विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Saturday, October 17, 2015

अरुन शर्मा 'अनन्त' के दोहे

आजादी है नाम की, नाम मात्र गणतंत्र ।
व्यापित केवल देश में, पाप लोभ षड़यंत्र ।।

हुआ मान सम्मान का, बंधन भी कमजोर ।
बढ़ता जाता है मनुज, स्वयं पतन की ओर ।।

मानव मस्ती मौज औ, मय की मद में चूर ।
अपने ही करने लगे, जख्मों को नासूर ।।

नारी को नर से मिले, प्रेम मान सम्मान ।
मन से मेरी कामना, पूर्ण करें भगवान ।।

मन से सच्चा प्रेम दें, समझें एक समान ।
बालक हो या बालिका, दोनों में भगवान ।।

उत्तम शिक्षा सभ्यता, भले बुरे का ज्ञान ।
जीवन की कठिनाइयाँ, करते हैं आसान ।।

नित सिखलायें नैन को, मर्यादा सम्मान ।
हितकारी होते नहीं, क्रोध लोभ अभिमान ।।

नव युग पीढ़ी प्रेम का, करने लगी हिसाब ।
हाँ ना के इस खेल में, लुटता गया गुलाब ।।

जीवन भर मजबूरियां, मेरे रहीं करीब ।
सिल ना पाया मैं कभी, अपना फटा नसीब ।।

तप तप के जब धूप में, धरा हुई बेचैन ।
तब मेघों ने वस्तुतः, खोले अपने नैन ।।

भर भर गगरी प्रेम से, मेघ बुझाता प्यास ।
त्रिषित धरा का अंततः, टूटा है उपवास ।।

अनहितकारी न्यूनता, सूखे जंगल खेत ।
खड़ी अधिकता भी लिए, संकट के संकेत ।।

सरस सहज सुन्दर सरल, मधुबन सी मुस्कान ।
इस पृथ्वी पर एक तुम, सुन्दरता की खान ।।

गहरे सागर से अधिक, सुन्दर निश्चल नैन ।
जहाँ डूबने से मिले, व्याकुल मन को चैन ।।

उलझन मुश्किल वेदना, से निर्मित यह खेल ।
खुशियाँ बंधक प्रेम में, अरमानों को जेल ।।

कठिन वेदना की घड़ी, या दुख की बरसात ।
अम्बर के जैसे अडिग, खड़े सदा हैं तात ।।

सरोकार भगवान से, रखते जो दिन रैन ।
सुखमय जीवन सर्वदा, मिलता है सुख चैन ।।

सदाचार व्यवहार का, समय गया है बीत ।
दौलत जिसकी जेब में, उसकी होती जीत ।।

-अरुन शर्मा 'अनन्त'

09899797447

No comments:

Post a Comment