विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, December 27, 2015

कविता आजकल : एक सार्थक प्रयास

 'कविता आजकल' एक वाद के रूप में 'समकालीन कविता' का पर्याय है| इसकी चर्चा दो अर्थों में होती है| काल सापेक्ष अर्थ में और निकाय विशिष्ट के अर्थ में|  काल-सापेक्ष अर्थ में यह लगभग 1960 ई. के आसपास प्रारंभ होती है और निकाय विशिष्ट के अर्थ में यह कविता अपने भाव, विचार और शिल्प में परम्परा से भिन्न कविता है| यद्यपि यह भी स्पष्ट है कि साहित्य का प्रारम्भ या तो मंत्रों से होता है या छंदों से| एक में विचार की गहनता है तो दूसरे में भावों या संवेदनाओं की भी| यह फर्क भी अब मिटता जा रहा है| अगर कोई फर्क मोटे तौर पर रह गया है तो वह है छंदों या गीतों का लयबद्ध होना| पर समकालीन कविता पूर्णत: छन्दमुक्त और यहाँ तक किसी भी तरह की लयात्मकता से रहित हो सकती है| 
कदाचित् इसीलिए वरिष्ठ गीत-कवि और गज़लकार सतीश गुप्ता ने 'कविता आजकल' में इक्यानवे वर्षीय डॉ राम प्रसाद 'अटल' से लेकर सत्ताइस वर्षीय विजय कुमार पटीर तक की उन कविताओं को चुनकर एक समवेत संकलन तैयार किया है जो विषय वस्तु और शिल्प में समकालीन कविता की शर्तों का पालन करती हों| 
अनेक कविताएँ मात्र इतिवृत्तात्मकता या सपाटबयानी से परिपूर्ण हैं| दरअसल उन कवियों का यह मानना हो सकता है कि केवल छंदों या ले का बंधन तोड़ देने से समकालीन कविता बन जाती है| इसी तरह कुछ गीतकार या छंदकार भी यह समझ लेते हैं कि मात्र सतही तुकबंदी गीत या छंद का निर्वाह मात्र छन्दोबद्ध कविता है | 
वस्तुत: छंद और लययुक्त कविताएँ तभी अच्छी हो सकती हैं जब वे लैय का अतिक्रमण कर उससे आगे निकल जाएँ तथा हमारे चीर-परिचित से शब्द को नई अर्थवत्ता से भर दें और गद्य कविता तभी सार्थक है जब वह अपने अंदर से बहुत कुछ कहने के बाद भी अनकहा छोड़ दे और हमें विचार करने के लिए एक प्लेटफार्म उपलब्ध कराये| उसका प्रभाव मंत्र जैसा हो|
उक्त कसौटी पर संकलित कवियों में से कुछ नाम गिनाये जा सकते हैं| अवध बिहारी श्रीवास्तव की कविता 'ओशो: एक अनुभूति', डॉ.राजेन्द्र पंजियार की 'विकलांग श्रद्धा का दौर', डॉ.मधु प्रधान की 'चुटकी भर चांदनी' आदि| सतीश गुप्ता की छोटी-सी कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
"ओ कविता 
कितना अच्छा होता/यदि तुम बन पाती
बाढ़ में न डूबने वाली नाव 
सूखे की मार में बरसता जल|" 
इस कविता को पढ़ते हुए समकालीन कविता के बड़े कवि शमशेर बहादुर सिंह की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं-
"मेरी बांसुरी है एक नाव की पतवार-
जिसके स्वर गीले हो गये हैं,
छप, छप, छप, मेरा हृदय कर रहा है|"
इसका आशय यह है कि समकालीन कविता का लक्ष्य एक बांसुरी की मधुर धुन की तरह सिर्फ आनंद प्रदान करना नही है वरन वह हमारी चेतना का उत्कर्ष भी करती है| संकलन में अनेक ऐसी कवितायेँ हैं जिनमे चिंतन के विविध आयाम हैं, जो सामाजिक बोध से अनुप्राणित हैं और जिनमे अपने युगीन परिवेश के दबावों एवं तनावों को अच्छी तरह व्यक्त किया गया है| संवेदना की अनुभूति और शिल्प के प्रति नवीनता से भी अनेक कविताएँ रिक्त  नहीं हैं| कुल मिलकर अधिकांश कविताओं में अपने आसपास की जिन्दगी को खुली आँखों से देखने की सामर्थ्य है| 
समर्थ कवियों में जहाँ कात्यायनी प्रभा दीक्षित, अरविन्द अवस्थी, सुरेश उजाला सम्मिलित हैं तो संभावनाशील कवियों में शरद कुमार सक्सेना, शशि जोशी, शुभम शिवा, अपर्णा अवस्थी और विनय कुमार पटीर की कविताएँ कहीं न कहीं मन को छू जाती हैं| कुल मिलाकर सतीश गुप्ता का यह प्रयास सार्थक और सराहनीय है| 

-डॉ.राकेश शुक्ल

एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
वी.एस.एस.डी. कॉलेज, कानपुर

No comments:

Post a Comment