विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Wednesday, August 3, 2016

आशा खत्री 'लता' के दोहे


जल-जल कर जल उड़ गया, जितना था निर्दोष।
बिना तपन होता नहीं, कभी निवारण दोष।।

ख़ामोशी से कर लिया, सच ने झूठ कबूल।
पहले से ही थे खड़े, पथ में बहुत बबूल।।

घर का झगड़ा आ गया, जब गलियों के बीच।
इधर-उधर बिखरा मिला, अपशब्दों का कीच।।

समय बड़ा बलवान है, हम ठहरे कमजोर।
साथ दौड़ने के लिए, लगा रहे हैं जोर।।

चल धरती के हाल पर, लिक्खें एक किताब।
कुदरत क्या-क्या झेलती, इसका करें हिसाब।।

साजन तो प्यारा लगे, नहीं सुहाती सास।
और वृद्धजन झेलते, अपने घर बनवास।।

झूठी जिनकी हेकड़ी, नकली जिनकी शान।
इस कलयुग में चल रही, उनकी खूब दुकान।।

सब कुछ जिनके पास है, रुतबा भी है खास।
फिर भी क्यों बुझती नहीं, उनके मन की प्यास।।

हमने तो अपना कहा, उसने समझा गैर।
फिर कैसे बढ़ते भला, उसके घर को पैर।।

रखता खबरें गैर की, अपना नहीं सुराग।
रूप सँवारा खूब पर, धुला न मन का दाग।।

लूटें हैं जिसने सदा, डौली और कहार।
सबसे आगे वो खड़ा, ले फूलों का हार।।


अबकी बार चुनाव में, खड़े लटूरी लाल।
वादे करते थोक में, बाँटे खुलकर माल।।

वही समझता पीर को, जो दुख से दो चार।
बाकी तो चलता रहे, यूँ ही ये संसार।।

भौतिकता की आँधियाँ, पाप रहा फल-फूल।
धर्म तिरोहित हो रहा, टूटे सभी उसूल।।

टूट गए जब हौसले, पंख हो गए दीन।
मिल जाये जब हौसला, उड़ जाते पर-हीन।।

ले मोबाइल हाथ में, करें निरर्थक बात।
सपने धन्ना सेठ से, कौड़ी की औकात।।

धनवानों के पाप भी, निर्धन करे क़ुबूल।
बिना अर्थ इस देश में, जीना हुआ फिजूल।।

ताने और उलाहने, यही शेष है प्यार।
खटे बुढ़ापा रात दिन, कहलाता बेकार।।

जिस आँचल की छाँव में, बैठे उम्र तमाम।
समय पड़ा तो दे दिया, उसको तपता घाम।।

दुख भी आ ठहरे नहीं, ख़ुशी न पहुँची पार।
जैसा था वैसा जिया, हमने ये संसार।।

हरो परायी पीर तो, मिलती सबकी प्रीत।
बहुत गा लिए प्रणय के, छेड़ो करुणा गीत।।

तुमसे मिलकर यूँ लगा, जैसे गाया गीत।
भावों की लय मिल गयी, प्राणों को संगीत।।

तपती लू में ले रहे, ककड़ी, खीरा मौज।
घूम रही फुटपाथ पर, तरबूजों की फ़ौज।।

बिना वात के मौन हैं, साधक जैसे पेड़।
विहगों का कलरव करे, नीरवता से छेड़।।

बातें सच्ची थी मगर, कहता सुनता कौन।
कान बधिर से हो गए, अधर रह गये मौन।।

हुई नहीं ये जिंदगी, इतनी भी आसान।
पलक झपकते कर सके, भले बुरे का ज्ञान।।

कुछ तो आँखें देखती, कुछ है मन की सूझ।
चलती मेरी लेखनी, लेकर प्यास अबूझ।।

दो दिन यौवन चाँदनी, सबको मिली हुजूर।
कदम बहकते आपके, इसका कहाँ कसूर।।

आभासी इस लोक के, अदभुत हैं दस्तूर।
उनसे रिश्ते बन गये, जो हैं कोसों दूर।।

नदी ताल दूषित हुए, बिके हाट में नीर।
मैला-मैला मन लिए, उजले पहने चीर।।

जो सच से डरता नहीं, उसकी कठिन तलाश।
गिरी पड़ी हर मोड़ पर, सम्बंधों की लाश।।
 
कौन करेगा आप सी, माता हम पर छाँव।बिना तुम्हारे भाग में, सिर्फ धूप के गाँव।।

उर गाढ़ा होता गया, तरल हो गए नैन।
पीड़ा विष देता रहा, आहत मन को चैन।।

चलते फिरते ले चला, राह तकें बीमार।
समझ न आया काल का, हमको तो व्यवहार।।

ताकत यहाँ विचार की, कर दे मालामाल।
बिना सोच का आदमी, कुदरत से कंगाल।।

इक दिन हम भी चल दिये, इस दुनिया को छोड़।
अपनों ने भी झट लिया, माटी से मुँह मोड़।।

कल तक जो तन कर खड़े, आज हो गए ढेर।
इस दुनिया में कब लगे, समय बदलते देर।।

हम तो सीधे थे बहुत, वे थे घुण्डी मार।
ऐसे में चलती कहाँ, साझे की सरकार।।

उलझे-उलझे बाल हैं, टेढ़ी-मेढ़ी चाल।
दीवानों का देश में, कौन पूछता हाल।।

बात पते की वो कहें, जिसका गाढ़ा ज्ञान।
उसके शब्दों पे रहे, समझदार के कान।।

दूर-दूर तक ख्याति है, चारों ओर प्रताप।
पर दो मीठे बोल को, तरस रहे माँ बाप।।

ऊँची भरी उड़ान तो, गगन हो गया मीत।
पर नभचर कब भूलता, धरती माँ की प्रीत।।

नये पुराने में लगी, उत्तमता की होड़।
एक दूसरे का यहाँ, खोजें दोनों तोड़।।

जिनके चाबुक से चले, राजा और वजीर।
अब उन पर ही सध रहे, लोक तन्त्र के तीर।।

क्यों अपनों के नेह को, मन कहता है पाश।जो सुख घर के आँगना, वो न खुले आकाश।।

नेता जी की सोच में, पलता हर पल खोट।
जनता सुख दुख की कहे, उसे चाहिए वोट।।

हावी झूठ फरेब हैं, सच्चाई गुमनाम।
राजनीति में हो गया, अच्छा भी बदनाम।

नहीं पहुँचते सत्य तक, बहें हवा के संग।
मन दूषित मति मूढ़ सी, नजर हो गयी तंग।।

पाँवों की शक्ति गयी, गया नजर का नूर।
जीने की इच्छा गयी, होकर तुमसे दूर।।

मौत इशारा कर गयी, हुई जिंदगी दूर।
खड़े काल के सामने, हम बेबस मजबूर।।

छलके आँसू आँख से, उठती दर्द हिलोर।
गम की रैना है बड़ी, बहुत दूर है भोर।।

अपना काम निकाल कर, हो जाते काफूर।
फिर भी क्यों होता नहीं, मन ये उनसे दूर।।

आकर तेरी छाँव में, भूल गए हम धूप।
लेकिन नहीं क़ुबूल था, हमे कभी ये रूप।।

देखा किसी किताब में, सूखा हुआ गुलाब।
आँसू बनकर बह चली, झट से तेरी याद।।

जिस थाली में खा रहे, करें उसी में छेद।
मुश्किल है मिलना यहाँ, पापी मन का भेद।।

ताकत जिसमें न्याय की, अब वो ले अवतार।
लोकतन्त्र में आ रहे, निशि दिन नये विकार।।

मीठी वाणी बोलकर, धूर्त जमाये धाक।
सच जब उदघाटित हुआ, हुआ कलेजा चाक।।

जिसकी हो तादाद अब, मचे उसी का शोर।
कव्वों की बारात में, खुलकर नाचा मोर।।

टूटी सी संदूक में, माँ रखती संभाल।
उन बेटों की याद जो, नहीं पूछते हाल।।

सर नीचा करके खड़ा, कब से बूढा बाप।
कितने दिन किसके रहूँ, निर्णय कर लो आप।।

बूढी आँखे मिच गयी, तकते-तकते द्वार।
मरते ही बेटे घुसे, ले फूलों के हार।।

जिनके बिन घर में रहा, पर्वों पर अन्धकार।
उन बेटों ने कर दिया, मरगत को त्यौहार।।

हम थे भूखे नेह के, करते क्या तकरार।
बूढ़े बरगद सा किया, हमने सबसे प्यार।।

बित्ते भर का आदमी, करता ऊँची बात।
लम्बी चौड़ी फैंकता, बिन देखे औकात।।


चला रही अब सास सा, बहुएं हुक्म हुजूर।
बात-बात पर धमकियां, देती हैं मगरूर।।

मिटी किसी की आरजू, धुले किसी के पाप।
सच्चे मन से जब हुआ, जग में पश्चाताप।।

रंगों के मतलब कई, समझें सिर्फ सुजान।
मूरख को हुड़दंग ही, लगता है पहचान।।

बैठा रहता नाक पर, फड़का देता अंग।
सुजन कभी रखते नहीं, नीच क्रोध को संग।।

नेता अपने ब्यान की, कीमत करे वसूल।
देख नफे नुकसान को, दे बातों को तूल।।

लोकतन्त्र के नाम पर, हावी होती भीड़।
चाहे जिसका नाम ले, चाहे फूंके नीड़।।

वोटों के आगे हुई, सब सरकारें ढेर।
कुत्ते मिलकर मारते, अब भारत में शेर।।

लोमड़ हुए लठैत अब, करते राज कपीश।
घाघ लोमड़ी बाँटती, शेरों को बख्शीश।।

गौरैया आती नहीं, सच मानों इस देश।
आहत मन ये पूछता, ये कैसा सन्देश।।

बात भाव की वो करें, मैं समझूँ ना भाव।
जब मन जुड़ता भाव से, बढ़ता उनका भाव।।

जब भी माँगा मिल गया, मुझे तुम्हारा साथ।
और भला क्या मांगते, रब से मेरे हाथ।।

नफरत अपने मन लिए, फिरते बने पिशाच।
ऐसे नर हर दौर में, करते नंगा नाच।।

खड़े तुम्हारी बाट में, हम भी बने चकोर।
दिल की ऐसी प्यास पर, चलता किसका जोर।।

सत्य कहूँ जग रूठता, झूठ कहूँ भगवान।
दोनों जिसमें खुश रहें, नहीं मिला वो ज्ञान।।

किस्मत नित लिखती रही, दुःखों की तहरीर।
हम विवश पढ़ते रहे, भर आँखों में नीर।।

झूठ बोल चाहूँ नहीं, जग में ऊँचा मान।
बनूँ चितेरी सत्य की, यही कलम की आन।।

न्याय विवश रोता रहा, अपनी बाँह उलीच।
माप तोल होता रहा, दो पलड़ों के बीच।।

चिड़ी चोंच में ले गया, देखो शातिर बाज।
लेकिन कहीं विरोध की, उठी नहीं आवाज।।

उतरी भैंस चुनाव में, बजा रही है बीन।
साँप, नेवले, लोमड़ी, रात करें रंगीन।।

घास फूँस की झोपडी, से वादा हर बार।
महल सरीखा आपका, करना है उद्धार।।

दीन-दुखी की वेदना, जिनका हो श्रृंगार।
कैसा हो परिधान ये, उनको कहाँ विचार।।

मन्दिर बना करोड़ का, लाखों के भगवान।
भक्तों में सिरमौर वो, जिनका भारी दान।।

किसे विलक्षण हम कहें, यश के सभी गुलाम।
सबके मन को खींचते, चमड़ी, दमड़ी, नाम।।

खरा आम की आस पर, कब उतरा है खास।
कोठी के बाहर खड़ा, दीन हीन विश्वास।।

हम थे पागल प्यार में, उनको चढ़ा जुनून।
खून उन्होंने ही किया, हम थे जिनका खून।।

अपने पैरों जो चले, उनके मिले निशान।
जो कन्धों पर गैर के, वो पहुँचे शमशान।।

आशा खत्री 'लता'
2527, सेक्टर -1, रोहतक

No comments:

Post a Comment