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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Friday, March 2, 2018

रमेश शर्मा के फाल्गुनी दोहे

दिखे नहीं वो चाव अब, रहा नहीं उत्साह !
तकते थे मिलकर सभी, जब फागुन की राह !!

सच्चाई के सामने, गई बुराई हार !
यही सिखाता है हमें, होली का त्यौहार !!
होली है नजदीक ही, बीत रहा है फाग !
आया नहीं विदेश से, मेरा मगर सुहाग !!

पिया मिलन की आस में, रात बीतती जाग !
बैठ रहा मुंडेर पर, ले संदेशा  काग !!

छूटे ना अब रंग यह, छिले समूचे गाल !
महबूबा के हाथ का,ऐसा लगा गुलाल !!

सूखी होली खेलिए, मलिए सिर्फ गुलाल !
आगे वाला सामने, कर देगा खुद गाल !!

पिचकारी करने लगी, सतरंगी बौछार !
मीत मुबारक हो तुम्हें, होली का त्यौहार !!

देता है सन्देश यह, होली का त्यौहार !
रंजिश मन से दूर कर, करें सभी से प्यार !!

करें प्रतिज्ञा एक हम, होली पर इस बार !
बूँद नीर की एक भी, करें नहीं बेकार !!

छोड पुरानी रंजिशें, काहे करे मलाल !
इक दूजे के गाल पर, आओ मलें गुलाल !!

सूना-सूना है बडा, होली का त्योहार !
होंठों पे मुस्कान ले, आ भी जाओ यार !!

दिखी नहीं त्यौहार में, शक्लें कुछ इस बार !
थी जिनकी मुस्कान ही, पिचकारी की धार !!
-रमेश शर्मा  
मुंबई   
९८२०५२५९४०

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