विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Monday, December 21, 2015

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कह मुकरियाँ

जब भी देखूं , आतप हरता ।
मेरे मन में सपने भरता ।
जादूगर है , डाले फंदा ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , चंदा।
2. 
लंबा कद है , चिकनी काया ।
उसने सब पर रौब जमाया ।
पहलवान भी पड़ता ठंडा ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , डंडा ।
3. 
उससे सटकर , मैं सुख पाती ।
नई ताज़गी मन में आती ।
कभी न मिलती उससे झिड़की ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , खिड़की ।
4. 
जैसे चाहे वह तन छूता ।
उसको रोके , किसका बूता ।
करता रहता अपनी मर्जी ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , दर्जी ।
5.
कभी किसी की धाक न माने।
जग की सारी बातें जाने ।
उससे हारे सारे ट्यूटर ।
क्या सखि, साजन ? री , कंप्यूटर ।
6.
यूँ तो हर दिन साथ निभाये।
जाड़े में कुछ ज्यादा भाये ।
कभी कभी बन जाता चीटर ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , हीटर ।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला

बंगला संख्या- 99 ,
रेलवे चिकित्सालय के सामने,
आबू रोड -307026 ( राजस्थान )

No comments:

Post a Comment