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Tuesday, September 8, 2015

कृष्णलता यादव की लघुकथाएं

बेटे का धन

    सविता बुड़बुड़ा रही थी, पता नहीं क्यों मामूली-सा तापमान गिरते ही माँजी, बाऊजी निर्देशों की झड़ी लगा देते हैं-ठंड बहुत है। मुन्ने को संभाल कर रखना। ऊनी कपड़ों की कमी न रहने पाए। देर-सवेर पानी के काम से बचना। महरी रख लेना। ...करना। ...मत करना।
        तभी फोन की घंटी बजी। बासी निर्देशावली सुनकर सविता खीज उठी, माँजी, यह पहला बच्चा तो है नहीं। पिंकी को भी तो मैंने ही पाला था, तब आपने एक शब्द भी नहीं कहा था। इसे भी मैं संभाल लूँगी। आप चिंता न करें।
    चिंता कैसे न करें? बेटे का धन यूँ ही नहीं पला करता।

घेरे अपने-अपने

    पावस-घन के विमान पर सवार होकर पानी आया और लगा बरसने छम...छमाछम...छम। अमीरों के बाल गोपाल कभी जलगीत गाते, कभी कागज़ की कश्तियाँ तैराते। उनकी माताएँ चीले-पकौड़े बनाने की तैयारी कर रही थीं। प्रौढ़ाएँ मल्हार गुनगुना रही थीं।
    गरीब के बच्चे, चू रही झोपड़ी के कोने में दुबके हुए, एक दूसरे से पूछ रहे थे सब कुछ गीला हो गया, माँ रोटी कैसे पकाएगी? बिस्तर कहाँ लगाएगी? बापू को दिहाड़ी मिल पाएगी? कब रुकेगा पानी?

सच से सामना

    तुम कहाँ रहते हो? पूर्व में?
    नहीं तो।
    पश्चिम में ?
    वहाँ भी नहीं।
    उत्तर या दक्षिण में?
    ऊँ...हँू...।
    अब! बक भी दे।
    गरीबी रेखा के नीचे।

-कृष्णलता यादव, गुडग़ाँव

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