सदाचार की चोटियाँ, चढ़ा नहीं अभिमान।
झुककर चलता जो पथिक, चढ़ जाता चट्टान।
मन ही मन मुस्का रहे, नीर भरे तालाब।
जीवन लेकर आ रहा, लहरों का सैलाब।।
कपी रात भर झोंपड़ी, गर्म रहे प्रासाद।
ठिठुर ठिठुर दुखिया करे, जाड़े का अनुवाद।।
कड़वी बातें साँच की, बोले जो इन्सान।
तन जाते उस शख्स पर, चाकू, तीर कमान।।
आँगन में तुलसी जली, धूप सकी ना झेल।
इक तुलसी ससुराल में, जली छिडक़कर तेल।
गई सभ्यता गर्त में, छूट गए संस्कार।
सबसे घातक देश में, नैतिक भ्रष्टाचार।।
राणा की सुन वीरता, खुलती आँखें बन्द।
राणा बन सकते नहीं, मत बनिए जयचन्द।।
कोठी वाले गेट पर, खड़ा मिला इन्सान।
लेकिन ऊँची कोठियाँ, बेच चुकी ईमान।।
बटवारा घर में हुआ, बँटा माल, घर, द्वार।
उनको धन दौलत मिली, मुझको माँ का प्यार।
की अगुवानी महल ने, हुआ हास परिहास।
लगे छलकने शिशिर में, मदिरा भरे गिलास।।
9927009967
झुककर चलता जो पथिक, चढ़ जाता चट्टान।
मन ही मन मुस्का रहे, नीर भरे तालाब।
जीवन लेकर आ रहा, लहरों का सैलाब।।
कपी रात भर झोंपड़ी, गर्म रहे प्रासाद।
ठिठुर ठिठुर दुखिया करे, जाड़े का अनुवाद।।
कड़वी बातें साँच की, बोले जो इन्सान।
तन जाते उस शख्स पर, चाकू, तीर कमान।।
आँगन में तुलसी जली, धूप सकी ना झेल।
इक तुलसी ससुराल में, जली छिडक़कर तेल।
गई सभ्यता गर्त में, छूट गए संस्कार।
सबसे घातक देश में, नैतिक भ्रष्टाचार।।
राणा की सुन वीरता, खुलती आँखें बन्द।
राणा बन सकते नहीं, मत बनिए जयचन्द।।
कोठी वाले गेट पर, खड़ा मिला इन्सान।
लेकिन ऊँची कोठियाँ, बेच चुकी ईमान।।
बटवारा घर में हुआ, बँटा माल, घर, द्वार।
उनको धन दौलत मिली, मुझको माँ का प्यार।
की अगुवानी महल ने, हुआ हास परिहास।
लगे छलकने शिशिर में, मदिरा भरे गिलास।।
-शिवकुमार 'दीपक'
बहरदाई, सहपऊ, हाथरस9927009967
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