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Sunday, November 6, 2011

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…उनके सिर पर ताज!

Posted On November - 6 - 2011

केबीसी के मंच से पांच करोड़ का जैकपॉट जीतने वाले सुशील कुमार आज सिर्फ मोतिहारी के नहीं पूरे देश के हीरो हैं। कोई व्यक्ति मेहनत-लगन व संचित ज्ञान से कुछ समय में करोड़पति भी बन सकता है, यह हमें सुशील ने बताया। अभावग्रस्त जीवन जीने वाले ने एक ही झटके में शोहरत व दौलत हासिल करके नई पीढ़ी के युवाओं को संदेश दिया है कि महज कक्षाएं पास करना ही जरूरी नहीं है, विस्तृत ज्ञान भी जीवन के नये रास्ते बनाता है। जिसके घर टीवी नहीं था अब वह टीवी का हीरो है। जीवन में एक बार जूते पहनने वाला सुशील अपनी प्रतिभा के बल पर हवाई जहाज से मुंबई पहुंचा। तारीफ तो उनके साहस व जोखिम लेने की प्रवृत्ति की भी करनी होगी कि उन्होंने बहुत कुछ गंवाने के खतरे के बावजूद पांच करोड़ के प्रश्न के लिए कौन बनेगा करोड़पति का आखिरी सवाल भी खेला। उसने अभावग्रस्त समाज के कुंठित युवाओं को संदेश दिया कि यदि कुछ करने का जुनून हो तो मुश्किल परिस्थितियों में भी मंजि़ल हासिल की जा सकती है। वास्तव में फर्श से अर्श तक पहुंचने की सुशील की कहानी किसी तिलिस्म से कम नहीं है। समाज में ऐसे उदाहरण विरले ही मिलते हैं जैसा कि मशहूर शायर बशीर बद्र लिखते भी हैं :-
चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से जमीं,
गज़ल के शेर कहां रोज़-रोज़ होते हैं।
मोतिहारी के हनुमानगढ़ी मोहल्ले के सुशील कुमार आज न केवल बिहार के पूर्वी चम्पारण में युवाओं के प्रेरणा-स्रोत बने हुए हैं बल्कि देश के तमाम संघर्षशील युवाओं के लिए मिसाल बने हुए हैं। पुरस्कार जीतने के बाद अपने भाइयों व माता-पिता की मदद करने की बात कहकर उन्होंने दर्शाया है कि आज भी भारत में संयुक्त परिवार में गहरी आस्था रखने वालों की कमी नहीं है। उनकी आगे बढऩे की ललक तारीफ के काबिल है। यद्यपि हर माता-पिता अपने बच्चों की पढ़ाई पर बल देते हैं लेकिन सुशील की सफलता उन छात्र-छात्राओं के लिए सबक है जो इस मार्ग में भटक जाते हैं। उनके लिए इस जीत का सबक यही है कि प्रयास कभी विफल नहीं होता व कर्म एक निरंतर प्रक्रिया है। अच्छे कर्म के परिणाम हमेशा सकारात्मक होते हैं। कर्म से सोयी किस्मत भी जाग जाती है। जैसा कि कवि योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुणÓ लिखते हैं :-
जगत कर्म का क्षेत्र है, कर्म करे सो पाये,
मनुज अगर सोया रहे, किस्मत भी सो जाये।
वास्वत में इस शिखर की सफलता के मूल में सुशील की मुश्किल जि़ंदगी व संघर्ष की मार्मिक कहानी है जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भावुक बना देती है। आखिरकार जि़ंदगी में परिवर्तन लाने का जुनून हर किसी को प्रभावित करता है। कई प्रतियोगी परीक्षाओं में विफलता भी सुशील की उड़ान को नहीं रोक पायी, कुछ आत्मविश्वास कम जरूर हुआ लेकिन फिर जीत का एक नया रास्ता उसने तलाशा। आज अगर लोगों की जुबान पर सुशील का नाम है तो उसकी वजह यह है कि आज वे एक प्रतीक बन चुके हैं। इससे पढऩे वाले बच्चों में नयी उमंग पैदा हुई कि पढ़ाई के बल पर भी करोड़पति बनकर शोहरत व दौलत हासिल की जा सकती है। बच्चों में इससे कक्षा के पाठ्यक्रम के अलावा सामान्य ज्ञान में महारत हासिल करने का जुनून भी पैदा होगा। इस संदेश को गुलशन मदान कुछ इस तरह शब्द देते हैं :-
एक निरंतर सफर पर, है सूरज फिर आज,
जो थककर रुकते नहीं, उनके सिर पर ताज।
सुशील कई तरह से प्रेरक शख्स बने हैं। स्कूल स्तर पर सुशील की गिनती बहुत अच्छे विद्यार्थियों में नहीं होती थी। कालांतर कालेज जाने पर पढ़ाई के प्रति जुनून बढ़ा। इंटरमीडिएट द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण करने के उपरांत वे बीए में फस्र्ट डिवीजन से पास हुए। सुशील की जीत ने यह भी संदेश दिया कि पढ़ाई सिर्फ डिग्री हासिल करने का माध्यम मात्र नहीं है, यह जि़ंदगी बदलने का साधन भी है। लाखों अभिभावकों के मन में भी यह उम्मीद जगी है कि किताबी ज्ञान की बदौलत बच्चा पूरे परिवार की किस्मत बदल सकता है। यानी कि निष्कर्ष यही है कि पढ़ाई का फल मीठा होता है। कुल मिलाकर सुशील की कुछ कर गुजरने की उत्कट अभिलाषा ने उसकी तकदीर बदली। जैसा कि कवि रघुविन्द्र यादव लिखते भी हैं :-
मंजि़ल उसको ही मिली, जिसमें उत्कट चाह,
निकल पड़ा जो ढूंढऩे, पायी उसने राह।
वास्तव में देश में व्याप्त आर्थिक असमानता व गरीबी के चलते लाखों प्रतिभाओं को अपनी प्रतिभा को अभिव्यक्त करने का मौका ही नहीं मिल पाता। लाखों बच्चे परिवार की माली हालत ठीक न होने के कारण स्कूल का मुंह नहीं देख पाते। सुशील जैसे लाखों गुदड़ी के लाल भारत के कोने-कोने में विद्यमान हैं, लेकिन अभिजात्य वर्ग के अंग्रेजीदां स्कूलों के चलते उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का समुचित अवसर नहीं मिल पाता। केबीसी के मंच पर अमिताभ जैसा हिंदी-प्रेमी शख्स सुशील को उसकी भाषा में समझाकर संबल प्रदान करता रहा। अन्यथा ऐसी प्रतिभाओं का मनोबल गिराने की अंग्रेजीदां लोगों की कोशिशें कम नहीं होतीं। आज यदि शिक्षा के अधिकार को असली जामा पहनाया जाए तो अनेक प्रतिभाएं देश के काम आ सकती हैं जो गरीबी के कारण विद्यालयों की दहलीज तक नहीं पहुंच पातीं। ऐसे ही एक बाप के दर्द को शायर उमर बाराबंकी ने शब्द दिये हैं :-
मैंने कोशिश तो बहुत की थी पढ़ाने के लिए,
मुफलिसी ले गई बच्चों को कमाने के लिए।
सही मायनों में बच्चे अभिभावकों की दमित इच्छाओं को साकार करने के दबाव में होते हैं। देशकाल-परिस्थितियों के चलते मां-बाप जो कुछ नहीं बन पाते, उसकी उम्मीद वे उन बच्चों से करते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा बेटा डाक्टर, इंजीनियर व आईएएस बने। अपने आर्थिक संसाधनों की पहुंच के अनुरूप उसे शिक्षा देने का प्रयास भी हम करते हैं। यह भी सत्य है कि हर बच्चा मेधावी नहीं होता, कुछ औसत दर्जे के होते हैं। हमारी भी कोशिश होनी चाहिए कि अत्यधिक दबाव से बच्चे का वजूद बिखर न जाए। यह भी सही है कि हर बच्चा सुशील नहीं हो सकता, लेकिन सुशील जैसा बनने की कोशिश अवश्य कर सकता है। ऐसी कोशिश में लगे एक बाप की अभिलाषा को शायर अली जलीली कुछ इस तरह बयां करते हैं :-
रात आई है बच्चों को पढ़ाने में लगा हूं,
खुद जो न बना इनको बनाने में लगा हूं।

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