विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, March 16, 2024

चम्पू विधा को पुनर्जीवित करने में महती भूमिका निभाएगी : ‘गाँव का महंत’ कृति

साहित्य तीन शैलियों में लिखा जाता है। गद्य, पद्य काव्य और चंपू| गद्य में कहानी, उपन्यास आदि लिखे जाते हैं, वहीं पद्य में कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, दोहे आदि लिखे जाते हैं| जबकि चम्पू काव्य इन दोनों का मिश्रण होता है| यानि इसमें गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है| गद्य और पद्य में हजारों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं और लिखी जा रही हैं। लेकिन  उपलब्ध जानकारी के अनुसार अभी तक चंपू शैली में कुछ चुनिंदा रचनाएँ ही प्रकाशित हुई हैं। जिसमें अथर्ववेद को संस्कृत का पहला प्रमाण माना जाता है, जिसमें गद्य और पद्य दोनों के माध्यम से विषय का प्रतिपादन किया गया है। ऐसा माना जाता है कि 10वीं से 17वीं शताब्दी के बीच सोमदेव सूरी की यशस्तिलक, भोजराज की चंपू रामायण, कवि कर्णपुरी की आनंद वृन्दावन, जीवा गोस्वामी की गोपाल चम्पू, नीलकंठ दीक्षित की नीलकंठ चम्पू और अनंत कवि की काव्य और चम्पू दोनों कविताएँ थीं। ये सभी रचनाएँ संस्कृत में लिखी गई थीं। हालाँकि ये रचनाएँ काव्यात्मक रूप में अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकीं।

हिन्दी में चम्पू शैली में लेखन का श्रेय मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद को है। मैथिलीशरण गुप्त द्वारा हिन्दी में लिखित "यशोधरा" और जय शंकर प्रसाद द्वारा लिखित 'उर्वशी' ने यह ख्याति अर्जित की, जो चम्पू ग्रंथ साहित्य की श्रेणी में गिनी जाती है। इनके अलावा चंपू शैली की एक भी रचना हिन्दी में प्रकाशित हुई हो, प्राप्त नहीं हुई। आज तक किसी भी भाषा में चंपू शैली में कोई "आत्मकथा" लिखी हो इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते|

“गाँव का महंत” चर्चित सरपंच राधेश्याम गोमला की चम्पू काव्य में लिखी गई आत्मकथा है| जिसे निर्मला प्रकाशन दादरी (हरियाणा) ने प्रकाशित किया है| पुस्तक को पाँच खण्डों में बाँटा गया है और आगे प्रत्येक खंड को चार-चार, पाँच-पाँच उपखण्डों में विभक्त किया गया है| प्रथम अध्याय में लेखक ने अपना संक्षिप्त-सा और गाँव का परिचय दिया है| बताया है कि कैसे उनके पिता को गाँव का महंत बने रहने का संत से आशीर्वाद प्राप्त हुआ और वे निर्विरोध सरपंच बने| कैसे वे प्रभावशाली हुए और कैसे एक गलत निर्णय से उनके साथी ही उनके विरोधी हो गए और गाँव में पार्टीबाज़ी का जन्म हुआ|

दूसरे अध्याय के विभिन्न उप-खंडों में पिता के विरोधी के सरपंच बनने और गलत लोगों के हाथों खेलने, गुटबाजी के चरम पर पहुँचने| भाई कि नौकरी लग जाने, ताऊ की मौत हो जाने, खुद पर मुकदमा दर्ज होने और पिता के चुनाव हार जाने आदि घटनाओं का विवरण दिया गया है|

तीसर अध्याय में गाँव में आरक्षित श्रेणी के सरपंच बनने और उसे बनाने में अपनी और अपने परिवार की भूमिका का ज़िक्र लेखक ने किया है| इसके बाद लेखक ने सक्रीय राजनीति में भाग लेने, पत्रकारिता करने और विभिन्न घटनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने कि चर्चा की गई है| उन घटनाओं का ज़िक्र किया गया है, जिन्होंने उन्हें गाँव में लीडर के रूप में मान्यता दिलवानी शुरू की और परिवार का विश्वास मिला|

अध्याय चार और पाँच में उनके सरपंच बनने से प्रदेश और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले उनके कार्यों और अन्य गतिविधियों का सचित्र चम्पू काव्य में विवेचन किया गया है| कैसे उन्होंने पहले सरकार के सहयोग से गाँव का चहुंमुखी विकास किया और फिर बिना शासकीय मदद के गाँव के सहयोग से अपने गाँव को आदर्श गाँव बनाकर देश-दुनिया का ध्यान अपनी और अपने गाँव की ओर खींचा इसका खुलासा किया है|

उनकी यह कृति दो दो तरह से महत्त्वपूर्ण है| एक तो यह चम्पू काव्य में लिखी गई आत्मकथात्मक संभवतः पहली कृती है और दूसरे उनकी इस विकास यात्रा से भावी पीढ़ी और समकालीन जनप्रतिनिधि प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं|

आशा है लुप्तप्राय हो चुकी चम्पू विधा को पुनर्जीवित करने में यह कृति महती भूमिका निभाएगी, वहीं मित्र राधेश्याम की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुँचाने से सफल रहेगी| लेखको को बधाई और शुभकामनाएं |

रघुविन्द्र यादव

Sunday, October 22, 2023

समय से संवाद करते दोहों का संग्रह : देगा कौन जवाब

     “देगा कौन जवाब” श्री राजपाल सिंह गुलिया का नवीनतम दोहा संग्रह है| अयन प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस 104 पृष्ठीय हार्ड बाउंड कृति में जीवन जगत से जुड़े विभिन्न विषयों पर उनके 552 दोहे संकलित किये गए हैं|

कवि ने दोहों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, विसंगतियों और राजनैतिक विद्रूपताओं को जमकर बेनकाब किया है, वहीं मनुज के दोगलेपन, स्वार्थ लोलुपता और रिश्तों का खोखलापन भी उजागर किया है| दोहाकार ने बढती महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और कानून व्यवस्था की बदहाली के साथ-साथ न्याय व्यवस्था पर भी सवाल खड़े किये हैं| श्री गुलिया ने भाई भतीजावाद, साम्प्रदायिकता और धर्म की सियासत पर भी अपनी लेखनी चलाई है| उन्होंने मीडिया और तकनीक के दुष्प्रभाव, पर्यावरण-प्रकृति, मदिरापान, बचपन आदि विषयों को भी अपना कथ्य बनाया है| संग्रह में कुछ नीतिपरक दोहे भी शामिल हैं|

स्वार्थ, आपाधापी और भाई भतीजावाद के इस दौर में आम आदमी के लिए कहीं कोई जगह नहीं है| वह हर दिन कुआँ खोदता है और पानी पीता है| उसकी जिन्दगी कोल्हू के उस बैल जैसी हो गई है, जो चलता तो दिनरात है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं है| कवि ने सुंदर दोहे के माध्यम से इसे व्यक्त किया है-

हुई अश्व-सी ज़िन्दगी, दौड़ रहे अविराम|

चबा-चबाकर थक गए, कटती नहीं लगाम||

जिस देश में कल तक माता-पिता को देव कहा जाता था, उसी देश में आज माँ-बाप को अपने ही बच्चों की उपेक्षा और प्रताड़ना झेलनी पड़ रही है| उन्हें प्रतिदिन दो रोटी के लिए ज़लील होना पड़ता है तो अंतिम समय में भी बच्चे उन्हें सहारा देने नहीं आते| कवि ने इस पीड़ा को दोहों के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत किया है-

दे दी सुत को चाबियाँ, कहकर रीतिरिवाज|

उस दिन से वह हो गया, टुकड़ों को मुहताज||

संग्रह के लगभग सभी दोहे कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से परिपक्व हैं| कवि ने मुहावरों, अलंकारों और प्रतीकों का प्रयोग करके दोहों की प्रभावोत्पादकता को बढाया है|

जली-कटी सुन आपकी, बही नयन यूँ पीर|

नम लकड़ी का आग में, रिसता है ज्यूँ नीर||

सहज सरल भाषा में रचे गए इन दोहों में कहीं-कहीं देशज और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी प्रसंगवश हुआ है| कुछ दोहों का कथ्य, शिल्प ही नहीं, भाव और भाषा भी देखने लायक है-

उतना सुलगा यह जिया, जितना भीगा गात|

छनक-छनक कर चूड़ियाँ, जागी सारी रात||

पुस्तक का शीर्षक प्रासंगिक, आवरण आकर्षक और छपाई तथा प्रस्तुतिकरण सुंदर है| हाँ, प्रूफ की अशुद्धियाँ कुछ जगह अवश्य दृष्टिगोचर होती हैं| एक दो दोहों में शिल्पगत दोष भी रह गए हैं| कुल मिलाकर यह एक पठनीय दोहा संग्रह है जो पाठक को इस दौर की कडवी सच्चाईयों से रूबरू करवाता है|

                                                                  -रघुविन्द्र यादव


Saturday, July 22, 2023

धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव का राजनैतिक जीवन : एक रोचक कृति

"धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव का राजनैतिक जीवन" अहीरवाल में जन्में और दौसा में सेवारत श्री राजेन्द्र यादव 'आजाद' द्वारा सम्पादित और राइजिंग स्टार्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 248 पृष्ठों की एक ऐसी कृति है जिसमें स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर उनके जानकारों, उनके सानिध्य में रहे लोगों और उनके प्रशंसकों द्वारा प्रकाश डाला गया है| इनमें कवि, शिक्षक, पत्रकार, राजनेता, डॉक्टर, वकील, इंजिनियर और सामान्यजन भी शामिल हैं| लेखक ने अधिकतर टिप्पणियाँ और आलेख सोशल मीडिया के माध्यम से संकलित किये हैं|
पुस्तक की शुरुआत कवि उदय प्रताप सिंह  की काव्यात्मक श्रद्धांजली से की गई है| इसके बाद धरतीपुत्र का जीवन परिचय, नेताजी का हिंदी के प्रचार-प्रसार में योगदान, पांच दशक का लम्बा सफ़र, शिक्षक से रक्षामंत्री तक का सफ़र आदि आलेख दिए गए हैं | 
संपादक राजेंद्र यादव ने मुलायम सिंह यादव के लगभग दो दर्जन किस्से स्वयं प्रस्तुत किये हैं, वहीं चन्द्र भूषण सिंह के हवाले से भी लगभग अढाई दर्ज़न नेताजी से जुडी बातों को स्थान दिया गया है| पुस्तक में लगभग 80 ऐसे लोगों के उद्गार भी शामिल किये गए हैं, जिन्होंने अपने निजी संस्मरण साझा किये हैं| इनमें पत्रकार राजीव रंजन, उर्मिलेश, वीर विनोद छाबड़ा, राजीव नयन बहुगुणा, योगेश यादव, हाफ़िज़ किदवई, समालोचक वीरेंदर यादव, केन्द्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव, डॉ. लाल रत्नाकर, लक्ष्मी प्रताप सिंह, सत्येन्द्र पी एस, रामप्रकाश यादव, कर्नल शरद सहारण, आवेश तिवारी, प्रख्यात चिकित्सक डॉ ओमशंकर यादव और अन्य बहुत से नामचीन लोगों द्वारा लिखे गए प्रसंग प्रकाशित किये गए हैं| 
पुस्तक में नेताजी के देहावसान के समय आये कुछ शोक संदेशों को भी स्थान दिया गया है, जिनमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, पूर्व सांसद डॉ कर्णसिंह यादव, वेद प्रकाश मीना, राव बिजेंद्र सिंह (रानी की ड्योढ़ी), सोबरन सिंह, विजेंद्र सिंह मुंड, रमेश सिंह आदि के उदगार शामिल हैं| 
पुस्तक में जहाँ नेताजी मुलायम सिंह यादव के जीवन की तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध है, वहीं उनके द्वारा किये गए कार्यों का लाभार्थियों और प्रत्यक्ष्दार्शियों द्वारा उपलब्ध करवाया गया ब्यौरा भी उपलब्ध है| उनके जीवन के रोचक किस्सों ने पुस्तक को रोचक बना दिया है| पुस्तक में नेताजी के बहुत से छायाचित्रों को भी स्थान दिया गया है| जिनमें कहीं सेना के टैंक पर खड़े होकर सैनिकों से मिल रहे हैं तो कहीं चौधरी चरण सिंह और कासीराम जी के साथ नजर आ रहे हैं| कहीं परिवार के सदस्यों, कहीं अभिन्न मित्रों और कहीं राजनेताओं के साथ हैं| 
आवरण पर नेताजी का सुंदर रंगीन छायाचित्र पुस्तक को आकर्षक बना रहा है| राजेंद्र जी अगर थोड़ी मेहनत और कर लेते तो मुझे उम्मीद है, कुछ और अच्छे आलेख नेताजी के जानने वालों से मिल सकते थे और पुस्तक की सामग्री का और बेहतर वर्गीकरण किया जा सकता था| लेकिन वर्तमान स्वरुप में भी पुस्तक पठनीय और रोचक है| कैसे एक साधारण सा व्यक्ति धरतीपुत्र बन गया, यहाँ जानने के लिए यह पुस्तक पढ़ी जानी चाहिए|
इस श्रम साध्य कार्य के लिए राजेंद्र यादव 'आजाद' बधाई के पात्र हैं|  

Tuesday, June 20, 2023

अहीरवाटी बोली का पहला कुण्डलिया छंद संग्रह है : आयो तातो भादवो

“आयो तातो भादवो” श्री सत्यवीर नाहड़िया को थोड़ा दिन पहल्यां छप्यो अहीरवाटी बोली को कुण्डलिया छंद संग्रह सै| अमें नाहड़िया का लिक्ख्या हुया 300 छंद छप्या सैं| नाहड़िया नै दुनियादारी सै जुड़ी घणखरी बातां पै छंद लिक्ख्या सैं| छन्दां म्हं रिश्ता-नाता, बेरोजगारी, महँगाई, तीज-त्यौहार, भाण-बेटी, खेल-खिलाड़ी, आबादी, संत-फकीर, नेता-महापुरुष, फौजी, जात-पात, धर्म का झगड़ा, गरमी-सरदी, मेह, लोक-परलोक, खेती-किसानी, चीन, पकिस्तान, भासा, दान-दहेज़, कैंसर, करोना, तीर्थ-नहाण, चेले-चमचे, गुरु, डीजे, कर्ज़ा-हर्जा सारी बात कवि नै लिक्खी सैं|

कवि ने गावां म्हं कही जाण आळी कहावत अर मुहवारा भी अपणा छन्दां म्हं ले राख्या सैं, इनका लेणा सैं छंद बहोत आच्छ्या बणगा| यो छंद देखो-

आयो तातो भादवो, पड़ै कसाई घाम।

के तै मारै घाम यो, के साझा को काम।

के साझा को काम, कहावत घणी पुराणी।

फूंक बगावै खाल, बड़ां की बात सियाणी।

फिक्को साम्मण देख,  नहीं झड़ लांबो लायो।

बचकै रहियो ईब, घाम भादो को आयो।

तीन सौ छन्दां म्हं कवि नै गागर म्हं सागर सो भर दियो| या तो बात हुई छन्दां का बिसय की|

अर जित तायं छन्दां का सिल्प की बात सै कुण्डलिया छंद लिखणा आसान काम ना सै, इसम्हं दोहा अर रोला छंद को ज्ञान होणों जरुरी सै अर साथ म्हं कुण्डलिया की भी जानकारी होणी चावै, जब जाकै कुण्डलिया लिक्ख्यो जाय सै| पर नाहड़ियो घणा ही दिनां सै छंद लिख रह्यो सै अर कती एक्सपर्ट हो रह्यो सै| किताब का छन्दां म्हं कमी को कोई काम ना सै| अर अं किताब की एक ख़ास बात और सै, वा या के या किताब अहीरवाटी बोली का छन्दां की पहली किताब सै, अं किताब सै पहल्यां छन्दां की किताब तो घणी ही छप लई, पर अहीरवाटी बोली म्हं आज तायं ना छपी| यो काम नाहड़िया नै लीक सै हटकै करयो सै| नाहड़िया जी घणी बधाई को पातर सै| यो छंद भी देख ल्यो-

हरयाणा की रागनी, रही सदा बेजोड़|

टेक कळी अर तोड़ की, कौण करैगो होड़|

कौण करैगो होड़ अनूठी सै लयकारी|

छह रागां की तीस, रागनी लाग्गैं न्यारी|

किस्से अर इतिहास, सदा सुर कै म्हं गाणा|

रीत गीत को मीत, रहै साईं न्यूँ हरयाणा||

किताब को कवर, छपाई अर कागज सारी चीज बढ़िया सैं, अर रेट भी 175 रुपया वाजिब ही सै| कुल मिलाकै बात या सै कि किताब नै खरीद कै पढोगा तो थारा पैसा वसूल हो जायंगा|

रघुविन्द्र यादव


Thursday, May 4, 2023

कटु यथार्थ की बिम्बावली : आस का सूरज

    दोहा तथा कुंडलिया छंद के क्षेत्र में विशेष आवाजाही रखने वाले सशक्त हस्ताक्षर रघुविन्द्र यादव का पहला ग़ज़ल संग्रह है – आस का सूरज। इसमें सम्मिलित 91 ग़ज़लों के कथ्य का उम्दापन, किसी भी कोण से यह आभास नहीं होने देता कि यह पहला संग्रह है। अपनी बात के अन्तर्गत ग़ज़लकार ने लिखा है – जब आँचल परचम बन सकता है तो ग़ज़ल भी धारदार और सच कहने का औजार बन सकती है। हमारी ग़ज़लों में अंतिम व्यक्ति की बात, समाज के हालात, पूंजी के उत्पात और जाति-धर्म के नाम पर हो रहा रक्तपात ही प्रमुख मुद्दे हैं।

    उपरोक्त कथनी पर खरी उतरती हैं ये ग़ज़लें। अपने कथ्य में विशेष हैं ये और विशेष हैं सम्प्रेषणीयता के गुण में। बात सीधी-सी, पर घाव गहरा। है न कमाल! लुकाव-छुपाव में कुछ नहीं रखा, भला लगे या बुरा, जो कहना सो डंके की चोट पर कहना। फिर निशाने के सामने राजा हो या प्रजा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इस आशय से वे लिखते हैं –

दिन को केवल दिन लिखना है हमको तो

जिनको सच कड़वा लगता है रूठेंगे।
***
बोझ ही कहते रहे समझा नहीं अपना
वोट जिनको थे दिए सरकार की खातिर।
            ***
बेच देगा मुल्क भी कल रहनुमा
दिख रहे हैं आज ही आसार से।

     दो राय नहीं कि सच्चाई सदा कड़वी होती है लेकिन जिस प्रकार मलेरिया के निवारणार्थ कड़वी कुनीन खा कर सुकून मिलता है, उसी प्रकार मिठास के मुहाने की तमन्ना है तो पहले कड़वाहट का पान करना ही होगा। सामाजिक-सांस्कृतिक विद्रूपता का बिम्ब देखिए –

कानों को पीड़ा देते हैं

बजते फूहड़ गीत कबीरा। 

सत्ता की खामियों की पोल खोलना लेखनी का धर्म समझकर लिखा है –

सच बोला तो चुन देगी,

सत्ता अब दीवारों में।
***
रहजन भी तो शामिल हैं
अपने चौकीदारों में। 

    ग़ज़ल संख्या 10 में भावनात्मकता तथा यथार्थ के अनेकानेक बिम्ब रचे गए हैं। ग़ज़ल संख्या 11 पाठक को स्वयं को भी कसौटी पर कस कर देखने का आह्वान करती है –

एक दर बंद था, दूसरा था खुला,

फैसला तुम करो, अब ख़ुदा कौन है?
      ***
आदमी दर्द से मर रहे रात-दिन,
देखते सब रहें, बाँटता कौन है? 

    युवावस्था के लिए यह निष्कर्षात्मक टिप्पणी काबिलेगौर है –

निराशा में जब तक जवानी रहेगी।

अधूरी सभी की कहानी रहेगी। 

        एक अन्य कहन का सौन्दर्य निहारिए –

सजा तय करेगी अदालत खुदा की

वहाँ पर तुम्हारी वज़ारत नहीं है। 

    सामाजिक विसंगति पर कटाक्ष देखिए –

घोड़ों पर पाबंदी है

खूब गधों को घास मिले। 

    प्रतीक, बिम्ब तथा व्यंजना का अनूठा मेल प्रस्तुत करता शेर है –

कंगूरों पर आँच न आई,

नींव के पत्थर हिले हुए हैं। 

    आधी आबादी के प्रति सामाजिक रवैये के विषय में बहुत कुछ कहता है यह शे’र –

जिसके आँगन बेटी जन्मी

वो पहरेदारी सीख गया। 

    कन्या-भ्रूण हत्या के जिम्मेदार कारकों को कैसे बख्शा जा सकता है –

मार रहे ख़ुद अपनी बेटी

दें किसको इल्ज़ाम कबीरा। 

    विडम्बना देखिए, जिस प्रेमी-युग्ल के प्यार के किस्से अमर हैं, आज उनके वंशज प्यार के नाम पर रीते-थोथे हैं-

लैला-मजनूँ के वंशज भी,

दो दिन करते प्यार कबीरा। 

    जब नेता जी वादे भूल जायें तो वार पर वार करना जनता का कर्तव्य है-

भूल गए नेता जी वादे,

करने होंगे वार कबीरा। 

    प्राकृतिक विपदा, उसके प्रभाव और लोगों के त्याग का प्रतिबिम्बन एक साथ सामने आया है –

देश पर संकट पड़ा है लोग डर कर जी रहे हैं

जान की बाजी लगा कोई दवाएँ दे रहा है। 

    जनता की तंगहाली देखकर राजाजी का ऐशो-आराम खटकता है इसलिए लेखनी लिखने से नहीं चूकती –

अच्छे दिन आएँ या जाएँ, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,

हम तो मरने को जन्में हैं, आप अमर हैं राजाजी। 

    दुनिया में सम्पूर्ण कोई नहीं इसलिए अपनी भी पड़ताल करनी बनती है –

मौत सभी को आएगी

निज कर्मों का ख़्याल करें। 

    ऐतिहासिक सत्य बयाँ करती हैं ये पंक्तियाँ–

क़लमों के भी शीश कटे हैं

जब-जब तीखी धार हुई है। 

    लेखकीय निर्भीकता से भी रू-ब-रू हो लेते हैं – 

मुझको कोई खौफ नहीं,

उसकी नेक नज़र में हूँ। 

    रचनाकार रचना करे और जागरण की बात न करे, यह हो नहीं सकता। यह तथ्य इन ग़ज़लों पर भी लागू होता है – 

मन को तू बीमार न कर।

हार कभी स्वीकार न कर।
      ***
बेटों को भी देने होंगे
कुछ अच्छे संस्कार कबीरा।
      ***
जो लोगों को राह दिखाए
लिख ऐसा नवगीत कबीरा। 

    ग़ज़ल के शिल्प-विधान से अनभिज्ञ हूँ इसलिए इस विषय में चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती हूँ। हाँ, कथ्य से प्रभावित हो कर कहना चाहूँगी कि इन ग़ज़लों की यात्रा पर निकलेंगे तो पग-पग पर ऐसे डेरे मिलेंगे, जो कहेंगे – पल दो पल ठहर कर जाइए, हमारे पास सुच्चे मोती हैं। एक भी मोती नकली निकले तो जो चाहे सजा भुगतेंगे। बेहतर होता, उर्दू के कठिन-शब्दों के अर्थ पृष्ठ के अंत में दर्शा दिए जाते। त्रुटिरहित सुन्दर छपाई, स्तरीय क़ाग़ज और आकर्षक मुखपृष्ठ के होते यह ग़ज़ल संग्रह संग्रहणीय बन पड़ा है। 

    हार्दिक कामना है, रघुविन्द्र यादव की लेखनी, रात को रात लिखती हुई, निर्बाध गति से चलती रहे।

-कृष्णलता यादव
677, सेक्टर 10ए
गुरुग्राम 122001
पुस्तक –आस का सूरज 
लेखक – रघुविन्द्र यादव  
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली 
पृष्ठ  - 104, मूल्य – 175रु. (पेपरबैक)                                        

Saturday, February 18, 2023

चन्दन-सा चिंतन : समकालीन दोहा संग्रह

चन्दन-सा चिंतन : समकालीन दोहा संग्रह 

 (पाठकीय टिप्पणी)

'समकालीन दोहा' संग्रह के दोहों के विषय में अपनी राय देने से पहले, इसके पूर्ववर्ती दोहा-संकलन के विषय में अति संक्षेप में- ‘नई सदी के दोहे’ संकलन पढ़ा, शब्द-साधकों की साधना स्पष्ट परिलक्षित हुई, तो मन के किसी कोने से आवाज आई- काश! ये दोहाकार सकार भाव को केन्द्र में रखकर लिखें तो सुन्दरम् पक्ष कितना सुन्दर होकर निकले। इस विचार के चलते उस संकलन की पाठकीय प्रतिक्रिया के साथ सम्पादक महोदय से विनम्र आग्रह किया कि आगामी संग्रह सकारात्मक भाव-बोध पर आधारित हो तो अच्छा रहे। सम्पादक को पुन: पुन: साधुवाद कि उन्होंने मेरे आग्रह का मान रखते हुए उसी दिन प्रतिभागी दोहाकारों के नाम इस आशय कि एक पोस्ट डाल दी। कालक्रमानुसार रचनाकारों ने दोहे पोस्ट किए तो सम्पादक द्वय ने पाया कि उनमें से अधिकतर उपदेशात्मक थे। उन्होंने, बानगी के तौर पर, सकारात्मक कथ्य के दोहे पोस्ट किए। फिर भी बात पूरी तरह नहीं बनी तो समकालीन दोहा संकलन निकालने का निर्णय लिया गया। अस्तु।

मैं किसी वाद के प्रभाव में लेखन के पक्ष में नहीं, पर मन सकार भाव पर अधिक रमता है। एक कारण और वैश्विक महामारी कोरोना से जूझे-जकड़े आदमी को कुछ ऐसा चाहिए, जो सुकून-भरा हो, जो आस-विश्वास और मानवता की बात करे ताकि वह अपनी क्षीण हो चुकी ऊर्जा को पुन: प्राप्त कर सके।

36 दोहाकारों द्वारा रचित 551 दोहों से सज्जित ‘समकालीन दोहा’ संकलन पढ़ा तो मेरे अन्दर बैठा रचनाकार अपनी चाहत का ‘कुछ’ पाकर संतुष्ट हुआ। सकारात्मक कथ्यधारी दोहों को, बड़े फ़ख्र से, चन्दन-सा चिन्तन मानती हूँ। नकार-सकार का मिश्रण लिए यह दोहा संग्रह सहज भाव से बहुत कुछ कहता है –

बरसे काले मेघ जब, बुझी धरा की प्यास।
शुभ्र बादलों ने कभी, लिखा नहीं इतिहास।। (अरुण कुमार निगम)

हौसलों का अनूठापन दर्शाते दोहे देखिए –
घायल पग ने जब किया, चलने से इंकार।
मरहम बनकर हौसले, खड़े मिले तैयार।। (आशा खत्री लता)

आँधी बेहद तेज़ थी, पंछी थे कमज़ोर।
मगर हौसलों ने छुए, नभ के ऊँचे छोर।। (रघुविन्द्र यादव)

छोड़ा कभी न हौसला, लगा न जीवन भार।
कंटक पग-पग थे बिछे, फिर भी पहुँचा पार।। (डॉ. शैलेष वीर गुप्त)

युग कोई भी हो, सद्भाव की बात न्यारी है, वह भीड़ में भी पहचाना जाता है और दिग-दिगंत की यात्रा करता है सो अलग।
हवा फूल से ले रही, ख़ुशबू की सौगात।
सद्भावी उस फूल की, गयी दूर तक बात।। (कुँअर उदयसिंह)

दुनिया कभी विकल्पहीन नहीं होती, बस विकल्प ढूंढ़ने की चाह होनी चाहिए। इस भाव बोध का दोहा प्रस्तुत है –
सोचा फिर भी कथ्य का, हुआ नहीं जब बोध।
हमने मुड़कर कर लिया, पृष्ठों का ही शोध।। (क्षितिज जैन)

सुन्दर शिल्प-सौष्ठव तथा अर्थ-उत्कृष्टता की बानगी प्रस्तुत करता है यह दोहा–
मुझे कभी भाया नहीं, इत्रों का बाजार।
मैं खुद में जीती रही, बनकर हरसिंगार।।(गरिमा सक्सेना)

बेशक जीवन सुदी-बदी, भूख-प्यास, हर्ष-विषाद आदि का समुच्चय है परन्तु मन-मरुथल में मधुमास रखने की कला जान ली जाये तो कहना ही क्या –
जीवन सारा बन गया, एक चिरन्तन प्यास।
मन के मरुथल में कहीं, छिपा रहा मधुमास।। (जय चक्रवर्ती)

आस-विश्वास की प्रभावोत्पादकता से रूबरू करवाते हैं निम्नांकित दोहे–
सघन घटा विश्वास की, करती सब अनुकूल।
शैल धरातल तोड़कर, खिलते कोमल फूल।। (त्रिलोक सिंह ठकुरेला)

आज हवा में झर गये, मौसम के अनुकूल।
आ जायेंगे शाख पर, और नये कल फूल।। (प्रदीप दुबे)

कोयल फिर गाने लगी, नाच रहे हैं मोर।
चातक आशावान है, घटा देख घनघोर।। (रघुविन्द्र यादव)

अच्छी वस्तुओं-व्यक्तियों की दुर्लभता को संकेतित करता है यह दोहा –
पीड़ा मेरे घाव में, उसके दिल में टीस।
मानव ऐसे मीत कब, होते हैं दस-बीस।। (डॉ.सत्यवीर मानव)

ऐतिहासिक सत्य है कि सच्चे सेवक के लिए कठिनाई को आसानी में बदलना चुटकियों का काम है –
सत्य बहुत आसान है, आज़ादी की राह।
बस राजा के साथ हों, सेवक भामाशाह।। (सत्यशील राम त्रिपाठी)

जीवन में जीत-हार का सिलसिला जारी रहता है। हार से हार मानकर बैठना कमज़ोरी की निशानी है, वहीं इसे चुनौती-रूप में स्वीकार करने से पासा पलट जाया करता है -
जिसने अपनी हार को, लिया चुनौती मान।
मिली उसे ही जीत की, मीठी-सी मुस्कान।। (शिव कुमार दीपक)

उपरोक्त के अतिरिक्त संकलन में बहुत कुछ है जो व्यंग्यात्मक, प्रतीकात्मक, यथार्थपरक व सन्देशात्मक है। वर्तनी की केवल एक त्रुटि चिन्हित की गई (पृ. 26 अन्तिम दोहा)।

पठनीय-संग्रहणीय संकलन के लिए दोहाकारों तथा सम्पादक द्वय को हार्दिक साधुवाद।

-कृष्णलता यादव, गुरुग्राम 

पुस्तक – समकालीन दोहा
सम्पादक – रघुविन्द्र यादव, डॉ. शैलेष गुप्त वीर
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ – 96, मूल्य – 160रु.

Saturday, January 21, 2023

कबीराना अंदाज़ के दोहे : आये याद कबीर

कबीराना अंदाज़ के दोहे : आये याद कबीर

अर्द्धसम मात्रिक छंद दोहा बेहद प्राचीन सनातनी छंद रहा है। समय,काल और परिस्थितियों के साथ इसका कथ्य भले ही बदला हो, किंतु इसका मानक शास्त्रीय पक्ष एवं शिल्प ज्यों का त्यों रहा है। भक्ति काल,रीति काल तथा आधुनिक काल के दोहों का अपना-अपना महत्व है। अनेक संत कवियों को उनके दोहों की रचनाधर्मिता ही अमर कर गई। 
 
अपनी संक्षिप्तता,गागर में सागर, वक्रता, मारक क्षमता तथा कहन के अंदाज़ के चलते दोहे का जादू हर काल में सिर चढ़कर बोलता रहा है। यदि दोहे में से उपरोक्त घटकों को निकाल दिया जाए तो तेरह ग्यारह मात्राओं की इस सपाटबयानी को महज़ तुकबंदी ही कहा जाएगा।

समीक्ष्य कृति 'आये याद कबीर' दोहा के पर्याय कहे जाने वाले रचनाकार रघुविंद्र यादव का तीसरा दोहा संग्रह है,जिसमें मानक दोहा प्रारूप के तमाम मूलपक्ष देखे जा सकते हैं। कबीराना अंदाज,तल्ख मिजाज तथा विरोध की जनपक्षीय आवाज इस संग्रह की समग्र रचनाधर्मिता कि केंद्र में निहित है। 

दोहाकार सामाजिक विसंगतियों तथा विद्रूपताओं चित्रणभर ही नहीं करता, यथोचित शाब्दिक लताड़ भी मारता है। कुछ बानगियांँ देखिएगा-

पीट रहे हैं लीक को, नहीं समझते मर्म।
आडंबर को कह रहे, कुछ नालायक धर्म।।

गिरवी दिनकर की कलम,पढ़ें कसीदे मीर।
सुख-सुविधा की हाट में, बिकते रोज कबीर।।

ज्ञानी-ध्यानी मौन हैं,मूढ़ बांँटते ज्ञान।
पाखंडों के दौर है,सिर धुनता विज्ञान।।

संग्रह के तमाम दोहे व्यवस्था तथा सामाजिक दोगलेपन पर करारी चोट करते हैं। संग्रह में प्रतीकों का सहज समावेश प्रभाव छोड़ता है-

ख़ूब किया सय्याद ने, बुलबुल पर उपकार।
पंख काट कर दे दिया, उड़ने का अधिकार।।

हिम्मत टूटी हंस की, डोल गया विश्वास।
काग मिले जब मंच पर, पहने धवल लिबास।।

झूठ युधिष्ठिर बोलते, करण लूटते माल।
विदुर फिरौती ले रहे, केशव करें मलाल।।

विरोध के मूल स्वर में पगे इन दोहों से के माध्यम से सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में निरंतर हो रहे अवमूल्यन को सहज ही समझा जा सकता है-

नैतिकता ईमान से, वक्त गया है रूठ।
सनद मांगता सत्य से, कुर्सी चढ़कर झूठ।।

कहांँ रहेंगे मछलियांँ, सबसे बड़ा सवाल।
घड़ियालों ने कर लिए, कब्जे में सब ताल।।
 
विषय-विविधता, कलात्मक आवरण,सुंदर छपाई संग्रह की अतिरिक्त खूबियां हैं|
 
-सत्यवीर नाहड़िया

दुरूहता से दूर, काव्य-रस से भरपूर दोहे

दुरूहता से दूर, काव्य-रस से भरपूर दोहे

शब्द-कुठारा चल पड़ा, करने जमकर वार।
केवल शुचिता बच रहे, सुन्दर हो संसार।।

आये याद कबीर दोहाकार रघुविन्द्र यादव का तीसरा दोहा संग्रह है| कवि का आक्रोश है– व्यवस्था की कुचालों, सत्ता के दुराचरण, वैयक्तिक आडम्बरप्रियता, रिश्तों के खोखलेपन, अंधभक्ति, तथाकथित संतों की शर्मनाक करतूतों, माता-पिता के प्रति संतान के उपेक्षित व्यवहार, स्वार्थ की पराकाष्ठा, किसान-मजूर की दुर्दशा, घटते भाईचारे, मीडिया की कारगुजारी, नशाखोरी, संवेदनहीनता, कूपमण्डूकता तथा सामाजिक भेदभाव के प्रति। विसंगतियों, विद्रूपताओं को केन्द्र में रखकर कलम चलाई गई है, वहीं कवि मानव मात्र को संदेश देना नहीं भूला है। पीड़ा के इन मजमूनों में खुदा को भी नहीं बख़्शा गया–

ऊपर बैठे लिख रहा, सबके जीवन लेख।
हिम्मत है तो या खुदा, जग में आकर देख।।

जीवन है तो समस्याएँ हैं; उनके निराकरण हेतु कवि का आह्वान है–

हाथ बढाओ साथियो, मन से खौफ निकाल।
आओ सत्ता से करें, खुलकर रोज़ सवाल।।

संग्रह के अनेक दोहे कालजयी कोटि के हैं, यथा –

कुत्ता बेशक भौंक ले, कितनी ऊँची टेर।
वही रहेगा उम्र भर, नहीं बनेगा शेर।।

दौलत देती है कहाँ, कभी किसी का साथ। 
सभी सिकंदर लौटते, जग से खाली हाथ।।
 
छंद तपस्या माँगते, यादव रखना याद।
बिना तपे बनता नहीं, लोहा भी फौलाद।।

दिन-दिन बिगड़ते माहौल को देखकर कवि चेताता है-

गलत-सही का फैसला, अगर करेगी भीड़।
भाईचारा छोड़िये, नहीं बचेंगे नीड़।।

आमजन को सचेत किया है कि कुपात्र को सत्ता सौंपने से बचें अन्यथा–

झूठों को सत्ता मिले, भांड़ों को सम्मान।
हिस्से में ईमान के, तपता रेगिस्तान।।

दोहाकार की प्रश्नाकुलता साझी प्रश्नाकुलता हो जाती है जब वे कहते हैं–

भूखा है हर आदमी, सबके लब पर प्यास।
सरकारें करती रहीं, जाने कहाँ विकास।।

पाठक की अंतश्चेतना को झकझोरता एक अन्य उदाहरण है–

हिम्मत टूटी हंस की, डोल गया विश्वास।
काग मिले जब मंच पर, पहने धवल लिबास।।

भाव-गहनता के आधार पर मैं इस दोहे को सबसे ऊपर रखती हूँ–

जीवन भर लड़ता रहा, मैं औरों से युद्ध।
वो खुद से लड़कर हुआ, पल भर में ही बुद्ध।।

भाव व कला की उत्कृष्टता का नमूना देखिए–

कनक खेत में खप गई, सस्ती बिकी कपास।
रामदीन रुखसत हुआ, खा गोली सल्फास।।

कवि की व्यंजना-क्षमता को प्रमाणित करता है यह दोहा–

कितने दर्द अभाव हैं, झोपड़ियों के पास।
फिर भी महलों की तरह, रहती नहीं उदास।।

कवि पुन: पुन: सत्ता के स्वभाव पर चुटकी लेता नहीं थकता–

सत्ता ने अब कर लिए, आँख, कान सब बंद।
उसको शब्द विरोध के, बिलकुल नहीं पसंद।।

प्रतीक शैली, विरोधाभास अलंकार तथा कटूक्तियों का खुलकर प्रयोग किया गया है, प्रत्येक का एक-एक उदाहरण पेश है–

सूरज की पेशी लगी, जुगनू के दरबार।
हुई गवाही रात की, दोषी दिया करार।।

खुद को अब हीरा कहो, बढ़-चढ़ बोलो बोल।
जितना बढ़िया झूठ है, उतना ऊँचा मोल।।

भात-भात करते मरी, भारत की संतान।
शासक गंगा गाय की, छेड़ रहे हैं तान।।

दोहों में लयात्मकता, गेयता, ध्वन्यात्मकता के गुण विद्यमान हैं। कला पक्ष, भाव-पक्षपर खरे उतरते हैं ये दोहे। संग्रह का मुखपृष्ठ अर्थपूर्ण व मूल्य वाज़िब है। दोहाकार ने आत्मकथ्य में अपने दोहों की चोरी की बात लिखी है। देखिए न, मोतियों के सामने कंकरों की क्या बिसात? चोरी करनी ही है तो यूनीक की करे। मेरे कथन का अर्थ चौर्य-कर्म को मान्यता देने से नहीं, कवि के रचना-कौशल से है। साहित्यिक गलियारों में प्राय: पाठकों की कमी का रोना रोया जाता है। मेरे मतानुसार लेखन में दम हो तो पाठकों की कमी नहीं। वस्तुत: यही है लेखन की सार्थकता और कवि/लेखक की सफलता। कवि की इस चाहना से भला कौन सहमत नहीं होगा–

पढ़ पायेंगे क्या कभी, ऐसा भी अख़बार।
जिसमें केवल हो लिखा, प्यार, प्यार बस प्यार।।

रघुविन्द्र यादव डंके की चोट पर नाद करते हैं–

बेशक जाए जान भी, सत्य लिखूँगा नित्य।
क्या है बिना ज़मीर के, जीने का औचित्य?

कामना है, कवि का यह हौंसला नित नई बुलंदी पाता रहे। संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएँ।

-कृष्णलता यादव
गुरुग्राम 122001

Monday, January 16, 2023

उजालों की ओर अग्रसर करती लघुकथाएँ

उजालों की ओर अग्रसर करती लघुकथाएँ 

हिन्दी लघुकथा के ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में नजर घुमा कर देखें तो हिन्दी लघुकथा को डेढ़ शताब्दी पूर्ण होने को है। हिन्दी लघुकथा काल विभाजन के अनुसार हिन्दी लघुकथा काल (1875 से 1970) व आधुनिक हिन्दी लघुकथा, हिन्दी लघुकथा का ही एक परिष्कृत एवं संवर्द्धित रूप है, जो उसकी भाषा शैली, शिल्प एवं प्रस्तुतीकरण में साफ़ तौर से देखने को मिलता है। इस डेढ़ सदी के समय में सैंकड़ों लघुकथाकार आये और हजारों लघुकथाएँ लिखी गईं। सामान्य आँकड़ों को देखा जाये तो पिछली सदी के आधुनिक हिन्दी कथाकाल (1971-2000 तक) में रचित लघुकथाओं की संख्या से 21वीं सदी के प्रारम्भिक दो दशकों (2001-2021 तक) में लिखी लघुकथाएँ लगभग पाँच गुना अधिक हैं, जिसमें दूसरे दशक में लघुकथा लेखन अनुपातिक दृष्टि से कहीं अधिक हुआ है। इस पन्द्रह दशकीय लघुकथा लेखन से गुजरने तक एक तथ्य और सामने आया है कि इक्कीसवीं सदी में महिला लघुकथाकारों की संख्या में आश्चर्यजनक इजाफा हुआ है। निश्चित तौर पर इनमें से कुछ महिला लघुकथाकार अच्छा लेखन लेकर लघुकथा साहित्य में आई हैं। कुछ ऐसी महिला लघुकथाकार हैं जो बीसवीं सदी से लघुकथा लेखन से वर्तमान समय तक निरन्तरता बनाए हुए हैं, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य को नये आयाम दिये हैं। उन महिला लघुकथाकारों की प्रथम पंक्ति में खड़ी दिखाई देती हैं श्रीमती कृष्णलता यादव, जिन्होंने अपने पाँच मौलिक एकल लघुकथा संग्रह देकर आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य में श्रीवृद्धि की है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर लघुकथा लेखन की एक समर्पित रचनाकार हैं श्रीमती यादव। इन्होंने बाल साहित्य, काव्य, व्यंग्य व समीक्षात्मक लेखन में भी कलम चलाई है लेकिन मूल रूप से ये एक लघुकथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में पहचानी जाती हैं।

कृष्णलता जी की लघुकथाओं को मैं, इनके शुरुआती लेखन से ही पढ़ता रहा हूँ। इनका लेखन, अपने आप में मौलिक लेखन होने की छाप छोड़ता है। इनकी लघुकथाओं में नकारात्मक सोच नहीं होती, सीधी-सपाट, बिना कोई लाग-लपेट लिये सामान्य भाषा शैली की हुआ करती हैं, जिनके मर्म को पाठक आसानी से समझ सकता है।

कृष्णलता यादव का पाँचवाँ लघुकथा संग्रह ‘उजालों की तलाश’ मेरे सामने है, जो मुझे हर दृष्टि से अच्छा लगा। इस संग्रह के पठनोपरान्त, मुझे साहित्यिक नजरिये से जैसा लगा, वही मैं समीक्षात्मक दृष्टि से आपके समक्ष रख रहा हूँ।

संग्रह की कुछ लघुकथाएँ भावनाप्रधान कथ्य, सुदृढ़ शैली में, वास्तव में मन को छू लेने वाली हैं, जैसे सुबह का भूला, संकीर्णता, मीठी छुअन आदि। मैंने पाया कि लघुकथाकार सकारात्मक सोच की धनी हैं क्योंकि अधिकतर लघुकथाएँ घनात्मक पहलू लिये हुए हैं। किसी भी रचना में ऋणात्मक नजरिया दिखाई नहीं देता। ये लघुकथाएँ लेखकीय मूल्यों को बनाये रखने में सफल रही हैं। उदाहरण के तौर पर खुशियों का मूल्य, नजरिया, पकना उम्र का, सन्मार्ग की ओर, अस्तित्व का अहसास, डरा हुआ मन, पसीने का स्वाद, मुक्ति की तलाश, जेबकतरा, अंजुरी भर सुख आदि।

वर्तमान लघुकथा लेखन में अधिकतर रचनाओं में बुजुर्ग जीवन शैली में उपहास, परेशानी, अपनों द्वारा प्रताडना तथा उपेक्षाभाव दिखाया जाता है लेकिन श्रीमती यादव ने लीक से हटकर बुजुर्गों के प्रति
श्रद्धा व्यक्त करती लघुकथाओं की रचना की है, जो प्रशंसनीय एंव अनुकरणीय लेखन है। पावनता प्यार की, उलझनें, दादी का महात्म्य, भविष्य की चारपाई, सेतु, आत्मा का नाद, दुलार, मन की परतों का खुलना, पनियायी आँखें, संवेदनाएँ, पुरखों की गंध जैसी लघुकथाएँ बुजुर्गों के प्रति मान- सम्मान, अपनापन व श्रद्धा अभिव्यक्त करती हैं।

गरीबी अभिशाप नहीं अपितु एक आर्थिक परिस्थिति है, और जिस पुरुष ने उक्त युक्ति को समझ लिया वह मानव के रुप में मसीहा होता है। निदान, प्रवेश शुल्क, सुपोषण, बेड़ियाँ, समाज, मजबूरी, मापदंड, रतजगा, थिगली जैसी लघुकथाओं के माध्यम से ऐसा ही कुछ बताने की कोशिश लेखिका ने की है।

शाश्वत सत्य माना जाता है कि नारी का कोमल हृदय होना एक नारीत्व मूल्य है। इसी कथन को प्रमाणित करती मानवीय मूल्यों की पक्षधर लघुकथाएँ इस संग्रह में पढ़ने को मिलती हैं। संवेदन के पहलू, जीवन दर्शन, सुधियों के गीत, दुविधा के दोराहे पर, एक समझदार निर्णय, मनोबल, युद्ध का सत्य, हृदय निधि, साझा खाता, वात्सल्य पर्व, ममता का तकाजा, कोरोना काल आदि रचनाओं को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

नारी होने के नाते कृष्णलता जी ने नारी जीवन को नजदीक से देखा-परखा-भोगा है। अपनी अनुभवी दृष्टि से, नारी जीवन शैली को, सुन्दर शब्दों में नारी विमर्श हित कुछ लघुकथाएँ पाठकों के समक्ष रखी हैं, जैसे कर्मफल, चाहत के पायदान, कायान्तरण, दुनिया के रंग, सयानी औरत, उतरना माँ का, गरीबनी, पत्नी-धर्म तथा कितने वहम।

बाल जीवन अपने आप में एक अनमोल जीवनावस्था है, जो बेबाक, निश्चल, निडर एवं समस्याओं से परे होता है, बात-बात में न जाने कब क्या कह जाये। बाल मनोविज्ञान पर आधारित कला की मूर्तता, भुक्खड़, खुशियों के रंग, आवरण, कुछ उथला कुछ गहरा, प्रतिभा संरक्षण, असली बसंत, मारकता आदि रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं। लेखिका ने ऐसी शख्शियतों की भी पोल खोलने की हिमाकत की है जो कहते कुछ औऱ करते कुछ हैं। चेहरे पर मुखौटा लगाये, समाज के प्रतिनिधि की भूमिका निभाते देखा जाता है उन्हें। करनी-कथनी के अंतर को इंगित करती इनकी रचनाएँ हैं - दिखावे का सत्य, आईना दिखाना, शब्द सुनामी, अनूठी बात, वाह से आह तक, मैं शिव नहीं आदि । सनातन सत्य है कि कला को एक कला पारखी ही समझ पाता है बाकियों के लिये तो वे बेस्वादली हरकतें हैं, इस तथ्य को प्रमाणिकता प्रदान करती लघुकथाएँ भी इनकी कलम से निकली हैं, मन तरंग, भावों की दुनिया, लोकार्पण, किरचें और मरहम, कहानी का संसार लघुकथाएँ इस श्रेणी में गिनी जा सकती हैं।

अपने ही वंश का एक सामाजिक समूह होता है परिवार। परिवार में दुख-सुख व खुशियों भरे पलों की घटनाएँ घटना आम जीवन की सौगातें हैं। ये क्षण ही पारिवारिक सदस्यों को अटूट बंधन में बाँधे रखते हैं। पारिवारिक मोह को दर्शाती लघुकथाएँ संग्रह में अलग ही चमकती दिखाई देती हैं, जो वास्तव में परिवार में सामंजस्य बिठाती, स्नेह-श्रद्धा व अपनेपन को प्रेरित करती लाजवाब रचनाएँ बन पड़ी हैं, बतौर उदाहरण मदद, अपनी मिट्टी अपना देश, यथार्थ बनाम कल्पना, एक दूजे के लिए, दृश्य बदल गया, यूँ बनी बात और शांति के लिए।

वैसे तो लेखिका ने लगभग सभी विषयों पर लेखनी चलाई है लेकिन कुछ विषयों पर बहुत कम लिखा है जैसे पंडे-पुजारियों के आचरण पर, आत्मविश्वास, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ। कुछ विषय लेखिका की नजरों से छूट गये जिन पर एक भी लघुकथा नहीं है, जैसे दलित विमर्श, किन्नर जीवन शैली, कन्या भ्रूण हत्या, पौराणिक संदर्भ, देश विभाजन त्रासदी तथा राजनीति।

पूरे संग्रह से गुजरने पर यह सामने आया कि कुछेक लघुकथाओं में पात्रों को नामों के द्वारा संबोधित किया गया है जैसे मारकता लघुकथा की शुरुआत ‘अपनी पोती नेहा के होठों से ....।’ की गई है। यहाँ सिर्फ पोती शब्द से काम चल सकता था। यूँ बनी बात में भी ‘धीरू, नीरू दोनों भाइयों ....’ से पंक्ति की शुरुआत की गई है जबकि दोनों भाइयों लिखे जाने पर भी लघुकथा का वही भाव रहता। कुछ और लघुकथाएँ भी हैं जो नामित संबोधन शैली में रची गईं हैं।

संग्रह में पुस्तकीय शीर्षक वाली कोई रचना नहीं, लेकिन सभी लघुकथाएँ उजालों की तलाश की ओर प्रेरित करती बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, जो पाठकों को ज्ञानप्रद- प्रेरणास्पद मार्ग की ओर अग्रसर करती हैं। इस रचना संसार में लेखिका का परिश्रम झलकता दिखाई देता है। अहसास होता है कि निश्चित तौर पर ही कृष्णलता जी हिन्दी लघुकथा साहित्य की एक सशक्त लघुकथाकार हैं। इनकी अपनी एक मौलिक शैली है, जो इन्हें भीड़ से अलग खड़ा करती है। ये सभी रचनाएँ अनुभवी जीवन एवं परिपक्व सोच से उपजी बेजोड़ लघुकथाएँ हैं।

कृष्णलता जी की लेखनी को नमन करते हुए मैं इनके सुखद, सफल एवं स्वस्थ लेखकीय जीवन की शुभकामनाएँ देता हूँ।

पुस्तक – उजालों की तलाश
लेखिका – कृष्णलता यादव
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ – 128, मूल्य – 195 रु.
डॉ. रामकुमार धोटड़
सादुलपुर ( राजगढ़ ) जिला – चूरू (राजस्थान) 
मो.– 94140 86800