विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, September 23, 2023

सोच का अंतर

एक सेठ के पास बहुत पैसा था| समय अनुकूल था जिस भी काम में हाथ डालता था वारे-न्यारे हो जाते थे | पैसा बढ़ने के साथ-साथ सेठ का अहम और दिखावा भी बढ़ने लगा| लिहाजा शानोशौकत पर खूब खर्च करने लगा| जो छोटे व्यापारी उसके साथ मिलकर काम करते थे सबको एक-एक करके बाहर कर दिया| उसे लगने लगा था कि वही अपने धंधे का बेताज बादशाह है| 

लेकिन वक़्त सदा एक जैसा नहीं रहता| उसने एक बड़ा सौदा किया, जिसमें सारी जमा पूँजी लगा दी| किन्तु जिस पार्टी के साथ सौदा किया था उसके हिस्सेदारों में आपसी विवाद हो गया और मामला अदालत में चला गया| नतीजतन सौदा रुक गया और सेठ का पूरा पैसा जो पेशगी दिया था वह फंस गया| अब न सेठ के पास माल था और न पैसा| अपने छोटे हिस्सेदारों को वह पहले ही निकाल चुका था, इसलिए कोई धन देने वाला भी नहीं था| हालत यह हुई कि अपने खर्चे पूरे करने के लिए भी उसे अपनी संपत्तियां बेचनी पड़ रही थी| धीरे-धीरे काम-धंधा सब ठप्प हो गया तो घर बेचने की नौबत आ गई| 

सेठ की पत्नी खानदानी घर की बेटी थी| वह दिखावे पर खर्च करने की बजाये वक़्त-बेवक्त अपने नौकरों, पड़ोसियों और दूसरे ज़रुरतमंदों की मदद कर दिया करती| इसलिए लोग उनके प्रति प्रेम और श्रद्धा रखते थे| 

एक दिन जब सेठ ने सभी नौकरों को इकट्ठा करके बताया कि उनकी माली हालत अब ठीक नहीं है और वे अपना मकान-दुकान बेचकर किसी छोटे शहर में जा रहे हैं| इसलिए सभी अपना हिसाब करलें और कल से कोई काम पर न आये| यह बात आग की तरह शहर में फ़ैल गई | 

जिन लोगों की सेठानी ने वक़्त-बेवक्त मदद की हुई थी, उन तक जब यह बात पहुंची तो वे लोग अपनी जमा पूँजी और गहने लेकर हाजिर हो गए| बोले सेठानी जी, आपने हमारे बुरे वक़्त में मदद की थी, आज आपका वक़्त बुरा है हम भी कुछ सहयोग करना चाहते हैं| सेठानी ने खूब मना किया| लेकिन लोगों ने यह कहकर चुप कर दिया कि आपने दान दिया था, हम उधार दे रहे हैं, जब आपका फंसा हुआ पैसा मिल जाए तो सूद समेत दे देना, लेकिन लेना पड़ेगा| 

सेठानी के पास देखते-देखते लाखों रूपये जमा हो गए| उधर सेठ, जिसे मांगने पर भी शहर में कोई फूटी कौड़ी देने को तैयार नहीं था दूर बैठा यह सब खेल देख रहा था| जब लोग चले गए तो सेठ ने पूछा, यह सब क्या है? मैं तीन महीने से लोगों से पैसा मांग रहा हूँ, मुझे कोई सेठ भी पैसा देने को तैयार नहीं और तुम्हें जबरन वे लोग भी पैसा और गहना दे गए, जो हमारे ही टुकड़ों पर पलते थे|

सेठानी बोली- यह तुम्हारे दिखावे और अहम तथा मेरे दान और स्नेह का अंतर है सेठ जी| आपने दिखावे पर धन बहाया, मैंने लोगों की मदद की| आपने धनी होने का अहम पाला, मैंने इसे कुदरत की कृपा समझकर लोगों के साथ स्नेह बढाया| आपको लगता था लोग आपके टुकड़ों पर पल रहे हैं, मुझे लगता था उन्हीं की बदौलत हमारा व्यापार बढ़ रहा है| आपने जरूरत के समय धन लगाने वाले, अपने छोटे व्यापारी साथियों को भी दुत्कार दिया, मैंने जो रूठे हुए थे, उन्हें भी मनाया है|

सेठ जी, याद रखना जोहड़ का पानी पीने के काम भले ही न आये, पर आग बुझाने के काम तो आ ही जाता है| 

रघुविन्द्र यादव

Friday, March 2, 2018

" भाई का हाथ " - मास्टर रामअवतार शर्मा

मुझे याद ही नहीं आ रहा माँ का चेहरा । हाँ, एक धुंधली सी परछाई अवश्य ही शेष है कि माँ थी जरूर । माँ ममता का दामन छोङ राम को प्यारी हो गई थी । उस समय पिताजी ठेकेदारी किया करते थे, लेकिन इस असामयिक घटना के कारण उनका काम चौपट हो चुका था । सदैव हँसमुख रहने वाले पिताजी अब हताश और निराश रहने लगे थे । सबसे बङी समस्या रोटियों की थी कि घर की रसोई कौन संभाले ? बङे भैया बामुश्किल पन्द्रह वर्ष के थे, मझले भैया दस वर्ष के और मैं बस चार वर्ष का ही था । घर के काम काज से पिताजी तंग आ चुके थे । इसलिए हारकर उन्होंने बङे भैया की शादी का निर्णय ले ही लिया । आज कल की तरह बाल विवाह पर कोई विशेष पाबंदी नहीं थी । आखिर घर को संभालने वाली एक अदद महिला की आवश्यकता भी तो थी ।
पिताजी का अच्छा कारोबार था । वे एक सामाजिक आदमी थे तभी तो लोग उनका आदर किया करते थे । मुझे याद है कि गाँव की कोई भी पंचायत उनके बिना अधूरी समझी जाती थी । वे राजनीति से सदैव दूर ही रहे क्योंकि वे पदलोलुप नहीं थे । उनका इतना दबदबा था गाँव में कि वे चाहते तो सरपंच भी बन सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया, फिर भी उनकी गिनती गाँव के मुख्य मौजिजान में होती थी । वे कठिन से कठिन मसले को भी बङी सूझबूझ से सुलझा लेते थे । तभी तो लोग उनकी कद्र किया करते थे । वे चाहते तो अपना पुनर्विवाह करके अपना घर बसा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया ।
देखते ही देखते बङे भैया के रिश्ते वालों की लम्बी लाइन लग गई । अब भैया का विवाह करना आवश्यकता ही नहीं, मजबूरी बन गया था । अन्ततः एक बीस- इक्कीस वर्ष की तरुणी के साथ भैया की शादी कर दी गई ।
अब घर में खुशियाँ लौट आईं थीं । भाभी ने मुझे इस कदर अपने सीने से लगाया कि मेरी ममता की प्यास तृप्त हो गई और पता नहीं क्यों मैं उन्हें भाभी माँ कहने लगा था । भाभी के प्यार और दुलार ने कभी माँ की याद ही नहीं आने दी । मझले भैया की तो कभी कभार भाभी माँ से तू तू- मैं मैं हो जाया करती थी लेकिन उसमें भी मुझे अपनत्व और ममता की झलक दिखाई देती थी ।
पिताजी ने अपना कारोबार समेटना शुरू कर दिया था और वे ज्यादातर घर पर ही रहते थे । वे अपनी उधारी की उगाही में व्यस्त रहते थे । अब कमाई का कोई न कोई जरिया तो ढूँढना ही था,  अतः पिताजी ने अपनी पूरी पूंजी को एक फार्महाउस खरीदने में लगा दिया । हम सभी अपने पुश्तैनी मकान में ही रहते थे । मैंने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था । गाँव में मिडिल स्कूल था । बङे भैया ने आठवीं कक्षा तक पढाई लिखाई पूरी करके स्कूल जाना छोङ दिया था और वे अपने खेतों को संभालने लग गए थे । लगभग दो साल बाद भाभी माँ ने एक पुत्र को जन्म दिया । बच्चे के नामकरण संस्कार पर बहुत बङे सहभोज का आयोजन किया गया । बच्चे का नाम किशन सहाय रखा गया जिसे हम किशना के नाम से पुकारने लगे थे । घर में धन के साथ साथ खुशियों की बरसात हो रही थी ।
पिताजी दिशा निर्देश का काम किया करते थे । खाद बीज लाने, हर चीज का प्रबंध करने और लेन देन में वे अपने आप को व्यस्त रखते थे । भले ही वे शारीरिक काम बहुत कम करते थे लेकिन निठल्ले भी नहीं रहते थे। भाभी माँ घर के काम में लगी रहती थी । खाना बनाने, सबके कपङे धोने, घर की साफ सफाई करने के साथ साथ किशना की भी देखभाल करती थी । घर के वातावरण और आपसी सहयोग को देखकर लोग दांतों तले उंगली दबाते थे । मझले भैया ने भी आठवीं कक्षा पास करते ही पढाई छोङ दी थी और वे बङे भैया के साथ काम में हाथ बटाने लगे थे । पिताजी ने काम की अधिकता को देखकर अपना पुश्तैनी घर छोङकर फार्महाउस पर ही रहना शुरू कर दिया था । हम सभी मौज मस्ती में अपना समय फार्महाउस में ही रहकर बिताते थे ।
दस वर्ष कब बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला । मैं आठवीं कक्षा पास कर चुका था और मेरी इच्छा आगे पढने की थी । लेकिन पिताजी का मानना था कि पढाई के बाद नौकरी के लिए धक्के खाने से अच्छा है कि अपने फार्महाउस पर आधुनिक खेती करके नौकरी से ज्यादा कमाया जा सकता है । फिर भी मेरे अनुनय विनय करने पर पिताजी मुझे आगे पढाने पर रजा मंद हुए और मैं पास के हाईस्कूल में पढने के लिए जाने लगा । जैसे ही मैंने दसवीं कक्षा पास की तो मझले भैया के साथ-साथ मेरी शादी का भी फरमान जारी कर दिया । यद्यपि मैं आगे पढना चाहता था लेकिन पिताजी के फैसले को चुनौती देना संभव भी नहीं था । इस लिए भलाई आदेश को मान लेने में थी । परिणाम यह हुआ कि एक ही वर्ष की अवधि में मझले भैया और मेरा विवाह कर दिया गया ।
घर में दो और बहुएं आ गई थी । परिवार बढ गया । देखते ही देखते घर में तनाव सा रहने लगा जो धीरे-धीरे बढता ही गया । इस तनाव से पिताजी खिन्न हो गए थे और देखते ही देखते वे दिल की बीमारी के शिकार हो गए । वे मुझे और मझले भैया को छाती से लगा कर रो पङते थे । एक दिन अचानक उन्हें दिल का दौरा पङा और ऐसा पङा कि हस्पताल पहुंचने से पहले ही उनके प्राण पखेरू उङ गये । परिवार मातम से तो उबर गया लेकिन तनाव धीरे-धीरे और भी बढ गया । भाभी माँ का स्वभाव एकदम चिङचिङा हो गया था । वे बात-बात पर हम सबको झिङकने लगी थी । उन्होंने कभी भी अपनी देवरानियों को घर की बहुओं का दर्जा नहीं दिया बल्कि उनको अपनी नौकरानी ही समझा । इस बात की शिकायत हमनें कई बार बङे भैया से की लेकिन वे अधिकांश चुप ही रहते थे और कभी बोलते भी थे तो वे अपनी पत्नी का ही पक्ष लेते थे । मसलन हमारा जीना दूभर हो गया था ।
यह वही भाभी माँ थी जिसने हम पर कभी ममता की बरसात की थी । लेकिन अब तो पारा ही सातवें आसमान पर रहने लगा था । वैसे तो किशना शुरू से ही उद्दण्डी था लेकिन अब तो वह हमें अपना दास समझने लगा था । घर का वातावरण इतना दूषित हो गया था सांस लेना भी कठिन हो गया था । एक दिन मैंने और मझले भैया ने बङे भैया से प्रार्थना की कि अब साझे में काम चलना बहुत मुश्किल है, देखो न भैया भाभी माँ जो कभी माँ को याद नहीं आने देती थी वही आज छठी का दूध याद दिलाने लगी है । भैया कितना अच्छा हो कि अब हम तीनों अपना-अपना कमाएं और अलग-अलग रहकर तनाव रहित जीवन बिताएं । सुनकर भैया गरजे थे कि तुम्हें रोका किसने है अपना-अपना कमाने और खाने के लिए ? रही बात फार्महाउस की सो उसकी मालकिन तो मेरी पत्नी है वह क्या करेगी और क्या नहीं करेगी यह तो उस पर निर्भर करता है, मैं कौन होता हूँ कुछ कहने वाला ? भैया की इस बात ने ही हमारे कलेजे को ही तार-तार कर दिया । हम सोचते रहे कि यह कैसे हो सकता है ? लेकिन दूसरे दिन जब पटवारीजी से फार्महाउस की जमाबंदी की नकल ली तो सब कुछ शीशे की तरह साफ हो चुका था । फिर वकीलों से भी सलाह ली गई तो भी समाधान निकलता नजर नहीं आया क्योंकि वह जमीन दादालाही नहीं थी अपितु भाभी ने खरीदी थी । वकीलों ने साफ-साफ बता दिया था कि खून खराबा तो हो सकता है लेकिन जमीन पर दावा पेश नहीं किया जा सकता ।
इस बात पर मझले भैया को इतना झकझोरा कि वे अपनी पत्नी को लेकर ससुराल चले गए । मैनें देखा कि जैसे भैया निकले थे तो भाभी ने पानी से भरा एक मटका फोङा । यह समाज की रिवाज है कि जब कोई मरता है तो घरवाले पानी से भरा मटका फोङते हैं । इसका मतलब होता है कि यह हमारे लिए मर चुका । भैया जीवित थे फिर भी उन्हें मृत घोषित करना असहनीय था । यद्यपि मुझे बहुत बुरा लगा लेकिन मैं किसी मुकाम पर पहुंचना चाहता था । दूसरे दिन गाँव में पंचायत हुई । मेरे पिताजी के भाभी के साथ अवैध संबंधों का पिटारा खुला और उनकी आबरू की धज्जियाँ उङाई गई । अपने पंद्रह साल के बेटे की शादी पच्चीस साल की लङकी से करने के पीछे छिपे राज उजागर हुए । मेरा रोम-रोम रो उठा कि एक मौजिज पिता जो दुनिया के फैसले करता था, लोगों के हक दिलवाता था, वही अपनी हवस को मिटाने के लिए अपनी ही औलाद को बेघर और बेदखल कैसे कर गया ? और अपने पीछे ऐसी समस्या छोङ गया जिसे समझाना मुश्किल नहीं असंभव ही समझो ।
भाभी माँ का फरमान जारी हो चुका था कि फार्महाउस में रहना है तो मेरी मर्जी के मुताबिक बंधवा मजदूर की तरह रहो वरना छोङकर चले जाओ। मैंने गहराई से विचार किया कि लङाई झगङे से खराबा तो हो सकता है लेकिन समाधान नहीं । मुझे अल्टीमेटम मिल चुका था कि कल तक फार्महाउस को छोङकर स्वयं चले जाओ, वरना धक्के मारकर बाहर निकाल दिए जाओगे । मेरी पत्नी गर्भवती थी इसलिए मैंने काफी गिङगिङाकर प्रार्थना की कि हमें कुछ दिन तो फार्महाउस में रहने दिया जाए लेकिन उन लोगों का दिल नहीं पसीजा । सब कुछ होते हुए भी हमारा वहाँ कुछ नहीं था । केवल पहनने के कपङे थे जो एक अटैची में आ गए थे । हम जैसे ही दरवाजे के बाहर निकले तो वही मटका फोङने की रिवाज दोहराई गई । यानी हम उनके लिए मर चुके थे । रिश्ते समाप्त हो गये थे । हम चलते चलते रो भी रहे थे और बददुआएँ भी दे रहे थे । मेरी पत्नी ने सुझाव दिया कि इस अवस्था में कहीं और जाकर रहने से अच्छा है कि आप मुझे मेरे मायके में छोङ दें और खुद कहीं भी जाकर काम तलाशें । मुझे सुझाव अच्छा लगा और हम अपने गंतव्य की ओर चल पङे । वहाँ पहुँचकर हमनें अपनी रामकहानी सुनाई तो सभी को दुख हुआ । हमें सान्त्वना दी और सहारा भी दिया ।
दूसरे दिन मेरे ससुरजी ने मुझे अपनी जान पहचान वाले आदमी के पास काम करने हेतु शहर भेज दिया । मालिक बङा नेक दिल इंसान था, उसने मुझे अपने बेटे की तरह रखा और मैनें भी पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम किया । इस बीच मुझे एक शुभ सूचना मिली कि भगवान से मुझे पुत्र रत्न के रूप में एक उपहार मिला है । मैं मेहनत और लगन से काम करता रहा । इस बात को कभी जाहिर नहीं होने दिया कि मैं एक बहुत बङे ठेकेदार का बेटा होकर भी बेघर मजदूर हो गया ।
मेरा मालिक मुझसे बहुत प्रसन्न था इसलिए मुझे छोटे मोटे ठेके दिलाने लगा । धीरे धीरे मेरी पहचान बढी और मैनें शहर में छोटा सा घर खरीद लिया । पत्नी और पुत्र के साथ आराम की सांस लेने लगा । कुछ समय बाद मैं मझले भैया से मिलने गया तो मुझे खुशी हुई कि हम दोनों ही भाई उजङकर बहुत जल्दी बस भी गये थे। एक वर्ष बाद मेरे घर कन्या ने जन्म लिया तो मझले भैया भाभीजी को मेरे घर छोङ गये थे । उनका बेटा चंचल और कुशाग्र होने के साथ साथ बातूनी भी था जो चाचू-चाचू कह कर सवाल पर सवाल करता रहता था । एक दिन पूछने लगा- चाचू आप हमारे घर कब आओगे ? तो मैनें उसके जन्मदिन की पार्टी में शामिल होने का वचन दिया । कभी कभार मन में आता था कि बङे भैया को भी किसी प्रोग्राम में बुलाया जाए । लेकिन उन लोगों के द्वारा मटका फोङने की घटना को याद करके घबरा जाता था क्योंकि हम तो उनके लिए मर चुके थे ।
देखते ही देखते बीस साल बीत गए । मझले भैया और मैं तो सपरिवार आते जाते रहते थे, लेकिन बङे भैया को तो हम लगभग भूल ही चुके थे । मझले भैया का बेटा सी.ए. करके कुछ कम्पनियों को देख रहा था और बेटी बैंक में नौकरी करती थी । भाई का खुद का थोक का व्यापार था । मेरा बेटा इंजीनियर बनकर नौकरी कर रहा था और बेटी एम बी बी एस कर रही थी । भगवान की दया मेरे पास गाङी बँगला सब कुछ हो गया था ।
एक दिन सहसा घर की घंटी बजी । दरवाजा खोला तो देखा मेरे सामने बीमार, लाचार और मायूस से बङे भैया खङे थे । इस हाल में देखकर मैं हैरान और परेशान हो गया तो भी अपने आप को संभाल कर बस इतना ही बोल पाया- भैया आप ? फिर मेरा माथा उनके पैरों पर झुक गया । उन्होंने मुझे उठाया और बोले- भाई मैं इस काबिल नहीं हूँ कि मेरे चरण स्पर्श किए जाएँ ! भैया की आँखे डबडबाई हुई थी और लग रहा था कि उनको वक्त से पहले ही बुढापे ने घेर लिया है । बात करते-करते हम ड्राईंग रूम में पहुंच गए । मेरी पत्नी आई और भैया के चरण स्पर्श कर चली गई । भैया फूट-फूट कर रोने लगे तो मैनें उनको सान्त्वना दी कि जो हुआ वह विधि के अधीन था । वे बोले, नहीं ! नहीं !! नहीं !!! यह सब कुछ विधि के नहीं मेरे कारण हुआ है । इस कुकृत्य के पीछे मैं खङा था । इतने में मेरी पत्नी नाश्ता लेकर आ गई । तो मैनें तुरंत विषय को बदला और पूछा- कहिए भाभी माँ कैसी हैं ? किशना कैसा है ? मेरा यह पूछना क्या हुआ कि भैया दहाङे मार कर रो पङे । बङी मुश्किल से उनको यह कहकर शान्त किया कि पहले नाश्ता करते हैं उसके बाद जी भर कर बात करेंगे । भैया शान्त हुए और चाय पीने लगे । देखते ही देखते वे फिर से रो पङे । उन्हें रोता देख मेरा भी मन भर आया । मेरे ऑसू पोंछ कर उन्होंने कहना शुरू किया- आप लोगों के घर छोङने के बाद मेरी आत्मा मुझे धिक्कारने लगी थी । मैंने तुम्हारी भाभी से प्रार्थना की कि भाइयों को वापस बुला लिया जाए और उनका हिस्सा उनको दे दिया जाए । माना फार्महाउस तुम्हारे नाम है लेकिन सब कुछ किया हुआ तो पिताजी का है । लेकिन वह टस से मस नहीं हुई । उसने मुझे पसीजा देख एक नई चाल चली । मौका पाकर वह तहसील गई और पूरे फार्महाउस को किशना के नाम करवा दिया । तुम तो जानते ही हो कि किशना कितना उद्दण्डी था ?
गाँव का स्कूल हाईस्कूल बन गया था । वह दसवीं तक तो गाँव में ही पढा । उसके बाद आगे की पढाई के लिए शहर भेजा गया । वह अपनी माँ का बिगङा हुआ इकलौता बेटा था । वह अनाप शनाप रुपये ले जाता था और उन्हें उङा देता था । पांच साल के अन्तराल में उसने हमें लाखों रुपये का चूना लगाया । इस बीच उसका आना जाना एक लङकी के घर हो गया था जो उसके साथ पढती थी । वह उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गया और विजातीय होने के बावजूद भी उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया । वह उस लङकी को लेकर एक बार घर आया तो हमने कुछ जानना चाहा तो जवाब मिला कि मेरी दोस्त है । हमें समझते देर न लगी कि दाल में कुछ काला जरूर है । तहकीकात की तो पता चला कि वह हमारी जाति की भी नहीं है और परिवार निहायत घटिया है । किशना को बहुत समझाया लेकिन वह कहाँ मानने वाला था । इस बीच हमें खबर मिली कि लङकी की माँ ने रिश्ते के लिए साफ मना कर दिया है, दिल को राहत तो मिली लेकिन क्षणिक । क्योंकि किशना ने उनके घर आना जाना जारी रखा । वह उस लङकी के जाल में पूरी तरह फंस चुका था । लङकी के पास शारीरिक संबंधों के सबूत थे जिनके कारण विवाह करो या जेल जाओ में से एक को चुनना था । एक दिन बताते हैं लङकी की माँ ने कहा कि तुम्हारे साथ शादी की तो मेरी बेटी को नौकरानी जितना भी सम्मान नहीं मिलेगा क्योंकि तुम्हारा परिवार इस शादी को मान्यता ही नहीं देगा और तुम्हारा भी क्या विश्वास कि तुम इसे जीवन भर अपने साथ रख पाओगे ? इसलिए मेरी बेटी को भूल जाओ । मैं जानबूझकर अपनी बेटी का जीवन तबाह नहीं करना चाहती ।
जाल में फँसी हुई शिकार को भला कौन छोङना चाहेगा ? लङकी बार-बार कानून की धाराओं का जिक्र करती रहती थी । आखिर किशना ने हथियार डाल दिए और लङकी की माँ से कहा- यदि मैं तुम्हारी बेटी को मालकिन बना दूँ तो आपको इसकी शादी मेरे साथ करने में ऐतराज नहीं होना चाहिए । सुनो मैं अपना फार्महाउस इसके नाम करवा देता हूँ और कोर्ट में जाकर शादी कर लेते हैं फिर तो कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए । तीर निशाने पर लगा । किशना ने पहले अपनी प्रोपर्टी उसके नाम करवा कर कोर्ट में शादी भी करली । शादी के बाद वह अपनी ससुराल में ही रहने लग गया था । उद्दण्डी आदमी हर जगह उद्दण्डता ही दिखलाता है । उससे सभी कटे कटे रहने लगे थे । वह भी तंग आ चुका था । एक दिन वह हमारे पास आया था और बता कर गया था कि उसके द्वारा लिया गया फैसला गलत था । हमने उसे साहस दिया कि जो हो गया वह तो हो गया ।अब तुम अपनी पत्नी को लेकर फार्महाउस में आ जाओ और आराम से जीवन जीओ । वह वापस चला गया । हो सकता है उसने अपनी पत्नी को समझाया भी हो और वह न मानी हो । बेटा गुस्सेल तो था ही इसलिए उसने वहाँ लङाई झगङा अवश्य ही किया होगा । वह मिलनसार तो था ही नहीं कि किसी के साथ निभा सके ।
एक दिन एक व्यक्ति सूचना देने आया कि किशना ने आत्महत्या करली है। हम रोते बिलखते उसके ससुराल पहुंचे । यद्यपि किशना को मारा गया था लेकिन उसके द्वारा लिखा सुसाइड नोट तो हमारी आशंका पर पानी फिरा रहा था । क्योंकि लिखाई भी उसी की थी और लिखा भी साफ था कि मेरा जीने से मन भर गया है इसलिए मैं स्वयं मर रहा हूँ । मेरी मौत के लिए किसी को भी जिम्मेदार न ठहराया जाए । पुलिस ने पोस्टमार्टम के बाद लाश को हमारे हवाले कर दिया । हम रोकर सिर पीट कर रह गए ।
कुछ दिनों बाद किशना की विधवा ने वह फार्महाउस किसी और को बेच दिया और हम वहाँ से बेदखल कर दिए गए । हम अपने पुश्तैनी मकान में आ गए । लोग तरह-तरह की बातें करते हैं और हम चुपचाप सह जाते हैं । वैसे तो जो कुछ हुआ है वह हमारी करनी का ही फल है । मैं बीमार रहने लग गया हूँ और हालत दिन पर दिन गिरती ही जा रही है और अब तो डाक्टरों ने भी कह दिया है कि मैं चन्द दिनों का ही मेहमान हूँ क्योंकि मुझे ब्लड कैन्सर हो गया है जो लाइलाज है । भाई की गाथा सुनकर मेरा मन भर आया और मैनें कहा- भाई आप चिंता न करें, मैं आपका बङे से बङे हस्पताल में इलाज करवाऊंगा और आप ठीक हो जायेंगे । एक काम करते हैं भाभी माँ को भी यहीं ले आते हैं । आप लोग आराम से रहना । हमें कोई समस्या नहीं होगी । इस पर भैया बोले कि तुम्हारी भाभी में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह आप लोगों से ऑंख मिलाकर बात कर सके । मैं अब जलिल हो चुका हूँ, समाज में मुह दिखाने के काबिल भी नहीं रह गया हूँ । अफसोस तो इस बात का है कि मेरी अर्थी को कंधा देने वाला कोई भी मेरा अपना नहीं होगा । बेटा भी बेमौत मारा गया । भाइयों को मैंने जान बूझ कर बेदखल कर दिया । मुझे अपने किए का पछतावा तो हो रहा है लेकिन उससे भरपाई तो नहीं हो सकती । पिताजी एक बात कहा करते थे कि स्नान तो वास्तव में दो ही होते हैं । पहला स्नान तब जब व्यक्ति दुनिया में आता है और वह स्नान दाइयों के द्वारा करवाया जाता है और दूसरा तब जब व्यक्ति दुनिया से जाता है तो वह स्नान भाइयों के द्वारा करवाया जाता है । ऐसा होने पर ही आत्मा को मुक्ति मिलती है । मैं तुम्हारे मझले भाई के पास भी गया था। जिसने मुझे अपने पास बैठाना भी वाजिब नहीं समझा और मुझे मटका फोङने की बात याद दिलाकर कहा कि जब मैं तुम्हारे लिए मर ही चुका हूँ तो मुझसे बात करने का औचित्य ही क्या है ? अब बताओ तुम्हारी क्या मंशा है ? क्या तुम भी मेरी अर्थी को कंधा देने नहीं आओगे ? मेरी ऑंखें भर आईं और मैं सुबक-सुबक कर रोने लगा । मैंने रोते-रोते कहा- भाई मैं वचन देता हूँ कि समाचार मिलते ही सभी क्रिया कर्म करने के लिए सपरिवार पहुंच जाऊंगा । आपकी आत्मा की मुक्ति के लिए मैं सब कुछ करूँगा । इतना सुनकर भैया रोके से भी नहीं रुके । वे खङे हुए और दरवाजे से बाहर निकल गए । मैं उन्हें डबडबाई आंखों से देखता रहा। मैं मन ही मन रो रहा था और कह रहा था- काश !
 
-मास्टर रामअवतार शर्मा  
गुढ़ा , महेंद्रगढ़ 

Monday, March 7, 2016

लघुकथा : बदलाव की बयार

रमेश जैसे ही पार्टी में पहँुचा देखा मामाजी भी आए हुए थे। रमेश को देखते ही मामाजी के चेहरे पर मुस्कान फैल गई। लगता था वे उसी को ढूंढ रहे थे। उनके चेहरे पर अत्यंत आत्मीयता व प्रेम के भाव व्याप्त हो गए। अपनी आदत के अनुसार रमेश ने मामाजी को नमस्ते कहा और झुक कर पैर छूए। मामाजी ने अत्यंत स्नेह से रमेश की पीठ थपथपाई और घर के लोगों का हालचाल पूछा। वे रमेश को दूर लॉन के एक कोने में ले गए और देर तक वहीं एक मेज़ पर बैठकर खाते पीते रहे और बतियाते भी रहे। थोड़ी देर बाद मामाजी ने कहा, ‘‘रमेश अब तेरी वो पहले वाली मस्त चाल नहीं रही क्या बात है? अपनी सेहत का ध्यान रख और कोई परेशानी है तो हमें बता।’’
रमेश मामाजी के इस अप्रत्याशित व्यवहार से हैरान था। पिछले सप्ताह ही जब एक अन्य फंक्शन में मामाजी से मुलाक़ात हुई थी तो मामाजी ने उसके अभिवादन का ठीक से जवाब भी नहीं दिया था। आज मामाजी के व्यवहार में इतना परिवर्तन क्यों? हो सकता है उस दिन किसी बात को लेकर परेशान हों या स्वास्थ्य ठीक न हो लेकिन उससे पहले भी कभी इतनी आत्मीयता नहीं दिखलाई मामाजी ने प्यार लुटाने की बात तो दूर। असल में जब से मामाजी ने नई कोठी बनवाई है और उसमें शिफ्ट किया है तब से उनका व्यवहार ही बदल गया है। रमेश से ही नहीं किसी भी रिश्तेदार से सीधे मुँह बात नहीं करते। मामाजी की उम्र भी काफी हो गई है लेकिन इस उम्र में भी राग-द्वेष कम नहीं हुआ है और अहंकार भी कम होने का नाम नहीं ले रहा है। लेकिन आज के उनके व्यवहार को देख कर लगता है कि उनका पुराना स्वभाव सचमुच बदल गया है। वे पिछली बातें भुलाकर सबसे प्रेम का नाता प्रगाढ़ करना चाहते हैं। अच्छी बात है। रमेश के मन में भी मामाजी के प्रति कुछ अतिरिक्त श्रद्धा और सम्मान उमड़ने लगा।
रमेश देर तक मामाजी के पास बैठा रहा और गपशप करता रहा। फिर मामाजी ने रमेश से पूछा, ‘‘रमेश आजकल तेरे ऑफिस के क्या हालचाल हैं?’’
‘‘बिल्कुल ठीक हैं मामाजी कोई काम हो तो बताना’’, रमेश ने कहा। 
‘‘ये तो तुझे पता ही है कि हमने एक इंडस्ट्रियल प्लॉट का रजिस्ट्रेशन करवा रखा है जो अभी तक नहीं निकला है और वो पिछले पते पर कराया था। उसका पता बदलवाना है’’, मामाजी सीधे काम की बात पर आ गए।‘‘ 
‘‘ये मैं करवा दूँगा बस आप एक एप्लीकेशन और रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट तथा नये पते की पुष्टि के लिए किसी डॉक्यूमेंट की कॉपी लगा देना’’, रमेश ने मामाजी को आश्वस्त करते हुए कहा। 
मामाजी ने फ़ौरन जेब से एक लिफाफा निकाला जिसमें एप्लीकेशन के साथ ज़रूरी कागज़ात की कॉपियाँ लगी थीं और रमेश की ओर बढ़ा दिया। जैसे ही रमेश ने वो लिफाफा अपनी जेब में रखा मामाजी के चेहरे पर परम संतुष्टि के भाव उभर आए। लगता था जैसे उनका प्रयास सफल हो गया और आत्मीयता का प्रदर्शन भी निष्फल नहीं गया।

-सीताराम गुप्ता

ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-110034


सिंधी कहानी - कहानी और किरदार

मूल कहानी : डॉ. कमला गोकलानी
अनुवाद: देवी नागरानी

गौरव बिस्तर पर करवट बदलता रहा । कोशिश के बावजूद भी उसे नींद नहीं आई। साथ में लेटी सीमा ने फिर से जानने की नाकामियाब कोशिश की ।
‘आखिर क्या हुआ है ? इतने परेशान क्यों हो ?’ पर गौरव ने बिना जवाब दिये दूसरी तरफ़ पलटते हुए परमात्मा को प्रार्थना की, कि मानसी ने उसके मुत्तल्लक फ़ैसला लेते समय अपने पुराने स्वभाव से काम लिया हो ।
उसके सामने क्लास रूम का मंज़र उभर आया । बीस बरसों की नौकरी में उसने ख़ुद को इतना बौना महसूस कभी नहीं किया । बोर्ड ऑफ एड्यूकेशन की ओर से सेन्सर क्लासेज़ की परीक्षा ज़ारी है । आज उसकी ड्यूटी रूम नं. ४ में रही । उस कमरे में ड्यूटी करने से हर एक इनचार्ज कतराता है । आजकल आम तौर पर शागिर्द अड़ियल और ग़ैर जिम्मेदार ही है, पर रूम नं. ४ का राकेश, कहकर तौबा करलो! उसे नक़ल करने से रोकने वाले का, वह घर-बार डांवाडोल कर देता है । इसलिये राकेश के मामले में देखा अनदेखा करना पड़ता है, पर गौरव ईमानदारी और इन्तज़ाम का निबाह करने वाला है । इसलिये घर से निकलते वक़्त भी सीमा ताक़ीद देती रही कि जानबूझ कर विवेक के गुलाम बनकर अनचाही परेशानी न मोल लेना ।
जैसे कि आज बोर्ड से चेकिंग के लिये खास पार्टी आ रही है, इसलिये प्रिन्सिपल ने जान-बूझकर उसकी ड्यूटी रूम नं. ४ में लगाई ।
राकेश बेल बजने के १० मिनट पश्चात् ही क्लास में आता है । आज भी ऐसा ही हुआ, इसलिये गौरव ने यह सोचकर कि और शागिर्द को लिखने में बाधा न हो, उसे बिना तलाशी के परीक्षा लिखने दी और उसने सोचा कि चोर को सुराग़ के साथ पकड़ने का मौका भी मिलेगा ।
अभी पांच मिनट भी नहीं बीते कि चेकिंग पार्टी आ गई। उसके कमरे में पार्टी की कन्ट्रोलर मिस मानसी पहुँची, जो अपने सख़्त मिज़ाज के लिये मशहूर है । वह अक्सर अख़बार और मैग़ज़ीन्स में मानसी के बारे में पढ़ता था कि वह अपनी मेहनत और मज़बूती के बलबूते पर एक आम टीचर से इस अहम ओहदे पर पहुँची है। पर यह जानकारी फ़क़त गौरव को है, कि मानसी के सख़्त दिल होने का ज़िम्मेदार वह ख़ुद है। वह तो हँसती, खिलखिलाती मस्त रहने वाली ईज़ी गोइंग लड़की थी ।
‘टेक इट ईज़ी’ उसका तक़िया क़लाम रहा । इस क़दर कि ज़िन्दगी के अहम संजीदा मोड़ पर भी उसने किसी फ़ैसले को इतनी संजीदगी से नहीं लिया ।
जैसे बाज़ की तेज़ नज़र शिकार पर होती है, वैसे मानसी भी सीधे राकेश के टेबल के पास आ खड़ी हुई । राकेश बेफ़िक्र होकर कागज़ पर से सवालों का जवाब ढूँढ़ रहा था। मानसी ने गुस्से से गौरव से कहा - ‘मास्टर साहब ! इतनी ग़ैर जिम्मेवारी से ड्यूटी दे रहे हो ? आपने इस लड़के की तलाशी ली थी ? तुरन्त इसकी तलाशी ली जाए ।’ और फिर राकेश से मुखातिब होकर सख़्ती से पूछा - ‘तुम्हारा नाम क्या है ?’
राकेश ने शरारती मुस्कान के साथ कहा - ‘५३३४९५’ ।
मानसी ने कहा - ‘अपना ऐडमिशन कार्ड दिखाओ।’
राकेश ने जैसे ही जेब से अपना कार्ड निकाला, तो साथ में एक काग़ज ज़मीन पर गिर पड़ा। जाँच करने पर उस काग़ज पर नक़्ल करने वाले मैटर की अनुक्रम सूची थी कि कौन-सा मैटर कहाँ है। इस बीच गौरव ने राकेश की जेब से जवाबों के कुछ काग़ज निकाले, पर राकेश पर किसी बात का असर ही नहीं हुआ । इत्मीनान से जेब से कंघी निकाली और मानसी की आँखों में देखते हुए बालों को सँवारने लगा । उसे देखकर गौरव कुछ झेंप गए । मानसी को बीस साल पुराने मंज़र याद आए जब गौरव भी ऐसे ही उसकी आँखों में देखकर बाल संवारते हुए कहता था - ‘‘मानू बस ऐसे ही उम्र भर तेरे नयनों में निहारता रहूँ...’’ और मानसी गर्दन झुकाकर शर्माती थी । कुछ पलों में मानसी माज़ी की यादों से बाहर आई, जब गौरव चिल्लाया - ‘‘अरे इसके जुराबों में रामपुरी चाकू !’’
राकेश के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई का केस तैयार करने का फ़ैसला प्रिन्सिपल और तमाम टीम ने लिया, शायद यह ज़रूरी था, पर जैसे ही इस ग़ैर जिम्मेवार कार्य के लिये गौरव को दोषी ठहराते हुए उसके खिलाफ़ रिपोर्ट लिखने की शुरुवात मानसी ने की तो प्रिन्सिपल ने हाथ जोड़कर बिनती की - ‘‘मैडम ! ये ना इन्साफ़ी मत करना । गौरव इस स्कूल का निहायत ही ईमानदार और मेहनती शिक्षक है । मैंने इस साल उसका नाम शिक्षक पुरस्कार के लिये प्रपोज़ किया है । आपकी रिपोर्ट, उसकी की गई सालों की सेवा को दाग़दार बना देगी । दरअसल राकेश बदला लेने के लिये किसी भी हद तक गिर सकता है।’’
‘हूँ’ मानसी ने सख़्त लहज़े में कहा - ‘‘वो लड़का तो मेरे खिलाफ़ भी क़दम उठा सकता है, इसका मतलब यह तो नहीं कि गुनहगार को गुनाह करने की छूट दे दी जाए, उसके खिलाफ़ कोई कार्रवाई ही न की जाए ?’’
इतने में ‘पार्ट A’ पेपर के खत्म होने पर घँटी बजी और गौरव भी फ़ारिग होकर ऑफ़िस पहुँचा और अत्यन्त विनम्रता से कहा - ‘मैडम, आइ एम सॉरी’। दरअसल राकेश के क्लास में देर से आने के कारण मेरे मन में ड्यूटी और परिवार के फर्ज़ के बीच में जंग रही और आप आ गई । सीमा ने चलते-चलते भी कहा था - ‘बच्चों की क़सम, जानबूझकर कोई परेशानी मोल न लेना ।’
हालात देखते हुए मानसी ने फिलहाल काग़ज फाइल में रक्खे । वह एक बार फिर अतीत की ओर लौट गई । इस सीमा ने ही उसे गौरव से जुदा किया था । कुछ दिन तो वह बेहद मायूस रही, पर जल्द ही ख़ुद को संभालकर सारा ध्यान कैरियर पर लगा दिया । सोचती रही - ‘‘आज सीमा के एवज़ वही गौरव के बच्चों की माँ होती तो और क्या चाहती ?’’
उसे याद आया कि वह और गौरव एक ही स्कूल में शिक्षक थे । हमख़याली होने के नाते दोनों का उठना-बैठना साथ होता था । रिसेस के वक़्त, फ्री पीरियड में भी, जब दूसरे शिक्षक गैर ज़रूरी बातों में वक़्त जाया करते थे तब ये दोनों चाय पीते-पीते कभी अदब और कला के बारे में बातें, या बहस करते । किसी नई कहानी या नॉवल पढ़ने के पश्चात् उसका पोस्ट मार्टम करते, उसके किरदारों की कमज़ोरियों और खूबियों पर राय पेश करते । गौरव हमेशा उन नाटकों पर अफ़सोस ज़ाहिर करता जिसमें नायक अपनी नायिका को अज़ाबों की गर्दिश में छोड़कर, बुज़दिली से मैदान छोड़कर भाग जाते। बहस करते मानसी उसे समझाने की कोशिश करती कि सच्चा प्यार करने वाले नायक के लिये, ज़रूर कोई ऐसी मजबूरी रही होगी और वह बेहद लाचारी की हालत में प्यार को क़ुरबान करते हुए उस राह से मुड़ जाता होगा । सच्चा प्यार तो अमर है, कभी ख़त्म होने वाला नहीं । बड़ी बात तो यह है कि शादी और प्यार का इतना गहरा सम्बंध नहीं कि बिना उसके दीवानापन छा जाए । विपरीत इसके शादी के बाद फ़र्ज़ और हक़ों की जंग में ग्रहस्ती की ओढ़ी हुई जिम्मेवारियों की वजह से प्यार का नफ़ीस जज़्बा कुरबान हो जाता है ।
‘पागल है वो नायक जो रात-दिन प्यार-प्यार तो करते हैं, पर वक़्त आने पर पीठ दिखाकर नायिका को सारी ज़िन्दगी रोने के लिये छोड़ जाते हैं...’ गौरव बेहद संजीदगी से कहता और मानसी खिलखिलाकर जवाब देती - ‘‘गौरव ! टेक इट ईज़ी, क्यों सब कुछ सीरियस्ली लेते हो । कहानी के क़िरदार और हक़ीक़ी ज़िन्दगी में बहुत फ़र्क है। लेखक कहानी लिखने के पहले अपने किरदार का अंत तय कर लेता है, जो कभी सुखांत तो कभी दुखांत होता है । पर असली ज़िन्दगी में इन्सान हालात के बस होकर सुलह करते हुए फ़ैसला करता है । ऐसे फ़ैसले अज़ाब देने वाले और दुखदाई भी होते हैं, और न चाहते हुए भी ग़लतफ़हमियाँ पैदा करने वाले भी, और फिर दोनों के बीच में लम्बी खामुशी छा जाती थी ।’’
उनकी गुफ़्तगू अब स्टाफ रूम तक सीमित न रही थी । सुनसान वादियाँ, पहाड़ी-झरने, बहती नदियाँ, पेड़-पौधे उनकी मुलाक़ात के ज़ामिन रहे । ऐतिहासिक इमारतों की सैर करते वो दोनों भी ख़ुद को किसी राजा रानी से कम नहीं समझते । कभी-कभी मानसी गौरव से कहती - ‘अगर तुम्हारे माँ-बाप हमारे मेल-मिलाप को बर्दाश्त न कर पाए तो ?’ गौरव बिना किसी सोच के बुलंद आवाज़ में मर्दानगी दिखाते कहता - ‘मानू दुनिया की कोई भी ताक़त तुझको मुझसे छीन नहीं सकती । मैं जल्द ही पिताजी को मनाकर इस रिश्ते को सामाजिक मान्यता दिलाऊँगा ।’
पर, जब गौरव ने मानसी का ज़िक्र घर में किया तो गोया तूफ़ान उठ खड़ा हो गया । गौरव को यह पता नहीं था कि घर में उसे एक धड़कते दिल वाला इन्सान न मानकर, एक ‘चीज़’ समझकर उसके पिता ने उसका सौदा एक साहूकार की बेटी से कर दिया था और उनसे दहेज की बातचीत के आधार पर अपनी दो बेटियों के रिश्ते भी तय कर दिये थे । गौरव बहुत ही तड़पा, पर उसके पिता ने उसे लिखे हुए परचे दिखाते हुए कहा कि अगर वह इन्कार करेगा तो उसके माँ-बाप दोनों आत्महत्या कर लेंगे । पागलपन की हदों से गुज़रता हुआ गौरव स्कूल से छुट्टी लेकर घर बैठ गया, शायद मानसी से नज़र मिलाने की उसमें क्षमता न थीं । आखिर मानसी खुद उसके पास आई और गौरव ने आज जैसी ही लाचारगी से कहा था - ‘मानू, मेरे मन में प्यार और फर्ज़ के बीच...।’
मानसी ने शांत मन से कहा - ‘टेक इट ईज़ी प्लीज । हम कोई कहानी के क़िर दार नहीं हैं। मेरी चिंता मत करो, मुझमें यह सदमा बर्दाश्त कर पाने का आत्मबल है ।’
आज सीमा का नाम सुनते मानसी थोड़ी देर के लिये डांवाडोल हुई पर फिर सोचा बिचारी सीमा का क्या दोष ? यही कि वह एक धनवान की बेटी है और मानसी की ग़रीब विधवा माँ में दहेज दे पाने की तौफ़ीक़ नहीं थी । ये नहीं तो कोई और सीमा गौरव की जीवन संगिनी बन जाती थी । कोई भी औरत किसी और का हक़ छीनकर कहाँ चैन पा सकेगी? मानसी ने उस स्कूल से अपना तबादला करा लिया था । पर सीमा के बारे में स्टाफ से जानकारी मिली थी कि वह निहायत कोमल हृदय वाली नारी थी । उसे अगर पता होता तो वह ख़ुद ही मानसी के रास्ते से हट जाती । ख़ैर, ज़िन्दगी एक हक़ीकत है कोई कहानी नहीं । यह सोचकर मानसी ने गौरव के ख़िलाफ़ लिखी हुई रिपोर्ट फाड़ दी ।

 
अनुवाद: देवी नागरानी

जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, एक अंग्रेज़ी, 2 भजन-संग्रह, 2 अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय संस्थाओं में सम्मानित , न्यू जर्सी, न्यू यॉर्क, ओस्लो, तमिलनाडू अकादमी व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। महाराष्ट्र साहित्य अकादमी से सम्मानित / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत

संपर्क- 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ फोन:9987928358


 
 लेखक: डॉ. कमला गोकलानी
जन्म: सिंध (पाकिस्तान)

Sunday, December 27, 2015

प्रोफ. शामलाल कौशल की कहानी - कटी पतंग

नेहा अपने मकान की बालकोनी में बैठी विचारों में गम-सुम है| अचानक आसमान से नीचे गिरती पतंग को देखती ही जिसे उठाने के लिए लडके भागते हुए आते हैं| उसे हासिल करने के लिए उनमें आपस में छीना झपटी होती है| देखते ही देखते पतंग फटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाती है और किसी निर्जीव प्राणी की तरह धरती पर बिखर जाती है| दखकर नेहा को बहुत तरस आता है| कुछ पल पहले यही पतंग कितनी शान से आसमान में उड़ रही होगी? ऊँचे आसमान से बातें करते हुए नीचे की चीजों को अपने मुकाबले में कुछ नहीं समझती होगी| लेकिन अब बेचारी वही पतंग धरती पर टुकड़े-टुकड़े हुयी औंधे मुंह पड़ी है| लोगों की चप्पलों व जूतियों की एडियों से रौंदी जा रही है और उस पर कोई भी तरस नहीं खाता| अचानक नेहा को एक झटका-सा लगा| उसका हाल भी कटी पतंग की तरह ही तो है, जिसे हर कोई पकड़ना  चाहता है, उडाना चाहता है और जीवन का आनंद उठाना चाहता है| तो क्या ?.... सोच को पंख लगे तो उड़ चली अतीत की ओर |
नेहा अपने माँ बाप की इस्लौती संतान थी| पिता किसी कंस्ट्रक्शन कम्पनी के ठेकेदार थे| कितनी सड़कें, कितने मकान तथा कितने ही पुल बनाये थे उन्होंने| लाला किशोरी लाल ठेकेदार को कौन नही जानता था? दो नंबर का कारोबार करके उन्होंने बहुत सारा पैसे कमाया था| बड़े-बड़े अफसरों को गाँठ कर बहुत ऊँची पहुँच बना रखी थी उन्होंने| अपनी बेटी नेहा की हर फरमाइश वह कहने से पहले ही पूरी कर देते थे| जब वह बड़ी हुई तो उसे एम.बी.ए. करा कर उसका विवाह ललित नाम के सॉफ्टवेर इंजिनियर से करवा दिया जो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता था| विवाह खूब शानोशौकत से किया गया| जिले भर के आला ऑफिसर शामिल हुए थे इसमें| दहेज़ में लाला जी ने दिल खोलकर नेहा की पसंद की चीजें दी थीं| लेकिन विवाह क एक महीने बाद ही नेहा की अपने पति ललित से अनबन होने लगी| दोनों की पसंद, विचार और आदतें एक दूसरे से बिलकुल विपरीत थीं| बात-बात में एक दूसरे को नीचा दिखाना, ऊँचा बोलना तथा एक दूसरे पर हाथ उठाना उनकी दिनचर्या बन गई थी| रोज-रोज़ की कलह से दोनों का जीवन नर्क बना हुआ था| नेहा बात-बात में अपने पिता के ऊँचे रसूख, हैसियत तथा धन-दौलत की धौंस दिखाती थी| उसने अपने पति के खिलाफ अपने माँ-बाप के मन में इतना जहर भर दिया था कि वे भी अपने दामाद को अपमानित करने का कोई भी मौका नहीं जाने देते थे| एक दिन नेहा के माता-पिता की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई| अब वह बिलकुल अकेली रह गई थी इस दुनिया में| पति, ललित ने उसे तसल्ली और सहारा देने की कोशिश की, परन्तु नेहा ने तो उसकी हर बात को जैसे उल्टा समझने की कसम खा रखी थी|
"अब तो खुश हो रहे होगे? लड्डू फूट रहे होंगे आपके मन में? मेरे माँ-बाप के मरने पर अब तो आपकी छाती से पत्थर हट गया होगा?" - कहकर नेह फूट-फूट कर रोने लगी थी| ललित ने उसे चुप कराने और सांत्वना देने की कोशिश की थी...मगर सब बेकार|
आखिर तंग आकर नेहा अपने माँ-बाप के मकान में आ गई| क्योंकि उसने एम.बी.ए कर रखी थी और उसके पिता का रसूख भी अच्छा था, इसलिए उसने सोचा कि क्यों न समय काटने के लिए वह किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ले| इस बीच उसका पति, ललित उसे मनाकर घर वापस ले जाने के लिए चार-पांच बार आया| लेकिन कुछ तो स्वाभाव से अहंकारी होने के कारण और कुछ माँ-बाप के लाड-प्यार से बिगडैल प्रवृति की होने के कारण अपने पति को दुत्कार दिया तथा अपमानित करके अपने घर से भगा दिया| त्रिया हठ के आगे राजाओं-महाराजाओं की भी नहीं चली तो बेचारे ललित की नेहा के आगे क्या चलती? औरत अगर किसी से प्यार करती ही तो सच्चे मन से करती है और अधिकतम करती है| वैसे ही अगर नफ़रत करती है तो भी सारी हदें पर करके करती है| बेचारा ललित अपनी ही पत्नी की नफरत का पात्र बनाकर नर्क भोग रहा था|
दिन महीनों में महीने सालों में बदल गए| आज पांच वर्ष हो गए हैं, नेहा अपने मायके घर में बैठी है| इस बीच दुखी तथा निराश ललित फिर कभी उसे मनाने नहीं आया| उसके अहंकार ने कभी उसे अपने पति के पास जाने नहीं दिया| उसके दफ्तर में काम करने वाले एक-दो मनचलों ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाने की कोशिश भी की, लेकिन वह जानती थी कि वे ऐसा या तो क्षणिक शारीरिक सुख के लिए कर रहे हैं या फिर उसकी भारी-भरकम धन-सम्पत्ति हडप करने के लिए उसे अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहते हैं| अत: उसने उनकी सबकी तरफ से मुंह फेर लिया| कभी-कभी दफ्तर जाते-आते समय कुछ लोग ललचाई नज़रों से देखकर फिकर कसते तो उसे ऐसे लगता जैसे किसी ने उसके दिल पर तलवार चला दी हो| परन्तु इस सारे घटना चक्र के बावजूद वह लाचार थी|
आज उसके घर की बालकनी में से देखी कटी पतंग वाली घटना ने उसकी सोच को एक नया मोड़ दे दिया था| आज उसे लग रहा था जैसे वह खुद एक कटी पतंग हो जिसे हर कोई लूटना चाहता है और अगर वह किसी एक के हाथ न आई तो उसे पकड़ने वाले उसका हाल भी कटी पतंग जैसा ही कर देंगे और तब वह कहीं की नहीं रहेगी| यह विचार आते ही वह थर-थर कांपने लगी थी|
अहं और दुश्चिंताओं के द्वन्द से उबरी तो वह एक ठोस निर्णय ले चुकी थी| उसके कदम स्वत: ही बढ़ चले थे पति के घर की ओर ...अपने घर की ओर ...दृढ़ता के साथ|
आशा और विश्वास के नये उजाले में चिंताओं के बादल छंट गए थे|

- प्रो. शामलाल कौशल, रोहतक

Sunday, November 8, 2015

कहानी - दीप खुशी के जल उठे

दफ्तर से आते-आते रात के आठ बज गये थे।घर में घुसते ही प्रतिमा के बिगड़े तेवर देख श्रवण भांप गया कि जरूर आज घर में कुछ हुआ है, वरना मुस्करा कर स्वागत करने वाली का चेहरा उतरा न होता । सारे दिन मोहल्ले में होने वाली गतिविधियों की रिपोर्ट जब तक मुझे सुना न देती उसे चैन नहीं मिलता था ।जलपान के साथ-साथ बतरस पान भी करना पड़ता था। पंजाब केसरी पढ़े बिना अड़ोस-पड़ोस के सुख-दुख के समाचार मिल जाते थे। शायद देरी से आने के कारण ही प्रतिमा का मूड बिगड़ा हुआ है ।
प्रतिमा से माफी मांगते हुए बोला, "सारी, मैं तुम्हें फोन नहीं कर पाया। महीने का अन्तिम दिन होने के कारण बैंक में ज्यादा कार्य था।"
" तुम्हारी देरी का कारण मैं समझ सकती हूं, पर मैं इस कारण दुखी नहीं हूं।" प्रतिमा बोली।
"फिर हमें भी तो बताओ इस चांद से मुखड़े पर चिन्ता की कालिमा क्यों? " श्रवण ने पूछा
" दोपहर को अमेरिका से बड़ी भाभी (जेठानी) जी का फोन आया था कि कल माता जी हमारे पास पहुंच रही हैं ।" प्रतिमा चिन्तित होते हुए बोली
"इसमें इतना उदास व चिन्तित होने कि क्या बात है? उनका अपना घर है वो जब चाहें आ सकती हैं । श्रवण हैरान होते बोला।
"आप नहीं समझ रहे। अमेरिका में माँ जी का मन नहीं लगा अब वो हमारे ही साथ रहना चाहती हैं ।" प्रतिमा ने कहा। "अरे मेरी चन्द्रमुखी, अच्छा है ना, घर में रौनक बढ़ेगी, कथा कीर्तन सुनने को मिलेगा। बरतनों की उठा पटक रहेगी। एकता कपूर के सीरियलों की चर्चा तुम मुझसे न करके माँ से कर सकोगी। सास बहू मिलकर मोहल्ले की चर्चाओं में बढ़ -चढ़ कर भाग लेना।" श्रवण चटखारे लेते हुए बोला।
" तुम्हें मज़ाक सूझ रहा है और मेरी जान सूख रही है।" प्रतिमा बोली। 'चिन्ता तो मुझे होनी चाहिये, तुम सास -बहू के शीत-युद्ध में मुझे शहीद होना पड़ता है। मेरी स्थिति चक्की के दो पाटों के बीच में पिसने वाली हो जाती है। ना माँ को कुछ कह सकता हूं, ना तुम्हें । कुछ सोचते हुए श्रवण फिर बोला, मैं तुम्हें कुछ टिप्स बताना चाहता हूं, यदि तुम उन्हें अपनाओगी तो तुम्हारी सारी की सारी परेशानियां एक झटके में छूमन्तर हो जाएंगी॥"
"यदि ऐसा है तो, आप जो कहेंगे मैं करूंगी। मैं चाहती हूं माँ जी खुश रहें । आपको याद है पिछली बार छोटी सी बात से माँ जी नाराज़ हो गयी थीं!"
देखो प्रतिमा, जब तक पिताजी जीवित थे तो हमें उनकी कोई चिन्ता नही थी। जब से वे अकेली हो गयी हैं उनका स्वभाव बदल गया है। उनमें असुरक्षा की भावना ने घर कर लिया है। अब तुम ही बताओ, जिस घर में उनका एकछत्र राज था वो अब नहीं रहा। बेटों को तो बहुओं ने छीन लिया। जिस घर को तिनका-तिनका जोड़कर माँ ने अपने हाथों से संवारा, उसे पिता जी के जाने के बाद बन्द करना पड़ा। कभी अमेरिका कभी यहाँ हमारे पास आकर रहना पड़ता हैं तो उन्हें अच्छा नहीं लगता। वे स्वयं को बन्धन में महसूस करती है, इसलिए हमें ऐसा कुछ करना चाहिये जिसमे उन्हें अपनापन लगे । उनको हमसे पैसा या जायदाद नहीं चाहिये। उनके लिए तो पिताजी की पेन्शन ही बहुत है। उन्हें खुश रखने के लिए तुम्हें थोड़ी सी समझदारी दिखानी होगी, चाहे नाटकीयता से ही सही।"
"आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करने को तैयार हूं|"
"तो सुनो प्रतिमा, हमारे बुजुर्गो में एक 'अहं' नाम का प्राणी होता है। यदि किसी वजह से उसे चोट पहुंचती है तो पारिवारिक वातावरण प्रदूषित हो जाता है, अर्थात् परिवार में क्लेश व तनाव अपना स्थान ले लेता है। इसलिए हमें ध्यान रखना होगा कि माँ के "अहं" को चोट न लगे। बस....फिर देखो....।"
" इसका उपाय भी बता दीजिए आप!" प्रतिमा ने उत्सुकता से पूछा। "हां ....हां ..क्यों नहीं, सबसे पहले तो जब माँ आए तो सर पर पल्लू रखकर चरण स्पर्श कर लेना। रात को सोते समय कुछ देर उनके पास बैठकर हाथ-पांव दबा देना। सुबह उठकर चरण स्पर्श के साथ प्रणाम कर देना।" श्रवण ने समझाया ।
"यदि माँ जी इस तरह से प्रसन्न होती हैं तो यह कोई कठिन काम नहीं है। "
"एक बात और कोई भी काम करो माँ से एक बार पूछ लेना। होगा तो वही जो मैं चाहूंगा । जो बात मनवानी हो उस बात के विपरीत कहना, क्योंकि घर के बुजुर्ग लोग अपना महत्व जताने के लिए अपनी बात मनवाना चाहते हैं । हर बात में 'जी माँ जी' का मन्त्र जपती रहना। फिर देखना माँ की चहेती बहू बनते देर नहीं लगेगी।" श्रवण ने अपने तर्कों से प्रतिमा को समझाया।
"आप देखना, इस बार मैं माँ को कोई शिकायत का मौका नहीं दूंगी।"
"बस....बस.., उनको ऐसा लगे जैसे घर में उनकी ही चलती है। तुम मेरा इशारा समझ जाना। आखिर माँ तो मेरी है, मैं जानता हूं उन्हें क्या चाहिये !"
प्रतिमा ने सुबह जल्दी उठ कर उनके कमरे की अच्छी तरह सफाई करवा दी। उसी कमरे के कोने में उनके लिए छोटा- सा मन्दिर रखकर उसमें ठाकुर जी की मूर्ति भी स्थापित कर दी साथ ही उनकी जरूरत की सभी चीजें वहाँ रख दी।
हम दोनों समय पर एयरपोर्ट पहुंच गये। हमें देखते ही मां जी की आंखे खुशी से चमक उठी। सिर ढक कर प्रतिमा ने माँ के चरण छुए तो माँ ने सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया। पोते को न देखकर माँ ने पूछा, "अरे तुम मेरे गुड्डू को नहीं लाए,?"
"माँ जी वह सो रहा था ।" प्रतिमा बोली
"बहू ...आजकल बच्चों को नौकरों के भरोसे छोडने का समय नहीं है। आए दिन अखबारों में छपता रहता है।" माँ जी ने समझाते हुए कहा।
"जी माँ जी, आगे से धयान रखूंगी"। रास्ते भर भैया भाभी व बच्चों की बातें होती रही।
घर पहुंच कर माँ ने देखा जिस कमरे में उनका सामान रखा गया है उसमें उनके लिए पूजा करने का स्थान भी बना दिया गया है। वे खुश होते हुये बोली, "प्रतिमा बहू, तुमने तो ठाकुर जी के दर्शन करवाकर मेरे मन की इच्छा पूरी कर दी। अमेरिका में तो विधिवत् पूजा पाठ करने को तरस ही गयी थी। तभी चार वर्षीय पोता गुड्डू दौड़ता हुआ आया और दादी के पांव छूकर गले लग गया। "माँ जी, आप पहले फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं चाय बनाती हूं।"
रात के खाने में सब्जी माँ से पूछकर बनाई गयी। खाना खाते-खाते श्रवण बोला, "प्रतिमा कल आलू के परांठे बनाना, पर माँ से सीख लेना तुम बहुत मोटे बनाती हो।" प्रतिमा की आंखों में आंखें डालकर श्रवण बोला।
"ठीक है, माँ जी से पूछकर ही बनाउंगी।" प्रतिमा बोली। माँ जी के कमरे की सफाई भी प्रतिमा महरी से न करवाकर स्वयं करती थी, क्योंकि पिछली बार महरी से कोई चीज छू गयी थी तो माँ जी ने पूरा घर सर पर उठा लिया था। अगले दिन आफिस जाते समय श्रवण को एक फाइल ना मिलने के कारण वह बार-बार प्रतिमा को आवाज लगा रहा था। प्रतिमा थी की सुन कर भी अनसुना कर माँ के कमरे में काम करती रही। तभी माँ जी बोली, "बहू तू जा, श्रवण क्या कह रहा है वह सुन ले।" "जी माँ जी|".
दोपहर के समय माँ जी ने तेल मालिश के लिए शीशी खोली तो, प्रतिमा ने शीशी हाथ में लेते हुए कहा, "लाओ माँ जी मैं लगाती हूं।"
"बहू रहने दे! तुझे घर के और भी बहुत काम हैं, थक जाएगी।" "नहीं माँ जी, काम तो बाद में भी होते रहेंगे। तेल लगाते- लगाते प्रतिमा बोली, माँ जी, आप अपने समय में कितनी सुन्दर लगती होंगी और आपके बाल तो और भी सुन्दर दिखते होंगे, जो अब भी कितने सुन्दर और मुलायम हैं।"
"अरे नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, हां तुम्हारे बाबू जी जरूर कभी-कभी छेड़ दिया करते थे। कहते थे कि यदि मैं तुम्हारे कालेज में होता तो तुम्हें भगा ले जाता।" बात करते-करते उनके मुख की लालिमा बता रही थी जैसे वो अपने अतीत में पहुंच गयी हैं । प्रतिमा ने चुटकी लेते हुए माँ जी को फिर छेड़ा, "माँ जी गुड्डू के पापा बताते हैं कि आप नाना जी के घर भी कभी-कभी जाती थी, बाबू जी का मन आपके बिना लगता ही नहीं था। क्या ऐसा ही था माँ जी?"
" चल हट....शरारती कहीं की...कैसी बातें करती है..देख गुड्डू स्कूल से आता होगा!" बनावटी गुस्सा दिखाते हुए माँ जी नवयौवना की तरह शरमा गयीं । शाम की सब्जी काटते देख माँ जी बोली, बहू तुम कुछ और काम कर लो, ला सब्जी मैं काट देती हूं !"
माँ जी रसोईघर में गई तो प्रतिमा ने मनुहार करते हुए कहा, "माँ जी, मुझे भरवां शिमला मिर्च बनानी नहीं आती, आप सिखा देंगी? यह कहते हैं, जो स्वाद माँ के हाथ के बने खानें में है, वह तुम्हारे में नहीं ।"
हां ..हां ..क्यों नहीं, मुझे मसाले दे मैं बना देती हूं। धीरे-धीरे रसोई की जिम्मेदारी माँ ने अपने ऊपर ले ली थी और तो और गुड्डू को मालिश करना, उसे नहलाना, उसे खिलाना-पिलाना सब माँ जी ने सम्भाल लिया। अब प्रतिमा को गुड्डी की पढ़ाई के लिए बहुत समय मिलने लगा। इस तरह प्रतिमा के सिर से कार्य भार कम हो गया था साथ-ही-साथ घर का वातावरण भी खुशनुमा रहने लगा। श्रवण को प्रतिमा के साथ कहीं बाहर जाना होता घूमने तो वह यही कहती कि माँ से पूछ लो, मैं उनके बिना नहीं जाऊंगी।
एक दिन पिक्चर देखने का मूड बना । आफिस से आते हुए श्रवण दो पास ले आया। जब प्रतिमा को चलने के लिए कहा तो वह झट से ऊंचे स्वर में बोल पड़ी, " माँ जी चलेंगी तो मैं चलूंगी अन्यथा नहीं ।" वह जानती थी कि माँ को पिक्चर देखने में कोई रूचि नहीं है। उनकी तू-तू, मैं-मैं सुनकर माँ जी बोली, "बहू, क्यों जिद्द कर रही हो? श्रवण का मन है तो चली जा, गुड्डू को मैं देख लूंगी!" माँ जी ने शांत स्वर में कहा।
'अन्धा क्या चाहे दो आंखे' वे दोनों पिक्चर देखकर वापिस आए तो उन्हें खाना तैयार मिला। माँ जी को पता था श्रवण को कटहल पसन्द है, इसलिए फ्रिज से कटहल निकाल कर बना दिया। चपातियां बनाने के लिए प्रतिमा ने गैस जलाई तो माँ जी बोली, "प्रतिमा तुम खाना लगा लो रोटियां मैं सेंकती हूं।"
"नहीं माँ जी, आप थक गयी होंगी, आप बैठिए, मैं गरम-गरम बना कर लाती हूं।" "सभी एक साथ बैठकर खाएंगे, तुम बना लो प्रतिमा ।" श्रवण बोला।
एक साथ खाना खाते देख माँ जी की आंखें नम हो गयी। श्रवण ने पूछा तो माँ बोली, "आज तुम्हारे बाबू जी की याद हो आई, आज वो होते तो तुम सबको देखकर बहुत खुश होते?" "माँ मन दुखी मत करो।" श्रवण बोला।
प्रतिमा की ओर देखकर श्रवण बोला, "कटहल की सब्जी ऐसी बनती है, सच में माँ ...बहुत दिनों बाद इतनी स्वाद सब्जी खाई है, माँ से कुछ सीख लो प्रतिमा....!" " माँजी सच में ही सब्जी बहुत स्वादिष्ट है...मुझे भी सिखाना माँ ....।"
"बहू ....खाना तो तुम भी स्वादिष्ट बनाती हो"
"नहीं माँ जी, जो स्वाद आपके हाथ के बनाए खाने में है वह मेरे में कहाँ? "प्रतिमा बोली।
श्रवण को दीपावली पर बोनस के पैसे मिले तो देने के लिए उसने प्रतिमा को आवाज लगाई। प्रतिमा ने आकर कहा, 'माँ जी को ही दीजिए ना ....!' श्रवण ने लिफाफा माँ के हाथ में रख दिया। सुनन्दा जी (माँ ) लिफाफे को उलट- पलट कर देखते हुए रोमांचित हो उठी। आज वे स्वयं को घर की बुजुर्ग व सम्मानित सदस्य अनुभव कर रही थीं। श्रवण व प्रतिमा जानते थे कि माँ को पैसो से कुछ लेना -देना नहीं । ना ही उनकी कोई विशेष आवश्यकताएं थी। बस उन्हें तो अपना मान सम्मान चाहिये था।
अब घर में कोई भी खर्चा होता या कहीं जाना होता तो प्रतिमा माँ से ही पूछ कर करती। माँ जी भी उसे कहीं घूमने जाने के लिए मना नहीं करतीं। अब हर समय माँ के मुख से प्रतिमा की प्रशंसा के फूल ही झरते। दीपावली पर घर की सफाई करते-करते प्रतिमा स्टूल से जैसे ही नीचे गिरी तो उसके पांव में मोच आ गयी। माँ ने उसे उठाया और पकड़कर पलंग पर बिठाकर पांव में आयोडेक्स लगाई और गर्म पट्टी बांधकर उसे आराम करने को कहा। यह सब देखकर श्रवण बोला- "माँ मैंनें तो सुना था बहू सेवा करती है सास की, पर यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है।"
"चुप कर, ज्यादा बक-बक मत कर, प्रतिमा मेरी बेटी जैसी है, क्या मै इसका ध्यान नहीं रख सकती? ...बोलो !" प्यार से डांटते हुए माँ बोली।
"माँ जी, बेटी जैसी नहीं, बल्कि बेटी कहो। मैं आपकी बेटी ही तो हूं।" सुनते ही माँ जी ने सिर पर हाथ रखा और बोली, तुम सही कह रही हो बहू, तुमने बेटी की कमी पूरी कर दी।
घर में होता तो वही जो श्रवण चाहता, पर एक बार माँ की अनुमति जरूर ली जाती। बेटा चाहे कुछ भी कह दे, पर बहू की छोटी-सी भूल भी सास को सहन नहीं होती। इससे सास को अपना अपमान लगता है । यह हमारी परम्परा सी बन चुकी है। जो धीरे धीरे खत्म हो रही है।
माँ जी को थोड़ा-सा मान सम्मान देने के बदले में उसे अच्छी बहू का दर्जा व बेटी का स्नेह मिलेगा इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी प्रतिमा ने। घर में हर समय प्यार का, खुशी का वातावरण रहने लगा । दीपावली नजदीक आ गयी थी। माँ व प्रतिमा ने मिलकर पकवान, मिष्ठान्न बनाए। लगता है इस बार की दीपावली एक विशेष दीपावली रहेगी। सोचते-सोचते वह बिस्तर पर लेटा ही था कि अमेरिका से भैया का फोन आ गया। उन्होंने माँ के स्वास्थ्य के बारे में पूछा और बताया कि इस बार माँ उनके पास से नाराज होकर गुस्से में गयी हैं । तब से मन बहुत विचलित है।
यह तो हम सभी जानते हैं कि नन्दिनी भाभी और माँ के विचार कभी नहीं मिले, पर अमेरिका में भी उनका झगड़ा होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी। भैया ने बताया कि वह माफी माँग कर प्रायश्चित करना चाहता है अन्यथा हमेशा मेरे मन में एक ज्वाला-सी दहकती रहेगी। आगे उन्होंने जो बताया वो सुनकर तो मैं खुशी से उछल ही पड़ा। बस अब दो दिन का इन्तजार था, क्योंकि दो दिन बाद दीपावली थी ।
इस बार दीपावली पर प्रतिमा ने घर कुछ विशेष प्रकार से सजाया था। मुझे उत्साहित देखकर प्रतिमा ने पूछा "क्या बात है, आप बहुत खुश नजर आ रहे हैं ?" "अपनी खुशी छिपाते हुए मैनें कहा, "तुम सास-बहू का प्यार हमेशा ऐसे ही बना रहे बस....इसलिए खुश हूं।"
.'.....नजर मत लगा देना हमारे प्यार को ' प्रतिमा खुश होते हुए बोली। दीपावली वाले दिन माँ ने अपने बक्से की चाबी देते हुए कहा, 'बहू लाल रंग का एक डिब्बा है उसे ले आ।' प्रतिमा ने "जी माँ जी,कहकर डिब्बा लाकर दे दिया। माँ ने डिब्बा खोला और उसमें से खानदानी हार निकालकर प्रतिमा को देते हुए बोली, "लो बहू, ये हमारा खानदानी हार है, इसे सम्भालो। दीपावली पर इसे पहन कर घर की लक्ष्मी इसे पहनकर पूजा करे, तुम्हारे पिता जी की यही इच्छा थी। "हार देते हुए माँ की आंखें खुशी से नम हो गयी ।
प्रतिमा ने हार लेकर माथे से लगाया और माँ के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। मुझे बार-बार घड़ी की ओर देखते हुए प्रतिमा ने पूछा तो मैंनें टाल दिया। दीप जलाने की तैयारी हो रही थी। पूजा का समय भी हो रहा था, तभी माँ ने आवाज लगा कर कहा, "श्रवण पूजन का समय साढ़े आठ बजे तक है, फिर गुड्डू के साथ फुलझड़ियां भी तो चलानी हैं। मैं साढ़े सात बजने का इन्तजार कर रहा था, तभी बाहर टैक्सी रुकने की आवाज आई। मैं समझ गया मेरे इन्तजार की घड़ियां खत्म हो गयी, मैंने अनजान बनते हुए कहा, "चलो माँ पूजा शुरू करें ।" ".हां ...हां ..चलो, प्रतिमा.... आवाज लगाते हुए कुरसी से उठने लगी तो नन्दिनी भाभी ने माँ के चरण स्पर्श किए....आदत के अनुसार माँ के मुख से आशीर्वाद की झड़ी लग गयी, सिर पर हाथ रखे बोले ही जा रहीं थी....खुश रहो, सदा सुहागिनों रहो.....आदि आदि। भाभी जैसे ही पांव छूकर उठी तो माँ आश्चर्य से देखती रह गयीं। आश्चर्य के कारण पलक झपकाना ही भूल गयीं । हैरानी से माँ ने एक बार भैया की ओर एक बार मेरी ओर देखा। तभी भैया ने माँ के चरण छूए तो प्रसन्न होकर भाभी के साथ-साथ मुझे व प्रतिमा को भी गले लगा लिया। माँ ने भैया भाभी की आंखों को पढ़ लिया था। पुन: आशीर्वचन देते हुए दीपावली की शुभकामनाएं दीं।
माँ की आंखों में खुशी की चमक देखकर लग रहा था दीपावली के शुभ अवसर पर अन्य दीपों के साथ माँ के हृदयरूपी दीप भी जल उठे। जिनकी ज्योति ने सारे घर को जगन्नाथ कर दिया। प्रतिमा ने आंखों ही आंखों में पूछा, 'आपको भैया के आने की खबर पहले से ही पता थी ना! '
मैंने भी मुस्कुरा कर "हा" में जवाब दे दिया।
दीप जलाते श्रवण ने प्रतिमा को कहा, "देखा प्रतिमा तुमने अपने अहं को छोड़कर माँ के अहं की रक्षा करके पूरे घर के वातावरण को सुखमय कर दिया। इसी अहं के कारण ही तो घर-घर में झगड़े हो रहे हैं जो परिवार को तोड़ने की कगार पर पहुंचा देते हैं ।"
"आप ठीक कह रहे हैं, पर इसका सारा श्रेय तो आपको ही जाता है।" घर की मुंडेर पर दीप रखते हुए प्रतिमा बोली।
" ईश्वर से प्रार्थना है कि हमेशा इसी तरह खुशी के दीप जलते रहें ....." कहकर श्रवण ने प्रतिमा को गले लगा लिया। दोनों की आंखें खुशी से चमक उठी।

-डा.सुरेखा शर्मा 

( कार्यकारिणी सदस्या नीति आयोग, भारत सरकार)
स्वतन्त्र लेखन/समीक्षक
639/10-ए,सेक्टर गुड़गांव -122001

Saturday, October 3, 2015

रघुविन्द्र यादव की लघुकथाएं

सपूत

जैसे ही मुझे पता चला बेगराज का पिता बीमार है और जयपुर के कैंसर अस्पताल में दाखिल है, मैं तुरंत अस्पताल पहुँचा, मगर वहाँ गिरधारी नाम का कोई मरीज भर्ती नहीं था| लिहाजा मैं ऑफिस लौट आया|
शाम को घर जाते वक़्त मुझे बेगराज पंचायती धर्मशाला में जाता दिखाई दिया| मैं बाइक खड़ी कर के अन्दर गया तो एक कमरे में उसका पिता अर्ध-मूर्छित अवस्था में पड़ा दिखाई दिया और बेगराज छज्जे पर खड़ा फ़ोन पर किसी से कह रहा था-“हाँ अभी अस्पताल में ही भर्ती हैं, खून चढ़ रहा है, पर बचने की उम्मीद कम ही है|”
दो सप्ताह बाद मैं गाँव आया तो बेगराज के आँगन में गिरधारी की बड़ी-सी तस्वीर लगी हुई थी, जिस पर हार चढ़ा था| नीचे सिर मुंडवाए बेगराज ऐसे बैठा था, जैसे सब कुछ लुट गया हो| बीच-बीच में लोगों को बता रहा था-“जयपुर से सबसे बड़े अस्पताल में दस दिन रखा, लाखों रूपये का खर्च आ गया पर बापू नहीं बचा|”

 

बलिदान

चाय पीने के लिए नव-यौवना ने कुल्हड़ को होंठो से लगाया तो वह बहुत खुश था| मगर कप से उसकी ख़ुशी देखी न गयी, बोला-“एक सुंदर लड़की के होंठों से लगकर इतना क्यों इतरा रहे हो? थोड़ी देर में फेंक दिए जाओगे कूड़े के ढेर में| यह तो हमारा ही भाग्य है जो रोज नयी-नयी बालाओं के लबों से चिपकते हैं|”
“जिसे कोई भी और कभी भी अपने लबों से लगा ले उसका भी क्या जीना? हमने तो केवल इसी सुन्दरी के लिए खुद को अंगारों में झोंका था और अब इसी के हाथों माटी में मिल जायेंगे| तुम न किसी एक के हो सकते हो न पुन: माटी में मिल सकते हो| तुम्हारा भी क्या भाग्य है?” कुल्हड़ ने कहा और मुस्कराते हुए माटी में मिलने के लिए चल दिया|

 

खुले विचार

“रोहित, क्या बात है, आज ग्राउंड नहीं आये?”
“अरे, कल किस-डे है न, इसलिए गर्ल फ्रेंड के लिए गिफ्ट लेने चला गया था|”
“तो तुम भी इन पाश्चात्य कुप्रथाओं के चक्कर में पड गए, भाई, यह हमारी संस्कृति नहीं है..|”
“भाषण बंद कर यार नीरज, तुम मिडिल क्लास लोगों की यही प्रॉब्लम है, सोच एक दायरे में बंधी हुई है, उससे आगे जा ही नहीं सकते| हम खुले दिमाग और खुले विचारों के लोग हैं| लाइफ को एन्जॉय करते हैं|”
“जिस पार्क में तुम किस-डे मनाओगे, अगर तुम्हारी बहन नीलिमा भी वहीँ पहुँच गयी तो?”
“पहली बात तो नीलिमा का इस सप्ताह घर से बाहर जाना बंद है, कॉलेज भी नहीं जाती, पार्क कैसे जाएगी? अगर किसी तरह चली भी गयी तो मैं उस साले का मुंह तोड़ दूंगा जो मेरी बहन की तरफ देख भी लेगा|”
“वाह भाई! खूब खुले विचार है आपके और आपके परिवार के|”

-रघुविन्द्र यादव

Tuesday, September 8, 2015

अपना अस्तित्व

    वो दिन, तारीख, वार सब अब भूलने लगा है कोई जरूरत ही नहीं रही उसकी जि़न्दगी में इनकी। उसकी दुनिया, अब मकान के ऊपरी हिस्से में टीन शेड से निर्मित एक कमरे में सिमट कर रह गई है और ये बड़ी विशाल अनन्त सम्भावनाओं वाली दुनिया उसके लिए बेमानी हो गई है या यूँ कहें कि वह अब खुद ही बेमानी हो गया है इस दुनिया के लिए किसी काम का नहीं।
    जो काम करते, जिन आदर्शों पर चलने की बात करते वह गर्व का अनुभव किया करता था, कहीं अतीत के गर्भ में गर्त हो गए हैं। उसकी आन उसकी शान सब किस्से भर बन गए हैं और यह सारी बातें उसके मन और शरीर को कमजोर कर रहे हैं। उसके जीने का कोई अर्थ नहीं नज़र आता उसे, बस जिए जा रहा है अन्तर में एक आग लिए और आग यदि किसी काम न आए तो स्वयं ही जलाती है नष्ट करती है। व्यर्थ-सा ही हो गया है अब तो उसका जीवन, क्योंकि अब इस दौड़ती-भागती दुनिया के साथ दौडऩे की शक्ति तो रही नहीं मस्तिष्क भी भ्रमित-सा हो गया है कोई निर्णय नहीं ले पाता, समझ नहीं आता क्या करे। थक हार कर यही होता है कि समय काटने को वह कुछ लिखता रहे जो शायद लोगों को अच्छा लगे और उसके मन के मरुस्थल में उनकी प्रशंसा की वृष्टि थोड़ी देर को सही, अन्तर की तपन को कुछ कम कर दे। बस ऐसे ही कट रहा है वक्त और बीत रही है जि़न्दगी उसकी।
    उस दिन वह बाजार से लौटकर आया तो देखा पत्नी टी.वी. पर बागवाँ पिक्चर देख रही थी आँखें आँसुओं से भरी थी। वह अपने कमरे में ऊपर जाने लगा तो बोली-यहाँ बैठो कुछ देर मेरे पास जरा यह फिल्म देखो, क्या यह तुम्हें अपने जीवन जैसी नहीं लगती। उसने टालना भी चाहा किन्तु पत्नी न मानी तो मजबूर होकर बैठना पड़ा उसके पास और फिल्म देखने लगा। फिल्म बहुत भावुक प्रसंग लिए चलती है माता-पिता के पति संतान का उपेक्षा का व्यवहार, मर्मस्पर्शी संवाद, स्वत: आँख भर आती हैं जब कुछ ऐसा दिखाई दे जो जीवन में घट रहा हो, खैर! फिल्म का अंत सुखद था जब नायक अपनी जीवन गाथा लिखकर प्रकाशित होकर पुरस्कार से सम्मानित होता है और लाखों रुपयों का स्वामी बन जाता है।  
    फिल्म की समाप्ति के बाद पत्नी कहने लगी-देखना तुम्हारी अपनी संतान भी एक दिन तुम्हारी कद्र समझेगी, तुम्हारी जि़न्दगी भी खुशहाल होगी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। पत्नी के स्वप्निल विश्वास को वह आघात नहीं पहुँचाना चाहता था। कैसे समझाता उसे, यह फिल्म बनाने वाले सपनों के सौदागर होते हैं7 एक सपना दिखाते हैं हिम्मत न हार, एक दिन तेरे जीवन में भी दु:खों की बदलियाँ चीरकर खुशियों का सूरज चमकेगा, किन्तु ऐसा होता नहीं, फिल्म में संयोगों की भरमार होती है और समय कम होता है, वह तकलीफें जो मिनटों की दिखती हैं वास्तविक जीवन में वर्षों तक नहीं छोड़ती। कभी-कभी तो जि़न्दगी समाप्त हो जाती है उलझने नहीं और फिल्में वह तो केवल सफल व्यक्ति का ही चित्रण करती हैं, असफल व्यक्ति को तो कोई असफल व्यक्ति भी नहीं देखना चाहता। वह अपने दु:खों को भूलने के लिए ही तो फिल्म देखता है। फिल्म का अन्त इसीलिए सुखद होता है।
    आज वह भी तो एक असफल व्यक्ति ही है जो न अपने सपनों को पूरा कर पाया न उनके सपनों को, जिनके सपनों को पूरा करना ही उसकी पहली प्राथमिकता थी या यूँ कहें कि वही उसका सपना थे। इस बात का पता उसे तब चला जब वह थकने लगा और उसने उम्मीद की उन सब से अपना साथ देने की। उनसे उत्तर मिला कि- उसने किया ही क्या है उनके लिए। उस दिन से बेमानी हो गए उसके सारे सम्बन्ध और साथ ही उसका जीवन, क्योंकि अब उसके पास न धन जुटाने का कोई साधन था और न ही बैंक बैलेंस। आखिर किस लिए उसका सम्मान होता?
    सम्मान होता है योग्यता का और अब योग्यता का मापदण्ड है धन-दौलत। जब धन-दौलत न हो तब व्यर्थ हो जाते हैं दावे जो अपने किए वादों को पूरा करने में समर्थ नहीं होते। असफल व्यक्ति को उपदेश देने वाले बहुत हो जाते हैं, वह भी जिन्होंने कभी उसकी उंगली पकडक़र चलना सीखा था। जि़न्दगी का ककहरा उसकी आवाज़ से समझा था। दूसरों को छोटा बना दो, स्वयं को बड़ा, महान बनाने की कामना और अपने अहं की तुष्टि का इससे सरल ढंग कोई और होता ही नहीं। कुछ भी कहो उनके पास उत्तर मौजूद है हर बात का। ऐसा न करते-वैसा न करते आदि आदि। उसकी मजबूरियों को समझते हैं केवल वे लोग, जो भुक्त भोगी हैं, स्वयं विवश है। वे केवल संवेदना ही प्रकट कर सकते हैं उसकी खुद की तरह।
    तो क्या वह भी दूसरों की भांति मौत की प्रतीक्षा में घुट-घुट कर जिये, नहीं कभी नहीं, विचारों से तो वह कभी ऐसा नहीं रहा, उन्मुक्त खिलखिलाते हुए जीने की सदा ही भावना रही, मिल रहा अपमान उसकी जीने की इच्छा को नष्ट नहीं कर सकता। वह जीना चाहता है और अपमान की आग जीवन में एक इंधन का काम देती है। क्यों क्यों वह स्वयं को दूसरों की तरह नकार दे? क्यों वह यह प्रमाणित करे कि वही सच कह रहे हैं? नहीं अब और नहीं सोचेगा वह इस विषय में कि लोग क्या सोचते हैं या उसे क्या समझते हैं। उसे जीना है और ईश्वर ने उसे यह अधिकार दिया है। अपने आप को प्रसन्न रखना उसका अपना दायित्व है और जब वह स्वयं ही इसको पूरा नहीं कर सकता तो दूसरों से क्यों आशा रखता है कि वह इसे पूरा करें। पहले दूसरों की प्रसन्नता में सुखी होने की कामना करता था। इसलिए किसी की दृष्टि में उसका महत्त्व नहीं था। बिना माँगे देना भी एक दुर्बलता है महत्त्व उसी का होता है जो बार-बार माँगने पर भी न दिया जाए। बिना परिश्रम जो मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता। अब किसी से कोई आशा नहीं, परन्तु निराशा के गर्त में गिर कर भी क्या मिल जाएगा सिवाय मानसिक दुर्बलता के जो शरीर को और निर्बल बनाएगी, बीमारियों को स्थाई निवासस का निमन्त्रण देगी। मिटना तो एक दिन अवश्य है, किन्तु इस प्रकार घुट-घुट के मरना या मरने की प्रतीक्षा करना कहाँ की समझदारी है? विपरीत परिस्थितियों में जीने की अपनी आदत को, बिना सहारे के जीने की अपनी आदत को फिर से जगाना होगा, जो सहारों के सहारे जीने की इच्छा में कहीं गुम हो गई है। अपना अस्तित्व संभालना होगा। मशहूर शायर साहिर लुधियानवी की पंक्तियों को अपना संबल बनाकर चलेगा, जो जीने की, संपूर्ण जीने की प्रेरणा देती हैं-जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है। मरो तो ऐसे कि जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं।

-गांगेय कमल

शिवपुरी जगजीतपुर,
कनखल हरिद्वार-249408

चावल बाजरा और टोटका

    सरमाया साहब को इस शहर में बसे लगभग दस वर्ष हो चुके हैं। परिवार में पत्नी और चार बेटे हैं। जिन्दगी बड़े मजे से गुजर रही है। कोई कमी नहीं और ना ही अब तक कोई गम पास फटका है पर पिछले तीन दिनों से उनकी पत्नी साहिब कौर बड़ी परेशान है। बार-बार अपने चारों बेटों की बलाएँ लेती फिर रही है। कभी उन्हें चूमती,कभी दुलारती और कभी जली हुई लाल मिर्चें उनके सर के ऊपर से वारकर उन्हें जमीन पर फेंक चप्पल से खूब कूटती। यह शामत मिर्चों की नहीं बल्कि किसी और की आती है, वे जानते हैं। अब तो रोज घर में धुँआ-धकडऱहने लगा है। सरमाया साहब सोचते औरतों के वहम हैं। इतिहास के पन्ने पलटकर देख लो, हर माँ अपने बच्चे को बुरी नज़र से बचाने के लिए कई क्रिया-कलाप करती रही है। फिर वे चाहे गंडा-ताबीज हों, तंत्र-मंत्र हों, साधु-संतों के डेरों पर बैठकें हों या फिर टोने-टोटके। शायद इसलिए उनकी पत्नी भी ऐसा करने लगी हो। पर सवाल था कि आजकल ही क्यों?
    सरमाया साहब खुले विचारों वाले भले आदमी हैं और सत्कर्म को ही पूजा मानते हैं। तांत्रिकों, साधु-संतों, ज्योतिषियों वगैरह के मायाजाल में फंस अपना घर उजाड़ते लोगों को पत्र-पत्रिकाओं में बहुत बार पढ़ा है उन्होंने। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी विभिन्न कार्यक्रमों का प्रसारण कर भोले-भाले लोगों को इन मायावी लोगों से बचने के लिए हमेशा सचेत करता रहा है। पर पता नहीं लोग भी कौन-सी मिट्टी के बने होते हैं। एक भुगत चुका है तो दूसरा उस दलदल में फंसकर भुगतने को हमेशा तैयार बैठा होता है। अंधविश्वास और रूढिय़ों में फंसकर ये दकियानूसी लोग सहज ही इन कथित मायावी लोगों के जाल मेें फंसकर अपना धन, बच्चे, ज़ायदाद, इज्ज़त और मन की शांति दाँव पर लगा बैठते हैं। पुत्र प्राप्ति हेतु बलि के बहाने दूसरे के बच्चों की नृशंस हत्या स्वयं कर या दूसरों से करवाकर पुत्र-रतन तो प्राप्त कर ही नहींं पाते जि़ंदगी भर के लिए सलाखों के पीछे ज़रूर पहुँच जाते हैं। फिर भी देखने वालों को उनके अनुभवों से अक्ल नहीं आती। मत मारी जाती है उनकी। सिर्फ शक के आधार पर औरतों को डायन घोषित कर उन्हें ईंट-पत्थरों से मार दिया जाता है। निर्वस्त्र कर सरेराह घुमाया जाता है। आँखें फोड़ दी जाती हैं। जीभ काट ली जाती है। बलात्कार किए जाते हैं। दुधमुँहे बच्चों की छात्ती पर पैर रखकर तांत्रिकों द्वारा इलाज के नाम पर ठगा जाता है। बच्चे रोते-तड़पते रहते हैं और माँ-बाप, परिजन और समाज के लोग हाथ बाँधे बेवकूफों की तरह खड़े रहते हैं। दूसरों की बेशक जान चली जाए पर अपनी ज़ेब भरनी चाहिए। जब ऐसी ही कोई न्यूज़ देख रहे होते हैं वे तो उनका मन करता है कि टी.वी. से बाहर निकालकर एक-एक को पकडक़र धुन दें। बहुत कोफ्त होती है उन्हें।
कोफत तो उन्हें तब भी बहुत होती है जब छोटे-छोटे शहरों, कस्बों, गाँवों के अलावा बड़े-बड़े विकसित देशों के लोग भी ऐसे अंधविश्वासों में विश्वास करते दीखते हैं। अब अमेरिका की ही बात लो, वहाँ धनवान लोग सडक़ पर मिली एक पेन्नी को अपनी जेब में दिनभर इसलिए रखते हैं कि वह उनके लिए सौभाग्य लेकर आएगी। म्यांमार वाले तो हाथी की पूँछ के कुछ बाल अपने घर में ले आते हैं कि इससे शैतानी शक्तियाँ दूर रहेंगी। चीन वासियों द्वारा चीजों की संख्या 8 व 9 रखे जाने का हर संभव प्रयास किया जाता है क्योंकि चीनी भाषा में इन अंकों की ध्वनि पर्याप्त और समृद्ध शब्दों जैसी होती है। रूसी लोग अमावस्या के दिन बात और नाखून काटना अच्छा समझते हैं। इजरायल वाले किसी बुरी चर्चा के बाद इस तरह थूकना पसंद करते हैं कि दूसरों को भी पता चल जाए। उनका मानना है कि ऐसा करने से वे उस बुरी चीज से सुरक्षित रहेंगे। भारतवासी किसी और चीज में अव्वल हों चाहे न हों पर अंधविश्वासों में सबसे ऊपर हैं। दशहरे पर रावण के जले हुए पुतले की लकड़ी लाकर घर में रखेंगेे ताकि बच्चे रात में डरे नहीं। डरपोक कहीं के। छींक आ जाए तो घर से बाहर नहीं निकलेंगे बेशक बस छूट जाए। अच्छा भला साफ-सुथरा रास्ता छोडक़र झाड़-झंखाड़ पर चल देंगे गर बिल्ली रास्ता काट जाए और इन सबसे परे जापान वाले तो यहाँ तक सोचते हैं कि गर्भवती स्त्री यदि शौच के लोटे को अच्छी तरह माँजकर चमका दे तो उसे स्वस्थ और सुन्दर शिशु की प्राप्ति होगी। भई, तरीका तो आसान है पर..?
    पर सरमाया साहब को ना तो इन बातों में विश्वास है ना ही कोई दिलचस्पी। हाँ ,दिलचस्पी इस बात में जरूर हो आई है की सुबह 5 बजे बिस्तर त्यागने वाली साहिब कौर आज 3.00  बजे ही क्यों उठ गयी? घर का मुख्य द्वार उसने पूरा क्यों खोल दिया? सुबह सवेरे स्नान कर जपुजी साहिब का पाठ करने वाली उनकी सुघड़ पत्नी मुख्य द्वार के पास कुर्सी डालकर बैठी क्रोशिए से थालपोश बुनने क्यों बैठ गयी? उन्हें बहुत हैरानी हो रही है की माजरा क्या है। वे स्वयं भी उठकर बैठ गए। लौट-लौटकर पास आ रही नींद को दो-चार अंगड़ाईयां लेकर उन्होंने फटकारा और साहिब कौर के पास चले गए।
    'ये आज तडक़े ही दरवाजा क्यों खोल रखा है? कोई प्रॉब्लम है? नींद नहीं आ रही है या फिर कोई टेंशन है?' उन्होंने धीर-गंभीर पर बेचैन दिख रही पत्नी से पूछा।
    'टेंशन ही है जी...जब से ये नए पड़ोसी आये हैं ना, मेरा तो जीना हराम हो गया है।'
    'क्यों क्या हुआ? मुझे तो तुमने कभी कुछ बताया नहीं।'
    'बताती क्या...? आपको तो इन बातों में कोई विश्वास ही नहीं। मेरी बातों को तो आपने मजाक में ही उड़ाना था...।'
    'किन बातों को...?' सरमाया साहब की उत्सुकता पहेली के हल खोजने में मस्तिष्क का गोल-गोल चक्कर लगा आई है।
    'पिछले दस दिनों से रोज हमारे दरवाजे के आगे चावल फेंक रहे हैं।' साहिब कौर ने पड़ोसन के घर की ओर इशारा करते हुए कहा।
    'चावल फेंकते हैं...?'
    'हाँ जी...।'
    'वो भला ऐसा क्यों करेंगे? हो सकता है कीड़े-मकोड़े या चीटियाँ चावल ले आती हों या फिर राशन लाते समय हमारे थैले में से गिर गए हों। दरअसल तुम औरतों की मानसिकता की आँख बहुत छोटी होती हैं। दूर तक दिखाई नहीं देता तुम्हें...।'
    सब दिखाई देता है जी मुझे...। साहिब कौर तिलमिला गयी।
    'अच्छा, तुम्हें कैसे पता पिछले दस दिनों से फेंक रही है?'
    'करमे की माँ ने खुद देखा।'
    'ओह तो ये आग करमे की माँ की लगाई हुई है।'
    'मुझे पता था आपने मेरी हर बात में मीनमेख निकालनी ही है। इसीलिए आपसे नहीं कहा। वैसे भी मैंने सब देख लिया है। समझ लिया है कि चावल के दाने आये कहाँ से। एक-एक दाना चुगकर इन मुँहजले पड़ोसियों के आँगन में ही फेंका मैंने भी। खुद के घर में लडकियाँ ही लडकियाँ है तो हमारे बच्चों पर टोटके कर रही है। देखा नहीं तुमने, पाँचवीं बार पेट लेकर घूम रही है लडक़े की चाह में। शुरू-शुरू में तो बड़ा लाड़ दिखाती थी मेरे बच्चों से। अब समझी उसके काले मन में खोट था। अबकी इसे रँगे हाथ ना पकड़ा तो मेरा भी नाम नहीं। पता नहीं कौन-कौन से मन्त्र फूँकते हैं चावलों में।' साहिब कौर का बुड़बुड़ाना और खीजना अनवरत जारी था।
    सरमाया साहब ने आज अपनी पत्नी के चेहरे पर एक अजीब चीज देखी जो शायद सारी बुरी भावनाओं और कुविचारों के फलस्वरूप एक परछाई की तरह उसके चेहरे के साथ-साथ शरीर की पूरी भाषा से चिपक गयी थी। सुबह-सवेरे पाठ करते समय सुकून की जो लाली साहिब कौर के चेहरे पर दिखती थी, वह आज गायब थी। फिर भी बड़े संयम से वे सब सुनते रहे।
    थोड़ी देर बाद पड़ोसन ने दरवाजा खोला पर उन दोनों को दरवाजे पर जमा देखकर झट अंदर चली गयी।
    'देखा मैंने कहा था ये कलमुँही निकलेगी जरूर। ऐसे ही नहीं कहा था मैंने।' साहिब कौर फिर कलपी।
'अच्छा अब गुस्सा थूक दे और भगवान का नाम ले...।' सरमाया साहब पत्नी को समझाते हुए चाय बनाने के लिए रसोई की तरफ चले गए। गैस सिम कर चाय के लिए पतीली बर्नर पर रख वे ब्रुश करने लगे। अब दोबारा सोने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था क्योंकि नींद को तो उन्होंने खुद घुडक़ दिया था। अब वह भला उनके पास क्यों लौटती। तभी कमरे में अंधेरा हो गया और साथ ही दरवाजा उढक़ने की आवाज़ भी कानों से आ टकराई। मन ही मन वे खुश हुए कि चलो अच्छा है किस्सा खत्म हुआ। उन्होंने जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोये और बैठक में आ गए। देखा, पत्नी दरवाजे के 'आई होल' से आँख सटाए खड़ी थी।
    'जल्दी आओ... देखो...।' सरमाया साहब के कदमों की आवाज़ सुनकर साहिब कौर ने बिना उनकी ओर देखे व्याकुलता से एक हाथ हिलाते हुए कहा।
    'आई होल' पर अब सरमाया साहब की आँख थी।
    इसीलिए मैंने बत्ती और दरवाजाा बंद कर दिया था कि वो चुड़ैल यह समझे कि हम सब सो गए हैं। देखना, अबके बाहर ज़रूर निकलेगी।
    सरमाया साहब उत्सुकता और बेचैनी से पत्नी की सच होती बातों को अपनी आँखों से देख रहे थे। उन्हें इस नाटक में अब आनंद आने लगा था। कुछ ही पल में बहुत आहिस्ता से, हल्की चरमराहट के साथ सामने का दरवाजा खुला और दबे पाँव पड़ोसन की छाया बाहर निकली। उन्होंने सटकर खड़ी पत्नी का हाथ दबा दिया और फुसफुसाए-'आ रही है...।' साहिब कौर ने फटाफट सरमाया साहब को धकियाते हुए एक तरफ खिसकाया और 'आई होल' पर अपनी आँख चिपका दी। इसी दौरान चाय उबलने की आवाज़ सुनकर वे रसोई की तरफ भागे। चाय के कप ट्रे में रख वापिस आ रहे थे कि तभी बैठक और बाहर आँगन की बत्ती जलने के साथ ही दरवाजा भी भड़ाक से खुल गया।
    उनके दरवाजे से जरा-सी दूरी पर ही पड़ोसन खड़ी थी मुट्ठी बाँधे। अचानक दरवाजा खुलने से खिसिया गई-आज बड़ी जल्दी उठ गई सोनू की मम्मी...?
    हाँ, बहुत घबराहट हो रही थी। नींद नहीं आ रही थी...।
    नींद को मुझे भी नहीं आ रही। रात से ही दिल कच्चा-कच्चा हो रहा है।
    मुझे पता है तुझे नींद क्यों नहीं आ रही? साहिब कौर होठों ही होठों में बुदबुदाई।
    कुछ कहा सोनू की मम्मी?
    हाँ, मैं कह रही थी कि इन दिनों में बेचैनी होती ही है।
    दोनों औरतें मन ही मन एक-दूसरे को कोसती हुईं दिखावे के लिए फिर भी सहजता से बतिया रही थीं।
    तो लो बहन जी एक कप चाय पी लो। चित्त ठीक हो जाएगा। होता है मन कभी-कभार बेचैन। भगवान सब अच्छा करेंगे...। आप चिंता ना करें जी। अगर कहें तो नींबू की शिकंजी बना लाऊँ...?
    साहिब कौर ने अन्दर ही अन्दर जलते-भुनते सरमाया साहब को घूरा। पड़ोसन चाय और शिकंजी न पीने की इच्छा जताती, आड़ी-तिरछी भाव-भंगिमाएँ बनाती, बंधी मुट्ठी से अपना नाइट गाउन संभाले हौले-हौले कदमों से अपने दरवाजे की ओर सरक गई।
    देखो चावल के दाने। साहिब कौर ने कुछ दूर फर्श पर गिरे चावलों के कुछ दानों की तरफ इशारा किया जो पड़ोसन की मुठ्ठी से ही गिरने की चुगली कर रहे थे।
    मोटी भैंस...देखा कैसे बाल खलारकर निकली थी। डायन कहीं की। मेरे बच्चों पर नज़र रखती है। शक्ल तो देखो इसकी। सुबह उठकर पूरे फर्श पर मैंने पोंछा लगाया था। चावल का एक दाना नहीं था वहाँ तो अब क्या कोई पिशाच आकर गिरा गया?  साहिब कौर बुड़बुड़ाती जा रही थी और साथ ही साथ चाय भी सुडक़ती जा रही थी।
    अब देखती हूँ कैसे करती है टोटका। करमे की माँ बता रही थी कि पूरे 30 दिन का टोटका होता है चावलों का और अगर एक दिन का भी गैप पड़ जाए तो पिछला सारा असर खत्म हो जाता है।
    अच्छा, तो उसी को खत्म करने का मोर्चा सम्भाला था आज। सरमाया साहब हल्के मूड में बोले ज़रूर पर हैरान-परेशान वे स्वयं भी हो उठे थे। पत्नी की बातों में सच्चाई थी। सामने के घर में खिडक़ी के परदे पर आती-जाती परछाई पड़ोसन की व्यग्रता का जि़क्र करती इस सच्चाई को और पुख़्ता कर रही थी।
    साहिब कौर ने भी आज दृढ़ निश्चय कर लिया था कि चाहे कुछ हो जाए घर का दरवाजा खुला ही रख छोड़ेगी। दरवाजा बंद होते ही पता नहीं कब पड़ोसन चुपके से आकर चावल फेंक जाए। आज इस क्रम में व्यवधान तो डालना ही था।
    सरमाया साहब टोने-टोटकों में ज़रा भी विश्वास भले ही न रखते हों पर दूसरों द्वारा उनके परिवार के प्रति इस तरह की भावना रखना उन्हें भी खला था। उनके दो बेटे तो इतने छोटे और मासूम हैं कि अभी स्कूल भी नहीं जाते। लेकिन बड़े दोनों सााहबज़ादों को साहिब कौर ने घर के पिछले दरवाजे से ही स्कूल भेजा। साथ ही सख्त हिदायत भी दे डाली कि स्कूल की छुट्टी होने पर पिछले दरवाजे से ही घर के अदर दाखिल होना है ताकि पड़ोसन की बुरी नज़र उन पर न पड़े। झिंझोड़-झिंझोडक़र यह भी समझाया कि पड़ोस वाली मोटी भैंस से बचकर रहें। कुछ खाने को दे तो बिल्कुल न लें। उनके बच्चों से भी बात न करें। इसके अलावा और भी बहुत से निर्देश जारी किए। बच्चों ने जिस अरूचि से सुना उसी लापरवाही से हाँ में सिर हिला दिए।
    बच्चों के स्कूल रवाना होने के बाद धागे में पिराई नींबू और हरी मिर्चों की माला घर की देहरी पर लटक गई। साथ ही बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला का प्रतीक काला करवा भी मकान की छत्त से नीचे दीवार पर टंग सबको जीभ चिढ़ाने लगा।
    इस दौरान साहिब कौर ने चारों बच्चों की बनियानों, कमीज़ों, नेकरों आदि का बखूबी निरीक्षण किया कि कहीं से कोई कपड़े का टुकड़ा तो नहीं काट लिया गया। यह भी कि बच्चों का कोई वस्त्र गायब तो नहीं। इसी सारे झमेले में वह बच्चों का दूध-दलिया भी समय पर तैयार नहीं कर पाई। बच्चों के स्कूल से लौटने का वक़्त हो चला था अत: वह कुछ वक़्त पहले ही दरवाजे पर जम गई और ऑटोरिक्शा रुकने पर खुद उन्हें घर के अन्दर लेकर आई। वहम और डर उसे खाए जा रहा था। सबसे पहले उसने बच्चों के पटके खोलकर उनके केस उलट-पलटकर देखे कि कहीं कैंची से बालों का गुच्छा ही तो नहीं काट लिया गया। जहाँ-जहाँ वहम उभरा वहाँ-वहाँ उसकी नज़र ने धावा बोल दिया और हाथों ने उस जगह की खूब मरम्मत की।
    तीन दिनों में ही सरमया साहब इस पूरे प्रकरण से खीझ से गए थे। साहिब कौर जब-तब बुड़बुड़ाती हुई पड़ोसन की तमाम हरकतोंं का ब्यौरा उन्हें न्यूज चैनल की तरह देती रहती। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि क्या करें। वे सोचते कि पड़ोसियों को पड़ोसियों की तरह ही रहना चाहिए क्योंकि सुख-दुख में सबसे करीब वही होते हैं। पर जब तक चावल फेंकने का सिलसिला खत्म नहीं हो जाता तब तक उनकी पत्नी चैन से न खुद बैठेगी न उन्हें बैठने देगी।
    शनिवार को साहिब कौर ने सुबह-सुबह ही झाड़ू पीट-पीटकर सारा घर-आँगन धोया। सभी कमरों में अगरबत्ती घुमाकर बाहर आँगन में तुलसी के पौधे के पास रख दी और हाथ जोडक़र चारों तरफ कुछ बुदबुदाती घूमती रही। कुछ देर बाद दूर से जब बाल्टी की खनक सुनाई दी तो जोर से चिल्लाई-ओ मिल्खया... जा पापा से एक रुपए का सिक्का लेकर आ, शनि महाराज आए हैं। एक मिनट में ही मल्खान ने सिक्का माँ को थमा दिया।
    ठहर जा, जा कहाँ रहा है। चल जय कर।
    मल्खान ने माँ के साथ ही तेल में उचटती-सी नज़र डाली और जोर लगाकर बोला-जय शनि महाराज की...।
    शनि महाराज के जाते ही साहिब कौर ने बेटे को पुचकारा-सच-सच बता किसकी सूरत दिखी तेल में?
    मोटी भैंस की...। कहकर मल्खान जोर से हँसते हुए फटाफट घर के अन्दर घुस गया। साहिब कौर की मुस्कुराहट झेंप गई।
    तभी सरमाया साहब बाहर निकले।
    अब आप बिना कुछ खाए-पीए कहाँ जा रहे हैं? सरमाया साहब को पेन्ट-कमीज पहने देखा तो हैरान होकर पूछा साहिब कौर ने।
    कुछ नहीं बस एक तांत्रिक के पास जा रहा हूँ। सुबह-सुबह ही मिलता है वो।
    साहिब कौर सन्न रह गई। उसे यकीन न आया। पर मन ही मन एक फुलझड़ी भी चल गई।
    तू चिंता न कर, करता हूँ सालों का दिमाग ठीक। कहकर वे जल्दी से बाहर निकल गए।
    साहिब कौर का दिल बल्लियों उछलने लगा और पति के नाश्ते की चिंता भी कहीं उडऩ छू हो गई। आखिर हैं तो बच्चों के पिता ही। फिक्र तो उन्हें भी है। मैं तो यूँ ही सोचती रही कि इन्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं। ये आदमी लोग सच ही कहते हैं कि औरत की दूर की नज़र बड़ी छोटी होती है। अब पता चलेगा मोटी भैंस को जब अपने ऊपर बीतेगी। घर का कामकाज निपटाते हुए बहुत सोचा उसने।
    पूरे तीन घंटे बाद पहुँचे सरमाया साहब, हाथ में काले रंग का एक पोलीथीन का लिफाफा थामे।
    'बड़ी देर लगा दी जी...?' दरवाजा बंद करते हुए साहिब कौर ने पानी का गिलास थमाया और आवाज़ में मिठास घोल दी।
    'हाँ, देर तो लगनी ही थी। काम पूरा करके जो आया हूँ। बहुत भीड़ थी।'
    लिफाफे में क्या है? उसने मन की फुलझड़ी में प्रसन्नता की दियासलाई लगाते हुए उत्सुकता से पूछा।
    'टोटका है...।'
    'इसका क्या करेंगे जी?'
    'हमने क्या करना है। अब तो जो करेंगे, तांत्रिक महाराज ही करेंगे। चलो अब खाना-वाना लगाओ शाम को मोहन बाबू के घर भी जाना है।'
    'पड़ोसियों के घर भी जाना पड़ेगा...? यह कैसा टोटका दिया तांत्रिक ने?'
    'तुम ज्यादा टेंशन मत लो। वो लोग छुपकर कर रहे थे, हम सरेआम करेंगे। और किसी को शक तक न होगा।'
    'कोई नुकसान तो नहीं होगा?'
    'नुकसान की चिंता तू क्यों करती है। जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा।'
    खाना खाकर सरमाया साहब सो गए, उनकी अलग ही बुद्धि है। जो एक बार ठान लेते हैं करके ही छोड़ते हैं। चाहे कुछ हो जाए। मन पर बोझ नहीं रखते। शाम को नींद से जागे तो सबसे पहले पड़ोसियों का दरवाजा खटखटाया- 'और मोहन बाबू क्या हालचाल हैं?' उन्होंने हाथ मिलाते हुए पूछा।
    'आज बड़े दिनों बाद आए सरमाया साहब... सब खैरियत से है?'
    'सब कुशल-मंगल है जी।' लिफाफा मेज पर रखते हुए उन्होंने कहा और हैरान-परेशान खड़ी पड़ोसन को हाथ जोडक़र नमस्कार की।
    'भाग्यवान, जाओ चाय बना लाओ... भाईसाहब आए हैं।'
    'हाँ-हाँ अभी लाती हूँ।' अपने दिल की धडक़नों को समेटती पड़ोसन के पैर और भारी हो गए कि आज हो गया कांड। तभी सरमाया साहब ने गहरी आवाज़ में सुनाया- 'हाँ भाई क्यों नहीं, बहन जी ने तो हमारे घर का चाय-पानी पीया नहीं पर हम ज़रूर पीकर जाएँगे।'
    'पर ये लिफाफे में क्या उठा लाए?' मोहन बाबू के चेहरे पर उत्सुकता की लकीरें गहराने लगीं।
    'दरअसल आज मैं गुरूद्वारे गया था तो वहाँ ऋषिकेश से आए हुए पंडित जी मिल गए। मोहन बाबू, बड़े गुणी और विद्वान पंडित हैं वे। काफी देर तक मैं उनसे ज्ञान-ध्यान की बातें करता रहा तो जाते समय उन्होंने ये लिफाफा मुझे दिया और कहने लगे कि...।' कहते हुए एकबारगी सरमाया साहब का दिल धडक़ा ज़रूर पर पूरे अभिनय के साथ बड़ी सफाई से वे झूठ बोल ही गए।
    तभी चाय आ गई। इस दौरान बहुत सारी और भी बातें हुईं। भयभीत पड़ोसन दूसरे कमरे की दीवार से कान सटाकर इन सब बातों के अर्थ निकालने के अतंद्र्वद्व में फँसी रही।
    'अच्छा, अब चलता हूँ मोहन बाबू। भूलना मत, इकट्ठे ही निकलेंगे कल सुबह।' सरमाया साहब ने उठते हुए बड़ी गर्मज़ोशी से हाथ मिलाया और खुश चेहरा लिए बाहर आ गए। बिना किसी शक के काम आसानी से हो जाएगा, उन्होंने सोचा नहीं था।
    इस दौरान साहिब कौर घर में बैठी तड़पती रही कि पता नहीं क्या होने वाला है। औरतों की बातों को यूँ ही आदमियों तक पहुँचाया। सरमाया साहब जब घर लौटे तब भी उसने ज्यादा पूछताछ नहीं की। बस, जो वे बताते रहे वह चुपचाप सुनती रही।
    आज रविवार है। यानि सबकी छुट्टी का दिन। तरह-तरह की आशंकाओं से घिरी, रातभर ठीक से सो न पाने के बावजूद साहिब कौर सुबह सबसे पहले उठ गई। उसका मन बड़ा अशांत है। स्नान आदि से निपटकर सिर पर मलमल का दुपट्टा पलेट वह सुखमनी साहब का पाठ करने बैठ गई ताकि मन को कुछ सुकून मिले।
    साधसंगि दुसमन सभि मीत।
    साधू कै संगि महा पुनीत।।
    पर पाठ में उसका चित्त कैसे लगेगा। मन तो दूर आसमान में उडारी मार रहा है। सागर में गोते लगा रहा है।
    ब्रहम गिआनी कै मित्र शत्रु समानि।
    ब्रहम गिआनी कै नाहीं अभिमान।
    इसी दौरान सरमाया साहब तांत्रिक का दिया लिफाफा थामे चुपचाप उसके सामने से निकल गए। उसका दिल सीने में एक बार जोर से धडक़ा। पर पाठ करने की वजह से उस समय वह उनसे कुछ कह न पाई।
    धनवंता होई करि गरबावै।
    त्रिण समानि कछु संगि न जावै।।
    अपने चारों बेटों के चेहरे उसकी आँखों की पुतलियों में नाचने लगे। कुछ और पृष्ठ भी अभी पढ़े ही थे कि गर्भवती पड़ोसन हाथ में चावलों की मुट्ठी बाँधे आँखों के सामने आ खड़ी हुई। उसने मन ही मन अरदास की कि हे वाहेगुरू! रक्षा करना। हमारे हाथों किसी का बुरा न हो।
    जब अपनी सोभा आपन संगि बनाई।
    तब कवन माई बाप मित्र सुत भाई।।
    तभी एक आवाज़ उसके कानों में आ टकराई- 'करता हूँ सालों का दिमाग ठीक जो जैसा...।'
    जिस पाठ को करने में उसे सिर्फ घंटा भर लगता था। आज उसे पूरा करने में पूरा डेढ़ घंटा लग गया। उसमें भी मन ईधर-उधर ही भटकता रहा। ध्यान तो लगा ही नहीं। पाठ तो समाप्त हो गया लेकिन विचारों की धडक़नों को आराम नहीं मिला। हल्की-सी आहट होती तो उसे लगता जैसे सरमाया साहब आ गए हों।
    उधर पार्क में बेंच पर बैठे थे दोनों पड़ोसी। साथ की बेंच पर बैठे एक वृद्ध दंपति कबूतरों को दाना डाल रहे थे। साधारण-सी कुछ बातों की औपचारिता के बाद मोहन बाबू ने बात का एक सिरा पकड़ा-जि़ंदगी में संतुष्टि बहुत ज़रूरी है, सरमाया साहब। बेटियों और बेटों में अब कोई फर्क नहीं रहा। ज़माना बहुत बदल गया है। अब इन्हीं को देख लो। दो लड़कियाँ हैं और दोनों डॉक्टर। आपने भी देखा होगा कि कितना ख्याल रखती हैं माँ-बाप का। उनकी नज़र वृद्ध दंपत्ति की ओर उठ गई।
    सही कहते हो, मोहन बाबू। जितनी हमदर्दी बेटियाँ रखती हैं, बेटे नहीं। और फिर मरने के बाद किसने देखी है वंशबेल। सब ढकोसले हैं। मृगतृष्णा है। अंधविश्वास है। जो समय सुख से निकल जाए वही अच्छा। कल पंडित जी ने भी यही कहा था कि जीवन में शांति बहुत ज़रूरी है। यही बाजरा मुझे थमाते हुए उन्होंने कहा था कि इसे पक्षियों को डालने से बड़ा सुकून मिलता है। फिर मेरी क्या मज़ाल थी कि सारा सुकून मैं अकेला भोग लेता। इसलिए आधा आपके लिए ले आया। उन्होंने पंसेरी की दुकान से खरीदा कुछ और बाजरा मुट्ठी में भरा और दूसरे हाथ से कबूतरों को थोड़ा-थोड़ा डालते हुए बात का दूसरा सिरा मतबूती से थामे रहे।
    मोहन बाबू के मन में ढेर सारा अपनापन उमड़ आया।
    हम तो और बच्चा चाहते ही नहीं थे, लेकिन इन औरतों को कौन समझाए। ऊपर से करमे की माँ ने हमारी धर्मपत्नी के कान भर दिए कि यदि किसी ऐसे घर के आगे महीना भर चावल डालो जहाँ लडक़े ही लडक़े हों तो शर्तिया बेटा ही पैदा होता है...।
    मोहन बाबू भी अपना मन हल्का करने लगे।
    ओह! तो यहाँ भी आग करमे की माँ की ही लगाई हुई है। सरमाया साहब मन ही मन मुस्कुराए।
    कहीं आपके आँगन में भी तो नहीं फेंक आई चावल, हमारी मुन्नी की माँ...? मोहन बाबू को कुछ याद आया तो वे ठहाका मारकर हँसे।
    भई, हमें तो इस बारे में कुछ नहीं पता। हाँ, अगर ऐसी बात है भी तो हमारा घर-आँगन आपके लिए हमेशा खुला है पर शर्त यह है कि इतने चावल ज़रूर फेंक देना कि एक वक़्त की दावत हो जाए। सरमाया साहब की उन्मुक्त हँसी मोहन बाबू के ठहाके में घुल मिल गई।
    सरमाया साहब घर लौटे तो देखा कि अपने-अपने पति का बेचैनी से इंतज़ार करतीं दोनों पड़ोसनें आपस में बतिया रही हैं। उन्हें लगा कि उन दोनों के मन के अंदर बेशक एक अनजाना भय व्याप्त हो लेकिन चेहरों पर अपनेपन का एक हल्का-सा नूर भी साफ झलक रहा था। उन्होंने शुक्रिया भरी एक दृष्टि आसमान की ओर डाली और बड़ी शिद्दत से महसूस किया कि आसमान के अनंत विस्तार में उड़ गए सारे कबूतर बाजरे के बदले में ढेर सारा अमन और चैन ज़मीन पर बिखेर गए हैं।

-मनजीत शर्मा मीरा, चंडीगढ़

'बाबूजी का भारतमित्र' से साभार 

कृष्णलता यादव की लघुकथाएं

बेटे का धन

    सविता बुड़बुड़ा रही थी, पता नहीं क्यों मामूली-सा तापमान गिरते ही माँजी, बाऊजी निर्देशों की झड़ी लगा देते हैं-ठंड बहुत है। मुन्ने को संभाल कर रखना। ऊनी कपड़ों की कमी न रहने पाए। देर-सवेर पानी के काम से बचना। महरी रख लेना। ...करना। ...मत करना।
        तभी फोन की घंटी बजी। बासी निर्देशावली सुनकर सविता खीज उठी, माँजी, यह पहला बच्चा तो है नहीं। पिंकी को भी तो मैंने ही पाला था, तब आपने एक शब्द भी नहीं कहा था। इसे भी मैं संभाल लूँगी। आप चिंता न करें।
    चिंता कैसे न करें? बेटे का धन यूँ ही नहीं पला करता।

घेरे अपने-अपने

    पावस-घन के विमान पर सवार होकर पानी आया और लगा बरसने छम...छमाछम...छम। अमीरों के बाल गोपाल कभी जलगीत गाते, कभी कागज़ की कश्तियाँ तैराते। उनकी माताएँ चीले-पकौड़े बनाने की तैयारी कर रही थीं। प्रौढ़ाएँ मल्हार गुनगुना रही थीं।
    गरीब के बच्चे, चू रही झोपड़ी के कोने में दुबके हुए, एक दूसरे से पूछ रहे थे सब कुछ गीला हो गया, माँ रोटी कैसे पकाएगी? बिस्तर कहाँ लगाएगी? बापू को दिहाड़ी मिल पाएगी? कब रुकेगा पानी?

सच से सामना

    तुम कहाँ रहते हो? पूर्व में?
    नहीं तो।
    पश्चिम में ?
    वहाँ भी नहीं।
    उत्तर या दक्षिण में?
    ऊँ...हँू...।
    अब! बक भी दे।
    गरीबी रेखा के नीचे।

-कृष्णलता यादव, गुडग़ाँव

बारिश की दुआ

    वह शायद कबूलियत का लमहा था। बादलों ने उसकी आवाज़ सुन ली थी। बेकसी और बेबसी की फटी पुरानी चादर ओढ़े वह मासूम रूह उस फ़िज़ा के दायरे में शायद अपनी आवाज़ की गूँज सुनना चाहती थी। उसकी धीमी और मद्धिम आवाज़ करीबी फासलों तक को नापने के $काबिल तो न थी, फिर भी वह उसके इन्तज़ार में खड़ी थी।     
गगनचुम्बी इमारतों के इस मीलों फैले शहर में किसी खुले मैदान का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता था। शहर को देखकर ऐसा महसूस होता था जैसे ज़मीन सिकुड़ गई हो। मैदानों की महदूदगी की बुनियाद पर मुहल्ले के बचे चौराहों पर या अपने घरों के सामने उन तंग गलियों में जहाँ सूरज की रोशनी का गुज़र भी नही होता, क्रिकेट और हॉकी खेलने पर मजबूर थे। हाँ, शहर में जगह-जगह ऐसे खाली प्लाट ज़रूर मौजूद थे जिनके दौलतमंद मालिक उन प्लाटों पर या तो शॉपिंग प्लाज़ा बनवाने के मनसूबे बना रहे थे या फिर उनकी कीमत बढऩे का इन्तज़ार कर रहे थे, ताकि उन प्लाटों को दुगुनी-तिगुनी कीमत पर बेच कर अच्छा खासा मुनाफा कमा सकें। ऐसे प्लाटों पर अक्सर लोग, जिनके पास साज़ो-सामान न था, झोपड़ी बनाकर रहने लगे और वे रोज़ाना सोने के पहले यह दुआ ज़रूर करते कि अगली सुबह प्लाट पर किसी इमारत की तामीर शुरू न हो। ज़ाहिर है ऐसी सूरत में उन्हें प्लाट-बदर होना पड़ता। नन्हीं ज़ुबेदा, जिसकी बेवा माँ उसे ज़ेबू कहकर पुकारती थी, इस किस्म के एक प्लाट में साथ वाली छ: मंजि़ला इमारत के साए तले एक झुग्गी में रहती थी। यह प्लाट एक रिटायर्ड कस्टम ऑफिसर की ज़ायदाद थी, जो शायद प्लाट की कीमत में इज़ाफे का इन्तज़ार कर रहा था। ज़ेबो की उम्र उस वक़्त छ:-सात बरस के लगभग थी। उसका बाप उसकी पैदाइश के एक साल बाद चल बसा था। बाप की मौत के बाद जैसे ही आमदनी का सिलसिला बंद हुआ तो मालिक मकान ने माहवार किराया हासिल न कर पाने की $िफक्र में ज़ेबू की माँ को मकान-बदर कर दिया। वह बेचारी मासूम ज़ेबू को सीने से लगाए कुछ अरसे तक दूर के रिश्तेदारों के यहाँ दिन गुज़ारती रही, लेकिन किसी रिश्तेदार ने उसे हफ़्ते या दो हफ़्ते से ज़्यादा अपने घर में रखना गवारा न किया । अपने सरताज की जि़न्दगी में मान-सम्मान से अपने घर में रहनेवाली औरत अब खुले आसमान तले पनाह लेने पर मज़बूर हो गई। उसने रिटायर्ड कस्टम इंस्पेक्टर के प्लाट पर छ: मंजिल इमारत के साए तले एक झुग्गी डाली और ज़ेबू के साथ जि़न्दगी की तमाम आ$फतें झेलने के लिए तैयार हो गई । वह आसपास की कोठियों में जाकर मेहनत मज़दूरी करती और काम के बदले उनके घरों का बचा हुआ खाना, उनकी उतरन और माहवार चंद रुपये बतौर तनख़्वाह वसूल करती । इस तरह जि़न्दगी के महीने और साल गुज़रने लगे। दूध पीती ज़ेबू अपने बचपन और उसकी माँ बुढ़ापे का स$फर तय करते रहे। उस दौरान मालिक ने माँ-बेटी को प्लाट बदर करने की सोची। लेकिन शायद उसे इस अमर का य$कीन हो गया था कि एक कमज़ोर-सी औरत उसके प्लाट पर कब्ज़ा करने की तौफीक नहीं रखती और उसने प्लाट की चौकीदारी के लिये झोपड़ी को प्लाट पर बरकरार रहने दिया।
    वह शुक्रवार का दिन था। आसमान पर सुबह से गहरे बादल छाए हुए थे लेकिन उन बादलों से बारिश की एक बूँद भी नहीं बरसी थी। ऐसा गुज़रे चंद महीनों से हो रहा था। गहरे बादल आसमान पर छा जाते लेकिन बात मामूली बूंदा-बूंदी तक महदूद रह जाती, जबकि ज़रूरत लगातार और मूसलधार बारिश की थी। 'सूखा' लोगों के लिये एक चर्चा का विषय बन चुका था। आज ज़ेबू की माँ को बुखार था। इसलिए वह काम पर न जाकर अपनी कुटिया में ही पड़ी रही। ज़ेबू झुग्गी के सामने खेल रही थी। जुम्मे की नमाज़ के कुछ ही देर बाद लोगों का एक जुलूस प्लाट में दाखिल हुआ। जुलूस में शिरकत करने वालों की तादाद बहुत बड़ी थी, जिसमें हर सेक्टर के योग्य विद्वतजन शामिल थे। नन्हीं ज़ेबू ने लोगों के उस हुजूम को देखकर खेल बंद कर दिया था और झुग्गी में लेटी माँ के पास आ गई। 'अम्मी हमारे घर में बहुत से लोग आए हैं।' उसने मासूमियत से कहा। 'बेटी, यह लोग नमाज़ पढऩे आए हैं' माँ ने जवाब दिया। लेकिन ज़़ेबू नमाज़ की रवायत के बारे में कुछ नहीं जानती थी। उसके सवाल के जवाब में माँ ने बताया कि ये लोग जब नमाज़ पढक़र अल्ला मियाँ से दुआ करेंगे तो बहुत ज़ोर की बारिश होगी, जिससे ज़मीन हरी-भरी होकर अच्छी और ज़्यादह फसल देगी। मुमकिन था कि ज़ेबू कोई और सवाल करती पर माँ ने उसे बाहर जाकर झुग्गी के सामने खेलने को कहा। वह झुग्गी से बाहर ज़मीन पर बैठ गई 'जब यह लोग नमाज़ पढक़र दुआ करेंगे तो बहुत ज़ोर की बारिश होगी।' माँ के कहे हुए शब्द उसके नन्हें ज़ह्न में गूँजने लगे और फिर पिछले बरस का वह दिन याद आ गया जब बहुत ज़ोर की बारिश हुई थी और प्लाट का तमाम पानी उनकी झुग्गी में भर गया था। दोनों माँ-बेटी प्लाट में जमा होने वाले और झुग्गी की सड़ी-गली पुरानी छत से टपकते पानी में घंटों भीगती रही थीं। उसके मासूम ज़ह्न पर एक खौफ-सा छा गया...उसने खौ$फज़दा निगाहों से लोगों को देखा। मौलवी साहब हाथ बुलन्द करके अल्ला मियाँ से ज़ोरदार बारिश की दुआ कर रहे थे और लोग आमीन-आमीन कर रहे थे। नन्हीं ज़ेबू को न जाने क्या सूझी, उसने भी अपने नन्हें-नन्हें हाथ $िफज़ा में दुआ माँगने के अंदाज़ में बुलन्द कर दिये और दुआ की 'अल्ला मियाँ बारिश मत करना, मैं और मेरी माँ बारिश में भीग जाएँगे। आप जानते हैं कि अम्मी बहुत बीमार हैं। उनको सेहत दे दो। हम यहाँ से किसी महफूज़ जगह चले जाएँगे और फिर सबके साथ बारिश की दुआ माँगेंगे। अल्ला मियाँ अभी बारिश मत करना।'     
कबूलियत का लम्हा जैसे मासूम ज़ेबू की खुली हुई हथेलियों में सिमट आया था। वह खाली-खाली आँखों से शून्य में ताकती रही और फिर झुग्गी की तर$फ चल पड़ी। जब नमाज़ पढऩे वाले और पैरवी करने वाले दुआ कर चुके तो आहिस्ता से मौसम बदलने लगा। गहरे स्याह बादलों में दरार पड़ गई। कुछ देर में आसमान बादलों से पूरी तरह सा$फ हो चुका था और सूरज पूरे आब-ओ-ताब के साथ अपनी चमक दिखा रहा था।
मूल कहानी-आरिफ जि़या
अनुवाद-देवी नागरानी
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