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Friday, March 2, 2018

" भाई का हाथ " - मास्टर रामअवतार शर्मा

मुझे याद ही नहीं आ रहा माँ का चेहरा । हाँ, एक धुंधली सी परछाई अवश्य ही शेष है कि माँ थी जरूर । माँ ममता का दामन छोङ राम को प्यारी हो गई थी । उस समय पिताजी ठेकेदारी किया करते थे, लेकिन इस असामयिक घटना के कारण उनका काम चौपट हो चुका था । सदैव हँसमुख रहने वाले पिताजी अब हताश और निराश रहने लगे थे । सबसे बङी समस्या रोटियों की थी कि घर की रसोई कौन संभाले ? बङे भैया बामुश्किल पन्द्रह वर्ष के थे, मझले भैया दस वर्ष के और मैं बस चार वर्ष का ही था । घर के काम काज से पिताजी तंग आ चुके थे । इसलिए हारकर उन्होंने बङे भैया की शादी का निर्णय ले ही लिया । आज कल की तरह बाल विवाह पर कोई विशेष पाबंदी नहीं थी । आखिर घर को संभालने वाली एक अदद महिला की आवश्यकता भी तो थी ।
पिताजी का अच्छा कारोबार था । वे एक सामाजिक आदमी थे तभी तो लोग उनका आदर किया करते थे । मुझे याद है कि गाँव की कोई भी पंचायत उनके बिना अधूरी समझी जाती थी । वे राजनीति से सदैव दूर ही रहे क्योंकि वे पदलोलुप नहीं थे । उनका इतना दबदबा था गाँव में कि वे चाहते तो सरपंच भी बन सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया, फिर भी उनकी गिनती गाँव के मुख्य मौजिजान में होती थी । वे कठिन से कठिन मसले को भी बङी सूझबूझ से सुलझा लेते थे । तभी तो लोग उनकी कद्र किया करते थे । वे चाहते तो अपना पुनर्विवाह करके अपना घर बसा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया ।
देखते ही देखते बङे भैया के रिश्ते वालों की लम्बी लाइन लग गई । अब भैया का विवाह करना आवश्यकता ही नहीं, मजबूरी बन गया था । अन्ततः एक बीस- इक्कीस वर्ष की तरुणी के साथ भैया की शादी कर दी गई ।
अब घर में खुशियाँ लौट आईं थीं । भाभी ने मुझे इस कदर अपने सीने से लगाया कि मेरी ममता की प्यास तृप्त हो गई और पता नहीं क्यों मैं उन्हें भाभी माँ कहने लगा था । भाभी के प्यार और दुलार ने कभी माँ की याद ही नहीं आने दी । मझले भैया की तो कभी कभार भाभी माँ से तू तू- मैं मैं हो जाया करती थी लेकिन उसमें भी मुझे अपनत्व और ममता की झलक दिखाई देती थी ।
पिताजी ने अपना कारोबार समेटना शुरू कर दिया था और वे ज्यादातर घर पर ही रहते थे । वे अपनी उधारी की उगाही में व्यस्त रहते थे । अब कमाई का कोई न कोई जरिया तो ढूँढना ही था,  अतः पिताजी ने अपनी पूरी पूंजी को एक फार्महाउस खरीदने में लगा दिया । हम सभी अपने पुश्तैनी मकान में ही रहते थे । मैंने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था । गाँव में मिडिल स्कूल था । बङे भैया ने आठवीं कक्षा तक पढाई लिखाई पूरी करके स्कूल जाना छोङ दिया था और वे अपने खेतों को संभालने लग गए थे । लगभग दो साल बाद भाभी माँ ने एक पुत्र को जन्म दिया । बच्चे के नामकरण संस्कार पर बहुत बङे सहभोज का आयोजन किया गया । बच्चे का नाम किशन सहाय रखा गया जिसे हम किशना के नाम से पुकारने लगे थे । घर में धन के साथ साथ खुशियों की बरसात हो रही थी ।
पिताजी दिशा निर्देश का काम किया करते थे । खाद बीज लाने, हर चीज का प्रबंध करने और लेन देन में वे अपने आप को व्यस्त रखते थे । भले ही वे शारीरिक काम बहुत कम करते थे लेकिन निठल्ले भी नहीं रहते थे। भाभी माँ घर के काम में लगी रहती थी । खाना बनाने, सबके कपङे धोने, घर की साफ सफाई करने के साथ साथ किशना की भी देखभाल करती थी । घर के वातावरण और आपसी सहयोग को देखकर लोग दांतों तले उंगली दबाते थे । मझले भैया ने भी आठवीं कक्षा पास करते ही पढाई छोङ दी थी और वे बङे भैया के साथ काम में हाथ बटाने लगे थे । पिताजी ने काम की अधिकता को देखकर अपना पुश्तैनी घर छोङकर फार्महाउस पर ही रहना शुरू कर दिया था । हम सभी मौज मस्ती में अपना समय फार्महाउस में ही रहकर बिताते थे ।
दस वर्ष कब बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला । मैं आठवीं कक्षा पास कर चुका था और मेरी इच्छा आगे पढने की थी । लेकिन पिताजी का मानना था कि पढाई के बाद नौकरी के लिए धक्के खाने से अच्छा है कि अपने फार्महाउस पर आधुनिक खेती करके नौकरी से ज्यादा कमाया जा सकता है । फिर भी मेरे अनुनय विनय करने पर पिताजी मुझे आगे पढाने पर रजा मंद हुए और मैं पास के हाईस्कूल में पढने के लिए जाने लगा । जैसे ही मैंने दसवीं कक्षा पास की तो मझले भैया के साथ-साथ मेरी शादी का भी फरमान जारी कर दिया । यद्यपि मैं आगे पढना चाहता था लेकिन पिताजी के फैसले को चुनौती देना संभव भी नहीं था । इस लिए भलाई आदेश को मान लेने में थी । परिणाम यह हुआ कि एक ही वर्ष की अवधि में मझले भैया और मेरा विवाह कर दिया गया ।
घर में दो और बहुएं आ गई थी । परिवार बढ गया । देखते ही देखते घर में तनाव सा रहने लगा जो धीरे-धीरे बढता ही गया । इस तनाव से पिताजी खिन्न हो गए थे और देखते ही देखते वे दिल की बीमारी के शिकार हो गए । वे मुझे और मझले भैया को छाती से लगा कर रो पङते थे । एक दिन अचानक उन्हें दिल का दौरा पङा और ऐसा पङा कि हस्पताल पहुंचने से पहले ही उनके प्राण पखेरू उङ गये । परिवार मातम से तो उबर गया लेकिन तनाव धीरे-धीरे और भी बढ गया । भाभी माँ का स्वभाव एकदम चिङचिङा हो गया था । वे बात-बात पर हम सबको झिङकने लगी थी । उन्होंने कभी भी अपनी देवरानियों को घर की बहुओं का दर्जा नहीं दिया बल्कि उनको अपनी नौकरानी ही समझा । इस बात की शिकायत हमनें कई बार बङे भैया से की लेकिन वे अधिकांश चुप ही रहते थे और कभी बोलते भी थे तो वे अपनी पत्नी का ही पक्ष लेते थे । मसलन हमारा जीना दूभर हो गया था ।
यह वही भाभी माँ थी जिसने हम पर कभी ममता की बरसात की थी । लेकिन अब तो पारा ही सातवें आसमान पर रहने लगा था । वैसे तो किशना शुरू से ही उद्दण्डी था लेकिन अब तो वह हमें अपना दास समझने लगा था । घर का वातावरण इतना दूषित हो गया था सांस लेना भी कठिन हो गया था । एक दिन मैंने और मझले भैया ने बङे भैया से प्रार्थना की कि अब साझे में काम चलना बहुत मुश्किल है, देखो न भैया भाभी माँ जो कभी माँ को याद नहीं आने देती थी वही आज छठी का दूध याद दिलाने लगी है । भैया कितना अच्छा हो कि अब हम तीनों अपना-अपना कमाएं और अलग-अलग रहकर तनाव रहित जीवन बिताएं । सुनकर भैया गरजे थे कि तुम्हें रोका किसने है अपना-अपना कमाने और खाने के लिए ? रही बात फार्महाउस की सो उसकी मालकिन तो मेरी पत्नी है वह क्या करेगी और क्या नहीं करेगी यह तो उस पर निर्भर करता है, मैं कौन होता हूँ कुछ कहने वाला ? भैया की इस बात ने ही हमारे कलेजे को ही तार-तार कर दिया । हम सोचते रहे कि यह कैसे हो सकता है ? लेकिन दूसरे दिन जब पटवारीजी से फार्महाउस की जमाबंदी की नकल ली तो सब कुछ शीशे की तरह साफ हो चुका था । फिर वकीलों से भी सलाह ली गई तो भी समाधान निकलता नजर नहीं आया क्योंकि वह जमीन दादालाही नहीं थी अपितु भाभी ने खरीदी थी । वकीलों ने साफ-साफ बता दिया था कि खून खराबा तो हो सकता है लेकिन जमीन पर दावा पेश नहीं किया जा सकता ।
इस बात पर मझले भैया को इतना झकझोरा कि वे अपनी पत्नी को लेकर ससुराल चले गए । मैनें देखा कि जैसे भैया निकले थे तो भाभी ने पानी से भरा एक मटका फोङा । यह समाज की रिवाज है कि जब कोई मरता है तो घरवाले पानी से भरा मटका फोङते हैं । इसका मतलब होता है कि यह हमारे लिए मर चुका । भैया जीवित थे फिर भी उन्हें मृत घोषित करना असहनीय था । यद्यपि मुझे बहुत बुरा लगा लेकिन मैं किसी मुकाम पर पहुंचना चाहता था । दूसरे दिन गाँव में पंचायत हुई । मेरे पिताजी के भाभी के साथ अवैध संबंधों का पिटारा खुला और उनकी आबरू की धज्जियाँ उङाई गई । अपने पंद्रह साल के बेटे की शादी पच्चीस साल की लङकी से करने के पीछे छिपे राज उजागर हुए । मेरा रोम-रोम रो उठा कि एक मौजिज पिता जो दुनिया के फैसले करता था, लोगों के हक दिलवाता था, वही अपनी हवस को मिटाने के लिए अपनी ही औलाद को बेघर और बेदखल कैसे कर गया ? और अपने पीछे ऐसी समस्या छोङ गया जिसे समझाना मुश्किल नहीं असंभव ही समझो ।
भाभी माँ का फरमान जारी हो चुका था कि फार्महाउस में रहना है तो मेरी मर्जी के मुताबिक बंधवा मजदूर की तरह रहो वरना छोङकर चले जाओ। मैंने गहराई से विचार किया कि लङाई झगङे से खराबा तो हो सकता है लेकिन समाधान नहीं । मुझे अल्टीमेटम मिल चुका था कि कल तक फार्महाउस को छोङकर स्वयं चले जाओ, वरना धक्के मारकर बाहर निकाल दिए जाओगे । मेरी पत्नी गर्भवती थी इसलिए मैंने काफी गिङगिङाकर प्रार्थना की कि हमें कुछ दिन तो फार्महाउस में रहने दिया जाए लेकिन उन लोगों का दिल नहीं पसीजा । सब कुछ होते हुए भी हमारा वहाँ कुछ नहीं था । केवल पहनने के कपङे थे जो एक अटैची में आ गए थे । हम जैसे ही दरवाजे के बाहर निकले तो वही मटका फोङने की रिवाज दोहराई गई । यानी हम उनके लिए मर चुके थे । रिश्ते समाप्त हो गये थे । हम चलते चलते रो भी रहे थे और बददुआएँ भी दे रहे थे । मेरी पत्नी ने सुझाव दिया कि इस अवस्था में कहीं और जाकर रहने से अच्छा है कि आप मुझे मेरे मायके में छोङ दें और खुद कहीं भी जाकर काम तलाशें । मुझे सुझाव अच्छा लगा और हम अपने गंतव्य की ओर चल पङे । वहाँ पहुँचकर हमनें अपनी रामकहानी सुनाई तो सभी को दुख हुआ । हमें सान्त्वना दी और सहारा भी दिया ।
दूसरे दिन मेरे ससुरजी ने मुझे अपनी जान पहचान वाले आदमी के पास काम करने हेतु शहर भेज दिया । मालिक बङा नेक दिल इंसान था, उसने मुझे अपने बेटे की तरह रखा और मैनें भी पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम किया । इस बीच मुझे एक शुभ सूचना मिली कि भगवान से मुझे पुत्र रत्न के रूप में एक उपहार मिला है । मैं मेहनत और लगन से काम करता रहा । इस बात को कभी जाहिर नहीं होने दिया कि मैं एक बहुत बङे ठेकेदार का बेटा होकर भी बेघर मजदूर हो गया ।
मेरा मालिक मुझसे बहुत प्रसन्न था इसलिए मुझे छोटे मोटे ठेके दिलाने लगा । धीरे धीरे मेरी पहचान बढी और मैनें शहर में छोटा सा घर खरीद लिया । पत्नी और पुत्र के साथ आराम की सांस लेने लगा । कुछ समय बाद मैं मझले भैया से मिलने गया तो मुझे खुशी हुई कि हम दोनों ही भाई उजङकर बहुत जल्दी बस भी गये थे। एक वर्ष बाद मेरे घर कन्या ने जन्म लिया तो मझले भैया भाभीजी को मेरे घर छोङ गये थे । उनका बेटा चंचल और कुशाग्र होने के साथ साथ बातूनी भी था जो चाचू-चाचू कह कर सवाल पर सवाल करता रहता था । एक दिन पूछने लगा- चाचू आप हमारे घर कब आओगे ? तो मैनें उसके जन्मदिन की पार्टी में शामिल होने का वचन दिया । कभी कभार मन में आता था कि बङे भैया को भी किसी प्रोग्राम में बुलाया जाए । लेकिन उन लोगों के द्वारा मटका फोङने की घटना को याद करके घबरा जाता था क्योंकि हम तो उनके लिए मर चुके थे ।
देखते ही देखते बीस साल बीत गए । मझले भैया और मैं तो सपरिवार आते जाते रहते थे, लेकिन बङे भैया को तो हम लगभग भूल ही चुके थे । मझले भैया का बेटा सी.ए. करके कुछ कम्पनियों को देख रहा था और बेटी बैंक में नौकरी करती थी । भाई का खुद का थोक का व्यापार था । मेरा बेटा इंजीनियर बनकर नौकरी कर रहा था और बेटी एम बी बी एस कर रही थी । भगवान की दया मेरे पास गाङी बँगला सब कुछ हो गया था ।
एक दिन सहसा घर की घंटी बजी । दरवाजा खोला तो देखा मेरे सामने बीमार, लाचार और मायूस से बङे भैया खङे थे । इस हाल में देखकर मैं हैरान और परेशान हो गया तो भी अपने आप को संभाल कर बस इतना ही बोल पाया- भैया आप ? फिर मेरा माथा उनके पैरों पर झुक गया । उन्होंने मुझे उठाया और बोले- भाई मैं इस काबिल नहीं हूँ कि मेरे चरण स्पर्श किए जाएँ ! भैया की आँखे डबडबाई हुई थी और लग रहा था कि उनको वक्त से पहले ही बुढापे ने घेर लिया है । बात करते-करते हम ड्राईंग रूम में पहुंच गए । मेरी पत्नी आई और भैया के चरण स्पर्श कर चली गई । भैया फूट-फूट कर रोने लगे तो मैनें उनको सान्त्वना दी कि जो हुआ वह विधि के अधीन था । वे बोले, नहीं ! नहीं !! नहीं !!! यह सब कुछ विधि के नहीं मेरे कारण हुआ है । इस कुकृत्य के पीछे मैं खङा था । इतने में मेरी पत्नी नाश्ता लेकर आ गई । तो मैनें तुरंत विषय को बदला और पूछा- कहिए भाभी माँ कैसी हैं ? किशना कैसा है ? मेरा यह पूछना क्या हुआ कि भैया दहाङे मार कर रो पङे । बङी मुश्किल से उनको यह कहकर शान्त किया कि पहले नाश्ता करते हैं उसके बाद जी भर कर बात करेंगे । भैया शान्त हुए और चाय पीने लगे । देखते ही देखते वे फिर से रो पङे । उन्हें रोता देख मेरा भी मन भर आया । मेरे ऑसू पोंछ कर उन्होंने कहना शुरू किया- आप लोगों के घर छोङने के बाद मेरी आत्मा मुझे धिक्कारने लगी थी । मैंने तुम्हारी भाभी से प्रार्थना की कि भाइयों को वापस बुला लिया जाए और उनका हिस्सा उनको दे दिया जाए । माना फार्महाउस तुम्हारे नाम है लेकिन सब कुछ किया हुआ तो पिताजी का है । लेकिन वह टस से मस नहीं हुई । उसने मुझे पसीजा देख एक नई चाल चली । मौका पाकर वह तहसील गई और पूरे फार्महाउस को किशना के नाम करवा दिया । तुम तो जानते ही हो कि किशना कितना उद्दण्डी था ?
गाँव का स्कूल हाईस्कूल बन गया था । वह दसवीं तक तो गाँव में ही पढा । उसके बाद आगे की पढाई के लिए शहर भेजा गया । वह अपनी माँ का बिगङा हुआ इकलौता बेटा था । वह अनाप शनाप रुपये ले जाता था और उन्हें उङा देता था । पांच साल के अन्तराल में उसने हमें लाखों रुपये का चूना लगाया । इस बीच उसका आना जाना एक लङकी के घर हो गया था जो उसके साथ पढती थी । वह उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गया और विजातीय होने के बावजूद भी उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया । वह उस लङकी को लेकर एक बार घर आया तो हमने कुछ जानना चाहा तो जवाब मिला कि मेरी दोस्त है । हमें समझते देर न लगी कि दाल में कुछ काला जरूर है । तहकीकात की तो पता चला कि वह हमारी जाति की भी नहीं है और परिवार निहायत घटिया है । किशना को बहुत समझाया लेकिन वह कहाँ मानने वाला था । इस बीच हमें खबर मिली कि लङकी की माँ ने रिश्ते के लिए साफ मना कर दिया है, दिल को राहत तो मिली लेकिन क्षणिक । क्योंकि किशना ने उनके घर आना जाना जारी रखा । वह उस लङकी के जाल में पूरी तरह फंस चुका था । लङकी के पास शारीरिक संबंधों के सबूत थे जिनके कारण विवाह करो या जेल जाओ में से एक को चुनना था । एक दिन बताते हैं लङकी की माँ ने कहा कि तुम्हारे साथ शादी की तो मेरी बेटी को नौकरानी जितना भी सम्मान नहीं मिलेगा क्योंकि तुम्हारा परिवार इस शादी को मान्यता ही नहीं देगा और तुम्हारा भी क्या विश्वास कि तुम इसे जीवन भर अपने साथ रख पाओगे ? इसलिए मेरी बेटी को भूल जाओ । मैं जानबूझकर अपनी बेटी का जीवन तबाह नहीं करना चाहती ।
जाल में फँसी हुई शिकार को भला कौन छोङना चाहेगा ? लङकी बार-बार कानून की धाराओं का जिक्र करती रहती थी । आखिर किशना ने हथियार डाल दिए और लङकी की माँ से कहा- यदि मैं तुम्हारी बेटी को मालकिन बना दूँ तो आपको इसकी शादी मेरे साथ करने में ऐतराज नहीं होना चाहिए । सुनो मैं अपना फार्महाउस इसके नाम करवा देता हूँ और कोर्ट में जाकर शादी कर लेते हैं फिर तो कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए । तीर निशाने पर लगा । किशना ने पहले अपनी प्रोपर्टी उसके नाम करवा कर कोर्ट में शादी भी करली । शादी के बाद वह अपनी ससुराल में ही रहने लग गया था । उद्दण्डी आदमी हर जगह उद्दण्डता ही दिखलाता है । उससे सभी कटे कटे रहने लगे थे । वह भी तंग आ चुका था । एक दिन वह हमारे पास आया था और बता कर गया था कि उसके द्वारा लिया गया फैसला गलत था । हमने उसे साहस दिया कि जो हो गया वह तो हो गया ।अब तुम अपनी पत्नी को लेकर फार्महाउस में आ जाओ और आराम से जीवन जीओ । वह वापस चला गया । हो सकता है उसने अपनी पत्नी को समझाया भी हो और वह न मानी हो । बेटा गुस्सेल तो था ही इसलिए उसने वहाँ लङाई झगङा अवश्य ही किया होगा । वह मिलनसार तो था ही नहीं कि किसी के साथ निभा सके ।
एक दिन एक व्यक्ति सूचना देने आया कि किशना ने आत्महत्या करली है। हम रोते बिलखते उसके ससुराल पहुंचे । यद्यपि किशना को मारा गया था लेकिन उसके द्वारा लिखा सुसाइड नोट तो हमारी आशंका पर पानी फिरा रहा था । क्योंकि लिखाई भी उसी की थी और लिखा भी साफ था कि मेरा जीने से मन भर गया है इसलिए मैं स्वयं मर रहा हूँ । मेरी मौत के लिए किसी को भी जिम्मेदार न ठहराया जाए । पुलिस ने पोस्टमार्टम के बाद लाश को हमारे हवाले कर दिया । हम रोकर सिर पीट कर रह गए ।
कुछ दिनों बाद किशना की विधवा ने वह फार्महाउस किसी और को बेच दिया और हम वहाँ से बेदखल कर दिए गए । हम अपने पुश्तैनी मकान में आ गए । लोग तरह-तरह की बातें करते हैं और हम चुपचाप सह जाते हैं । वैसे तो जो कुछ हुआ है वह हमारी करनी का ही फल है । मैं बीमार रहने लग गया हूँ और हालत दिन पर दिन गिरती ही जा रही है और अब तो डाक्टरों ने भी कह दिया है कि मैं चन्द दिनों का ही मेहमान हूँ क्योंकि मुझे ब्लड कैन्सर हो गया है जो लाइलाज है । भाई की गाथा सुनकर मेरा मन भर आया और मैनें कहा- भाई आप चिंता न करें, मैं आपका बङे से बङे हस्पताल में इलाज करवाऊंगा और आप ठीक हो जायेंगे । एक काम करते हैं भाभी माँ को भी यहीं ले आते हैं । आप लोग आराम से रहना । हमें कोई समस्या नहीं होगी । इस पर भैया बोले कि तुम्हारी भाभी में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह आप लोगों से ऑंख मिलाकर बात कर सके । मैं अब जलिल हो चुका हूँ, समाज में मुह दिखाने के काबिल भी नहीं रह गया हूँ । अफसोस तो इस बात का है कि मेरी अर्थी को कंधा देने वाला कोई भी मेरा अपना नहीं होगा । बेटा भी बेमौत मारा गया । भाइयों को मैंने जान बूझ कर बेदखल कर दिया । मुझे अपने किए का पछतावा तो हो रहा है लेकिन उससे भरपाई तो नहीं हो सकती । पिताजी एक बात कहा करते थे कि स्नान तो वास्तव में दो ही होते हैं । पहला स्नान तब जब व्यक्ति दुनिया में आता है और वह स्नान दाइयों के द्वारा करवाया जाता है और दूसरा तब जब व्यक्ति दुनिया से जाता है तो वह स्नान भाइयों के द्वारा करवाया जाता है । ऐसा होने पर ही आत्मा को मुक्ति मिलती है । मैं तुम्हारे मझले भाई के पास भी गया था। जिसने मुझे अपने पास बैठाना भी वाजिब नहीं समझा और मुझे मटका फोङने की बात याद दिलाकर कहा कि जब मैं तुम्हारे लिए मर ही चुका हूँ तो मुझसे बात करने का औचित्य ही क्या है ? अब बताओ तुम्हारी क्या मंशा है ? क्या तुम भी मेरी अर्थी को कंधा देने नहीं आओगे ? मेरी ऑंखें भर आईं और मैं सुबक-सुबक कर रोने लगा । मैंने रोते-रोते कहा- भाई मैं वचन देता हूँ कि समाचार मिलते ही सभी क्रिया कर्म करने के लिए सपरिवार पहुंच जाऊंगा । आपकी आत्मा की मुक्ति के लिए मैं सब कुछ करूँगा । इतना सुनकर भैया रोके से भी नहीं रुके । वे खङे हुए और दरवाजे से बाहर निकल गए । मैं उन्हें डबडबाई आंखों से देखता रहा। मैं मन ही मन रो रहा था और कह रहा था- काश !
 
-मास्टर रामअवतार शर्मा  
गुढ़ा , महेंद्रगढ़ 

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