विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Tuesday, September 10, 2019

टीकम चन्दर ढोडरिया के दोहे

टीकम चन्दर ढोडरिया के दोहे

धर्म सत्य की है डगर, सद्गुण का आगार।
हम मूरख करने लगे, उसका ही व्यापार।।
2
बूँदे बरसी रात भर, उठी धरा से गंध।
हरियाएँ फिर से सखी, सुप्त हुए संबंध।।
3
सुबह हिलें इस द्वार पर, शाम हिलें उस द्वार।
आज काइयाँ दौर में, दुमें बनी हथियार।।
4
जाता हूँ जब-जब कभी, मैं पुरखों के गाँव।
लिपट-लिपट जाती सखे, माटी मेरे पाँव।।
5
आजादी का अर्थ हम, समझे नहीं हुज़ूर।
पहले भी मजदूर थे, अब भी हैं मजदूर।।
6
संसाधन लूटे सभी, लूटे पद सम्मान।
हमने अपने हित रचे, सारे नियम विधान।।
7
राजतंत्र से है बुरा, आज तंत्र का रूप।
दो कोड़ी के आदमी, बने फिरे हैं भूप।।
8
खेत बिके जंगल कटे, गयी नदी भी सूख।
गाँवों को नित डस रही, महानगरिया भूख।।
9
काँकड़ से पहुँची नज़र, ज्यों ही मेरे गाँव।
अगवानी को आ गयी, यादें नंगे पाँव।।
10
कभी किया विष-पान तो, कभी पिया मकरंद।
हर पल का लेता रहा, जीवन में आनंद।।
11
सच का मैंने सच लिखा, लिखा झूठ को झूठ।
राजाजी चाहे भले, जायें मुझ से रूठ।।
12
यादों से भीगे हुए, महके-महके राज।
बहा दिये मैंने सभी, $खत दरिया में आज।।
13
जाति मनुज की सब कहें, सबसे उत्तम खास।
उसने ही सबसे अधिक, किया धरा का नाश।।
14
माना होती है कला, ईश्वर का वरदान।
मिलता है पर अब कहाँ, कलाकार को मान।।
15
आँखों पर जाले नहीं, ना मन में है चोर।
कैसे कह दें रात को, बोलो उजली भोर।।
16
औरों की तो बात क्या, तन भी जाता छूट।
जाने है सब कुछ मनुज, फिर भी करता लूट।।
17
मेडें़ सिमटी खेत की, कुएँ हुए वीरान।
आबादी ने डस लिए, सभी खेत-खलिहान।।
18
टूटी हैं कसमें कहीं, किया किसी ने याद।
आयी फिर से हिचकियाँ, मुझको बरसों बाद।।
19
बाँच सको तो बाँच लो, उसके उर की पीर।
अश्कों से लिक्खी हुयी, गालों पर तहरीर।।
20
स्वेद बिंदुओं ने लिखी, पाषाणों पर पीर।
फुरसत हो तो बाँच लें, आओ यह तहरीर।।
21
रोता है पहले सखे, कवि उर सौ-सौ बार।
तब पीड़ा के छंद का, होता है शृंगार।।

विकास रोहिल्ला प्रीत के दोहे

विकास रोहिल्ला प्रीत के दोहे

दृश्य देखकर मंच भी, आज हुआ हैरान।
चंद चुटकुले ले गये, कविता का सम्मान।।
2
भरी कचहरी झूठ ने, किए वार पर वार।
घुटनों के बल आ गया, सच का ताबेदार।।
3
नये दौर में, जी रहे, लेकर सब अवसाद।
सन्नाटों से कर रहे, देखो अब संवाद।।
4
नहीं समझता मर्म को, लिखे काल्पनिक पीर।
देखो बनना चाहता, वो भी आज कबीर।।
5
जंगल में तब्दील है, बस्ती का माहौल।
मूल्यों का उडऩे लगा, अब तो यहाँ मखौल।।
6
थकी-थकी-सी भोर है, भरी उदासी साँझ।
मुस्कानों की तितलियाँ, अब लगती हैं बाँझ।।
7
किसको हम अपना कहें, किसको गैर ज़नाब।
मिलता हर कोई यहाँ, पहने हुए न$काब।।
8
ज़हनों में चालाकियाँ, उर में मिलती घात।
बस्ती से अच्छे मिले, जंगल के हालात।।
9
झूठी हैं खुशियाँ सभी, मिथ्या है मुस्कान।
लिए उदासी घूमता, देखो हर इंसान।।
10
नारी को जिसने सदा, समझा एक शरीर।
वो क्या जानेगा भला, उसके मन की पीर।।
11
राजनीति के ताल में, होगी तेरी जीत।
घडिय़ालों के सीख ले, तौर-तरीके मीत।।
12
ज़हनों में चालाकियाँ, उर में मिलती घात।
जंगल जैसे हो गए, बस्ती के हालात।।
13
गश्त $गमों की बढ़ चली, खुशियों की हड़ताल।
सदियों की ले वेदना, बीत रहे हैं साल।।
14
दिवस लगे हैं हाँफने, थककर बैठी रैन।
अंधी-बहरी दौड़ ने, छीना मन का चैन।।
15
उड़ती हैं अब चिंदियाँ, उड़े रोज उपहास।
सच रफ पुर्जे-सा हुआ, कोई न रखे पास।।
16
नमक छिडक़ना ही रहा, दुनिया का दस्तूर।
कर देती है घाव को, देख बड़ा नासूर।।
17
शेर लोमड़ी, तेंदुए, बिच्छू साँप सियार।
जंगल में चलती सदा, धूर्तों की सरकार।।
18
सोने से तोलो नहीं, दिल के ये जज्बात।
बेशकीमती है सखे, आँखों की बरसात।।
19
तोड़ रही है बेडिय़ाँ, काट रही जंजीर।
नारी अब लिखने लगी, खुद अपनी तकदीर।।
20
पीड़ा की है रागिनी, दर्द भरा है राग।
जाने कैसी वेदना, लेकर आया फाग।।
21
दर्द छुपाता जो रहा, मुख पर ले मुस्कान।
जीवन मे उसका सदा, ऊँचा रहा मचान।।
22
मुस्कानों की याद में, रहे पालते पीर।
हमने तोड़ी ही नहीं, यादों की जंजीर।।
23
जश्र हुआ जब झूठ का, लगे ठहाके खूब।
सच की ऐसी दुर्दशा, जैसे कुचली दूब।।
24
टूट गईं सब डालियाँ, चटके सारे फूल।
अदा तुम्हारी जि़न्दगी, ये भी हमें कबूल।।
25
सीलन से कमरा भरा, आँखों ठहरा नीर।
अन्तर्मन की शाख पर, घाव बहुत गम्भीर।।
26
देख जरा-सा भी हिले, भाई अपना नीड़़।
तभी तमाशा देखने, आ जाती है भीड़।।
27
उतर गया है प्रीत का, रिश्तों से अब ताप।
लिए वेदना मौन की, सभी खड़े चुपचाप।।
28
जिह्वा पर तो मौन है, अंतर्मन में नाद।
जीने के आदि हुए, लेकर हम अवसाद।।
29
लोग यहाँ छलने लगे, करके मीठी बात।
मुख पर तो अपने बनें, करें पीठ पर घात।।
30
मरहम होती बेटियाँ, हर लेती हैं पीर।
मन को ये शीतल करें, चंदन-सी तासीर।।
31
निभर्य घूमें भेडि़ए, हिरनी हैं भयभीत।
बस्ती में भी आ गई, जंगल की यह रीत।।
32
तोड़ रही है बेडिय़ाँ, काट रही जंजीर।
नारी खुद ही लिख रही, अब अपनी तकदीर।।
 

वैशाली चतुर्वेदी के दोहे

वैशाली चतुर्वेदी के दोहे

कैसी मंगल की दशा, कैसी शनि की चाल।
रहना पृथ्वी पर हमें, चलो सुधारें हाल।।
2
कितने भी धारण करो, मूंगा पन्ना रत्न।
श्रम बिन कुछ हासिल नहीं, हैं फिजूल ये यत्न।।
3
सब ने पूजा चाँद को, छत पर था उल्लास।
सूने कमरे में मगर, विधवा रही उदास।।
4
तन्हाई से डर नहीं, लगी डराने भीड़।
जाने कब किस बात पर, उजड़े किसका नीड़।।
5
साँकल सूने द्वार की, आहट को बेचैन।
बूढ़ा पीपल गाँव का, तरस रहा दिन रैन।।
6
नेताजी के शेर पर, संसद में था शोर।
बेटी के अधिकार पर, खामोशी हर ओर।।
7
अधिकारों की माँग पर, मिलते हैं आघात।
बेटी कैसे बच सके, ऐसे जब हालात।।
8
आँगन से जो थे जुड़े, खत्म हुए व्यवहार।
ऊन सलाई क्रोशिया, पापड़ बड़ी अचार।।
9
थाली में भोजन नहीं, छत भी नहीं नसीब।
आजादी के जश्र को, देखे मूक गरीब।।
10
धीरे-धीरे ही सही, बदला जीवन रूप।
यादों में ही रह गई, आँगन की वो धूप।।
11
शामिल होकर भीड़ में, नहीं मिलाते ताल।
सच का पथ हमने चुना, चलते अपनी चाल।।
12
मीरा-सी पीड़ा कहाँ, जो कर ले विषपान।
इस तकनीकी दौर में, भाव हुए बेजान।।
13
भाई-भाई के लिए, होगा तभी अधीर।
जब दिल से महसूस हो, उसके दिल की पीर।।
14
उनके हक में भी लिखो, जिनके खाली हाथ।
सफल वही है लेखनी, जो है सच के साथ।।
15
शायर जी चुन कर कहें, कुछ मुद्दों पर शेर।
जोड़-जोड़ कर रख रहे, सम्मानों के ढेर।।
16
अधिकारों की माँग पर, मिलते हैं आघात।
बेटी कैसे बच सके, ऐसे जब हालात।।
17
आँसू सूखे आँख में, लिए बर्फ-सी पीर।
झील शिकारे देखते, सूना-सा कश्मीर।।
18
कैसे कर दे लेखनी, सत्ता का गुणगान।
जिसमें निर्धन पिस रहा, पनप रहा धनवान।।
19
नहीं जानता योग वो, नहीं जानता ध्यान।
श्रम ही जिसकी साधना, उसका नाम किसान।।

अरुण कुमार निगम के दोहे

अरुण कुमार निगम के दोहे

काट नहीं सकता अगर, कम से कम फँुफकार।
तब तेरे अस्तित्व को, जानेगा संसार।।
2
स्वर्ण जडि़त पिंजरे मिले, पंछी मद में चूर।
मालिक के गुण गा रहे, खा कर नित अंगूर।।
3
बच्चे बिलखें भूख से, पाषाणों को दुग्ध।
ऐसी श्रद्धा देखकर, क्या प्रभु होंगे मुग्ध।।
4
बिके मेघ कुछ कैद हैं, कुछ हैं कहीं फरार।
चार दिनों में गिर गई, सावन की सरकार।।
5
वंचित की आवाज़ को, जिसने किया बुलंद।
शासक ने फौरन उसे, किया जेल में बंद।।
6
ले दे के थे जी रहे, जाग गई तकदीर।
ले दे के मुखिया बने, ले दे हुए अमीर।।
7
वे कहते कुछ और हैं, करते हैं कुछ और।
खिला रहे हैं आँकड़े, बना-बना कर कौर।।
8
भोग रहे हैं कर्मफल, कर के अति विश्वास।
है विनाश चहुँ ओर अब, दिखता नहीं विकास।।
9
नहीं सुहाता आजकल, शब्दों में मकरंद।
इसीलिए लिखता अरुण, कटु सच वाले छंद।।
10
अजगर जैसे आज तो, शहर निगलते गाँव।
बुलडोजर खाने लगे, अमरइया की छाँव।।
11
अंधियारे पर बैठकर, सिर पर रखता आग।
उजियारा तब बाँटता, धन्य दीप का त्याग।।
12
वृक्ष कटे छाया मरी, पसरा है अवसाद।
पनपेगा कंक्रीट में, कैसे छायावाद।।
13
पौष्टिकता लेकर गई, भाँति-भाँति की खाद।
सब्जी और अनाज में, रहा न मौलिक स्वाद।।
14
आहत मौसम दे रहा, रह रह कर संकेत।
किसी नदी में बाढ़ है और किसी में रेत।।
15
वे कहते कुछ और हैं, करते हैं कुछ और।
खिला रहे हैं आँकड़े, बना-बना कर कौर।।
16
वन उपवन खोते गए, जब से हुआ विकास।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास।।
17
मनुज स्वार्थ ने मेघ धन, लिया गगन से छीन।
सावन याचक बन गया, भादों अब है दीन।।
18
रोजगार का दम घुटा, अर्थ व्यवस्था मंद।
ऐसे में शृंगार पर, कैसे गाऊँ छंद।।
19
कुछ कहता है मीडिया, कुछ कहते हालात।
किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ, मानूँ किसकी बात।।
20
तंत्र मत्र षड्यंत्र से, बचकर रहना मित्र।
पग-पग पर माया खड़ी, दुनिया बड़ी विचित्र।।
21
एकलव्य कौन्तेय में, रखे न कोई भेद।
ऐसा गुरुवर ढूँढ़ता, अरुण बहा कर स्वेद।।
22
धनजल ऋणजल का गणित, सिखा रही बरसात।
दिखा रही इंसान की, कितनी है औकात।।
23
भोग रहे हैं कर्मफल, करके अति विश्वास।
है विनाश चहुँओर अब, दिखता नहीं विकास।।
24
प्रायोजित सम्मान हैं, इनका क्या है मोल।
इन्हें दिखाकर बावरे, मत पीटाकर ढोल।।
25
राज हमारा है कहाँ, अब हैं हम भी दास।
दिल्ली भेजा था जिन्हें, तोड़ चुके विश्वास।।
26
अब कलियुग जीवंत है, संत लूटते लाज।
सत्य उठाता सिर जहाँ, गिरे वहीं पर गाज।।
27
कोठी आलीशान है, सम्मुख हैं दरबान।
जन सेवक के ठाठ को, देख सभी हैरान।।
28
मूढ़ बने विद्वान हैं, आज ओढक़र खाल।
इसीलिए साहित्य का, बहुत बुरा है हाल।।

Monday, September 9, 2019

मास्टर रामअवतार के दोहे

मास्टर रामअवतार के दोहे

गाथा गाओ भूप की, मिले बड़ी जागीर।
या मर जाओ भूख से, बनकर संत कबीर।।
2
देखो आरा चल रहा, होते पेड़ हलाल।
हत्या करता माफिया, शामिल रहें दलाल।।
3
नारी की महिमा लिखी, खूब किया गुणगान।
मगर कागजों में मिला, है उसको सम्मान।।
4
ज्ञानी, ज्ञाता था बड़ा, सर्वश्रेष्ठ विद्वान।
उस रावण को अंत में, ले डूबा अभिमान।।
5
गाए जब फनकार ने, जा दरबारी राग।
पद पैसा दोनों मिले, धुले पुराने दाग।।
6
आग लगे इस आग को, जो बदले की आग।
स्वाह करे, सब कुछ हरे, सुलगें सावन फाग।।
7
वर्षा हुई किसान के, मुखड़े पर थी आब।
मगर वही दुख दे गई, बनकर के सैलाब।।
8
सच होता कड़वा बहुत, मत कह सच्ची बात।
वरना प्यारे मित्र भी, कर जाएँगे घात।।
9
जान बूझ परिवेश में, लगा रहे हम आग।
वृक्ष काट कंक्रीट के, लगा दिए हैं बाग।।
10
ऑडी गाड़ी में चलें, आलीशान मकान।
रहें बगल में रूपसी, लोग कहें भगवान।।
11
इतना भी तो मत बना, मालिक उन्हें गरीब।
लाशों को भी हो नहीं, जिनकी क$फन नसीब।।
12
रोगों की मिलती दवा, ले लेता इन्सान।
अंधभक्ति वह रोग है, जिसका नहीं निदान।।
13
भीड़ जुटी मजमा लगा, मगर सभी थे मौन।
कातिल पूछे दो बता, मार गया है कौन?
14
मर्यादा को त्याग कर, देते गहरे घाव।
वे जालिम इस दौर में, जीतें सभी चुनाव।।
15
करनी है गर नौकरी, नखरा करना छोड़।
इच्छाओं का कर दमन, गम से नाता जोड़।।
16
रक्षक ही खुद खेलते, भक्षक वाला खेल।
दीवारें बनती सदा, नारी खातिर जेल।।
17
जहाँ धर्म के नाम पर, होता धन बबार्द।
हिल जाती उस देश की, नीचे तक बुनियाद।।
18
धरती धन पोशाक का, था बेहद शौकीन।
अंत कफन से तन ढका, दो गज मिली ज़मीन।।
19
गई हमारी नौकरी, लोग पूछते हाल।
मुझको लगता घाव पर, नमक रहे हैं डाल।।
20
मिटा दिया है आपने, अब तो भ्रष्टाचार।
केवल सुविधा शुल्क है, दो के बदले चार।।
21
रूह लगी है काँपने, देख संत का भेष।
लूट ले गया अस्मिता, छोड़ी काया शेष।।
22
दुनिया को देते रहे, जीवन भर उपदेश।
संतति को ना दे सके, सुखद सत्य संदेश।।
23
खाओ गोश्त गरीब का, जैसे पूरी खीर।
प्यास मिटाओ रक्त से, धन से अगर अमीर।।