विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Wednesday, September 18, 2019

श्लेष चन्द्राकर के दोहे

श्लेष चन्द्राकर के दोहे

निशिदिन अब होने लगी, धरा रक्त से लाल।
नहीं समझती भीड़ क्यों, राजनीति की चाल।।
2
मिलती उसको नौकरी, जिसे किताबी ज्ञान।
अनुभव जिसके पास है, भटके वह इन्सान।।
3
कहो समय पर फैसला, देगा कैसे कोर्ट।
आती बरसों बाद जब, कोई जाँच रिपोर्ट।।
4
मन को अपने मार कर, देनी पड़ती घूस।
अर्जी को स्वीकार तब, करते हैं मनहूस।।
5
बात-बात पर आजकल, उगल रहे विष लोग।
इंसानों को भी लगा, सर्पांे वाला रोग।।
6
भ्रष्टाचारी भेडि़ए, मिलकर करें शिकार।
जनता इनके सामने, हो जाती लाचार।।
7
दिखलाना इन्सानियत, मनुज गया है भूल।
सत्य अहिंसा प्यार अब, हैं गूलर के फूल।।
8
पहले अस्मत लूटते, फिर कर देते खून।
अपराधी बे$खौफ हैं, सोया है कानून।।
9
औरों की आलोचना, करना है आसान।
मूल्यांकन खुद का करें, वे ही बनें महान।।
10
रात-रात भर जागता, सोता कम इन्सान।
सेहत से देता अधिक, मोबाइल पर ध्यान।।
11
नेताओं पर भूलकर, करना मत विश्वास।
घी पीते हैं वे स्वयं, हमें न डालें घास।।
12
न्यूज चैनलों पर चले, दिनभर नित बकवास।
नाटक वाद-विवाद का, तनिक न आये रास।।
13
गायब होती जा रही, मुखड़े से मुस्कान।
रहता है इस दौर में, व्यथित बहुत इन्सान।।
14
भूूल रहे निज सभ्यता, जिस पर था अति गर्व।
मना रहे पाश्चात्य के, नये-नये हम पर्व।।
15
रोजी-रोटी के लिए, हुआ बहुत मजबूर।
आज पलायन कर रहा, श्रम साधक मजदूर।।
16
बिका हुआ है मीडिया, आकाओं के हाथ।
देता रहता है तभी, कुछ लोगों का साथ।।
17
उल्टे-पुल्टे काम से, बन जाती पहचान।
खबरों में रहना हुआ, अब बेहद आसान।।
18
शोर शराबे को कहे, नव-पीढ़ी संगीत।
सुन्दर गीतों का सखे, आता याद अतीत।।




Sunday, September 15, 2019

शिव कुमार दीपक के दोहे

शिव कुमार दीपक के दोहे

मेघा भी करने लगे, द्वेष पूर्ण व्यवहार।
हम जल से लाचार हैं, वे जल से लाचार।।
2
कैसे सुधरेगी यहाँ, हलधर की तकदीर।
गेहूँ से महँगा बिके, व्यापारी का नीर।।
3
कविता में जिनकी नहीं, आम जनों की पीर।
काम भाट का कर रहे, खुद को कहें कबीर।।
4
शोषण दहशत सिसकियाँ, पनपा घोर विषाद।
चोर सिपाही मिल गए, कौन सुने फरियाद।।
5
संकट का पर्वत उठा, पाली थी औलाद।
बूढ़ों की सुनता नहीं, अब कोई रूदाद।।
6
मापा सागर आपने और धरा का भार।
नाप सके कब भूख का, कितना है आकार।।
7
लूट अपहरण धमकियाँ, शोषण अत्याचार।
यक्ष प्रश्र हैं सामने, चुप है चौकीदार।।
8
मोबाइल ने कर दिए, सरल बहुत-से काम।
घर के अंदर लड़कियाँ, फिर भी नींद हराम।।
9
पंखों में कूवत कहाँ, जो भर सकें उड़ान।
पक्षी रखकर हौसला, नापे नभ का मान।।
10
गर्दन में लटका रहे, राम और हनुमान।
चाल-चलन से दिख रहे, रावण की संतान।।
11
जड़ें स्वर्ण के फ्रेम में, या कर दें दो टूक।
दर्पण सच ही बोलता, कभी न रहता मूक।।
12
जिस घर के मुखिया हुए, अवगुण के शौकीन।
उस घर में आदर्श की, बंजर रहे ज़मीन।।
13
क्यों दबंग तू बन रहा, ले टीले की आड़।
माँझी बन हम तोड़ते, मद में खड़े पहाड़।।
14
कहते भ्रष्टाचार पर, किया करारा वार।
दूनी रिश्वत माँगते, बाबू, थानेदार।।
15
निर्धनता करती मिली, हाथ जोड़ मनुहार।
पैसा आया, मद बढ़ा, गया हृदय से प्यार।।
16
दुनिया में मजदूर का, कैसा हाय नसीब।
अपने काँधे उम्रभर, ढोता रहे सलीब।।
17
अल्लाह हु अकबर कहें, या फिर जय श्रीराम।
उन्मादी इस भीड़ में, नफरत भरी तमाम।।
18
आशा रही न भोर की, चेहरे हुए निराश।
जब से तम के जुर्म में, शामिल हुआ प्रकाश।।
19
कवि का होना चाहिए, दर्पण-सा व्यवहार।
सच्चाई जिंदा रखे, करे झूठ पर वार।।
20
हरी मखमली चादरें, दिनभर चढ़ीं मजार।
ठिठुर-ठिठुर बुढिय़ा मरी, उसी पीर के द्वार।।
21
माखन मटकी से कहे, ध्यान न मेरी ओर।
अब मोबाइल माँगता, नन्हा नन्द-किशोर।।
22
आजादी के मायने, क्या जाने सय्याद।
पिंजरे में जो बंद है, करे सही अनुवाद।।







जे.सी. पाण्डेय के दोहे

पाण्डेय जे.सी. के दोहे

कहने को तो सब कहें, माँ से है घर-बार।
छोड़ गया वो कौन था, वृद्धाश्रम के द्वार।।
2
जीना तो संयोग है, साँसें मिली उधार।
मौत खड़ी महबूब-सी, लिए हाथ में हार।।
3
कहाँ चले तुम बाँधकर, पाँवों में ज़ंज़ीर।
तन-मन दोनों पर लगे, घाव बड़े गम्भीर।।
4
हुआ बैल-सा आदमी, बदल गयी है चाल।
किश्तों की रस्सी गले, डाल हुआ बेहाल।।
5
रिश्ते अपने बीच में, कैसे बनें प्रगाढ़।
तू सूखा है जेठ-सा, मैं सावन की बाढ़।।
6
चलता है हर रोज ही, लूटपाट का खेल।
कोई लूटे आबरू, कोई लूटे मेल।।
7
कठिन चुनौती है मगर, उठा हाथ हथियार।
बाहर दुश्मन हैं खड़े, भीतर कुछ गद्दार।।
8
इतराना किस बात का, पूजा के हम फूल।
पल भर को माथे चढ़ें, मिल जायें फिर धूल।।
9
मनसा वाचा कर्मणा, भाँवर लीं थी सात।
जीने दो सुख चैन से, मत देखो अब जात।।
10
दीन-हीन पर आपको, आ जाता है क्रोध।
महाबली को देखकर, हाथ जोड़ अनुरोध।।
11
कैसा ये संयोग है, कैसा मन का भाव।
सहलाया तुमने वहीं, जहाँ बना था घाव।।
12
मरघट में जलती चिता, देती मौन सलाह।
जलकर कुछ मिलता नहीं, मत कर मानव डाह।।
13
कैसे छू लूँ ये बता, हवा नहीं अनुकूल।
माथे का तू है तिलक, मैं चरणों की धूल।।
14
पीपल जैसा प्रेम है, उगे फाड़ चट्टान।
किसके उर में कब उगे, कौन सका है जान।।
15
आँखें उसको ढूँढ़ती, हो जिसकी दरकार।
कौन भला ढूँढ़े मुझे, मैं कल का अ$खबार।।
16
शील नहीं यदि रूप में, कौन कहे नायाब।
शोभा पाता है कहाँ, बिन पानी तालाब।।
17
कितना भी ऊँचा उठें, रहें सदा शालीन।
आसमान हो हाथ में, पाँवों तले ज़मीन।।
18
संघर्षों का दौर है, होना नहीं हताश।
थाम हथौड़ा ज्ञान का, खुद को तनिक तराश।।
19
साहस की दिल में कमी, मंजि़ल हो कुछ दूर।
तब कहती है लोमड़ी, खट्टे हैं अंगूर।।
20
हुआ बैल-सा आदमी, बदल गई है चाल।
किश्तों की रस्सी गले, डाल हुआ बेहाल।।


मिथलेश वामनकर के दोहे

मिथलेश वामनकर के दोहे

लाख लिखो यशगान तुम, मर्यादा के नाम।
सिर्फ विभीषण खोजते, अक्सर देखे राम।।
2
लोग मिले निष्ठुर सदा, देव मिले पाषाण।
केवल भिक्षुक ही रहे, देवालय के प्राण।।
3
लेकर आया राजपथ, जाने कैसी छाँव।
जब-जब चलते हैं पथिक, तब-तब जलते पाँव।।
4
खुश थे रावण को सभी, अग्नि कूप में डाल।
ज़ख्म हरे ले जानकी, देख रही चौपाल।।
5
केसर से बारूद की, रह-रह आती गंध।
घाटी के बन्दूक से, ऐसे हैं अनुबंध।।
6
निश्चित मानो टूटना, तब प्यासे का ख्वाब।
जब सागर के वंशधर, बन जाएँ तालाब।।
7
भूख गरीबी के लिए, निश्चित किया किसान।
सोचो बाकी लोग हैं, कितने चतुर सुजान।।
8
फिर सत्ता के गीत में, खोये हैं मतिमंद।
बिखरे हैं फुटपाथ पर, लोकतंत्र के छंद।।
9
केवल देखे आपने, मेरे शब्द अधीर।
मैंने भोगी है मगर, अक्षर-अक्षर पीर।।
10
अब चिंतित बेचैन-सी, रहती सारी रात।
सीता ने जब से सुनी, रामराज की बात।।
11
कोई कहता पक्ष में, कोई कहे विरुद्ध।
कलयुग में उपलब्ध हैं, सबको अपने बुद्ध।।
12
आँखें ही बेशर्म तो, घूँघट से क्या आस।
नग्न मिला हर आदमी, पहने सभ्य लिबास।।
13
आई सत्ता की कलम, वर्तमान के पास।
बैठे-बैठे अब वही, बदल रहे इतिहास।।
14
दीपक के विश्वास को, आज अचानक तोड़।
देख हवा ने कर लिया, आँधी से गठजोड़।।
15
जहाँ धरा के वक्ष पर, जंगल हो आबाद।
बादल का होगा वहीं, वर्षा में अनुवाद।।
16
खलिहानो के प्रश्र पर, क्या दे खेत जवाब।
मंडी में बेसुध पड़े, पगडंडी के ख्वाब।।
17
सीख रहा हो जब हृदय, पत्थर से व्यवहार।
हँसना भी बेकार तब, रोना भी बेकार।।
18
बुझते चुल्हे से उठी, फिर झुग्गी में गंध।
फिर छप्पर ने कर लिया, वर्षा से अनुबंध।।
19
नार बनी है नीर से, या नारी से नीर।
बहते काजल ने लिखी, युगों-युगों की पीर।।



फणीन्द्र कुमार भगत के दोहे

फणीन्द्र कुमार भगत के दोहे

मुझे शत्रु का एक भी, चुभा नहीं था तीर।
खंज़र अपनों के मगर, गए कलेजा चीर।।
2
अपने कद से हैं बड़े, यूँ तो वृक्ष हजार।
लेकिन छायादार हैं, गिनती के दो चार।।
3
नौका जर्जर हो गई, टूट गई पतवार।
लगती है हर धार अब, मुझको तो मँझधार।।
4
उमरा बैठे हैं सभी, आज लगा चौपाल।
खोज रहे हैं लूट की, सारे मिल नव चाल।।
5
वैर भाव मन में पला, कलुषित हुए विचार।
मरहम विष लगने लगा, कैसे हो उपचार।।
6
गागर छलकी याद की, हुए नयन तट लाल।
पलको ने भी भीगकर, कहा हृदय का हाल।।
7
काँटों ने उलझा लिया, जब-तब रहे झँझोड़।
बिखरेगा गुल टूटकर, कहता यही निचोड़।।
8
सारी राहें बंद हैं, होता एक न काज।
मिली सजा की ही तरह, मुझे गरीबी आज।।
9
फूलों की मुस्कान पर, लगा रहे प्रतिबंध।
पंखुडिय़ों के लालची, जिन्हें न भाती गंध।।
10
कैसा है इन्सान का, यह निज से ही वैर।
कर बैठा है आज खुद, हर अपने को गैर।।
11
खुश था चंदा रात भर, मन में लिए उमंग।
भोर हुई तो चाँदनी, छोड़ गई सब संग।।
12
खाली बरतन और भी, लगने लगे उदास।
गुजरा जब आषाढ़-सा, सावन कर उपहास।।
13
पानी से सरकार के, जलने लगे चिराग।
फोहे केरोसीन के, बुझा रहे हैं आग।।
14
खुले द्वार दालान सब,मिट्टी की दीवार।
वक्त छीनकर ले गया, आपस का वह प्यार।।
15
चिंता करते लोग सब, बातें हर सरकार।
किस्मत मगर किसान की, लिखता सदा उधार।।
16
स्वप्न और सच्चाइयाँ जब हो जाएँ भिन्न।
तब होता है आदमी, हद से ज्यादा खिन्न।।
17
सावन ने नदियाँ भरी, कहीं तोड़ दी झील।
सींचे हैं बिन भेद के, बरगद और करील।।
18
नेह खत्म होने लगा, दिन-दिन घटती छाँव।
बहुत भुरभुरा हो गया, अब रिश्तों का गाँव।।
19
दीपक से भी आँधियाँ, छीन रही हैं नूर।
कैसे होगा रात का, यह अँधियारा दूर।।
20
मैं मानव ही था मगर, जग के पाल उसूल।
काँटे-सा सबको चुभा, क्या पत्ते क्या फूल।।