राम गा(वहु स)दा' (चौथे त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ न होने के कारण सहज गेय)
(ब) चार चार धन तीन दो : (त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ वर्जित)
(१) 'सीता सीता पती को' (त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ होने से गेयता बाधित)
(२) 'सीता सीता नाथ को' (त्रिकल समूह में लघु-गुरु अर्थात १२ न होने के कारण सहज गेय)
(उपरोक्त दोनों उदाहरण 'अ' तथा 'ब' छंद प्रभाकर से लिए गए हैं |)
निम्नलिखित को भी देखें...
दम्भ न करिए कभी भी (चरणान्त में यगण से लयभंग) / दंभ नहीं करिए कभी (चरणान्त में रगण से उत्तम गेयता)
हार मानिए हठी से (चरणान्त में यगण से लयभंग)/ मान हठी से हार लें (चरणान्त में रगण से उत्तम गेयता)
(उपरोक्त उदाहरण आदरणीय ओम नीरव जी के सौजन्य से आयोजित दोहा चर्चा से उद्धृत है)

दोहे की रचना करते समय पहले इसे गाकर ही रचना चाहिए तत्पश्चात इसकी मात्राएँ जांचनी चाहिए ! इसमें गेयता का होना अनिवार्य है ! दोहे के तेईस प्रकार होते हैं | जिनका वर्णन निम्नलिखित है |

'दोहों के तेईस प्रकार'

बांचें सारे दोहरे, तेईस रूप प्रकार.
प्रस्तुत है श्रीमान जी , दोहों का संसार..

नवल धवल शीतल सुखद, मात्रिक छंद अनूप.
सर्वोपरि दोहा लगे, अनुपम रूप-स्वरुप..

लघु-गुरु में है यह बँधा, तेइस अंग-प्रकार.
चरण चार ही चाहिए, लघु इसका आकार..

तेरह मात्रा से खिले, पहला और तृतीय.
मात्रा ग्यारह माँगता, चरण चतुर्थ द्वितीय..

विषम आदि वर्जित जगण, करता सबसे प्रीति.
अंत पताका सम चरण, दोहे की ये रीति..

अट्ठाइस लघु गुरु दसों, ‘वानर-पान’ समान.
चौदह गुरु हों बीस लघु, ‘हंस’ रूप में जान..

सत्रह गुरु लघु चौदहों, ‘मरकट’ नाम कहाय.
सोलह लघु गुरु सोलहों, ‘करभ’ रूप में आय..
 
बारह लघु के साथ में, अठरह गुरु ‘मंडूक’.
अठरह लघु गुरु पन्द्रह , ‘नर’ का यही स्वरुप..

तेरह गुरु बाईस लघु, ‘मुदुकुल’ कहें ‘गयंद’.
दस लघु हों उन्नीस गुरु, ‘श्येन’ है अद्धुत छंद..

बीसों गुरु औ आठ लघु, ‘शरभ’ नाम विख्यात.
छीयालिस लघु एक गुरु, ‘उदर’ रूप है तात..

गुरु बिन अड़तालीस लघु, नाम ‘सर्प’ अनमोल.
तिर्यक लहराता चले, कभी कुण्डली गोल..

चौवालिस लघु दोय गुरु, दोहा नामित 'श्वान'.
ग्यारह गुरु छ्ब्बीस लघु, ‘चल’ ‘बल’ करें बखान..

बाइस गुरु औ चार लघु, ‘भ्रमर’ नाम विख्यात.
इक्किस गुरु छः लघु जहाँ, वहाँ ‘सुभ्रमर’ तात..

चौबिस लघु गुरु बारहों, नाम ‘पयोधर’ पाय.
नौ गुरु साथी तीस लघु, ‘त्रिकल’ रूप मुस्काय..

बत्तीस लघु औ आठ गुरु, ‘कच्छप’ रूप समान.
चौंतिस लघु हैं सात गुरु, ‘मच्छ’ रूप में जान..

छः गुरु औ छत्तीस लघु, ‘शार्दूल’ विख्यात.
अड़तिस लघु तो पञ्च गुरु, ‘अहिवर’ लाये प्रात..

चालिस लघु हैं चार गुरु, देखो यह है ‘व्याल’.
बयालीस लघु तीन गुरु, आये रूप ‘विडाल’.

दोहा रचना है सुगम, नहीं कठिन कुछ खास.
प्रभुवर की होगी कृपा, मिलकर करें प्रयास..

(विशेष)

ऐसा भी कहा गया है कि दोहे की लयात्मकता ही सभी नियमों के ऊपर होती है किन्तु लयात्मकता से वही परिचित होते हैं जिनकी रूचि संगीत में होती है किन्तु जो व्यक्ति लयात्मकता से परिचित नहीं है उसके लिए तत्संबंधित नियमों का जानना अनिवार्य हो जाता है |
छंद शास्त्र के मर्मज्ञ कवि जगन्नाथ प्रसाद भानु यद्यपि लयात्मकता को सर्वोपरि मानते हैं तथापि इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने ग्रन्थ 'छंद प्रभाकर' में निम्नलिखित व्यवस्था का उल्लेख भी किया है |
उनके अनुसार त्रयोदशकलात्मक विषम चरण की बनावट के आधार पर दोहे दो प्रकार के होते है,
विषमकलात्मक एवम समकलात्मक |
विषमकलात्मक दोहा उसे कहते है जिसका प्रारम्भ (लघु गरु), (गरु लघु) अथवा (लघु लघु लघु) से हो | इसकी बुनावट ३+३+२+३+२ के हिसाब से होती है | इसका चौथा समूह जो त्रिकल का है उसमें लघु गुरु अर्थात १२ रूप नहीं आना चाहिए| अर्थात १२ त्रिकल रूप + २ द्विकल ही यमाता या यगण रूप सिद्ध होता है तभी कवि 'भानु' ने "राम राम गाव भाई" के स्थान पर "राम राम गावहु सदा" या "राम राम गावौ सदा" का प्रयोग ही उचित माना है |
कवि भानु के अनुसार समकलात्मक दोहा उसे कहते है जिसका प्रारम्भ (लघु लघु गरु), (गरु गुरु) अथवा (लघु लघु लघु लघु) से हो | इसकी बुनावट ४+४+३+२ की होती है अर्थात चौकल के पीछे चौकल फिर त्रिकल तद्पश्चात द्विकल आना चाहिए इसमें भी त्रिकल का १२ अर्थात लघु गुरु वाला रूप त्याज्य है जैसे कि "सीता सीता पती को" के बजाय "सीता सीतानाथ को" ही उपयुक्त है अर्थात यह सिद्ध होता है कि इसमें भी तृतीय त्रिकल + चतुर्थ द्विकल (३+२) मिला कर यगण रूप नहीं होना चाहिए |

- इं० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

दोहाकार

Monday, October 5, 2015

अलंकार चर्चा भाग 2

पुनरुक्तवदाभास अलंकार

जब प्रतीत हो, हो नहीं, काव्य-अर्थ-पुनरुक्ति
वदाभास पुनरुक्त कह, अलंकार कर युक्ति
 जहँ पर्याय न मूल पर, अन्य अर्थ आभास.
तहँ पुनरुक्त वदाभास्, करता 'सलिल' उजास..

शब्द प्रयोग जहाँ 'सलिल', ना पर्याय- न मूल.
वदाभास पुनरुक्त है, अलंकार ज्यों फूल..

काव्य में जहाँ पर शब्दों का प्रयोग इस प्रकार हो कि वे पर्याय या पुनरुक्त न होने पर भी पर्याय प्रतीत हों पर अर्थ अन्य दें, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है.
किसी काव्यांश में अर्थ की पुनरुक्ति होती हुई प्रतीत हो, किन्तु वास्तव में अर्थ की पुनरुक्ति न हो तब पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।

उदाहरण:

१. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।
२.
आतप-बरखा सह 'सलिल', नहीं शीश पर हाथ.
नाथ अनाथों का कहाँ?, तात न तेरे साथ..
यहाँ 'आतप-बरखा' का अर्थ गर्मी तथा बरसात नहीं दुःख-सुख, 'शीश पर हाथ' का अर्थ आशीर्वाद, 'तात' का अर्थ स्वामी नहीं पिता है.
३.
वे बरगद के पेड़ थे, पंछी पाते ठौर.
छाँह घनी देते रहे, उन सा कोई न और..
यहाँ 'बरगद के पेड़' से आशय मजबूत व्यक्ति, 'पंछी पाते ठौर' से आशय संबंधी आश्रय पाते, छाँह घनी का मतलब 'आश्रय' तथा और का अर्थ 'अन्य' है.
४.
धूप-छाँव सम भाव से, सही न खोया धीर.
नहीं रहे बेपीर वे, बने रहे वे पीर..
यहाँ धूप-छाँव का अर्थ सुख-दुःख, 'बेपीर' का अर्थ गुरुहीन तथा 'पीर' का अर्थ वीतराग होना है.
५.
पद-चिन्हों पर चल 'सलिल', लेकर उनका नाम.
जिनने हँस हरदम किया, तेरा काम तमाम..
यहाँ पद-चिन्हों का अर्थ परंपरा, 'नाम' का अर्थ याद तथा 'काम तमाम' का अर्थ समस्त कार्य है.
६. 
देखो नीप कदंब खिला मन को हरता है
यहाँ नीप और कदंब में में एक ही अर्थ की प्रतीति होने का भ्रम होता है किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। यहाँ नीप का अर्थ है कदंब जबकि कदंब का अर्थ है वृक्षों का समूह।
७. 
जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता है
यहाँ कनक और सुवर्ण में अर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है किन्तु है नहीं। कनक का अर्थ है सोना और सुवर्ण का आशय है अच्छे वर्ण का।
८. 
दुल्हा बना बसंत, बनी दुल्हिन मन भायी
दुल्हा और बना (बन्ना) तथा दुल्हिन और बनी (बन्नी) में पुनरुक्ति का आभास भले ही हो किन्तु दुल्हा = वर और बना = सज्जित हुआ, दुल्हिन = वधु और बनी - सजी हुई. अटल दिखने पर भी पुनरुक्ति नहीं है।
९. 
सुमन फूल खिल उठे, लखो मानस में, मन में ।
सुमन = फूल, फूल = प्रसन्नता, मानस = मान सरोवर, मन = अंतर्मन।
१०. 
निर्मल कीरति जगत जहान।
जगत = जागृत, जहां = दुनिया में।
११. 
अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।  

शब्दालंकार : तुलना और अंतर

शब्द कथ्य को अलंकृत, करता विविध प्रकार
अलंकार बहु शब्द के, कविता का श्रृंगार

यमक श्लेष अनुप्रास सँग, वक्र-उक्ति का रंग
छटा लात-अनुप्रास की, कर देती है दंग

साम्य और अंतर 'सलिल', रसानंद का स्रोत
समझ रचें कविता अगर, कवि न रहे खद्योत

शब्दालंकारों से काव्य के सौंदर्य में निस्संदेह वृद्धि होती है, कथ्य अधिक ग्रहणीय तथा स्मरणीय हो जाता है. शब्दालंकारों में समानता तथा विषमता की जानकारी न हो तो भ्रम उत्पन्न हो जाता है. यह प्रसंग विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों, जान सामान्य तथा रचनाकारों के लिये समान रूप से उपयोगी है.

अ. अनुप्रास और लाटानुप्रास:

समानता: दोनों में आवृत्ति जनित काव्य सौंदर्य होता है.
अंतर: अनुप्रास में वर्ण (अक्षर या मात्रा) का दुहराव होता है.
लाटानुप्रास में शब्द (सार्थक अक्षर-समूह) का दुहराव होता है.
उदाहरण: अगम अनादि अनंत अनश्वर, अद्भुत अविनाशी
'सलिल' सतासतधारी जहँ-तहँ है काबा-काशी - अनुप्रास (छेकानुप्रास, अ, स, क)
अपना कुछ भी रहा न अपना
सपना निकला झूठा सपना - लाटानुप्रास (अपना. सपना समान अर्थ में भिन्न अन्वयों के साथ शब्द का दुहराव)

आ. लाटानुप्रास और यमक:

समानता : दोनों में शब्द की आवृत्ति होती है.
अंतर: लाटानुप्रास में दुहराये जा रहे शब्द का अर्थ एक ही होता है जबकि यमक में दुहराया गया शब्द हर बार भिन्न (अलग) अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
उदाहरण: वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास - लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
 ढाल रहे हैं ढाल को, सके आक्रमण रोक
ढाल न पाये ढाल वह, सके ढाल पर टोंक - यमक (ढाल = ढालना, हथियार, उतार)

इ. यमक और श्लेष:

समानता: दोनों में शब्द के अनेक (एक से अधिक) अर्थ होते हैं.
अंतर: यमक में शब्द की कई आवृत्तियाँ अलग-अलग अर्थ में होती हैं.
श्लेष में एक बार प्रयोग किया गया शब्द एक से अधिक अर्थों की प्रतीति कराता है.
उदाहरण: छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत
छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)  
 चाहे-अनचाहे मिले, जीवन में तय हार
बिन हिचके कर लो 'सलिल', बढ़कर झट स्वीकार -श्लेष (हार = माला, पराजय)

ई. श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति:

समानता: श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति दोनों में किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं.
अंतर: श्लेष में किसी शब्द के बहु अर्थ होना ही पर्याप्त है. वक्रोक्ति में एक अर्थ में कही गयी बात का श्रोता द्वारा भिन्न अर्थ निकाला (कल्पित किया जाना) आवश्यक है.
उदहारण: सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन - श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
'पहन लो चूड़ी', कहा तो, हो गयी नाराज
ब्याहता से कहा ऐसा क्यों न आई लाज? - श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)

अर्थालंकार :

रूपायित हो अर्थ से, वस्तु चरित या भाव
तब अर्थालंकार से, बढ़ता काव्य-प्रभाव

कारण-कार्य विरोध या, साम्य बने आधार
तर्क श्रृंखला से 'सलिल', अर्थ दिखे साकार

जब वस्तु, भाव, विचार एवं चरित्र का रूप-निर्धारण शब्दों के चमत्कार के स्थान पर शब्दों के अर्थ से किया जाता है तो वहाँ अर्थालंकार होता है. अर्थालंकार के निरूपण की प्रक्रिया का माध्यम सादृश्य, वैषम्य, साम्य, विरोध, तर्क, कार्य-कारण संबंध आदि होते हैं.

अर्थालंकार के प्रकार-

अर्थालंकार मुख्यत: ७ प्रकार के हैं
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार
६. लोकनयायमूलक अर्थालंकार
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार:
इस अलंकार का आधार किसी न किसी प्रकार (व्यक्ति, वस्तु, भाव,विचार आदि) की समानता होती है. सबसे अधिक व्यापक आधार युक्त सादृश्य मूलक अलंकार का उद्भव किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का निरूपण करने के लिये समान गुण-धर्म युक्त अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि से तुलना अथवा समानता बताने से होता है. प्रमुख साधर्म्यमूलक अलंकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति, पटटीप, भ्रान्ति, संदेह, स्मरण, अपन्हुति, व्यतिरेक, दृष्टान्त, निदर्शना, समासोक्ति, अन्योक्ति आदि हैं. किसी वस्तु की प्रतीति कराने के लिये प्राय: उसके समान किसी अन्य वस्तु का वर्णन किया जाता है. किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का वर्णन करने से इष्ट अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का चित्र स्पष्ट कराया जाता है. यह प्रक्रिया २ वर्गों में विभाजित की जा सकती है.
अ. गुणसाम्यता के आधार पर
आ. क्रिया साम्यता के आधार पर तथा
इनके विस्तार अनेक प्रभेद सदृश्यमूलक अलंकारों में देखे जा सकते हैं. गुण साम्यता के आधार पर २ रूप देखे जा सकते हैं:
१. सम साम्य-वैषम्य मूलक- समानता-असमानता की बराबरी हो. जैसे उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण, संदेह, प्रतीप आदि अलंकारों में.
२. साम्य प्रधान - अत्यधिक समानता के कारण भेदहीनता। यह भेद हीनता आरोप मूलक तथा समाहार मूलक दो तरह की होती है.
इनके २ उप वर्ग क. आरोपमूलक व ख समाहार या अध्यवसाय मूलक हैं.
क. आरोपमूलक अलंकारों में प्रस्तुत (उपमेय) के अंदर अप्रस्तुत (उपमान) का आरोप किया जाता है. जैसे रूपक, परिणाम, भ्रांतिमान, उल्लेख अपन्हुति आदि में.
समाहार या अध्यवसाय मूलक अलंकारों में उपमेय या प्रस्तुत में उपमान या अप्रस्तुत का ध्यवसान हो जाता है. जैसे: उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि.
ख. क्रिया साम्यता पर आधारित अलंकारों में साम्य या सादृश्य की चर्चा न होकर व्यापारगत साम्य या सादृश्य की चर्चा होती है. तुल्ययोगिता, दीपक, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, शक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप आदि अलंकार इस वर्गान्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं. इन अलंकारों में सादृश्य या साम्य का स्वरुप क्रिया व्यापार के रूप में प्रगट होता है. इनमें औपम्य चमत्कार की उपस्थिति के कारण इन्हें औपम्यगर्भ भी कहा जाता है.

२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों का आधार दो व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का अंतर्विरोध होता है. वस्तु और वास्तु का, गुण और गुण का, क्रिया और क्रिया का कारण और कार्य का अथवा उद्देश्य और कार्य का या परिणाम का विरोध ही वैशान्य मूलक अलंकारों का मूल है. प्रमुख वैषम्यमूलक अलंकार विरोधाभास, असंगति, विभावना, विशेषोक्ति, विषम, व्याघात, अल्प, अधिक आदि हैं.

३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों का मूल आधार क्रमबद्धता है. एकावली, करणमाला, मालदीपक, सार आदि अलंकार इस वर्ग में रखे जाते हैं.

४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों का उत्स तर्कप्रवणता में अंतर्निहित होती है. काव्यलिंग तथा अनुमान अलंकार इस वग में प्रमुख है.

५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार-

इस वर्ग में परिसंख्या, यथा संख्य, तथा समुच्चय अलंकार आते हैं.

६. लोकन्यायमूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों की प्रतीति में लोक मान्यताओं का योगदान होता है. जैसे तद्गुण, अतद्गुण, मीलित, उन्मीलित, सामान्य ततः विशेषक अलंकार आदि.

७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार- किसी कथ्य के पीछे छिपे अन्य कथ्य की प्रतीति करने वाले इस अलंकार में प्रमुख सूक्षम, व्याजोक्ति तथा वक्रोक्ति हैं.

-आचार्य संजीव सलिल

Sunday, September 27, 2015

अलंकार चर्चा

अनुक्रम:
: ० १ : अलंकार क्या है?
: ०२ : अलंकार : प्रयोजन और अर्थ
: ०३ : शब्दालंकार
: ०४ : छेकानुप्रास अलंकार
: ०५ : श्रुत्यानुप्रास अलंकार
: ०६ : अंत्यानुप्रास अलंकार
: ०७ : लाटानुप्रास अलंकार
: ०८ : वैणसगाई अलंकार
: ०९ : पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार
: १० : यमक अलंकार
: ११ : श्लेष अलंकार

अलंकार चर्चा: १

अलंकार क्या है?

हर व्यक्ति के मन में विचार उठते हैं. हर व्यक्ति बोलचाल, बातचीत में विचार व्यक्त भी करता है किन्तु साहित्यकार उसी बात को व्यवस्थित तरीके से, उपयुक्त शब्दों का प्रयोग कर, सार्थक शब्दों के माध्यम से कहता है तो वह अधिक प्रभाव छोड़ती है. आप संसद की बहसें और दूरदर्शन के कार्यक्रम नित्य सुनते तथा अख़बार नित्य देखते हैं. जहाँ भाषा विषय के अनुरूप न हो वहां वह असरहीन तो होती ही है, वक्ता या लेखक को उपहास का पात्र भी बनाती है. भाषा के प्रभाव में वृद्धि कर बात को सहज ग्राह्य, रोचक तथा सुरुचिपूर्ण बनाने की कला ही अलंकार का उपयोग करना है.
आभूषणविहीन नववधु की तरह अलंकारविहीन कविता अपना प्रभाव खो देती है. जिस तरह नववधु की चर्चा होते ही विविध वस्त्राभूषणों से सुसज्जित नवयौवना का चित्र साकार होता है, उसी तरह काव्य रचना की चर्चा होते ही रस, छंद और अलंकार से सुशोभित रचना का बिम्ब मानस पटल पर उभरता है. संस्कृत साहित्य में काव्य की आत्मा रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, अनुमिति, औचित्य तथा रस इंगित किये जाने पर भी अलंकार की महत्ता सभी आचार्यों ने मुक्त कंठ से स्वीकारी है. अलंकार को पृथक सम्प्रदाय न कहे जाने का कारण संभवत: यह है कि कोई भी संप्रदाय अलंकार के बिना हो ही नहीं सकता है.इसलिए अग्नि पुराणकार कहता है: 'अलंकार रहित विधवैव सरस्वती'
चंद्रालोक के अनुसार:
न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिता मुखं
अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलंकृति
असौ न मन्यते कस्माद्नुष्णमनलं कृती
काव्य शोभाकरां धर्मानलंकारां प्रचक्षते
आचार्य वामन ने अलंकार को काव्य का शोभावर्धक तत्व तथा रीति को काव्य की आत्मा कहा-
काव्य शोभा: कर्त्तारौ धर्मा: गुणा:
तदतिशय हेत वस्त्वलंकारा:
अलंकार के प्रथम प्रवर्तक आचार्य भामह ने अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना-
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिनयाsर्थो विभाव्यते
यत्नोस्यां कविना कार्य कोलंकारोsनयविना
वामन ने 'काव्यालंकार सूत्रवृत्ति' में रीति को, कुंतक ने 'वक्रोक्ति जीवितं' में वक्रोक्ति को, आनंदवर्धनाचार्यके अनुसार ध्वनि, क्षेमेन्द्र व् जयमंगलाचार्य के अनुसार औचित्य तथा विश्वनाथ के मत में रस काव्य के अनिवार्य तत्व हैं. गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस में लिखते हैं-
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।।
भवभेद रसभेद अपारा। कवित दोष-गुन बिबिध प्रकारा।।
अंगरेजी के प्रसिद्ध लेखक डॉ. जॉनसन के अनुसार: ' पोएट्री इज द आर्ट ऑफ़ यूनाइटिंग प्लेजर विथ ट्रुथ बाय कालिंग इमेजिनेशन टु द हेल्प ऑफ़ रीजन.
सत्य में आनंद का सम्मिश्रण अलंकार के माध्यम से ही होता है.
रामचन्द्र शुक्ल के मत में: 'अलंकार काव्य की आत्मा है.'
कविवर सुमित्रानंदन पंत के अनुसार- 'अलंकार केवल वाणी की लिए नहीं हैं. वे भाव की अभिव्यक्ति विशेष द्वार हैं.

अलंकार चर्चा : २

अलंकार : प्रयोजन और अर्थ

नवयौवन पर सोहता, ज्यों नूतन श्रृंगार
काव्य कामिनी पर सजे, अलंकार भंडार
मानव मन की अनुभूतियों को सम्यक शब्दों तथा लय के माध्यम से प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने की कला कविताई है. कहने के जिस तरीके से कविता में व्यक्त भावों का सौंदर्य और प्रभाव बढ़ता है उसे अलंकार कहते हैं.
हम स्नान तथा सौंदर्य प्रसाधनों के बिना भी रह सकते हैं पर स्नान से ताजगी व स्फूर्ति तथा सौंदर्य प्रसाधनों से सुरुचि की प्रतीति होती है, आकर्षण बढ़ता है. इसी तरह बिना अलंकार के भी कविता हो सकती है पर अलंकार का प्रयोग होने से कविता का आकर्षण तथा प्रभाव बढ़ता है.
एक बात और जिस तरह अत्यधिक श्रृंगार अरुचि उत्पन्न करता है वैसे ही अत्यधिक अलंकार भी काव्य के प्रभाव को न्यून करता है.
आशय यह की कवि को यह स्मरण रखना चाहिए कि रस, छंद , अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि के प्रयोग का उद्देश्य कविता का प्रभाव बढ़ाना है, न कि कथ्य से अधिक अपना प्रभाव स्थापित करना. कविता साध्य है शेष तत्व साधन।

परिभाषा:

अधरों की शोभा बढ़ा, सार्थक होता हास
अलंकार से काव्य की, सुंदरता हो ख़ास
सामान्यत: कथन के जिन प्रकारों से काव्य की सौंदर्य वृद्धि होती है उन्हें अलंकार कहते हैं. अलंकार का शाब्दिक अर्थ आभूषण है.
काव्य को 'शब्दार्थौ सहितौ' (अर्थ युक्त शब्द) तथा 'विदग्ध भणिति' (रमणीय कथन) मानने की संस्कृत काव्य-परंपरा हिंदी ने विरासत में पायी है. यह परंपरा रीति, नाक्रोक्ति, ध्वनि या रस को काव्यात्मा मानती रही किन्तु अलंकार को 'अलं करोतीति अलंकार:' कहकर शोभावर्धक तत्व के रूप में अलंकारों के प्रकार खोजने तक सीमित रह गयी. भामह ने अलंकार का मूल वक्रोक्ति को मानते हुए वक्रोक्ति के विविध रूपों में अलंकार के भेद या प्रकार खोजे.
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थौ विभाव्यते
यत्नोsस्यां कविना कार्य: को लंकारोsनयाsविना -काव्यालंकार २, ८५
वक्रोक्ति के भेद अलंकार मान्य किये गए तो स्वभावोक्ति को भी अलंकार स्वीकारा गया. वास्तव में अलंकार वचन-भंगिमा है, चमत्कार पूर्ण उक्ति (कथन) है. काव्य को जीवन और सत्य प्रकाशित करनेवाली विधा मानने पर अलंकार को उसकी दीप्ति मानना होगा. वस्तुत: सत्य या तथ्य काव्य की वस्तु, विचार या भाव है किन्तु अमूर्त भाव को मूर्तित अथवा रूपायित करनेवाला कारक अलंकार ही है. अत: अलंकार की परिभाषा निम्नवत होगी:
किसी वस्तु, सत्य या जीवन को शब्दों में अभिव्यक्त कर पाठक-श्रोता को चमत्कृत करने की कला व् विज्ञान अलंकार है. पाश्चात्य काव्य मीमांसा में वर्णित बिंबवाद और प्रतीकवाद भी अलनकर के ही अंगोपांग हैं. अलंकार का यह वृहद स्वरूप भाव तथा रस के प्रभाव का विस्तारक है तथा वस्तु, विचार या जीवन की प्रत्यक्ष अनुभूति करने में सक्षम है.
नवयौवन पर सोहता, ज्यों नूतन श्रृंगार
काव्य कामिनी पर सजे, अलंकार साकार
अधरों की शोभा बढ़ा, सार्थक होता हास
अलंकार से काव्य की, सुंदरता हो ख़ास

प्रकार:

अलंकार के २ प्रकार हैं-
१. शब्दालंकार: जब शब्द में चमत्कार से काव्य-प्रभाव में वृद्धि हो.
उदाहरण:
१. अजर अमर अक्षर अगम, अविनाशी परब्रम्ह
यहां 'अ' की आवृत्तियों से कथन में चमत्कार उत्पन्न हो रहा है. अत: वृत्यानुप्रास अलंकार है
२. गये दवाखाना मिला, घर से यह निर्देश
भूल दवा खाना गये, खा लें था आदेश
यहाँ 'दवाखाना' शब्द की भिन्नार्थों में दो आवृत्तियाँ होने से यमक अलंकार है.
३. नेता से नेता करे, नूराकुश्ती नित्य
'नेता' शब्द की समानार्थ में दो आवृत्ति होने से यहाँ लाटानुप्रास अलंकार है.
४. चन्द्र गगन में बाँह में मोहक छवि बिखेर
यहाँ 'चन्द्र' की एक आवृत्ति अनेक अर्थों की प्रतीति कराती है. अत: यहाँ श्लेष अलंकार है.

न शब्दालंकारों का उपविभाज

१. आवृत्तिमूलक अलंकार, २. स्वराघात मूलक अलंकार तथा ३. चित्रमूलक अलंकार में किया गया है.

शब्दालंकार में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शब्द के स्थान पर समानार्थी शब्द रख दिया जाए तो अर्थ में परिवर्तन न होने पर भी अलंकार नहीं रहता क्योंकि शब्द बदलने पर समान अर्थ होते हुए पर भी चमत्कार नष्ट हो जाता है.

२. अर्थालंकार: 

जब अर्थ में चमत्कार काव्य-प्रभाव में वृद्धि करे.
उदाहरण:
१. नेता-अफसर राहु-केतु सम ग्रहण देश को आज
यहाँ नेताओं तथा अधिकारियों को राहु-केतु के सामान बताने के कारण उपमा अलंकार है.
२. नयन कमल छवि मन बसी
यहाँ नयन को कमल बताया गया है, अत: रूपक अलंकार है.
अर्थालंकार में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शब्द के स्थान पर समानार्थी शब्द रख दिया जाए तो अर्थ नहीं बदलता तथा अलंकार यथावत बना रहता है.
अर्थालंकार के २ उपभेद हैं: १. गुणसाम्य के आधार पर, २. क्रिया साम्य के आधार पर.

अलंकार चर्चा: ३

शब्दालंकार

विशिष्ट शब्द-प्रयोगों तथा शब्द-ध्वनियों द्वारा काव्य के कथ्य या वस्तु को अधिक सुरुचिपूर्वक ग्राह्य और संवेद्य बनानेवाले अलंकार शब्दालंकार कहे जाते हैं. कविता में कही गयी बात जितनी आकर्षक होगी पाठक का मन उतना अधिक मोहेगी और वह कहे गये को रुचिपूर्वक ग्रहण कर सकेगा.
हम नित्य सोकर उठने के पश्चात स्नानादि कर स्वच्छ वस्त्र पहनकर समाज में जाते हैं तो परिचित सस्नेह मिलते हैं. यासी हम मैले-कुचैले वस्त्रों में जैसे ही चले जाएँ तो न हमें अच्छा लगेगा, न परिचितों को. अपने आपको सुसज्जित कर प्रस्तुत करना ही अलंकृत होना या अलंकार का वरण करना है.
कविता की अंतर्वस्तु को सुसज्जित कर ही अलंकार का प्रयोग करना है. भवन निर्माण के पश्चात वास्तुविद उचित स्थान पर उचित आकर के द्वार, वातायन, मन को अच्छे लगनेवाले रंगों, उपयोगी उपकरणों आदि का प्रयोग कर भावब को अलंकृत करता है. कवि के उपकरण शब्द तथा अर्थ हैं. विचार की अभिव्यक्ति में शब्द का प्रयोग पहले होता है तब पाठक-श्रोता उसे पढ़-सुनकर उसका अर्थ ग्रहण करता है. इसलिए शब्दालंकार को जानना तथा उसका समुचित प्रयोग करना आवश्यक है.
शब्दालंकार के ३ वर्ग हैं: १. आवृत्तिमूलक, २. स्वराघातमूलक तथा ३. चित्रमूलक।

आवृत्तिमूलक शब्दालंकार:

आवृत्तिमूलक शब्दालंकारों के २ उप वर्ग है:
१. वर्णावृत्तिमूलक: वे अलंकार जिनमें वर्णों (अक्षरों) की आवृत्ति (दुहराव) होता है. जैसे अनुप्रास अलंकार.
२. शब्दावृत्ति मूलक: वे अलंकार जिनमें शब्दों की आवृत्ति होती है. जैसे यमक अलंकार।
अनुप्रास अलंकार: अनुप्रास अलंकार में एक या अधिक वर्णों की आवृत्ति होती है.
उदाहरण:
१. भगवान भारत भारती का भव्य भूषित भवन हो (भ की आवृत्ति)
२. जय जगजननी-जगतजनक, जय जनगण जय देश (ज की आवृत्ति)
अनुप्रास अलंकार के ५ भेद हैं: १. छेकानुप्रास, २. वृत्यनुप्रास, ३. श्रुत्यनुप्रास, ४. अन्त्यानुप्रास, ५. लाटानुप्रास।

अलंकार चर्चा : ४

छेकानुप्रास

एक या अधिक वर्ण का, मात्र एक दोहराव
'सलिल' छेक-अनुप्रास से, बढ़ता काव्य-प्रभाव
जब एक या एकाधिक वर्णों (अक्षरों) की एक आवृत्ति हो तो वहाँ छेकानुप्रास होता है।
उदाहरण:
१. अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व जग जान।
स्नेह समादर वृद्धि वर, काव्य कलश रस-खान ।।
यहाँ अ, ज, स, व तथा क की एक आवृत्ति दृष्टव्य है।
२. सेवा समय दैव वन दीन्हा। मोर मनोरथ सफल न कीन्हा।।
३. पत्थर पिघले किन्तु तुम्हा तब भी ह्रदय हिलेगा क्या?
४. चेत कर चलना कुमारग में कदम धरना नहीं।
५. निर्मल नभ में देव दिवाकर अग्नि चक्र से फिरते हैं।
६. एक को मारे दो मर जावे तीजा गिरे कुलाटी खाय।
७. ज़ख्म जहरीले को चीरा चाहिए।
काटने को काँच हीरा चाहिए।।
८. मिट्टी का घड़ा
बूँद-बूँद रिसता
लो खाली हुआ।
९. राम गया रावण गया
मरना सच अनिवार्य है
मरने का भय क्यों भला?
१०. मन में मौन
रहे सदा, देखता
कहिए कौन?
टीप: वर्ण की आवृत्ति शब्दारंभ में ही देखी जाती है. शब्द के मध्य या अंत में आवृत्ति नहीं देखी जाती।
उक्त अलंकार का प्रयोग कर अपनी काव्य पंक्तियाँ टिप्पणी में लगायें।
अपने अंचल में प्रचलित भाषा रूप की काव्य पंक्तियाँ जिनमें अलंकार का प्रयोग हो प्रस्तुत करें। विविध छंदों के उदाहरण जिनमें उक्त अलंकार हो, प्रस्तुत करेंआप सभी का धन्यवाद। अलंकारों का प्रयोग कर अपनी काव्य पंक्तियाँ टिप्पणी में लगाएं। अपने अंचल में प्रचलित भाषा रूप की पकंतियाँ जिनमें अलंकार का प्रयोग हो प्रस्तुत करें।

अलंकार चर्चा : ५

श्रुत्यानुप्रास अलंकार

समस्थान से उच्चरित, वर्णों का उपयोग
करे श्रुत्यानुप्रास में, युग-युग से कवि लोग
वर्णों का उच्चारण विविध स्थानों से किया जाता है. इसी आधार पर वर्णों के निम्न अनुसार वर्ग बनाये गये हैं.
उच्चारण स्थान अक्षर
कंठ अ आ क ख ग घ ङ् ह
तालु इ ई च छ ज झ ञ् य श
मूर्द्धा ऋ ट ठ ड ढ ण र ष
दंत लृ त थ द ध न ल स
ओष्ठ उ ऊ प फ ब भ म
कंठ-तालु ए ऐ
कंठ-ओष्ठ ओ औ
दंत ओष्ठ व
नासिका भी ङ् ञ् ण न म
जब श्रुति अर्थात एक स्थान से उच्चरित कई वर्णों का प्रयोग हो तो वहां श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. अक्सर आया कपोत गौरैया संग हुलस
यहाँ अ क आ क ग ग ह कंठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
२. इधर ईद चन्दा-छटा झट जग दे उजियार
यहाँ इ ई च छ झ ज ज य तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
३. ठोंके टिमकी डमरू ढोल विषम जोधा रण बीच चला
यहाँ ठ, ट, ड, ढ, ष, ण मूर्धाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
४. तुलसीदास सीदत निसि-दिन देखत तुम्हारि निठुराई
यहाँ त ल स द स स द त न स द न द त त न दन्ताक्षरों का प्रयोग किया गया है.
५. उधर ऊपर पग फैला बैठी भामिनी थक-चूर हो
यहाँ उ ऊ प फ ब भ म ओष्ठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
६. ए ऐनक नहीं तो दो आँख धुंधला देखतीं
यहाँ ए, ऐ कंठव्य-तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
७. ओजस्वी औलाद न औसर ओट देखती
यहाँ ओ औ औ ओ कंठ-ओष्ठ अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
८. वनराज विपुल प्रहार कर वाराह-वध हित व्यथित था
यहाँ व दंत-ओष्टाक्षर का प्रयोग किया गया है.
९. वाङ्गमय भी वाञ्छित, रणनाद ही मत तुम करो
यहाँ ङ् ञ् ण न म नासिकाक्षरों का प्रयोग किया गया है.

अलंकार चर्चा ०६ :

अंत्यानुप्रास अलंकार

जब दो या अधिक शब्दों, वाक्यों या छंद के चरणों के अंत में अंतिम दो स्वरों की मध्य के व्यंजन सहित आवृत्ति हो तो वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
छंद के अंतिम चरण में स्वर या व्यंजन की समता को अन्त्यनुप्रास कहा जाता है. इसके कई प्रकार हैं. यथा सर्वान्त्य, समान्तय, विषमान्त्य, समान्त्य-विषमान्त्य तथा सम विषमान्त्य।
अ. सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार:
सभी चरणों में अंतिम वर्ण समान हो तो सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. सामान्यत सवैया में यह अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसि बनी सिर सुंदर चोटी
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैजनिया कटि पीरी कछौटी
वा छवि को रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी (मत्तगयन्द सवैया, ७ भगण २ गुरु, २३ वर्ण)
२. खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं कौं झरी कै
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन मैं रंग को भरि कै
गेरत लाल गुलाल लली मन मोहनि मौज मिटा करि कै
जाट चली रसखानि अली मदमत्त मनौ-मन कों हरि कै (मदिरा सवैया, ७ भगण १ गुरु, २२ वर्ण)
आ. समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार
सम चरणों अर्थात दूसरे, चौथे छठवें आदि चरणों में अंतिम वर्णों की समता होने पर समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार होता है. दोहा में इसकी उपस्थिति अनिवार्य होती है.
उदाहरण:
१. जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दें 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
२. मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोइ
जा तन की झांई परै, श्याम हरित दुति होइ
इ. विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
विषम अर्थात प्रथम, तृतीय, पंचम आदि चरणों के अंत में वर्णों की समता विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार दर्शाती है. यह अलंकार सोरठा, मुक्तक आदि में मिलता है.
उदाहरण:
१. लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में
२. आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
​​तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
ई. समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
किसी छंद की एक ही पंक्ति के सम तथा विषम दोनों चरणों में अलग-अलग समानता हो तो समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. यह अलंकार किसी-किसी दोहे, सोरठे, मुक्तक तथा चौपाई में हो सकता है.

उदाहरण :
१. कुंद इंदु सम देह, उमारमण करुणा अयन
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन
इस सोरठे में विषम चरणों के अंत में देह-नेह तथा सम चरणों के अंत में अयन-मयन में भिन्न-भिन्न अंत्यानुप्रास हैं.
२. कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
इस दोहे में विषम चरणों के अंत में 'मूसलाधार है' व 'हाहाकार है' में तथा सम चरणों के अंत में 'बरसात' व 'रात' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
३. आँख मिलाकर आँख झुकाते आँख झुकाकर आँख उठाते आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
इस मुक्तक में 'मिलाकर', 'झुकाकर', 'मारकर' व दिखाकर' में तथा 'झुकाते', उठाते', 'करते' व 'कराते' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
उ. सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब छंद के हर दो-दो चरणों के अन्त्यानुप्रास में समानता तथा पंक्तियों के अन्त्यनुप्रास में भिन्नता हो तो वहां सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करात सन्ततं प्रतिपाला ।।
भाल चद्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नाग फनीके ।।
यहाँ 'दयाला' व 'प्रतिपाला' तथा 'नीके' व 'फनीके' में पंक्तिवार समानता है पर विविध पंक्तियों में भिन्नता है.
अन्त्यानुप्रास के विविध प्रकारों का प्रयोग चलचित्र 'उत्सव' के एक सरस गीत में दृष्टव्य है:
मन क्यों बहका री बहका, आधी रात को
बेला महका री महका, आधी रात को
किस ने बन्सी बजाई, आधी रात को
जिस ने पलकी चुराई, आधी रात को
झांझर झमके सुन झमके, आधी रात को
उसको टोको ना रोको, रोको ना टोको, टोको ना रोको, आधी रात को लाज लागे री लागे, आधी रात को देना सिंदूर क्यों सोऊँ आधी रात को
बात कहते बने क्या, आधी रात को
आँख खोलेगी बात, आधी रात को
हम ने पी चाँदनी, आधी रात को
चाँद आँखों में आया, आधी रात को
रात गुनती रहेगी, आधी बात को
आधी बातों की पीर, आधी रात को
बात पूरी हो कैसे, आधी रात को
रात होती शुरू हैं, आधी रात को
गीतकार : वसंत देव, गायक : आशा भोसले - लता मंगेशकर, संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रपट : उत्सव (१९८४)
इस सरस गीत और उस पर हुआ जीवंत अभिनय अविस्मरणीय है.इस गीत में आनुप्रासिक छटा देखते ही बनती है. झांझर झमके सुन झमके, मन क्यों बहका री बहका, बेला महका री महका, रात गुनती रहेगी आदि में छेकानुप्रास मन मोहता है. इस गीत में अन्त्यानुप्रास का प्रयोग हर पंक्ति में हुआ है.
हरतालिका तीज

अलंकार चर्चा ०७ :

लाटानुप्रास अलंकार

एक शब्द बहुबार हो, किन्तु अर्थ हो एक
अन्वय लाट अनुप्रास में, रहे भिन्न सविवेक
जब कोई शब्द दो या अधिक बार एक ही अर्थ में प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय भिन्न हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है. भिन्न अन्वय से आशय भिन्न शब्द के साथ अथवा समान शब्द के साथ भिन्न प्रकार के प्रयोग से है.
किसी काव्य पद में समान शब्द एकाधिक बार प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय करने से भिन्नार्थ की प्रतीति हो तो लाटानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. राम ह्रदय, जाके नहीं विपति, सुमंगल ताहि
राम ह्रदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि
जिसके ह्रदय में राम हैं, उसे विपत्ति नहीं होती, सदा शुभ होता है.
जिसके ह्रदय में राम नहीं हैं, उसके लिए शुभ भी विपत्ति बन जाता है.
अन्वय अल्पविराम चिन्ह से इंगित किया गया है.
२. पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै??
यहाँ पूत, तो, क्यों, धन तथा संचै शब्दों की एकाधिक आवृत्ति पहली बार सपूत के साथ है तो दूसरी बार कपूत के साथ.
३. सलिल प्रवाहित हो विमल, सलिल निनादित छंद
सलिल पूर्वज चाहते, सलिल तृप्ति आनंद
यहाँ सलिल शब्द का प्रयोग चार भिन्न अन्वयों में द्रष्टव्य है.
४. मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अवतारी थी
यहाँ पहले दोनों तेज शब्दों का अन्वय मिला क्रिया के साथ है किन्तु पहला तेज करण करक में है जबकि दूसरा तेज कर्ता कारक में है. तीसरे तेज का अन्वय अधिकारी शब्द से है.
५. उत्त्तरा के धन रहो तुम उत्त्तरा के पास ही
उत्तरा शब्द का अर्थ दोनों बार समान होने पर भी उसका अन्वय धन और पास के साथ हुआ है.
६. पहनो कान्त! तुम्हीं यह मेरी जयमाला सी वरमाला
यहाँ माला शब्द दो बार समान अर्थ में है,किन्तु अन्वय जय तथा वार के साथ भिन्नार्थ में हुआ है.
७. आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ
चित्रपटीय गीत की इस पंक्ति में आदमी शब्द का दो बार समानार्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु अन्वय हूँ तथा से के साथ होने से भिन्नार्थ की प्रतीति कराता है.
८. अदरक में बंदर इधर, ढूँढ रहे हैं स्वाद
स्वाद-स्वाद में हो रहा, उधर मुल्क बर्बाद
अभियंता देवकीनन्दन 'शांत' की दोहा ग़ज़ल के इस शे'र में स्वाद का प्रयोग भिन्न अन्वय में हुआ है.
९. सब का सब से हो भला
सब सदैव निर्भय रहें
सब का मन शतदल खिले.
मेरे इस जनक छंद (तेरह मात्रक त्रिपदी) में सब का ४ बार प्रयोग समान अर्थ तथा भिन्न अन्वय में हुआ है.
टिप्पणी: तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान!
चित्रपटीय गीत के इस अंश में मेरी जान शब्द युग्म का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु भिन्नार्थ में होने पर भी अन्वय भिन्न न होने के कारण यहाँ लाटानुप्रास अलंकार नहीं है. 'मेरी जान' के दो अर्थ मेरे प्राण, तथा मेरी प्रेमिका होने से यहाँ यमक अलंकार है.
गणेश चतुर्थी / विश्वकर्मा जयंती -२०१५

अलंकार चर्चा ०८ :

वैणसगाई अलंकार

जब-जब अंतिम शब्द में, प्रथमाक्षर हो मीत
वैणसगाई जानिए, काव्य शास्त्र की रीत
जब काव्य पंक्ति का पहला अक्षर अंतिम शब्द में कहीं भी उपस्थित हो वैणसगाई अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. माता भूमि मान
पूजै राण प्रतापसी
पहली पंक्ति में 'म' तथा दूसरी पंक्ति में प' की आवृत्ति दृष्टव्य है,
२. हरि! तुम बिन निस्सार है,
दुनिया दाहक दीन.
दया करो दीदार दो,
मीरा जल बिन मीन. - संजीव
३. हम तेरे साये की खातिर धूप में जलते रहे
हम खड़े राहों में अपने हाथ ही मलते रहे -देवकीनन्दन 'शांत'
४. नीरव प्रशांति का मौन बना बना - जयशंकर प्रसाद
५. सब सुर हों सजीव साकार …
.... तान-तान का हो विस्तार -मैथिली शरण गुप्त
६. पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल -निराला
७. हमने देखा सदन बने हैं
लोगों का अपनापन लेकर - बालकृष्ण शर्मा नवीन
८. जो हृदय की बात है वह आँख से जब बरस जाए - डॉ. रामकुमार वर्मा
९. चौकस खेतिहरों ने पाये ऋद्धि-सिद्धि के आकुल चुंबन -नागार्जुन
१०. तब इसी गतिशील सिंधु-यात्री हेतु -सुमित्रा कुमारी सिन्हा
गणेश चतुर्थी / विश्वकर्मा जयंती

अलंकार चर्चा ०९ :

शब्दावृत्तिमूलक अलंकार

शब्दों की आवृत्ति से, हो प्रभाव जब खास
शब्दालंकृत काव्य से, हो अधरों पर हास
जब शब्दों के बार-बार दुहराव से काव्य में चमत्कार उत्पन्न हो तब शब्दावृत्तिमूलक अलंकार होता है. प्रमुख शब्दावृत्ति मूलक अलंकार [ अ] पुनरुक्तप्रकाश, [आ] पुनरुक्तवदाभास, [इ] वीप्सा तथा [ई] यमक हैं. चित्र काव्य अलंकार में शब्दावृत्ति जन्य चमत्कार के साथ-साथ चित्र को देखने से उत्पन्न प्रभाव भी चमत्कार उत्पन्न करता है, इसलिए मूलत: शब्दावृत्तिमूलक होते हुए भी वह विशिष्ट हो जाता है.
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार
शब्दों की आवृत्ति हो, निश्चयता के संग
तब पुनरुक्तप्रकाश का, 'सलिल' जम सके रंग
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार की विशेषता शब्द की समान अर्थ में एकाधिक आवृत्ति के साथ- की मुखर-प्रबल अभिव्यक्ति है. इसमें शब्द के दोहराव के साथ निश्चयात्मकता का होना अनिवार्य है.
उदाहरण :
१. मधुमास में दास जू बीस बसे, मनमोहन आइहैं, आइहैं, आइहैं
उजरे इन भौननि को सजनी, सुख पुंजन छाइहैं, छाइहैं, छाइहैं
अब तेरी सौं ऐ री! न संक एकंक, विथा सब जाइहैं, जाइहैं, जाइहैं
घनश्याम प्रभा लखि सखियाँ, अँखियाँ सुख पाइहैं, पाइहैं, पाइहैं
यहाँ शब्दों की समान अर्थ में आवृत्ति के साथ कथन की निश्चयात्मकता विशिष्ट है.
२. मधुर-मधुर मेरे दीपक जल
यहाँ 'जल' क्रिया का क्रिया-विशेषण 'मधुर' दो बार आकर क्रिया पर बल देता है.
३. गाँव-गाँव अस होइ अनंदा
४. आतंकवाद को कुचलेंगे, मिलकर कुचलेंगे, सच मानो
हम गद्दारों को पकड़ेंगे, मिलकर पकड़ेंगे, प्रण ठानो
रिश्वतखोरों को जकड़ेंगे, मिलकर जकड़ेंगे, तय जानो
भारत माँ की जय बोलेंगे, जय बोलेंगे, मुट्ठी तानो
५. जय एकलिंग, जय एकलिंग, जय एकलिंग कह टूट पड़े
मानों शिवगण शिव- आज्ञा पा असुरों के दल पर टूट पड़े
६. पानी-पानी कह पौधा-पौधा मुरझा-मुरझा रोता है
बरसो-बरसो मेघा-मेघा धरती का धीरज खोता है
७. मयूंरी मधुबन-मधुबन नाच
८. घुमड़ रहे घन काले-काले, ठंडी-ठंडी चली
९. नारी के प्राणों में ममता बहती रहती, बहती रहती
१०. विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात
११. हम डूब रहे दुःख-सागर में,
अब बाँह प्रभो!धरिए, धरिए!
१२. गुरुदेव जाता है समय रक्षा करो,
१३. बनि बनि बनि बनिता चली, गनि गनि गनि डग देत
१४. आया आया आया, भाँति आया
१५. फिर सूनी-सूनी साँझ हुई
गणेश चतुर्थी / विश्वकर्मा जयंती

अलंकार चर्चा १० :

यमक अलंकार

भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
काव्य पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण- आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद यमक
अधरान = पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति

अलंकार चर्चा ११ :

श्लेष अलंकार

भिन्न अर्थ हों शब्द के, आवृत्ति केवल एक
अलंकार है श्लेष यह, कहते सुधि सविवेक
किसी काव्य में एक शब्द की एक आवृत्ति में एकाधिक अर्थ होने पर श्लेष अलंकार होता है. श्लेष का अर्थ 'चिपका हुआ' होता है. एक शब्द के साथ एक से अधिक अर्थ संलग्न (चिपके) हों तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२. बलिहारी नृप-कूप की, गुण बिन बूँद न देहिं
राजा के साथ गुण का अर्थ सद्गुण तथा कूप के साथ रस्सी है.
३. जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह जानत सब कोइ
गाँठ तथा रस के अर्थ गन्ने तथा मनुष्य के साथ क्रमश: पोर व रस तथा मनोमालिन्य व प्रेम है.
४. विपुल धन, अनेकों रत्न हो साथ लाये
प्रियतम! बतलाओ लाला मेरा कहाँ है?
यहाँ लाल के दो अर्थ मणि तथा संतान हैं.
५. सुबरन को खोजत फिरैं कवि कामी अरु चोर
इस काव्य-पंक्ति में 'सुबरन' का अर्थ क्रमश:सुंदर अक्षर, रूपसी तथा स्वर्ण हैं.
६. जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय
बारे उजियारौ करै, बढ़े अँधेरो होय
इस दोहे में बारे = जलाने पर तथा बचपन में, बढ़े = बुझने पर, बड़ा होने पर
७. लाला ला-ला कह रहे, माखन-मिसरी देख
मैया नेह लुटा रही, अधर हँसी की रेख
लाला = कृष्ण, बेटा तथा मैया - यशोदा, माता (ला-ला = ले आ, यमक)
८. था आदेश विदेश तज, जल्दी से आ देश
खाया या कि सुना गया, जब पाया संदेश
संदेश = खबर, मिठाई (आदेश = देश आ, आज्ञा यमक)
९. बरसकर
बादल-अफसर
थम गये हैं.
बरसकर = पानी गिराकर, डाँटकर
१०. नागिन लहराई, डरे, मुग्ध हुए फिर मौन
नागिन = सर्पिणी, चोटी

​-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

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