विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, September 22, 2019

सीमा पाण्डेय मिश्रा के दोहे

सीमा पाण्डेय मिश्रा के दोहे

सरस, सलीकेदार थे, जिन मंचों के कथ्य।
रूखे औ फूहड़ मिले, उनके ही नेपथ्य।।
2
सहमे जैसे नायिका, ऐसे डरे पगार।
महँगाई खलनायिका, खलनायक त्योहार।।
3
सागर के घर जा नदी, लगती है अनिकेत।
भीतर खारा जलमहल, बाहर सूखी रेत।।
4
धरती ऐसे सह रही, बारिश की बौछार।
जैसे बच्चा कर रहा, माँ पर नन्हे वार।।
5
भीख माँगते हाथ ही, हम क्या जानें पीर।
काँधे पर झोला नहीं, लटका हुआ ज़मीर।।
6
रही गरीबी छेंकती, जिनके ड्योढ़ी द्वार।
मुश्किल से आये कभी, उनके घर त्योहार।।
7
दूरी से ही जागते, मोह पाश के राग।
नजदीकी से चाँद में, दिखते काले दाग।।
8
गिरिवर की गोदी पली, नन्हीं पतली धार।
उद्गम का विश्वास है, नदिया का आधार।।
9
गहन प्रेम के भाव भी, नहीं चाँद का ज्ञात।
झाँक रहा है झील में, पर सूखा है गात।।
10
प्रेम सदा रहता नहीं, सदा रहे कब बैर।
लहर डुबो जाती वही, जो छूती है पैर।।
11
फूल सियासी हो गए, भँवरे हैं हैरान।
रंग चुनें अब कौन-सा, कहाँ करे मधुगान।।
12
लगातार संपर्क से, खोती मधुर सुगंध।
है दूरी और प्रेम में, सीधा सा संबंध।।
13
जिन शाखों ने ली तपिश, कर शीतलता दान।
उन शाखों को काटते, हत्यारे इंसान।।
14
याद पड़ा कुछ देर से, मेरे भी अरमान।
लेकिन तब तक हो गया, जीवन ही कुर्बान।।
15
रोटी के आकार से, कम वेतन का माप।
गरम तवे पर नीर के, छींटे बनते भाप।।
16
मैंने तो सींचा फ$कत, इक मुरझाया नीम।
दबे बीज भी हँस पड़े, क़ुदरत हुई करीम।।
17
चख पाते हम प्रेम का, अमरित स्वाद असीम।
उससे पहले चाट ली, घातक धर्म अफीम।।

Thursday, September 19, 2019

संजीव गौतम के दोहे

संजीव गौतम के दोहे

भीड़ धुआँ चुप्पी घुटन, गूँगे बहरे लोग।
कस्बों को भी हो गए, महानगर के रोग।।
2
नए दौर ने गढ़ लिए, अपने नये वसूल।
झूठों को सम्मान दे, सच की आँखों धूल।।
3
सावन सूखा माघ लू, जेठ मास बरसात।
क्या से क्या हैं हो गये, मौसम के हालात।।
4
सोने चाँदी-सी कभी, ताँबे जैसी धूप।
दिन भर घूमे गाँव में, बदल-बदल कर रूप।।
5
कल आँगन में रातभर, रोया बूढ़ा नीम।
दो हिस्सो में देखकर, घर आँगन तकसीम।।
6
एक हुए सब उस जगह, राजा रंक $फकीर।
जहाँ मृत्यु ने खींच दी, अपनी अमिट लकीर।।
7
सबको कमियाँ हैं पता, फिर भी हैं सब मौन।
केवल इतनी बात है, पहले बोले कौन।।
8
सब के सब बेकार हैं, ज्ञानी सिद्ध $फकीर।
खींच अगर पाये नहीं, कोई नयी लकीर।।
9
थोड़ा सा ईमान है, थोड़ी सी पहचान।
मुझमें जि़न्दा है अभी, थोड़ा सा इंसान।।
10
खूब खूब फूले फले, मज़हब के सरदार।
भोली जनता ही मरी, दंगों में हर बार।।
11
कल आँगन में रातभर, रोया बूढ़ा नीम।
दो हिस्सों में देखकर, घर-आँगन तकसीम।।
12
कुछ भी तो जानें नहीं, हम कविता के भेद।
उल्टे कर पढ़ते रहे, अपने-अपने वेद।।
13
बापू तेरे देश में, यह कैसा संयोग।
अंधों से बातें करें, गूँगे बहरे लोग।।
14
फूलों से तो प्यार कर, जड़ में म_ा डाल।
महानगर से सीख ले, कुछ तो मेरे लाल।।
15
थोड़ा-सा ईमान है, थोड़ी-सी पहचान।
मुझमें जि़न्दा है अभी, एक अदद इन्सान।।
16
बुरा वक्त क्या आ गया, बदले सबने रंग।
पत्ते भी जाने लगे, छोड़ पेड़ का संग।।

Wednesday, September 18, 2019

श्लेष चन्द्राकर के दोहे

श्लेष चन्द्राकर के दोहे

निशिदिन अब होने लगी, धरा रक्त से लाल।
नहीं समझती भीड़ क्यों, राजनीति की चाल।।
2
मिलती उसको नौकरी, जिसे किताबी ज्ञान।
अनुभव जिसके पास है, भटके वह इन्सान।।
3
कहो समय पर फैसला, देगा कैसे कोर्ट।
आती बरसों बाद जब, कोई जाँच रिपोर्ट।।
4
मन को अपने मार कर, देनी पड़ती घूस।
अर्जी को स्वीकार तब, करते हैं मनहूस।।
5
बात-बात पर आजकल, उगल रहे विष लोग।
इंसानों को भी लगा, सर्पांे वाला रोग।।
6
भ्रष्टाचारी भेडि़ए, मिलकर करें शिकार।
जनता इनके सामने, हो जाती लाचार।।
7
दिखलाना इन्सानियत, मनुज गया है भूल।
सत्य अहिंसा प्यार अब, हैं गूलर के फूल।।
8
पहले अस्मत लूटते, फिर कर देते खून।
अपराधी बे$खौफ हैं, सोया है कानून।।
9
औरों की आलोचना, करना है आसान।
मूल्यांकन खुद का करें, वे ही बनें महान।।
10
रात-रात भर जागता, सोता कम इन्सान।
सेहत से देता अधिक, मोबाइल पर ध्यान।।
11
नेताओं पर भूलकर, करना मत विश्वास।
घी पीते हैं वे स्वयं, हमें न डालें घास।।
12
न्यूज चैनलों पर चले, दिनभर नित बकवास।
नाटक वाद-विवाद का, तनिक न आये रास।।
13
गायब होती जा रही, मुखड़े से मुस्कान।
रहता है इस दौर में, व्यथित बहुत इन्सान।।
14
भूूल रहे निज सभ्यता, जिस पर था अति गर्व।
मना रहे पाश्चात्य के, नये-नये हम पर्व।।
15
रोजी-रोटी के लिए, हुआ बहुत मजबूर।
आज पलायन कर रहा, श्रम साधक मजदूर।।
16
बिका हुआ है मीडिया, आकाओं के हाथ।
देता रहता है तभी, कुछ लोगों का साथ।।
17
उल्टे-पुल्टे काम से, बन जाती पहचान।
खबरों में रहना हुआ, अब बेहद आसान।।
18
शोर शराबे को कहे, नव-पीढ़ी संगीत।
सुन्दर गीतों का सखे, आता याद अतीत।।




Sunday, September 15, 2019

शिव कुमार दीपक के दोहे

शिव कुमार दीपक के दोहे

मेघा भी करने लगे, द्वेष पूर्ण व्यवहार।
हम जल से लाचार हैं, वे जल से लाचार।।
2
कैसे सुधरेगी यहाँ, हलधर की तकदीर।
गेहूँ से महँगा बिके, व्यापारी का नीर।।
3
कविता में जिनकी नहीं, आम जनों की पीर।
काम भाट का कर रहे, खुद को कहें कबीर।।
4
शोषण दहशत सिसकियाँ, पनपा घोर विषाद।
चोर सिपाही मिल गए, कौन सुने फरियाद।।
5
संकट का पर्वत उठा, पाली थी औलाद।
बूढ़ों की सुनता नहीं, अब कोई रूदाद।।
6
मापा सागर आपने और धरा का भार।
नाप सके कब भूख का, कितना है आकार।।
7
लूट अपहरण धमकियाँ, शोषण अत्याचार।
यक्ष प्रश्र हैं सामने, चुप है चौकीदार।।
8
मोबाइल ने कर दिए, सरल बहुत-से काम।
घर के अंदर लड़कियाँ, फिर भी नींद हराम।।
9
पंखों में कूवत कहाँ, जो भर सकें उड़ान।
पक्षी रखकर हौसला, नापे नभ का मान।।
10
गर्दन में लटका रहे, राम और हनुमान।
चाल-चलन से दिख रहे, रावण की संतान।।
11
जड़ें स्वर्ण के फ्रेम में, या कर दें दो टूक।
दर्पण सच ही बोलता, कभी न रहता मूक।।
12
जिस घर के मुखिया हुए, अवगुण के शौकीन।
उस घर में आदर्श की, बंजर रहे ज़मीन।।
13
क्यों दबंग तू बन रहा, ले टीले की आड़।
माँझी बन हम तोड़ते, मद में खड़े पहाड़।।
14
कहते भ्रष्टाचार पर, किया करारा वार।
दूनी रिश्वत माँगते, बाबू, थानेदार।।
15
निर्धनता करती मिली, हाथ जोड़ मनुहार।
पैसा आया, मद बढ़ा, गया हृदय से प्यार।।
16
दुनिया में मजदूर का, कैसा हाय नसीब।
अपने काँधे उम्रभर, ढोता रहे सलीब।।
17
अल्लाह हु अकबर कहें, या फिर जय श्रीराम।
उन्मादी इस भीड़ में, नफरत भरी तमाम।।
18
आशा रही न भोर की, चेहरे हुए निराश।
जब से तम के जुर्म में, शामिल हुआ प्रकाश।।
19
कवि का होना चाहिए, दर्पण-सा व्यवहार।
सच्चाई जिंदा रखे, करे झूठ पर वार।।
20
हरी मखमली चादरें, दिनभर चढ़ीं मजार।
ठिठुर-ठिठुर बुढिय़ा मरी, उसी पीर के द्वार।।
21
माखन मटकी से कहे, ध्यान न मेरी ओर।
अब मोबाइल माँगता, नन्हा नन्द-किशोर।।
22
आजादी के मायने, क्या जाने सय्याद।
पिंजरे में जो बंद है, करे सही अनुवाद।।







जे.सी. पाण्डेय के दोहे

पाण्डेय जे.सी. के दोहे

कहने को तो सब कहें, माँ से है घर-बार।
छोड़ गया वो कौन था, वृद्धाश्रम के द्वार।।
2
जीना तो संयोग है, साँसें मिली उधार।
मौत खड़ी महबूब-सी, लिए हाथ में हार।।
3
कहाँ चले तुम बाँधकर, पाँवों में ज़ंज़ीर।
तन-मन दोनों पर लगे, घाव बड़े गम्भीर।।
4
हुआ बैल-सा आदमी, बदल गयी है चाल।
किश्तों की रस्सी गले, डाल हुआ बेहाल।।
5
रिश्ते अपने बीच में, कैसे बनें प्रगाढ़।
तू सूखा है जेठ-सा, मैं सावन की बाढ़।।
6
चलता है हर रोज ही, लूटपाट का खेल।
कोई लूटे आबरू, कोई लूटे मेल।।
7
कठिन चुनौती है मगर, उठा हाथ हथियार।
बाहर दुश्मन हैं खड़े, भीतर कुछ गद्दार।।
8
इतराना किस बात का, पूजा के हम फूल।
पल भर को माथे चढ़ें, मिल जायें फिर धूल।।
9
मनसा वाचा कर्मणा, भाँवर लीं थी सात।
जीने दो सुख चैन से, मत देखो अब जात।।
10
दीन-हीन पर आपको, आ जाता है क्रोध।
महाबली को देखकर, हाथ जोड़ अनुरोध।।
11
कैसा ये संयोग है, कैसा मन का भाव।
सहलाया तुमने वहीं, जहाँ बना था घाव।।
12
मरघट में जलती चिता, देती मौन सलाह।
जलकर कुछ मिलता नहीं, मत कर मानव डाह।।
13
कैसे छू लूँ ये बता, हवा नहीं अनुकूल।
माथे का तू है तिलक, मैं चरणों की धूल।।
14
पीपल जैसा प्रेम है, उगे फाड़ चट्टान।
किसके उर में कब उगे, कौन सका है जान।।
15
आँखें उसको ढूँढ़ती, हो जिसकी दरकार।
कौन भला ढूँढ़े मुझे, मैं कल का अ$खबार।।
16
शील नहीं यदि रूप में, कौन कहे नायाब।
शोभा पाता है कहाँ, बिन पानी तालाब।।
17
कितना भी ऊँचा उठें, रहें सदा शालीन।
आसमान हो हाथ में, पाँवों तले ज़मीन।।
18
संघर्षों का दौर है, होना नहीं हताश।
थाम हथौड़ा ज्ञान का, खुद को तनिक तराश।।
19
साहस की दिल में कमी, मंजि़ल हो कुछ दूर।
तब कहती है लोमड़ी, खट्टे हैं अंगूर।।
20
हुआ बैल-सा आदमी, बदल गई है चाल।
किश्तों की रस्सी गले, डाल हुआ बेहाल।।