विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, September 23, 2023

सोच का अंतर

एक सेठ के पास बहुत पैसा था| समय अनुकूल था जिस भी काम में हाथ डालता था वारे-न्यारे हो जाते थे | पैसा बढ़ने के साथ-साथ सेठ का अहम और दिखावा भी बढ़ने लगा| लिहाजा शानोशौकत पर खूब खर्च करने लगा| जो छोटे व्यापारी उसके साथ मिलकर काम करते थे सबको एक-एक करके बाहर कर दिया| उसे लगने लगा था कि वही अपने धंधे का बेताज बादशाह है| 

लेकिन वक़्त सदा एक जैसा नहीं रहता| उसने एक बड़ा सौदा किया, जिसमें सारी जमा पूँजी लगा दी| किन्तु जिस पार्टी के साथ सौदा किया था उसके हिस्सेदारों में आपसी विवाद हो गया और मामला अदालत में चला गया| नतीजतन सौदा रुक गया और सेठ का पूरा पैसा जो पेशगी दिया था वह फंस गया| अब न सेठ के पास माल था और न पैसा| अपने छोटे हिस्सेदारों को वह पहले ही निकाल चुका था, इसलिए कोई धन देने वाला भी नहीं था| हालत यह हुई कि अपने खर्चे पूरे करने के लिए भी उसे अपनी संपत्तियां बेचनी पड़ रही थी| धीरे-धीरे काम-धंधा सब ठप्प हो गया तो घर बेचने की नौबत आ गई| 

सेठ की पत्नी खानदानी घर की बेटी थी| वह दिखावे पर खर्च करने की बजाये वक़्त-बेवक्त अपने नौकरों, पड़ोसियों और दूसरे ज़रुरतमंदों की मदद कर दिया करती| इसलिए लोग उनके प्रति प्रेम और श्रद्धा रखते थे| 

एक दिन जब सेठ ने सभी नौकरों को इकट्ठा करके बताया कि उनकी माली हालत अब ठीक नहीं है और वे अपना मकान-दुकान बेचकर किसी छोटे शहर में जा रहे हैं| इसलिए सभी अपना हिसाब करलें और कल से कोई काम पर न आये| यह बात आग की तरह शहर में फ़ैल गई | 

जिन लोगों की सेठानी ने वक़्त-बेवक्त मदद की हुई थी, उन तक जब यह बात पहुंची तो वे लोग अपनी जमा पूँजी और गहने लेकर हाजिर हो गए| बोले सेठानी जी, आपने हमारे बुरे वक़्त में मदद की थी, आज आपका वक़्त बुरा है हम भी कुछ सहयोग करना चाहते हैं| सेठानी ने खूब मना किया| लेकिन लोगों ने यह कहकर चुप कर दिया कि आपने दान दिया था, हम उधार दे रहे हैं, जब आपका फंसा हुआ पैसा मिल जाए तो सूद समेत दे देना, लेकिन लेना पड़ेगा| 

सेठानी के पास देखते-देखते लाखों रूपये जमा हो गए| उधर सेठ, जिसे मांगने पर भी शहर में कोई फूटी कौड़ी देने को तैयार नहीं था दूर बैठा यह सब खेल देख रहा था| जब लोग चले गए तो सेठ ने पूछा, यह सब क्या है? मैं तीन महीने से लोगों से पैसा मांग रहा हूँ, मुझे कोई सेठ भी पैसा देने को तैयार नहीं और तुम्हें जबरन वे लोग भी पैसा और गहना दे गए, जो हमारे ही टुकड़ों पर पलते थे|

सेठानी बोली- यह तुम्हारे दिखावे और अहम तथा मेरे दान और स्नेह का अंतर है सेठ जी| आपने दिखावे पर धन बहाया, मैंने लोगों की मदद की| आपने धनी होने का अहम पाला, मैंने इसे कुदरत की कृपा समझकर लोगों के साथ स्नेह बढाया| आपको लगता था लोग आपके टुकड़ों पर पल रहे हैं, मुझे लगता था उन्हीं की बदौलत हमारा व्यापार बढ़ रहा है| आपने जरूरत के समय धन लगाने वाले, अपने छोटे व्यापारी साथियों को भी दुत्कार दिया, मैंने जो रूठे हुए थे, उन्हें भी मनाया है|

सेठ जी, याद रखना जोहड़ का पानी पीने के काम भले ही न आये, पर आग बुझाने के काम तो आ ही जाता है| 

रघुविन्द्र यादव

Friday, March 2, 2018

" भाई का हाथ " - मास्टर रामअवतार शर्मा

मुझे याद ही नहीं आ रहा माँ का चेहरा । हाँ, एक धुंधली सी परछाई अवश्य ही शेष है कि माँ थी जरूर । माँ ममता का दामन छोङ राम को प्यारी हो गई थी । उस समय पिताजी ठेकेदारी किया करते थे, लेकिन इस असामयिक घटना के कारण उनका काम चौपट हो चुका था । सदैव हँसमुख रहने वाले पिताजी अब हताश और निराश रहने लगे थे । सबसे बङी समस्या रोटियों की थी कि घर की रसोई कौन संभाले ? बङे भैया बामुश्किल पन्द्रह वर्ष के थे, मझले भैया दस वर्ष के और मैं बस चार वर्ष का ही था । घर के काम काज से पिताजी तंग आ चुके थे । इसलिए हारकर उन्होंने बङे भैया की शादी का निर्णय ले ही लिया । आज कल की तरह बाल विवाह पर कोई विशेष पाबंदी नहीं थी । आखिर घर को संभालने वाली एक अदद महिला की आवश्यकता भी तो थी ।
पिताजी का अच्छा कारोबार था । वे एक सामाजिक आदमी थे तभी तो लोग उनका आदर किया करते थे । मुझे याद है कि गाँव की कोई भी पंचायत उनके बिना अधूरी समझी जाती थी । वे राजनीति से सदैव दूर ही रहे क्योंकि वे पदलोलुप नहीं थे । उनका इतना दबदबा था गाँव में कि वे चाहते तो सरपंच भी बन सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया, फिर भी उनकी गिनती गाँव के मुख्य मौजिजान में होती थी । वे कठिन से कठिन मसले को भी बङी सूझबूझ से सुलझा लेते थे । तभी तो लोग उनकी कद्र किया करते थे । वे चाहते तो अपना पुनर्विवाह करके अपना घर बसा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया ।
देखते ही देखते बङे भैया के रिश्ते वालों की लम्बी लाइन लग गई । अब भैया का विवाह करना आवश्यकता ही नहीं, मजबूरी बन गया था । अन्ततः एक बीस- इक्कीस वर्ष की तरुणी के साथ भैया की शादी कर दी गई ।
अब घर में खुशियाँ लौट आईं थीं । भाभी ने मुझे इस कदर अपने सीने से लगाया कि मेरी ममता की प्यास तृप्त हो गई और पता नहीं क्यों मैं उन्हें भाभी माँ कहने लगा था । भाभी के प्यार और दुलार ने कभी माँ की याद ही नहीं आने दी । मझले भैया की तो कभी कभार भाभी माँ से तू तू- मैं मैं हो जाया करती थी लेकिन उसमें भी मुझे अपनत्व और ममता की झलक दिखाई देती थी ।
पिताजी ने अपना कारोबार समेटना शुरू कर दिया था और वे ज्यादातर घर पर ही रहते थे । वे अपनी उधारी की उगाही में व्यस्त रहते थे । अब कमाई का कोई न कोई जरिया तो ढूँढना ही था,  अतः पिताजी ने अपनी पूरी पूंजी को एक फार्महाउस खरीदने में लगा दिया । हम सभी अपने पुश्तैनी मकान में ही रहते थे । मैंने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था । गाँव में मिडिल स्कूल था । बङे भैया ने आठवीं कक्षा तक पढाई लिखाई पूरी करके स्कूल जाना छोङ दिया था और वे अपने खेतों को संभालने लग गए थे । लगभग दो साल बाद भाभी माँ ने एक पुत्र को जन्म दिया । बच्चे के नामकरण संस्कार पर बहुत बङे सहभोज का आयोजन किया गया । बच्चे का नाम किशन सहाय रखा गया जिसे हम किशना के नाम से पुकारने लगे थे । घर में धन के साथ साथ खुशियों की बरसात हो रही थी ।
पिताजी दिशा निर्देश का काम किया करते थे । खाद बीज लाने, हर चीज का प्रबंध करने और लेन देन में वे अपने आप को व्यस्त रखते थे । भले ही वे शारीरिक काम बहुत कम करते थे लेकिन निठल्ले भी नहीं रहते थे। भाभी माँ घर के काम में लगी रहती थी । खाना बनाने, सबके कपङे धोने, घर की साफ सफाई करने के साथ साथ किशना की भी देखभाल करती थी । घर के वातावरण और आपसी सहयोग को देखकर लोग दांतों तले उंगली दबाते थे । मझले भैया ने भी आठवीं कक्षा पास करते ही पढाई छोङ दी थी और वे बङे भैया के साथ काम में हाथ बटाने लगे थे । पिताजी ने काम की अधिकता को देखकर अपना पुश्तैनी घर छोङकर फार्महाउस पर ही रहना शुरू कर दिया था । हम सभी मौज मस्ती में अपना समय फार्महाउस में ही रहकर बिताते थे ।
दस वर्ष कब बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला । मैं आठवीं कक्षा पास कर चुका था और मेरी इच्छा आगे पढने की थी । लेकिन पिताजी का मानना था कि पढाई के बाद नौकरी के लिए धक्के खाने से अच्छा है कि अपने फार्महाउस पर आधुनिक खेती करके नौकरी से ज्यादा कमाया जा सकता है । फिर भी मेरे अनुनय विनय करने पर पिताजी मुझे आगे पढाने पर रजा मंद हुए और मैं पास के हाईस्कूल में पढने के लिए जाने लगा । जैसे ही मैंने दसवीं कक्षा पास की तो मझले भैया के साथ-साथ मेरी शादी का भी फरमान जारी कर दिया । यद्यपि मैं आगे पढना चाहता था लेकिन पिताजी के फैसले को चुनौती देना संभव भी नहीं था । इस लिए भलाई आदेश को मान लेने में थी । परिणाम यह हुआ कि एक ही वर्ष की अवधि में मझले भैया और मेरा विवाह कर दिया गया ।
घर में दो और बहुएं आ गई थी । परिवार बढ गया । देखते ही देखते घर में तनाव सा रहने लगा जो धीरे-धीरे बढता ही गया । इस तनाव से पिताजी खिन्न हो गए थे और देखते ही देखते वे दिल की बीमारी के शिकार हो गए । वे मुझे और मझले भैया को छाती से लगा कर रो पङते थे । एक दिन अचानक उन्हें दिल का दौरा पङा और ऐसा पङा कि हस्पताल पहुंचने से पहले ही उनके प्राण पखेरू उङ गये । परिवार मातम से तो उबर गया लेकिन तनाव धीरे-धीरे और भी बढ गया । भाभी माँ का स्वभाव एकदम चिङचिङा हो गया था । वे बात-बात पर हम सबको झिङकने लगी थी । उन्होंने कभी भी अपनी देवरानियों को घर की बहुओं का दर्जा नहीं दिया बल्कि उनको अपनी नौकरानी ही समझा । इस बात की शिकायत हमनें कई बार बङे भैया से की लेकिन वे अधिकांश चुप ही रहते थे और कभी बोलते भी थे तो वे अपनी पत्नी का ही पक्ष लेते थे । मसलन हमारा जीना दूभर हो गया था ।
यह वही भाभी माँ थी जिसने हम पर कभी ममता की बरसात की थी । लेकिन अब तो पारा ही सातवें आसमान पर रहने लगा था । वैसे तो किशना शुरू से ही उद्दण्डी था लेकिन अब तो वह हमें अपना दास समझने लगा था । घर का वातावरण इतना दूषित हो गया था सांस लेना भी कठिन हो गया था । एक दिन मैंने और मझले भैया ने बङे भैया से प्रार्थना की कि अब साझे में काम चलना बहुत मुश्किल है, देखो न भैया भाभी माँ जो कभी माँ को याद नहीं आने देती थी वही आज छठी का दूध याद दिलाने लगी है । भैया कितना अच्छा हो कि अब हम तीनों अपना-अपना कमाएं और अलग-अलग रहकर तनाव रहित जीवन बिताएं । सुनकर भैया गरजे थे कि तुम्हें रोका किसने है अपना-अपना कमाने और खाने के लिए ? रही बात फार्महाउस की सो उसकी मालकिन तो मेरी पत्नी है वह क्या करेगी और क्या नहीं करेगी यह तो उस पर निर्भर करता है, मैं कौन होता हूँ कुछ कहने वाला ? भैया की इस बात ने ही हमारे कलेजे को ही तार-तार कर दिया । हम सोचते रहे कि यह कैसे हो सकता है ? लेकिन दूसरे दिन जब पटवारीजी से फार्महाउस की जमाबंदी की नकल ली तो सब कुछ शीशे की तरह साफ हो चुका था । फिर वकीलों से भी सलाह ली गई तो भी समाधान निकलता नजर नहीं आया क्योंकि वह जमीन दादालाही नहीं थी अपितु भाभी ने खरीदी थी । वकीलों ने साफ-साफ बता दिया था कि खून खराबा तो हो सकता है लेकिन जमीन पर दावा पेश नहीं किया जा सकता ।
इस बात पर मझले भैया को इतना झकझोरा कि वे अपनी पत्नी को लेकर ससुराल चले गए । मैनें देखा कि जैसे भैया निकले थे तो भाभी ने पानी से भरा एक मटका फोङा । यह समाज की रिवाज है कि जब कोई मरता है तो घरवाले पानी से भरा मटका फोङते हैं । इसका मतलब होता है कि यह हमारे लिए मर चुका । भैया जीवित थे फिर भी उन्हें मृत घोषित करना असहनीय था । यद्यपि मुझे बहुत बुरा लगा लेकिन मैं किसी मुकाम पर पहुंचना चाहता था । दूसरे दिन गाँव में पंचायत हुई । मेरे पिताजी के भाभी के साथ अवैध संबंधों का पिटारा खुला और उनकी आबरू की धज्जियाँ उङाई गई । अपने पंद्रह साल के बेटे की शादी पच्चीस साल की लङकी से करने के पीछे छिपे राज उजागर हुए । मेरा रोम-रोम रो उठा कि एक मौजिज पिता जो दुनिया के फैसले करता था, लोगों के हक दिलवाता था, वही अपनी हवस को मिटाने के लिए अपनी ही औलाद को बेघर और बेदखल कैसे कर गया ? और अपने पीछे ऐसी समस्या छोङ गया जिसे समझाना मुश्किल नहीं असंभव ही समझो ।
भाभी माँ का फरमान जारी हो चुका था कि फार्महाउस में रहना है तो मेरी मर्जी के मुताबिक बंधवा मजदूर की तरह रहो वरना छोङकर चले जाओ। मैंने गहराई से विचार किया कि लङाई झगङे से खराबा तो हो सकता है लेकिन समाधान नहीं । मुझे अल्टीमेटम मिल चुका था कि कल तक फार्महाउस को छोङकर स्वयं चले जाओ, वरना धक्के मारकर बाहर निकाल दिए जाओगे । मेरी पत्नी गर्भवती थी इसलिए मैंने काफी गिङगिङाकर प्रार्थना की कि हमें कुछ दिन तो फार्महाउस में रहने दिया जाए लेकिन उन लोगों का दिल नहीं पसीजा । सब कुछ होते हुए भी हमारा वहाँ कुछ नहीं था । केवल पहनने के कपङे थे जो एक अटैची में आ गए थे । हम जैसे ही दरवाजे के बाहर निकले तो वही मटका फोङने की रिवाज दोहराई गई । यानी हम उनके लिए मर चुके थे । रिश्ते समाप्त हो गये थे । हम चलते चलते रो भी रहे थे और बददुआएँ भी दे रहे थे । मेरी पत्नी ने सुझाव दिया कि इस अवस्था में कहीं और जाकर रहने से अच्छा है कि आप मुझे मेरे मायके में छोङ दें और खुद कहीं भी जाकर काम तलाशें । मुझे सुझाव अच्छा लगा और हम अपने गंतव्य की ओर चल पङे । वहाँ पहुँचकर हमनें अपनी रामकहानी सुनाई तो सभी को दुख हुआ । हमें सान्त्वना दी और सहारा भी दिया ।
दूसरे दिन मेरे ससुरजी ने मुझे अपनी जान पहचान वाले आदमी के पास काम करने हेतु शहर भेज दिया । मालिक बङा नेक दिल इंसान था, उसने मुझे अपने बेटे की तरह रखा और मैनें भी पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम किया । इस बीच मुझे एक शुभ सूचना मिली कि भगवान से मुझे पुत्र रत्न के रूप में एक उपहार मिला है । मैं मेहनत और लगन से काम करता रहा । इस बात को कभी जाहिर नहीं होने दिया कि मैं एक बहुत बङे ठेकेदार का बेटा होकर भी बेघर मजदूर हो गया ।
मेरा मालिक मुझसे बहुत प्रसन्न था इसलिए मुझे छोटे मोटे ठेके दिलाने लगा । धीरे धीरे मेरी पहचान बढी और मैनें शहर में छोटा सा घर खरीद लिया । पत्नी और पुत्र के साथ आराम की सांस लेने लगा । कुछ समय बाद मैं मझले भैया से मिलने गया तो मुझे खुशी हुई कि हम दोनों ही भाई उजङकर बहुत जल्दी बस भी गये थे। एक वर्ष बाद मेरे घर कन्या ने जन्म लिया तो मझले भैया भाभीजी को मेरे घर छोङ गये थे । उनका बेटा चंचल और कुशाग्र होने के साथ साथ बातूनी भी था जो चाचू-चाचू कह कर सवाल पर सवाल करता रहता था । एक दिन पूछने लगा- चाचू आप हमारे घर कब आओगे ? तो मैनें उसके जन्मदिन की पार्टी में शामिल होने का वचन दिया । कभी कभार मन में आता था कि बङे भैया को भी किसी प्रोग्राम में बुलाया जाए । लेकिन उन लोगों के द्वारा मटका फोङने की घटना को याद करके घबरा जाता था क्योंकि हम तो उनके लिए मर चुके थे ।
देखते ही देखते बीस साल बीत गए । मझले भैया और मैं तो सपरिवार आते जाते रहते थे, लेकिन बङे भैया को तो हम लगभग भूल ही चुके थे । मझले भैया का बेटा सी.ए. करके कुछ कम्पनियों को देख रहा था और बेटी बैंक में नौकरी करती थी । भाई का खुद का थोक का व्यापार था । मेरा बेटा इंजीनियर बनकर नौकरी कर रहा था और बेटी एम बी बी एस कर रही थी । भगवान की दया मेरे पास गाङी बँगला सब कुछ हो गया था ।
एक दिन सहसा घर की घंटी बजी । दरवाजा खोला तो देखा मेरे सामने बीमार, लाचार और मायूस से बङे भैया खङे थे । इस हाल में देखकर मैं हैरान और परेशान हो गया तो भी अपने आप को संभाल कर बस इतना ही बोल पाया- भैया आप ? फिर मेरा माथा उनके पैरों पर झुक गया । उन्होंने मुझे उठाया और बोले- भाई मैं इस काबिल नहीं हूँ कि मेरे चरण स्पर्श किए जाएँ ! भैया की आँखे डबडबाई हुई थी और लग रहा था कि उनको वक्त से पहले ही बुढापे ने घेर लिया है । बात करते-करते हम ड्राईंग रूम में पहुंच गए । मेरी पत्नी आई और भैया के चरण स्पर्श कर चली गई । भैया फूट-फूट कर रोने लगे तो मैनें उनको सान्त्वना दी कि जो हुआ वह विधि के अधीन था । वे बोले, नहीं ! नहीं !! नहीं !!! यह सब कुछ विधि के नहीं मेरे कारण हुआ है । इस कुकृत्य के पीछे मैं खङा था । इतने में मेरी पत्नी नाश्ता लेकर आ गई । तो मैनें तुरंत विषय को बदला और पूछा- कहिए भाभी माँ कैसी हैं ? किशना कैसा है ? मेरा यह पूछना क्या हुआ कि भैया दहाङे मार कर रो पङे । बङी मुश्किल से उनको यह कहकर शान्त किया कि पहले नाश्ता करते हैं उसके बाद जी भर कर बात करेंगे । भैया शान्त हुए और चाय पीने लगे । देखते ही देखते वे फिर से रो पङे । उन्हें रोता देख मेरा भी मन भर आया । मेरे ऑसू पोंछ कर उन्होंने कहना शुरू किया- आप लोगों के घर छोङने के बाद मेरी आत्मा मुझे धिक्कारने लगी थी । मैंने तुम्हारी भाभी से प्रार्थना की कि भाइयों को वापस बुला लिया जाए और उनका हिस्सा उनको दे दिया जाए । माना फार्महाउस तुम्हारे नाम है लेकिन सब कुछ किया हुआ तो पिताजी का है । लेकिन वह टस से मस नहीं हुई । उसने मुझे पसीजा देख एक नई चाल चली । मौका पाकर वह तहसील गई और पूरे फार्महाउस को किशना के नाम करवा दिया । तुम तो जानते ही हो कि किशना कितना उद्दण्डी था ?
गाँव का स्कूल हाईस्कूल बन गया था । वह दसवीं तक तो गाँव में ही पढा । उसके बाद आगे की पढाई के लिए शहर भेजा गया । वह अपनी माँ का बिगङा हुआ इकलौता बेटा था । वह अनाप शनाप रुपये ले जाता था और उन्हें उङा देता था । पांच साल के अन्तराल में उसने हमें लाखों रुपये का चूना लगाया । इस बीच उसका आना जाना एक लङकी के घर हो गया था जो उसके साथ पढती थी । वह उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गया और विजातीय होने के बावजूद भी उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया । वह उस लङकी को लेकर एक बार घर आया तो हमने कुछ जानना चाहा तो जवाब मिला कि मेरी दोस्त है । हमें समझते देर न लगी कि दाल में कुछ काला जरूर है । तहकीकात की तो पता चला कि वह हमारी जाति की भी नहीं है और परिवार निहायत घटिया है । किशना को बहुत समझाया लेकिन वह कहाँ मानने वाला था । इस बीच हमें खबर मिली कि लङकी की माँ ने रिश्ते के लिए साफ मना कर दिया है, दिल को राहत तो मिली लेकिन क्षणिक । क्योंकि किशना ने उनके घर आना जाना जारी रखा । वह उस लङकी के जाल में पूरी तरह फंस चुका था । लङकी के पास शारीरिक संबंधों के सबूत थे जिनके कारण विवाह करो या जेल जाओ में से एक को चुनना था । एक दिन बताते हैं लङकी की माँ ने कहा कि तुम्हारे साथ शादी की तो मेरी बेटी को नौकरानी जितना भी सम्मान नहीं मिलेगा क्योंकि तुम्हारा परिवार इस शादी को मान्यता ही नहीं देगा और तुम्हारा भी क्या विश्वास कि तुम इसे जीवन भर अपने साथ रख पाओगे ? इसलिए मेरी बेटी को भूल जाओ । मैं जानबूझकर अपनी बेटी का जीवन तबाह नहीं करना चाहती ।
जाल में फँसी हुई शिकार को भला कौन छोङना चाहेगा ? लङकी बार-बार कानून की धाराओं का जिक्र करती रहती थी । आखिर किशना ने हथियार डाल दिए और लङकी की माँ से कहा- यदि मैं तुम्हारी बेटी को मालकिन बना दूँ तो आपको इसकी शादी मेरे साथ करने में ऐतराज नहीं होना चाहिए । सुनो मैं अपना फार्महाउस इसके नाम करवा देता हूँ और कोर्ट में जाकर शादी कर लेते हैं फिर तो कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए । तीर निशाने पर लगा । किशना ने पहले अपनी प्रोपर्टी उसके नाम करवा कर कोर्ट में शादी भी करली । शादी के बाद वह अपनी ससुराल में ही रहने लग गया था । उद्दण्डी आदमी हर जगह उद्दण्डता ही दिखलाता है । उससे सभी कटे कटे रहने लगे थे । वह भी तंग आ चुका था । एक दिन वह हमारे पास आया था और बता कर गया था कि उसके द्वारा लिया गया फैसला गलत था । हमने उसे साहस दिया कि जो हो गया वह तो हो गया ।अब तुम अपनी पत्नी को लेकर फार्महाउस में आ जाओ और आराम से जीवन जीओ । वह वापस चला गया । हो सकता है उसने अपनी पत्नी को समझाया भी हो और वह न मानी हो । बेटा गुस्सेल तो था ही इसलिए उसने वहाँ लङाई झगङा अवश्य ही किया होगा । वह मिलनसार तो था ही नहीं कि किसी के साथ निभा सके ।
एक दिन एक व्यक्ति सूचना देने आया कि किशना ने आत्महत्या करली है। हम रोते बिलखते उसके ससुराल पहुंचे । यद्यपि किशना को मारा गया था लेकिन उसके द्वारा लिखा सुसाइड नोट तो हमारी आशंका पर पानी फिरा रहा था । क्योंकि लिखाई भी उसी की थी और लिखा भी साफ था कि मेरा जीने से मन भर गया है इसलिए मैं स्वयं मर रहा हूँ । मेरी मौत के लिए किसी को भी जिम्मेदार न ठहराया जाए । पुलिस ने पोस्टमार्टम के बाद लाश को हमारे हवाले कर दिया । हम रोकर सिर पीट कर रह गए ।
कुछ दिनों बाद किशना की विधवा ने वह फार्महाउस किसी और को बेच दिया और हम वहाँ से बेदखल कर दिए गए । हम अपने पुश्तैनी मकान में आ गए । लोग तरह-तरह की बातें करते हैं और हम चुपचाप सह जाते हैं । वैसे तो जो कुछ हुआ है वह हमारी करनी का ही फल है । मैं बीमार रहने लग गया हूँ और हालत दिन पर दिन गिरती ही जा रही है और अब तो डाक्टरों ने भी कह दिया है कि मैं चन्द दिनों का ही मेहमान हूँ क्योंकि मुझे ब्लड कैन्सर हो गया है जो लाइलाज है । भाई की गाथा सुनकर मेरा मन भर आया और मैनें कहा- भाई आप चिंता न करें, मैं आपका बङे से बङे हस्पताल में इलाज करवाऊंगा और आप ठीक हो जायेंगे । एक काम करते हैं भाभी माँ को भी यहीं ले आते हैं । आप लोग आराम से रहना । हमें कोई समस्या नहीं होगी । इस पर भैया बोले कि तुम्हारी भाभी में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह आप लोगों से ऑंख मिलाकर बात कर सके । मैं अब जलिल हो चुका हूँ, समाज में मुह दिखाने के काबिल भी नहीं रह गया हूँ । अफसोस तो इस बात का है कि मेरी अर्थी को कंधा देने वाला कोई भी मेरा अपना नहीं होगा । बेटा भी बेमौत मारा गया । भाइयों को मैंने जान बूझ कर बेदखल कर दिया । मुझे अपने किए का पछतावा तो हो रहा है लेकिन उससे भरपाई तो नहीं हो सकती । पिताजी एक बात कहा करते थे कि स्नान तो वास्तव में दो ही होते हैं । पहला स्नान तब जब व्यक्ति दुनिया में आता है और वह स्नान दाइयों के द्वारा करवाया जाता है और दूसरा तब जब व्यक्ति दुनिया से जाता है तो वह स्नान भाइयों के द्वारा करवाया जाता है । ऐसा होने पर ही आत्मा को मुक्ति मिलती है । मैं तुम्हारे मझले भाई के पास भी गया था। जिसने मुझे अपने पास बैठाना भी वाजिब नहीं समझा और मुझे मटका फोङने की बात याद दिलाकर कहा कि जब मैं तुम्हारे लिए मर ही चुका हूँ तो मुझसे बात करने का औचित्य ही क्या है ? अब बताओ तुम्हारी क्या मंशा है ? क्या तुम भी मेरी अर्थी को कंधा देने नहीं आओगे ? मेरी ऑंखें भर आईं और मैं सुबक-सुबक कर रोने लगा । मैंने रोते-रोते कहा- भाई मैं वचन देता हूँ कि समाचार मिलते ही सभी क्रिया कर्म करने के लिए सपरिवार पहुंच जाऊंगा । आपकी आत्मा की मुक्ति के लिए मैं सब कुछ करूँगा । इतना सुनकर भैया रोके से भी नहीं रुके । वे खङे हुए और दरवाजे से बाहर निकल गए । मैं उन्हें डबडबाई आंखों से देखता रहा। मैं मन ही मन रो रहा था और कह रहा था- काश !
 
-मास्टर रामअवतार शर्मा  
गुढ़ा , महेंद्रगढ़ 

Monday, March 7, 2016

लघुकथा : बदलाव की बयार

रमेश जैसे ही पार्टी में पहँुचा देखा मामाजी भी आए हुए थे। रमेश को देखते ही मामाजी के चेहरे पर मुस्कान फैल गई। लगता था वे उसी को ढूंढ रहे थे। उनके चेहरे पर अत्यंत आत्मीयता व प्रेम के भाव व्याप्त हो गए। अपनी आदत के अनुसार रमेश ने मामाजी को नमस्ते कहा और झुक कर पैर छूए। मामाजी ने अत्यंत स्नेह से रमेश की पीठ थपथपाई और घर के लोगों का हालचाल पूछा। वे रमेश को दूर लॉन के एक कोने में ले गए और देर तक वहीं एक मेज़ पर बैठकर खाते पीते रहे और बतियाते भी रहे। थोड़ी देर बाद मामाजी ने कहा, ‘‘रमेश अब तेरी वो पहले वाली मस्त चाल नहीं रही क्या बात है? अपनी सेहत का ध्यान रख और कोई परेशानी है तो हमें बता।’’
रमेश मामाजी के इस अप्रत्याशित व्यवहार से हैरान था। पिछले सप्ताह ही जब एक अन्य फंक्शन में मामाजी से मुलाक़ात हुई थी तो मामाजी ने उसके अभिवादन का ठीक से जवाब भी नहीं दिया था। आज मामाजी के व्यवहार में इतना परिवर्तन क्यों? हो सकता है उस दिन किसी बात को लेकर परेशान हों या स्वास्थ्य ठीक न हो लेकिन उससे पहले भी कभी इतनी आत्मीयता नहीं दिखलाई मामाजी ने प्यार लुटाने की बात तो दूर। असल में जब से मामाजी ने नई कोठी बनवाई है और उसमें शिफ्ट किया है तब से उनका व्यवहार ही बदल गया है। रमेश से ही नहीं किसी भी रिश्तेदार से सीधे मुँह बात नहीं करते। मामाजी की उम्र भी काफी हो गई है लेकिन इस उम्र में भी राग-द्वेष कम नहीं हुआ है और अहंकार भी कम होने का नाम नहीं ले रहा है। लेकिन आज के उनके व्यवहार को देख कर लगता है कि उनका पुराना स्वभाव सचमुच बदल गया है। वे पिछली बातें भुलाकर सबसे प्रेम का नाता प्रगाढ़ करना चाहते हैं। अच्छी बात है। रमेश के मन में भी मामाजी के प्रति कुछ अतिरिक्त श्रद्धा और सम्मान उमड़ने लगा।
रमेश देर तक मामाजी के पास बैठा रहा और गपशप करता रहा। फिर मामाजी ने रमेश से पूछा, ‘‘रमेश आजकल तेरे ऑफिस के क्या हालचाल हैं?’’
‘‘बिल्कुल ठीक हैं मामाजी कोई काम हो तो बताना’’, रमेश ने कहा। 
‘‘ये तो तुझे पता ही है कि हमने एक इंडस्ट्रियल प्लॉट का रजिस्ट्रेशन करवा रखा है जो अभी तक नहीं निकला है और वो पिछले पते पर कराया था। उसका पता बदलवाना है’’, मामाजी सीधे काम की बात पर आ गए।‘‘ 
‘‘ये मैं करवा दूँगा बस आप एक एप्लीकेशन और रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट तथा नये पते की पुष्टि के लिए किसी डॉक्यूमेंट की कॉपी लगा देना’’, रमेश ने मामाजी को आश्वस्त करते हुए कहा। 
मामाजी ने फ़ौरन जेब से एक लिफाफा निकाला जिसमें एप्लीकेशन के साथ ज़रूरी कागज़ात की कॉपियाँ लगी थीं और रमेश की ओर बढ़ा दिया। जैसे ही रमेश ने वो लिफाफा अपनी जेब में रखा मामाजी के चेहरे पर परम संतुष्टि के भाव उभर आए। लगता था जैसे उनका प्रयास सफल हो गया और आत्मीयता का प्रदर्शन भी निष्फल नहीं गया।

-सीताराम गुप्ता

ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-110034


सिंधी कहानी - कहानी और किरदार

मूल कहानी : डॉ. कमला गोकलानी
अनुवाद: देवी नागरानी

गौरव बिस्तर पर करवट बदलता रहा । कोशिश के बावजूद भी उसे नींद नहीं आई। साथ में लेटी सीमा ने फिर से जानने की नाकामियाब कोशिश की ।
‘आखिर क्या हुआ है ? इतने परेशान क्यों हो ?’ पर गौरव ने बिना जवाब दिये दूसरी तरफ़ पलटते हुए परमात्मा को प्रार्थना की, कि मानसी ने उसके मुत्तल्लक फ़ैसला लेते समय अपने पुराने स्वभाव से काम लिया हो ।
उसके सामने क्लास रूम का मंज़र उभर आया । बीस बरसों की नौकरी में उसने ख़ुद को इतना बौना महसूस कभी नहीं किया । बोर्ड ऑफ एड्यूकेशन की ओर से सेन्सर क्लासेज़ की परीक्षा ज़ारी है । आज उसकी ड्यूटी रूम नं. ४ में रही । उस कमरे में ड्यूटी करने से हर एक इनचार्ज कतराता है । आजकल आम तौर पर शागिर्द अड़ियल और ग़ैर जिम्मेदार ही है, पर रूम नं. ४ का राकेश, कहकर तौबा करलो! उसे नक़ल करने से रोकने वाले का, वह घर-बार डांवाडोल कर देता है । इसलिये राकेश के मामले में देखा अनदेखा करना पड़ता है, पर गौरव ईमानदारी और इन्तज़ाम का निबाह करने वाला है । इसलिये घर से निकलते वक़्त भी सीमा ताक़ीद देती रही कि जानबूझ कर विवेक के गुलाम बनकर अनचाही परेशानी न मोल लेना ।
जैसे कि आज बोर्ड से चेकिंग के लिये खास पार्टी आ रही है, इसलिये प्रिन्सिपल ने जान-बूझकर उसकी ड्यूटी रूम नं. ४ में लगाई ।
राकेश बेल बजने के १० मिनट पश्चात् ही क्लास में आता है । आज भी ऐसा ही हुआ, इसलिये गौरव ने यह सोचकर कि और शागिर्द को लिखने में बाधा न हो, उसे बिना तलाशी के परीक्षा लिखने दी और उसने सोचा कि चोर को सुराग़ के साथ पकड़ने का मौका भी मिलेगा ।
अभी पांच मिनट भी नहीं बीते कि चेकिंग पार्टी आ गई। उसके कमरे में पार्टी की कन्ट्रोलर मिस मानसी पहुँची, जो अपने सख़्त मिज़ाज के लिये मशहूर है । वह अक्सर अख़बार और मैग़ज़ीन्स में मानसी के बारे में पढ़ता था कि वह अपनी मेहनत और मज़बूती के बलबूते पर एक आम टीचर से इस अहम ओहदे पर पहुँची है। पर यह जानकारी फ़क़त गौरव को है, कि मानसी के सख़्त दिल होने का ज़िम्मेदार वह ख़ुद है। वह तो हँसती, खिलखिलाती मस्त रहने वाली ईज़ी गोइंग लड़की थी ।
‘टेक इट ईज़ी’ उसका तक़िया क़लाम रहा । इस क़दर कि ज़िन्दगी के अहम संजीदा मोड़ पर भी उसने किसी फ़ैसले को इतनी संजीदगी से नहीं लिया ।
जैसे बाज़ की तेज़ नज़र शिकार पर होती है, वैसे मानसी भी सीधे राकेश के टेबल के पास आ खड़ी हुई । राकेश बेफ़िक्र होकर कागज़ पर से सवालों का जवाब ढूँढ़ रहा था। मानसी ने गुस्से से गौरव से कहा - ‘मास्टर साहब ! इतनी ग़ैर जिम्मेवारी से ड्यूटी दे रहे हो ? आपने इस लड़के की तलाशी ली थी ? तुरन्त इसकी तलाशी ली जाए ।’ और फिर राकेश से मुखातिब होकर सख़्ती से पूछा - ‘तुम्हारा नाम क्या है ?’
राकेश ने शरारती मुस्कान के साथ कहा - ‘५३३४९५’ ।
मानसी ने कहा - ‘अपना ऐडमिशन कार्ड दिखाओ।’
राकेश ने जैसे ही जेब से अपना कार्ड निकाला, तो साथ में एक काग़ज ज़मीन पर गिर पड़ा। जाँच करने पर उस काग़ज पर नक़्ल करने वाले मैटर की अनुक्रम सूची थी कि कौन-सा मैटर कहाँ है। इस बीच गौरव ने राकेश की जेब से जवाबों के कुछ काग़ज निकाले, पर राकेश पर किसी बात का असर ही नहीं हुआ । इत्मीनान से जेब से कंघी निकाली और मानसी की आँखों में देखते हुए बालों को सँवारने लगा । उसे देखकर गौरव कुछ झेंप गए । मानसी को बीस साल पुराने मंज़र याद आए जब गौरव भी ऐसे ही उसकी आँखों में देखकर बाल संवारते हुए कहता था - ‘‘मानू बस ऐसे ही उम्र भर तेरे नयनों में निहारता रहूँ...’’ और मानसी गर्दन झुकाकर शर्माती थी । कुछ पलों में मानसी माज़ी की यादों से बाहर आई, जब गौरव चिल्लाया - ‘‘अरे इसके जुराबों में रामपुरी चाकू !’’
राकेश के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई का केस तैयार करने का फ़ैसला प्रिन्सिपल और तमाम टीम ने लिया, शायद यह ज़रूरी था, पर जैसे ही इस ग़ैर जिम्मेवार कार्य के लिये गौरव को दोषी ठहराते हुए उसके खिलाफ़ रिपोर्ट लिखने की शुरुवात मानसी ने की तो प्रिन्सिपल ने हाथ जोड़कर बिनती की - ‘‘मैडम ! ये ना इन्साफ़ी मत करना । गौरव इस स्कूल का निहायत ही ईमानदार और मेहनती शिक्षक है । मैंने इस साल उसका नाम शिक्षक पुरस्कार के लिये प्रपोज़ किया है । आपकी रिपोर्ट, उसकी की गई सालों की सेवा को दाग़दार बना देगी । दरअसल राकेश बदला लेने के लिये किसी भी हद तक गिर सकता है।’’
‘हूँ’ मानसी ने सख़्त लहज़े में कहा - ‘‘वो लड़का तो मेरे खिलाफ़ भी क़दम उठा सकता है, इसका मतलब यह तो नहीं कि गुनहगार को गुनाह करने की छूट दे दी जाए, उसके खिलाफ़ कोई कार्रवाई ही न की जाए ?’’
इतने में ‘पार्ट A’ पेपर के खत्म होने पर घँटी बजी और गौरव भी फ़ारिग होकर ऑफ़िस पहुँचा और अत्यन्त विनम्रता से कहा - ‘मैडम, आइ एम सॉरी’। दरअसल राकेश के क्लास में देर से आने के कारण मेरे मन में ड्यूटी और परिवार के फर्ज़ के बीच में जंग रही और आप आ गई । सीमा ने चलते-चलते भी कहा था - ‘बच्चों की क़सम, जानबूझकर कोई परेशानी मोल न लेना ।’
हालात देखते हुए मानसी ने फिलहाल काग़ज फाइल में रक्खे । वह एक बार फिर अतीत की ओर लौट गई । इस सीमा ने ही उसे गौरव से जुदा किया था । कुछ दिन तो वह बेहद मायूस रही, पर जल्द ही ख़ुद को संभालकर सारा ध्यान कैरियर पर लगा दिया । सोचती रही - ‘‘आज सीमा के एवज़ वही गौरव के बच्चों की माँ होती तो और क्या चाहती ?’’
उसे याद आया कि वह और गौरव एक ही स्कूल में शिक्षक थे । हमख़याली होने के नाते दोनों का उठना-बैठना साथ होता था । रिसेस के वक़्त, फ्री पीरियड में भी, जब दूसरे शिक्षक गैर ज़रूरी बातों में वक़्त जाया करते थे तब ये दोनों चाय पीते-पीते कभी अदब और कला के बारे में बातें, या बहस करते । किसी नई कहानी या नॉवल पढ़ने के पश्चात् उसका पोस्ट मार्टम करते, उसके किरदारों की कमज़ोरियों और खूबियों पर राय पेश करते । गौरव हमेशा उन नाटकों पर अफ़सोस ज़ाहिर करता जिसमें नायक अपनी नायिका को अज़ाबों की गर्दिश में छोड़कर, बुज़दिली से मैदान छोड़कर भाग जाते। बहस करते मानसी उसे समझाने की कोशिश करती कि सच्चा प्यार करने वाले नायक के लिये, ज़रूर कोई ऐसी मजबूरी रही होगी और वह बेहद लाचारी की हालत में प्यार को क़ुरबान करते हुए उस राह से मुड़ जाता होगा । सच्चा प्यार तो अमर है, कभी ख़त्म होने वाला नहीं । बड़ी बात तो यह है कि शादी और प्यार का इतना गहरा सम्बंध नहीं कि बिना उसके दीवानापन छा जाए । विपरीत इसके शादी के बाद फ़र्ज़ और हक़ों की जंग में ग्रहस्ती की ओढ़ी हुई जिम्मेवारियों की वजह से प्यार का नफ़ीस जज़्बा कुरबान हो जाता है ।
‘पागल है वो नायक जो रात-दिन प्यार-प्यार तो करते हैं, पर वक़्त आने पर पीठ दिखाकर नायिका को सारी ज़िन्दगी रोने के लिये छोड़ जाते हैं...’ गौरव बेहद संजीदगी से कहता और मानसी खिलखिलाकर जवाब देती - ‘‘गौरव ! टेक इट ईज़ी, क्यों सब कुछ सीरियस्ली लेते हो । कहानी के क़िरदार और हक़ीक़ी ज़िन्दगी में बहुत फ़र्क है। लेखक कहानी लिखने के पहले अपने किरदार का अंत तय कर लेता है, जो कभी सुखांत तो कभी दुखांत होता है । पर असली ज़िन्दगी में इन्सान हालात के बस होकर सुलह करते हुए फ़ैसला करता है । ऐसे फ़ैसले अज़ाब देने वाले और दुखदाई भी होते हैं, और न चाहते हुए भी ग़लतफ़हमियाँ पैदा करने वाले भी, और फिर दोनों के बीच में लम्बी खामुशी छा जाती थी ।’’
उनकी गुफ़्तगू अब स्टाफ रूम तक सीमित न रही थी । सुनसान वादियाँ, पहाड़ी-झरने, बहती नदियाँ, पेड़-पौधे उनकी मुलाक़ात के ज़ामिन रहे । ऐतिहासिक इमारतों की सैर करते वो दोनों भी ख़ुद को किसी राजा रानी से कम नहीं समझते । कभी-कभी मानसी गौरव से कहती - ‘अगर तुम्हारे माँ-बाप हमारे मेल-मिलाप को बर्दाश्त न कर पाए तो ?’ गौरव बिना किसी सोच के बुलंद आवाज़ में मर्दानगी दिखाते कहता - ‘मानू दुनिया की कोई भी ताक़त तुझको मुझसे छीन नहीं सकती । मैं जल्द ही पिताजी को मनाकर इस रिश्ते को सामाजिक मान्यता दिलाऊँगा ।’
पर, जब गौरव ने मानसी का ज़िक्र घर में किया तो गोया तूफ़ान उठ खड़ा हो गया । गौरव को यह पता नहीं था कि घर में उसे एक धड़कते दिल वाला इन्सान न मानकर, एक ‘चीज़’ समझकर उसके पिता ने उसका सौदा एक साहूकार की बेटी से कर दिया था और उनसे दहेज की बातचीत के आधार पर अपनी दो बेटियों के रिश्ते भी तय कर दिये थे । गौरव बहुत ही तड़पा, पर उसके पिता ने उसे लिखे हुए परचे दिखाते हुए कहा कि अगर वह इन्कार करेगा तो उसके माँ-बाप दोनों आत्महत्या कर लेंगे । पागलपन की हदों से गुज़रता हुआ गौरव स्कूल से छुट्टी लेकर घर बैठ गया, शायद मानसी से नज़र मिलाने की उसमें क्षमता न थीं । आखिर मानसी खुद उसके पास आई और गौरव ने आज जैसी ही लाचारगी से कहा था - ‘मानू, मेरे मन में प्यार और फर्ज़ के बीच...।’
मानसी ने शांत मन से कहा - ‘टेक इट ईज़ी प्लीज । हम कोई कहानी के क़िर दार नहीं हैं। मेरी चिंता मत करो, मुझमें यह सदमा बर्दाश्त कर पाने का आत्मबल है ।’
आज सीमा का नाम सुनते मानसी थोड़ी देर के लिये डांवाडोल हुई पर फिर सोचा बिचारी सीमा का क्या दोष ? यही कि वह एक धनवान की बेटी है और मानसी की ग़रीब विधवा माँ में दहेज दे पाने की तौफ़ीक़ नहीं थी । ये नहीं तो कोई और सीमा गौरव की जीवन संगिनी बन जाती थी । कोई भी औरत किसी और का हक़ छीनकर कहाँ चैन पा सकेगी? मानसी ने उस स्कूल से अपना तबादला करा लिया था । पर सीमा के बारे में स्टाफ से जानकारी मिली थी कि वह निहायत कोमल हृदय वाली नारी थी । उसे अगर पता होता तो वह ख़ुद ही मानसी के रास्ते से हट जाती । ख़ैर, ज़िन्दगी एक हक़ीकत है कोई कहानी नहीं । यह सोचकर मानसी ने गौरव के ख़िलाफ़ लिखी हुई रिपोर्ट फाड़ दी ।

 
अनुवाद: देवी नागरानी

जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, एक अंग्रेज़ी, 2 भजन-संग्रह, 2 अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय संस्थाओं में सम्मानित , न्यू जर्सी, न्यू यॉर्क, ओस्लो, तमिलनाडू अकादमी व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। महाराष्ट्र साहित्य अकादमी से सम्मानित / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत

संपर्क- 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ फोन:9987928358


 
 लेखक: डॉ. कमला गोकलानी
जन्म: सिंध (पाकिस्तान)

Sunday, December 27, 2015

प्रोफ. शामलाल कौशल की कहानी - कटी पतंग

नेहा अपने मकान की बालकोनी में बैठी विचारों में गम-सुम है| अचानक आसमान से नीचे गिरती पतंग को देखती ही जिसे उठाने के लिए लडके भागते हुए आते हैं| उसे हासिल करने के लिए उनमें आपस में छीना झपटी होती है| देखते ही देखते पतंग फटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाती है और किसी निर्जीव प्राणी की तरह धरती पर बिखर जाती है| दखकर नेहा को बहुत तरस आता है| कुछ पल पहले यही पतंग कितनी शान से आसमान में उड़ रही होगी? ऊँचे आसमान से बातें करते हुए नीचे की चीजों को अपने मुकाबले में कुछ नहीं समझती होगी| लेकिन अब बेचारी वही पतंग धरती पर टुकड़े-टुकड़े हुयी औंधे मुंह पड़ी है| लोगों की चप्पलों व जूतियों की एडियों से रौंदी जा रही है और उस पर कोई भी तरस नहीं खाता| अचानक नेहा को एक झटका-सा लगा| उसका हाल भी कटी पतंग की तरह ही तो है, जिसे हर कोई पकड़ना  चाहता है, उडाना चाहता है और जीवन का आनंद उठाना चाहता है| तो क्या ?.... सोच को पंख लगे तो उड़ चली अतीत की ओर |
नेहा अपने माँ बाप की इस्लौती संतान थी| पिता किसी कंस्ट्रक्शन कम्पनी के ठेकेदार थे| कितनी सड़कें, कितने मकान तथा कितने ही पुल बनाये थे उन्होंने| लाला किशोरी लाल ठेकेदार को कौन नही जानता था? दो नंबर का कारोबार करके उन्होंने बहुत सारा पैसे कमाया था| बड़े-बड़े अफसरों को गाँठ कर बहुत ऊँची पहुँच बना रखी थी उन्होंने| अपनी बेटी नेहा की हर फरमाइश वह कहने से पहले ही पूरी कर देते थे| जब वह बड़ी हुई तो उसे एम.बी.ए. करा कर उसका विवाह ललित नाम के सॉफ्टवेर इंजिनियर से करवा दिया जो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता था| विवाह खूब शानोशौकत से किया गया| जिले भर के आला ऑफिसर शामिल हुए थे इसमें| दहेज़ में लाला जी ने दिल खोलकर नेहा की पसंद की चीजें दी थीं| लेकिन विवाह क एक महीने बाद ही नेहा की अपने पति ललित से अनबन होने लगी| दोनों की पसंद, विचार और आदतें एक दूसरे से बिलकुल विपरीत थीं| बात-बात में एक दूसरे को नीचा दिखाना, ऊँचा बोलना तथा एक दूसरे पर हाथ उठाना उनकी दिनचर्या बन गई थी| रोज-रोज़ की कलह से दोनों का जीवन नर्क बना हुआ था| नेहा बात-बात में अपने पिता के ऊँचे रसूख, हैसियत तथा धन-दौलत की धौंस दिखाती थी| उसने अपने पति के खिलाफ अपने माँ-बाप के मन में इतना जहर भर दिया था कि वे भी अपने दामाद को अपमानित करने का कोई भी मौका नहीं जाने देते थे| एक दिन नेहा के माता-पिता की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई| अब वह बिलकुल अकेली रह गई थी इस दुनिया में| पति, ललित ने उसे तसल्ली और सहारा देने की कोशिश की, परन्तु नेहा ने तो उसकी हर बात को जैसे उल्टा समझने की कसम खा रखी थी|
"अब तो खुश हो रहे होगे? लड्डू फूट रहे होंगे आपके मन में? मेरे माँ-बाप के मरने पर अब तो आपकी छाती से पत्थर हट गया होगा?" - कहकर नेह फूट-फूट कर रोने लगी थी| ललित ने उसे चुप कराने और सांत्वना देने की कोशिश की थी...मगर सब बेकार|
आखिर तंग आकर नेहा अपने माँ-बाप के मकान में आ गई| क्योंकि उसने एम.बी.ए कर रखी थी और उसके पिता का रसूख भी अच्छा था, इसलिए उसने सोचा कि क्यों न समय काटने के लिए वह किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ले| इस बीच उसका पति, ललित उसे मनाकर घर वापस ले जाने के लिए चार-पांच बार आया| लेकिन कुछ तो स्वाभाव से अहंकारी होने के कारण और कुछ माँ-बाप के लाड-प्यार से बिगडैल प्रवृति की होने के कारण अपने पति को दुत्कार दिया तथा अपमानित करके अपने घर से भगा दिया| त्रिया हठ के आगे राजाओं-महाराजाओं की भी नहीं चली तो बेचारे ललित की नेहा के आगे क्या चलती? औरत अगर किसी से प्यार करती ही तो सच्चे मन से करती है और अधिकतम करती है| वैसे ही अगर नफ़रत करती है तो भी सारी हदें पर करके करती है| बेचारा ललित अपनी ही पत्नी की नफरत का पात्र बनाकर नर्क भोग रहा था|
दिन महीनों में महीने सालों में बदल गए| आज पांच वर्ष हो गए हैं, नेहा अपने मायके घर में बैठी है| इस बीच दुखी तथा निराश ललित फिर कभी उसे मनाने नहीं आया| उसके अहंकार ने कभी उसे अपने पति के पास जाने नहीं दिया| उसके दफ्तर में काम करने वाले एक-दो मनचलों ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाने की कोशिश भी की, लेकिन वह जानती थी कि वे ऐसा या तो क्षणिक शारीरिक सुख के लिए कर रहे हैं या फिर उसकी भारी-भरकम धन-सम्पत्ति हडप करने के लिए उसे अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहते हैं| अत: उसने उनकी सबकी तरफ से मुंह फेर लिया| कभी-कभी दफ्तर जाते-आते समय कुछ लोग ललचाई नज़रों से देखकर फिकर कसते तो उसे ऐसे लगता जैसे किसी ने उसके दिल पर तलवार चला दी हो| परन्तु इस सारे घटना चक्र के बावजूद वह लाचार थी|
आज उसके घर की बालकनी में से देखी कटी पतंग वाली घटना ने उसकी सोच को एक नया मोड़ दे दिया था| आज उसे लग रहा था जैसे वह खुद एक कटी पतंग हो जिसे हर कोई लूटना चाहता है और अगर वह किसी एक के हाथ न आई तो उसे पकड़ने वाले उसका हाल भी कटी पतंग जैसा ही कर देंगे और तब वह कहीं की नहीं रहेगी| यह विचार आते ही वह थर-थर कांपने लगी थी|
अहं और दुश्चिंताओं के द्वन्द से उबरी तो वह एक ठोस निर्णय ले चुकी थी| उसके कदम स्वत: ही बढ़ चले थे पति के घर की ओर ...अपने घर की ओर ...दृढ़ता के साथ|
आशा और विश्वास के नये उजाले में चिंताओं के बादल छंट गए थे|

- प्रो. शामलाल कौशल, रोहतक