विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Showing posts with label आलेख. Show all posts
Showing posts with label आलेख. Show all posts

Monday, October 5, 2015

अलंकार चर्चा भाग 2

पुनरुक्तवदाभास अलंकार

जब प्रतीत हो, हो नहीं, काव्य-अर्थ-पुनरुक्ति
वदाभास पुनरुक्त कह, अलंकार कर युक्ति
 जहँ पर्याय न मूल पर, अन्य अर्थ आभास.
तहँ पुनरुक्त वदाभास्, करता 'सलिल' उजास..

शब्द प्रयोग जहाँ 'सलिल', ना पर्याय- न मूल.
वदाभास पुनरुक्त है, अलंकार ज्यों फूल..

काव्य में जहाँ पर शब्दों का प्रयोग इस प्रकार हो कि वे पर्याय या पुनरुक्त न होने पर भी पर्याय प्रतीत हों पर अर्थ अन्य दें, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है.
किसी काव्यांश में अर्थ की पुनरुक्ति होती हुई प्रतीत हो, किन्तु वास्तव में अर्थ की पुनरुक्ति न हो तब पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।

उदाहरण:

१. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।
२.
आतप-बरखा सह 'सलिल', नहीं शीश पर हाथ.
नाथ अनाथों का कहाँ?, तात न तेरे साथ..
यहाँ 'आतप-बरखा' का अर्थ गर्मी तथा बरसात नहीं दुःख-सुख, 'शीश पर हाथ' का अर्थ आशीर्वाद, 'तात' का अर्थ स्वामी नहीं पिता है.
३.
वे बरगद के पेड़ थे, पंछी पाते ठौर.
छाँह घनी देते रहे, उन सा कोई न और..
यहाँ 'बरगद के पेड़' से आशय मजबूत व्यक्ति, 'पंछी पाते ठौर' से आशय संबंधी आश्रय पाते, छाँह घनी का मतलब 'आश्रय' तथा और का अर्थ 'अन्य' है.
४.
धूप-छाँव सम भाव से, सही न खोया धीर.
नहीं रहे बेपीर वे, बने रहे वे पीर..
यहाँ धूप-छाँव का अर्थ सुख-दुःख, 'बेपीर' का अर्थ गुरुहीन तथा 'पीर' का अर्थ वीतराग होना है.
५.
पद-चिन्हों पर चल 'सलिल', लेकर उनका नाम.
जिनने हँस हरदम किया, तेरा काम तमाम..
यहाँ पद-चिन्हों का अर्थ परंपरा, 'नाम' का अर्थ याद तथा 'काम तमाम' का अर्थ समस्त कार्य है.
६. 
देखो नीप कदंब खिला मन को हरता है
यहाँ नीप और कदंब में में एक ही अर्थ की प्रतीति होने का भ्रम होता है किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। यहाँ नीप का अर्थ है कदंब जबकि कदंब का अर्थ है वृक्षों का समूह।
७. 
जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता है
यहाँ कनक और सुवर्ण में अर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है किन्तु है नहीं। कनक का अर्थ है सोना और सुवर्ण का आशय है अच्छे वर्ण का।
८. 
दुल्हा बना बसंत, बनी दुल्हिन मन भायी
दुल्हा और बना (बन्ना) तथा दुल्हिन और बनी (बन्नी) में पुनरुक्ति का आभास भले ही हो किन्तु दुल्हा = वर और बना = सज्जित हुआ, दुल्हिन = वधु और बनी - सजी हुई. अटल दिखने पर भी पुनरुक्ति नहीं है।
९. 
सुमन फूल खिल उठे, लखो मानस में, मन में ।
सुमन = फूल, फूल = प्रसन्नता, मानस = मान सरोवर, मन = अंतर्मन।
१०. 
निर्मल कीरति जगत जहान।
जगत = जागृत, जहां = दुनिया में।
११. 
अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।  

शब्दालंकार : तुलना और अंतर

शब्द कथ्य को अलंकृत, करता विविध प्रकार
अलंकार बहु शब्द के, कविता का श्रृंगार

यमक श्लेष अनुप्रास सँग, वक्र-उक्ति का रंग
छटा लात-अनुप्रास की, कर देती है दंग

साम्य और अंतर 'सलिल', रसानंद का स्रोत
समझ रचें कविता अगर, कवि न रहे खद्योत

शब्दालंकारों से काव्य के सौंदर्य में निस्संदेह वृद्धि होती है, कथ्य अधिक ग्रहणीय तथा स्मरणीय हो जाता है. शब्दालंकारों में समानता तथा विषमता की जानकारी न हो तो भ्रम उत्पन्न हो जाता है. यह प्रसंग विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों, जान सामान्य तथा रचनाकारों के लिये समान रूप से उपयोगी है.

अ. अनुप्रास और लाटानुप्रास:

समानता: दोनों में आवृत्ति जनित काव्य सौंदर्य होता है.
अंतर: अनुप्रास में वर्ण (अक्षर या मात्रा) का दुहराव होता है.
लाटानुप्रास में शब्द (सार्थक अक्षर-समूह) का दुहराव होता है.
उदाहरण: अगम अनादि अनंत अनश्वर, अद्भुत अविनाशी
'सलिल' सतासतधारी जहँ-तहँ है काबा-काशी - अनुप्रास (छेकानुप्रास, अ, स, क)
अपना कुछ भी रहा न अपना
सपना निकला झूठा सपना - लाटानुप्रास (अपना. सपना समान अर्थ में भिन्न अन्वयों के साथ शब्द का दुहराव)

आ. लाटानुप्रास और यमक:

समानता : दोनों में शब्द की आवृत्ति होती है.
अंतर: लाटानुप्रास में दुहराये जा रहे शब्द का अर्थ एक ही होता है जबकि यमक में दुहराया गया शब्द हर बार भिन्न (अलग) अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
उदाहरण: वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास - लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
 ढाल रहे हैं ढाल को, सके आक्रमण रोक
ढाल न पाये ढाल वह, सके ढाल पर टोंक - यमक (ढाल = ढालना, हथियार, उतार)

इ. यमक और श्लेष:

समानता: दोनों में शब्द के अनेक (एक से अधिक) अर्थ होते हैं.
अंतर: यमक में शब्द की कई आवृत्तियाँ अलग-अलग अर्थ में होती हैं.
श्लेष में एक बार प्रयोग किया गया शब्द एक से अधिक अर्थों की प्रतीति कराता है.
उदाहरण: छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत
छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)  
 चाहे-अनचाहे मिले, जीवन में तय हार
बिन हिचके कर लो 'सलिल', बढ़कर झट स्वीकार -श्लेष (हार = माला, पराजय)

ई. श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति:

समानता: श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति दोनों में किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं.
अंतर: श्लेष में किसी शब्द के बहु अर्थ होना ही पर्याप्त है. वक्रोक्ति में एक अर्थ में कही गयी बात का श्रोता द्वारा भिन्न अर्थ निकाला (कल्पित किया जाना) आवश्यक है.
उदहारण: सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन - श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
'पहन लो चूड़ी', कहा तो, हो गयी नाराज
ब्याहता से कहा ऐसा क्यों न आई लाज? - श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)

अर्थालंकार :

रूपायित हो अर्थ से, वस्तु चरित या भाव
तब अर्थालंकार से, बढ़ता काव्य-प्रभाव

कारण-कार्य विरोध या, साम्य बने आधार
तर्क श्रृंखला से 'सलिल', अर्थ दिखे साकार

जब वस्तु, भाव, विचार एवं चरित्र का रूप-निर्धारण शब्दों के चमत्कार के स्थान पर शब्दों के अर्थ से किया जाता है तो वहाँ अर्थालंकार होता है. अर्थालंकार के निरूपण की प्रक्रिया का माध्यम सादृश्य, वैषम्य, साम्य, विरोध, तर्क, कार्य-कारण संबंध आदि होते हैं.

अर्थालंकार के प्रकार-

अर्थालंकार मुख्यत: ७ प्रकार के हैं
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार
२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार
३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार
४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार
५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार
६. लोकनयायमूलक अर्थालंकार
७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार
१. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालंकार:
इस अलंकार का आधार किसी न किसी प्रकार (व्यक्ति, वस्तु, भाव,विचार आदि) की समानता होती है. सबसे अधिक व्यापक आधार युक्त सादृश्य मूलक अलंकार का उद्भव किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का निरूपण करने के लिये समान गुण-धर्म युक्त अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि से तुलना अथवा समानता बताने से होता है. प्रमुख साधर्म्यमूलक अलंकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति, पटटीप, भ्रान्ति, संदेह, स्मरण, अपन्हुति, व्यतिरेक, दृष्टान्त, निदर्शना, समासोक्ति, अन्योक्ति आदि हैं. किसी वस्तु की प्रतीति कराने के लिये प्राय: उसके समान किसी अन्य वस्तु का वर्णन किया जाता है. किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का वर्णन करने से इष्ट अन्य व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का चित्र स्पष्ट कराया जाता है. यह प्रक्रिया २ वर्गों में विभाजित की जा सकती है.
अ. गुणसाम्यता के आधार पर
आ. क्रिया साम्यता के आधार पर तथा
इनके विस्तार अनेक प्रभेद सदृश्यमूलक अलंकारों में देखे जा सकते हैं. गुण साम्यता के आधार पर २ रूप देखे जा सकते हैं:
१. सम साम्य-वैषम्य मूलक- समानता-असमानता की बराबरी हो. जैसे उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण, संदेह, प्रतीप आदि अलंकारों में.
२. साम्य प्रधान - अत्यधिक समानता के कारण भेदहीनता। यह भेद हीनता आरोप मूलक तथा समाहार मूलक दो तरह की होती है.
इनके २ उप वर्ग क. आरोपमूलक व ख समाहार या अध्यवसाय मूलक हैं.
क. आरोपमूलक अलंकारों में प्रस्तुत (उपमेय) के अंदर अप्रस्तुत (उपमान) का आरोप किया जाता है. जैसे रूपक, परिणाम, भ्रांतिमान, उल्लेख अपन्हुति आदि में.
समाहार या अध्यवसाय मूलक अलंकारों में उपमेय या प्रस्तुत में उपमान या अप्रस्तुत का ध्यवसान हो जाता है. जैसे: उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि.
ख. क्रिया साम्यता पर आधारित अलंकारों में साम्य या सादृश्य की चर्चा न होकर व्यापारगत साम्य या सादृश्य की चर्चा होती है. तुल्ययोगिता, दीपक, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, शक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप आदि अलंकार इस वर्गान्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं. इन अलंकारों में सादृश्य या साम्य का स्वरुप क्रिया व्यापार के रूप में प्रगट होता है. इनमें औपम्य चमत्कार की उपस्थिति के कारण इन्हें औपम्यगर्भ भी कहा जाता है.

२. विरोध या वैषम्य मूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों का आधार दो व्यक्ति, वस्तु, विचार, भाव आदि का अंतर्विरोध होता है. वस्तु और वास्तु का, गुण और गुण का, क्रिया और क्रिया का कारण और कार्य का अथवा उद्देश्य और कार्य का या परिणाम का विरोध ही वैशान्य मूलक अलंकारों का मूल है. प्रमुख वैषम्यमूलक अलंकार विरोधाभास, असंगति, विभावना, विशेषोक्ति, विषम, व्याघात, अल्प, अधिक आदि हैं.

३. श्रृंखलामूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों का मूल आधार क्रमबद्धता है. एकावली, करणमाला, मालदीपक, सार आदि अलंकार इस वर्ग में रखे जाते हैं.

४. तर्कन्यायमूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों का उत्स तर्कप्रवणता में अंतर्निहित होती है. काव्यलिंग तथा अनुमान अलंकार इस वग में प्रमुख है.

५. काव्यन्यायमूलक अर्थालंकार-

इस वर्ग में परिसंख्या, यथा संख्य, तथा समुच्चय अलंकार आते हैं.

६. लोकन्यायमूलक अर्थालंकार-

इन अलंकारों की प्रतीति में लोक मान्यताओं का योगदान होता है. जैसे तद्गुण, अतद्गुण, मीलित, उन्मीलित, सामान्य ततः विशेषक अलंकार आदि.

७. गूढ़ार्थप्रतीति अर्थालंकार- किसी कथ्य के पीछे छिपे अन्य कथ्य की प्रतीति करने वाले इस अलंकार में प्रमुख सूक्षम, व्याजोक्ति तथा वक्रोक्ति हैं.

-आचार्य संजीव सलिल

Sunday, September 27, 2015

अलंकार चर्चा

अनुक्रम:
: ० १ : अलंकार क्या है?
: ०२ : अलंकार : प्रयोजन और अर्थ
: ०३ : शब्दालंकार
: ०४ : छेकानुप्रास अलंकार
: ०५ : श्रुत्यानुप्रास अलंकार
: ०६ : अंत्यानुप्रास अलंकार
: ०७ : लाटानुप्रास अलंकार
: ०८ : वैणसगाई अलंकार
: ०९ : पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार
: १० : यमक अलंकार
: ११ : श्लेष अलंकार

अलंकार चर्चा: १

अलंकार क्या है?

हर व्यक्ति के मन में विचार उठते हैं. हर व्यक्ति बोलचाल, बातचीत में विचार व्यक्त भी करता है किन्तु साहित्यकार उसी बात को व्यवस्थित तरीके से, उपयुक्त शब्दों का प्रयोग कर, सार्थक शब्दों के माध्यम से कहता है तो वह अधिक प्रभाव छोड़ती है. आप संसद की बहसें और दूरदर्शन के कार्यक्रम नित्य सुनते तथा अख़बार नित्य देखते हैं. जहाँ भाषा विषय के अनुरूप न हो वहां वह असरहीन तो होती ही है, वक्ता या लेखक को उपहास का पात्र भी बनाती है. भाषा के प्रभाव में वृद्धि कर बात को सहज ग्राह्य, रोचक तथा सुरुचिपूर्ण बनाने की कला ही अलंकार का उपयोग करना है.
आभूषणविहीन नववधु की तरह अलंकारविहीन कविता अपना प्रभाव खो देती है. जिस तरह नववधु की चर्चा होते ही विविध वस्त्राभूषणों से सुसज्जित नवयौवना का चित्र साकार होता है, उसी तरह काव्य रचना की चर्चा होते ही रस, छंद और अलंकार से सुशोभित रचना का बिम्ब मानस पटल पर उभरता है. संस्कृत साहित्य में काव्य की आत्मा रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, अनुमिति, औचित्य तथा रस इंगित किये जाने पर भी अलंकार की महत्ता सभी आचार्यों ने मुक्त कंठ से स्वीकारी है. अलंकार को पृथक सम्प्रदाय न कहे जाने का कारण संभवत: यह है कि कोई भी संप्रदाय अलंकार के बिना हो ही नहीं सकता है.इसलिए अग्नि पुराणकार कहता है: 'अलंकार रहित विधवैव सरस्वती'
चंद्रालोक के अनुसार:
न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिता मुखं
अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलंकृति
असौ न मन्यते कस्माद्नुष्णमनलं कृती
काव्य शोभाकरां धर्मानलंकारां प्रचक्षते
आचार्य वामन ने अलंकार को काव्य का शोभावर्धक तत्व तथा रीति को काव्य की आत्मा कहा-
काव्य शोभा: कर्त्तारौ धर्मा: गुणा:
तदतिशय हेत वस्त्वलंकारा:
अलंकार के प्रथम प्रवर्तक आचार्य भामह ने अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना-
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिनयाsर्थो विभाव्यते
यत्नोस्यां कविना कार्य कोलंकारोsनयविना
वामन ने 'काव्यालंकार सूत्रवृत्ति' में रीति को, कुंतक ने 'वक्रोक्ति जीवितं' में वक्रोक्ति को, आनंदवर्धनाचार्यके अनुसार ध्वनि, क्षेमेन्द्र व् जयमंगलाचार्य के अनुसार औचित्य तथा विश्वनाथ के मत में रस काव्य के अनिवार्य तत्व हैं. गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस में लिखते हैं-
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।।
भवभेद रसभेद अपारा। कवित दोष-गुन बिबिध प्रकारा।।
अंगरेजी के प्रसिद्ध लेखक डॉ. जॉनसन के अनुसार: ' पोएट्री इज द आर्ट ऑफ़ यूनाइटिंग प्लेजर विथ ट्रुथ बाय कालिंग इमेजिनेशन टु द हेल्प ऑफ़ रीजन.
सत्य में आनंद का सम्मिश्रण अलंकार के माध्यम से ही होता है.
रामचन्द्र शुक्ल के मत में: 'अलंकार काव्य की आत्मा है.'
कविवर सुमित्रानंदन पंत के अनुसार- 'अलंकार केवल वाणी की लिए नहीं हैं. वे भाव की अभिव्यक्ति विशेष द्वार हैं.

अलंकार चर्चा : २

अलंकार : प्रयोजन और अर्थ

नवयौवन पर सोहता, ज्यों नूतन श्रृंगार
काव्य कामिनी पर सजे, अलंकार भंडार
मानव मन की अनुभूतियों को सम्यक शब्दों तथा लय के माध्यम से प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने की कला कविताई है. कहने के जिस तरीके से कविता में व्यक्त भावों का सौंदर्य और प्रभाव बढ़ता है उसे अलंकार कहते हैं.
हम स्नान तथा सौंदर्य प्रसाधनों के बिना भी रह सकते हैं पर स्नान से ताजगी व स्फूर्ति तथा सौंदर्य प्रसाधनों से सुरुचि की प्रतीति होती है, आकर्षण बढ़ता है. इसी तरह बिना अलंकार के भी कविता हो सकती है पर अलंकार का प्रयोग होने से कविता का आकर्षण तथा प्रभाव बढ़ता है.
एक बात और जिस तरह अत्यधिक श्रृंगार अरुचि उत्पन्न करता है वैसे ही अत्यधिक अलंकार भी काव्य के प्रभाव को न्यून करता है.
आशय यह की कवि को यह स्मरण रखना चाहिए कि रस, छंद , अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि के प्रयोग का उद्देश्य कविता का प्रभाव बढ़ाना है, न कि कथ्य से अधिक अपना प्रभाव स्थापित करना. कविता साध्य है शेष तत्व साधन।

परिभाषा:

अधरों की शोभा बढ़ा, सार्थक होता हास
अलंकार से काव्य की, सुंदरता हो ख़ास
सामान्यत: कथन के जिन प्रकारों से काव्य की सौंदर्य वृद्धि होती है उन्हें अलंकार कहते हैं. अलंकार का शाब्दिक अर्थ आभूषण है.
काव्य को 'शब्दार्थौ सहितौ' (अर्थ युक्त शब्द) तथा 'विदग्ध भणिति' (रमणीय कथन) मानने की संस्कृत काव्य-परंपरा हिंदी ने विरासत में पायी है. यह परंपरा रीति, नाक्रोक्ति, ध्वनि या रस को काव्यात्मा मानती रही किन्तु अलंकार को 'अलं करोतीति अलंकार:' कहकर शोभावर्धक तत्व के रूप में अलंकारों के प्रकार खोजने तक सीमित रह गयी. भामह ने अलंकार का मूल वक्रोक्ति को मानते हुए वक्रोक्ति के विविध रूपों में अलंकार के भेद या प्रकार खोजे.
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थौ विभाव्यते
यत्नोsस्यां कविना कार्य: को लंकारोsनयाsविना -काव्यालंकार २, ८५
वक्रोक्ति के भेद अलंकार मान्य किये गए तो स्वभावोक्ति को भी अलंकार स्वीकारा गया. वास्तव में अलंकार वचन-भंगिमा है, चमत्कार पूर्ण उक्ति (कथन) है. काव्य को जीवन और सत्य प्रकाशित करनेवाली विधा मानने पर अलंकार को उसकी दीप्ति मानना होगा. वस्तुत: सत्य या तथ्य काव्य की वस्तु, विचार या भाव है किन्तु अमूर्त भाव को मूर्तित अथवा रूपायित करनेवाला कारक अलंकार ही है. अत: अलंकार की परिभाषा निम्नवत होगी:
किसी वस्तु, सत्य या जीवन को शब्दों में अभिव्यक्त कर पाठक-श्रोता को चमत्कृत करने की कला व् विज्ञान अलंकार है. पाश्चात्य काव्य मीमांसा में वर्णित बिंबवाद और प्रतीकवाद भी अलनकर के ही अंगोपांग हैं. अलंकार का यह वृहद स्वरूप भाव तथा रस के प्रभाव का विस्तारक है तथा वस्तु, विचार या जीवन की प्रत्यक्ष अनुभूति करने में सक्षम है.
नवयौवन पर सोहता, ज्यों नूतन श्रृंगार
काव्य कामिनी पर सजे, अलंकार साकार
अधरों की शोभा बढ़ा, सार्थक होता हास
अलंकार से काव्य की, सुंदरता हो ख़ास

प्रकार:

अलंकार के २ प्रकार हैं-
१. शब्दालंकार: जब शब्द में चमत्कार से काव्य-प्रभाव में वृद्धि हो.
उदाहरण:
१. अजर अमर अक्षर अगम, अविनाशी परब्रम्ह
यहां 'अ' की आवृत्तियों से कथन में चमत्कार उत्पन्न हो रहा है. अत: वृत्यानुप्रास अलंकार है
२. गये दवाखाना मिला, घर से यह निर्देश
भूल दवा खाना गये, खा लें था आदेश
यहाँ 'दवाखाना' शब्द की भिन्नार्थों में दो आवृत्तियाँ होने से यमक अलंकार है.
३. नेता से नेता करे, नूराकुश्ती नित्य
'नेता' शब्द की समानार्थ में दो आवृत्ति होने से यहाँ लाटानुप्रास अलंकार है.
४. चन्द्र गगन में बाँह में मोहक छवि बिखेर
यहाँ 'चन्द्र' की एक आवृत्ति अनेक अर्थों की प्रतीति कराती है. अत: यहाँ श्लेष अलंकार है.

न शब्दालंकारों का उपविभाज

१. आवृत्तिमूलक अलंकार, २. स्वराघात मूलक अलंकार तथा ३. चित्रमूलक अलंकार में किया गया है.

शब्दालंकार में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शब्द के स्थान पर समानार्थी शब्द रख दिया जाए तो अर्थ में परिवर्तन न होने पर भी अलंकार नहीं रहता क्योंकि शब्द बदलने पर समान अर्थ होते हुए पर भी चमत्कार नष्ट हो जाता है.

२. अर्थालंकार: 

जब अर्थ में चमत्कार काव्य-प्रभाव में वृद्धि करे.
उदाहरण:
१. नेता-अफसर राहु-केतु सम ग्रहण देश को आज
यहाँ नेताओं तथा अधिकारियों को राहु-केतु के सामान बताने के कारण उपमा अलंकार है.
२. नयन कमल छवि मन बसी
यहाँ नयन को कमल बताया गया है, अत: रूपक अलंकार है.
अर्थालंकार में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले शब्द के स्थान पर समानार्थी शब्द रख दिया जाए तो अर्थ नहीं बदलता तथा अलंकार यथावत बना रहता है.
अर्थालंकार के २ उपभेद हैं: १. गुणसाम्य के आधार पर, २. क्रिया साम्य के आधार पर.

अलंकार चर्चा: ३

शब्दालंकार

विशिष्ट शब्द-प्रयोगों तथा शब्द-ध्वनियों द्वारा काव्य के कथ्य या वस्तु को अधिक सुरुचिपूर्वक ग्राह्य और संवेद्य बनानेवाले अलंकार शब्दालंकार कहे जाते हैं. कविता में कही गयी बात जितनी आकर्षक होगी पाठक का मन उतना अधिक मोहेगी और वह कहे गये को रुचिपूर्वक ग्रहण कर सकेगा.
हम नित्य सोकर उठने के पश्चात स्नानादि कर स्वच्छ वस्त्र पहनकर समाज में जाते हैं तो परिचित सस्नेह मिलते हैं. यासी हम मैले-कुचैले वस्त्रों में जैसे ही चले जाएँ तो न हमें अच्छा लगेगा, न परिचितों को. अपने आपको सुसज्जित कर प्रस्तुत करना ही अलंकृत होना या अलंकार का वरण करना है.
कविता की अंतर्वस्तु को सुसज्जित कर ही अलंकार का प्रयोग करना है. भवन निर्माण के पश्चात वास्तुविद उचित स्थान पर उचित आकर के द्वार, वातायन, मन को अच्छे लगनेवाले रंगों, उपयोगी उपकरणों आदि का प्रयोग कर भावब को अलंकृत करता है. कवि के उपकरण शब्द तथा अर्थ हैं. विचार की अभिव्यक्ति में शब्द का प्रयोग पहले होता है तब पाठक-श्रोता उसे पढ़-सुनकर उसका अर्थ ग्रहण करता है. इसलिए शब्दालंकार को जानना तथा उसका समुचित प्रयोग करना आवश्यक है.
शब्दालंकार के ३ वर्ग हैं: १. आवृत्तिमूलक, २. स्वराघातमूलक तथा ३. चित्रमूलक।

आवृत्तिमूलक शब्दालंकार:

आवृत्तिमूलक शब्दालंकारों के २ उप वर्ग है:
१. वर्णावृत्तिमूलक: वे अलंकार जिनमें वर्णों (अक्षरों) की आवृत्ति (दुहराव) होता है. जैसे अनुप्रास अलंकार.
२. शब्दावृत्ति मूलक: वे अलंकार जिनमें शब्दों की आवृत्ति होती है. जैसे यमक अलंकार।
अनुप्रास अलंकार: अनुप्रास अलंकार में एक या अधिक वर्णों की आवृत्ति होती है.
उदाहरण:
१. भगवान भारत भारती का भव्य भूषित भवन हो (भ की आवृत्ति)
२. जय जगजननी-जगतजनक, जय जनगण जय देश (ज की आवृत्ति)
अनुप्रास अलंकार के ५ भेद हैं: १. छेकानुप्रास, २. वृत्यनुप्रास, ३. श्रुत्यनुप्रास, ४. अन्त्यानुप्रास, ५. लाटानुप्रास।

अलंकार चर्चा : ४

छेकानुप्रास

एक या अधिक वर्ण का, मात्र एक दोहराव
'सलिल' छेक-अनुप्रास से, बढ़ता काव्य-प्रभाव
जब एक या एकाधिक वर्णों (अक्षरों) की एक आवृत्ति हो तो वहाँ छेकानुप्रास होता है।
उदाहरण:
१. अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व जग जान।
स्नेह समादर वृद्धि वर, काव्य कलश रस-खान ।।
यहाँ अ, ज, स, व तथा क की एक आवृत्ति दृष्टव्य है।
२. सेवा समय दैव वन दीन्हा। मोर मनोरथ सफल न कीन्हा।।
३. पत्थर पिघले किन्तु तुम्हा तब भी ह्रदय हिलेगा क्या?
४. चेत कर चलना कुमारग में कदम धरना नहीं।
५. निर्मल नभ में देव दिवाकर अग्नि चक्र से फिरते हैं।
६. एक को मारे दो मर जावे तीजा गिरे कुलाटी खाय।
७. ज़ख्म जहरीले को चीरा चाहिए।
काटने को काँच हीरा चाहिए।।
८. मिट्टी का घड़ा
बूँद-बूँद रिसता
लो खाली हुआ।
९. राम गया रावण गया
मरना सच अनिवार्य है
मरने का भय क्यों भला?
१०. मन में मौन
रहे सदा, देखता
कहिए कौन?
टीप: वर्ण की आवृत्ति शब्दारंभ में ही देखी जाती है. शब्द के मध्य या अंत में आवृत्ति नहीं देखी जाती।
उक्त अलंकार का प्रयोग कर अपनी काव्य पंक्तियाँ टिप्पणी में लगायें।
अपने अंचल में प्रचलित भाषा रूप की काव्य पंक्तियाँ जिनमें अलंकार का प्रयोग हो प्रस्तुत करें। विविध छंदों के उदाहरण जिनमें उक्त अलंकार हो, प्रस्तुत करेंआप सभी का धन्यवाद। अलंकारों का प्रयोग कर अपनी काव्य पंक्तियाँ टिप्पणी में लगाएं। अपने अंचल में प्रचलित भाषा रूप की पकंतियाँ जिनमें अलंकार का प्रयोग हो प्रस्तुत करें।

अलंकार चर्चा : ५

श्रुत्यानुप्रास अलंकार

समस्थान से उच्चरित, वर्णों का उपयोग
करे श्रुत्यानुप्रास में, युग-युग से कवि लोग
वर्णों का उच्चारण विविध स्थानों से किया जाता है. इसी आधार पर वर्णों के निम्न अनुसार वर्ग बनाये गये हैं.
उच्चारण स्थान अक्षर
कंठ अ आ क ख ग घ ङ् ह
तालु इ ई च छ ज झ ञ् य श
मूर्द्धा ऋ ट ठ ड ढ ण र ष
दंत लृ त थ द ध न ल स
ओष्ठ उ ऊ प फ ब भ म
कंठ-तालु ए ऐ
कंठ-ओष्ठ ओ औ
दंत ओष्ठ व
नासिका भी ङ् ञ् ण न म
जब श्रुति अर्थात एक स्थान से उच्चरित कई वर्णों का प्रयोग हो तो वहां श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. अक्सर आया कपोत गौरैया संग हुलस
यहाँ अ क आ क ग ग ह कंठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
२. इधर ईद चन्दा-छटा झट जग दे उजियार
यहाँ इ ई च छ झ ज ज य तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
३. ठोंके टिमकी डमरू ढोल विषम जोधा रण बीच चला
यहाँ ठ, ट, ड, ढ, ष, ण मूर्धाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
४. तुलसीदास सीदत निसि-दिन देखत तुम्हारि निठुराई
यहाँ त ल स द स स द त न स द न द त त न दन्ताक्षरों का प्रयोग किया गया है.
५. उधर ऊपर पग फैला बैठी भामिनी थक-चूर हो
यहाँ उ ऊ प फ ब भ म ओष्ठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
६. ए ऐनक नहीं तो दो आँख धुंधला देखतीं
यहाँ ए, ऐ कंठव्य-तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
७. ओजस्वी औलाद न औसर ओट देखती
यहाँ ओ औ औ ओ कंठ-ओष्ठ अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
८. वनराज विपुल प्रहार कर वाराह-वध हित व्यथित था
यहाँ व दंत-ओष्टाक्षर का प्रयोग किया गया है.
९. वाङ्गमय भी वाञ्छित, रणनाद ही मत तुम करो
यहाँ ङ् ञ् ण न म नासिकाक्षरों का प्रयोग किया गया है.

अलंकार चर्चा ०६ :

अंत्यानुप्रास अलंकार

जब दो या अधिक शब्दों, वाक्यों या छंद के चरणों के अंत में अंतिम दो स्वरों की मध्य के व्यंजन सहित आवृत्ति हो तो वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
छंद के अंतिम चरण में स्वर या व्यंजन की समता को अन्त्यनुप्रास कहा जाता है. इसके कई प्रकार हैं. यथा सर्वान्त्य, समान्तय, विषमान्त्य, समान्त्य-विषमान्त्य तथा सम विषमान्त्य।
अ. सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार:
सभी चरणों में अंतिम वर्ण समान हो तो सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. सामान्यत सवैया में यह अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसि बनी सिर सुंदर चोटी
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैजनिया कटि पीरी कछौटी
वा छवि को रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी (मत्तगयन्द सवैया, ७ भगण २ गुरु, २३ वर्ण)
२. खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं कौं झरी कै
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन मैं रंग को भरि कै
गेरत लाल गुलाल लली मन मोहनि मौज मिटा करि कै
जाट चली रसखानि अली मदमत्त मनौ-मन कों हरि कै (मदिरा सवैया, ७ भगण १ गुरु, २२ वर्ण)
आ. समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार
सम चरणों अर्थात दूसरे, चौथे छठवें आदि चरणों में अंतिम वर्णों की समता होने पर समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार होता है. दोहा में इसकी उपस्थिति अनिवार्य होती है.
उदाहरण:
१. जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दें 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
२. मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोइ
जा तन की झांई परै, श्याम हरित दुति होइ
इ. विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
विषम अर्थात प्रथम, तृतीय, पंचम आदि चरणों के अंत में वर्णों की समता विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार दर्शाती है. यह अलंकार सोरठा, मुक्तक आदि में मिलता है.
उदाहरण:
१. लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में
२. आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
​​तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
ई. समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
किसी छंद की एक ही पंक्ति के सम तथा विषम दोनों चरणों में अलग-अलग समानता हो तो समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. यह अलंकार किसी-किसी दोहे, सोरठे, मुक्तक तथा चौपाई में हो सकता है.

उदाहरण :
१. कुंद इंदु सम देह, उमारमण करुणा अयन
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन
इस सोरठे में विषम चरणों के अंत में देह-नेह तथा सम चरणों के अंत में अयन-मयन में भिन्न-भिन्न अंत्यानुप्रास हैं.
२. कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
इस दोहे में विषम चरणों के अंत में 'मूसलाधार है' व 'हाहाकार है' में तथा सम चरणों के अंत में 'बरसात' व 'रात' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
३. आँख मिलाकर आँख झुकाते आँख झुकाकर आँख उठाते आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
इस मुक्तक में 'मिलाकर', 'झुकाकर', 'मारकर' व दिखाकर' में तथा 'झुकाते', उठाते', 'करते' व 'कराते' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
उ. सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब छंद के हर दो-दो चरणों के अन्त्यानुप्रास में समानता तथा पंक्तियों के अन्त्यनुप्रास में भिन्नता हो तो वहां सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करात सन्ततं प्रतिपाला ।।
भाल चद्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नाग फनीके ।।
यहाँ 'दयाला' व 'प्रतिपाला' तथा 'नीके' व 'फनीके' में पंक्तिवार समानता है पर विविध पंक्तियों में भिन्नता है.
अन्त्यानुप्रास के विविध प्रकारों का प्रयोग चलचित्र 'उत्सव' के एक सरस गीत में दृष्टव्य है:
मन क्यों बहका री बहका, आधी रात को
बेला महका री महका, आधी रात को
किस ने बन्सी बजाई, आधी रात को
जिस ने पलकी चुराई, आधी रात को
झांझर झमके सुन झमके, आधी रात को
उसको टोको ना रोको, रोको ना टोको, टोको ना रोको, आधी रात को लाज लागे री लागे, आधी रात को देना सिंदूर क्यों सोऊँ आधी रात को
बात कहते बने क्या, आधी रात को
आँख खोलेगी बात, आधी रात को
हम ने पी चाँदनी, आधी रात को
चाँद आँखों में आया, आधी रात को
रात गुनती रहेगी, आधी बात को
आधी बातों की पीर, आधी रात को
बात पूरी हो कैसे, आधी रात को
रात होती शुरू हैं, आधी रात को
गीतकार : वसंत देव, गायक : आशा भोसले - लता मंगेशकर, संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रपट : उत्सव (१९८४)
इस सरस गीत और उस पर हुआ जीवंत अभिनय अविस्मरणीय है.इस गीत में आनुप्रासिक छटा देखते ही बनती है. झांझर झमके सुन झमके, मन क्यों बहका री बहका, बेला महका री महका, रात गुनती रहेगी आदि में छेकानुप्रास मन मोहता है. इस गीत में अन्त्यानुप्रास का प्रयोग हर पंक्ति में हुआ है.
हरतालिका तीज

अलंकार चर्चा ०७ :

लाटानुप्रास अलंकार

एक शब्द बहुबार हो, किन्तु अर्थ हो एक
अन्वय लाट अनुप्रास में, रहे भिन्न सविवेक
जब कोई शब्द दो या अधिक बार एक ही अर्थ में प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय भिन्न हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है. भिन्न अन्वय से आशय भिन्न शब्द के साथ अथवा समान शब्द के साथ भिन्न प्रकार के प्रयोग से है.
किसी काव्य पद में समान शब्द एकाधिक बार प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय करने से भिन्नार्थ की प्रतीति हो तो लाटानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. राम ह्रदय, जाके नहीं विपति, सुमंगल ताहि
राम ह्रदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि
जिसके ह्रदय में राम हैं, उसे विपत्ति नहीं होती, सदा शुभ होता है.
जिसके ह्रदय में राम नहीं हैं, उसके लिए शुभ भी विपत्ति बन जाता है.
अन्वय अल्पविराम चिन्ह से इंगित किया गया है.
२. पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै??
यहाँ पूत, तो, क्यों, धन तथा संचै शब्दों की एकाधिक आवृत्ति पहली बार सपूत के साथ है तो दूसरी बार कपूत के साथ.
३. सलिल प्रवाहित हो विमल, सलिल निनादित छंद
सलिल पूर्वज चाहते, सलिल तृप्ति आनंद
यहाँ सलिल शब्द का प्रयोग चार भिन्न अन्वयों में द्रष्टव्य है.
४. मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अवतारी थी
यहाँ पहले दोनों तेज शब्दों का अन्वय मिला क्रिया के साथ है किन्तु पहला तेज करण करक में है जबकि दूसरा तेज कर्ता कारक में है. तीसरे तेज का अन्वय अधिकारी शब्द से है.
५. उत्त्तरा के धन रहो तुम उत्त्तरा के पास ही
उत्तरा शब्द का अर्थ दोनों बार समान होने पर भी उसका अन्वय धन और पास के साथ हुआ है.
६. पहनो कान्त! तुम्हीं यह मेरी जयमाला सी वरमाला
यहाँ माला शब्द दो बार समान अर्थ में है,किन्तु अन्वय जय तथा वार के साथ भिन्नार्थ में हुआ है.
७. आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ
चित्रपटीय गीत की इस पंक्ति में आदमी शब्द का दो बार समानार्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु अन्वय हूँ तथा से के साथ होने से भिन्नार्थ की प्रतीति कराता है.
८. अदरक में बंदर इधर, ढूँढ रहे हैं स्वाद
स्वाद-स्वाद में हो रहा, उधर मुल्क बर्बाद
अभियंता देवकीनन्दन 'शांत' की दोहा ग़ज़ल के इस शे'र में स्वाद का प्रयोग भिन्न अन्वय में हुआ है.
९. सब का सब से हो भला
सब सदैव निर्भय रहें
सब का मन शतदल खिले.
मेरे इस जनक छंद (तेरह मात्रक त्रिपदी) में सब का ४ बार प्रयोग समान अर्थ तथा भिन्न अन्वय में हुआ है.
टिप्पणी: तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान!
चित्रपटीय गीत के इस अंश में मेरी जान शब्द युग्म का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु भिन्नार्थ में होने पर भी अन्वय भिन्न न होने के कारण यहाँ लाटानुप्रास अलंकार नहीं है. 'मेरी जान' के दो अर्थ मेरे प्राण, तथा मेरी प्रेमिका होने से यहाँ यमक अलंकार है.
गणेश चतुर्थी / विश्वकर्मा जयंती -२०१५

अलंकार चर्चा ०८ :

वैणसगाई अलंकार

जब-जब अंतिम शब्द में, प्रथमाक्षर हो मीत
वैणसगाई जानिए, काव्य शास्त्र की रीत
जब काव्य पंक्ति का पहला अक्षर अंतिम शब्द में कहीं भी उपस्थित हो वैणसगाई अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. माता भूमि मान
पूजै राण प्रतापसी
पहली पंक्ति में 'म' तथा दूसरी पंक्ति में प' की आवृत्ति दृष्टव्य है,
२. हरि! तुम बिन निस्सार है,
दुनिया दाहक दीन.
दया करो दीदार दो,
मीरा जल बिन मीन. - संजीव
३. हम तेरे साये की खातिर धूप में जलते रहे
हम खड़े राहों में अपने हाथ ही मलते रहे -देवकीनन्दन 'शांत'
४. नीरव प्रशांति का मौन बना बना - जयशंकर प्रसाद
५. सब सुर हों सजीव साकार …
.... तान-तान का हो विस्तार -मैथिली शरण गुप्त
६. पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल -निराला
७. हमने देखा सदन बने हैं
लोगों का अपनापन लेकर - बालकृष्ण शर्मा नवीन
८. जो हृदय की बात है वह आँख से जब बरस जाए - डॉ. रामकुमार वर्मा
९. चौकस खेतिहरों ने पाये ऋद्धि-सिद्धि के आकुल चुंबन -नागार्जुन
१०. तब इसी गतिशील सिंधु-यात्री हेतु -सुमित्रा कुमारी सिन्हा
गणेश चतुर्थी / विश्वकर्मा जयंती

अलंकार चर्चा ०९ :

शब्दावृत्तिमूलक अलंकार

शब्दों की आवृत्ति से, हो प्रभाव जब खास
शब्दालंकृत काव्य से, हो अधरों पर हास
जब शब्दों के बार-बार दुहराव से काव्य में चमत्कार उत्पन्न हो तब शब्दावृत्तिमूलक अलंकार होता है. प्रमुख शब्दावृत्ति मूलक अलंकार [ अ] पुनरुक्तप्रकाश, [आ] पुनरुक्तवदाभास, [इ] वीप्सा तथा [ई] यमक हैं. चित्र काव्य अलंकार में शब्दावृत्ति जन्य चमत्कार के साथ-साथ चित्र को देखने से उत्पन्न प्रभाव भी चमत्कार उत्पन्न करता है, इसलिए मूलत: शब्दावृत्तिमूलक होते हुए भी वह विशिष्ट हो जाता है.
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार
शब्दों की आवृत्ति हो, निश्चयता के संग
तब पुनरुक्तप्रकाश का, 'सलिल' जम सके रंग
पुनरुक्तप्रकाश अलंकार की विशेषता शब्द की समान अर्थ में एकाधिक आवृत्ति के साथ- की मुखर-प्रबल अभिव्यक्ति है. इसमें शब्द के दोहराव के साथ निश्चयात्मकता का होना अनिवार्य है.
उदाहरण :
१. मधुमास में दास जू बीस बसे, मनमोहन आइहैं, आइहैं, आइहैं
उजरे इन भौननि को सजनी, सुख पुंजन छाइहैं, छाइहैं, छाइहैं
अब तेरी सौं ऐ री! न संक एकंक, विथा सब जाइहैं, जाइहैं, जाइहैं
घनश्याम प्रभा लखि सखियाँ, अँखियाँ सुख पाइहैं, पाइहैं, पाइहैं
यहाँ शब्दों की समान अर्थ में आवृत्ति के साथ कथन की निश्चयात्मकता विशिष्ट है.
२. मधुर-मधुर मेरे दीपक जल
यहाँ 'जल' क्रिया का क्रिया-विशेषण 'मधुर' दो बार आकर क्रिया पर बल देता है.
३. गाँव-गाँव अस होइ अनंदा
४. आतंकवाद को कुचलेंगे, मिलकर कुचलेंगे, सच मानो
हम गद्दारों को पकड़ेंगे, मिलकर पकड़ेंगे, प्रण ठानो
रिश्वतखोरों को जकड़ेंगे, मिलकर जकड़ेंगे, तय जानो
भारत माँ की जय बोलेंगे, जय बोलेंगे, मुट्ठी तानो
५. जय एकलिंग, जय एकलिंग, जय एकलिंग कह टूट पड़े
मानों शिवगण शिव- आज्ञा पा असुरों के दल पर टूट पड़े
६. पानी-पानी कह पौधा-पौधा मुरझा-मुरझा रोता है
बरसो-बरसो मेघा-मेघा धरती का धीरज खोता है
७. मयूंरी मधुबन-मधुबन नाच
८. घुमड़ रहे घन काले-काले, ठंडी-ठंडी चली
९. नारी के प्राणों में ममता बहती रहती, बहती रहती
१०. विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात
११. हम डूब रहे दुःख-सागर में,
अब बाँह प्रभो!धरिए, धरिए!
१२. गुरुदेव जाता है समय रक्षा करो,
१३. बनि बनि बनि बनिता चली, गनि गनि गनि डग देत
१४. आया आया आया, भाँति आया
१५. फिर सूनी-सूनी साँझ हुई
गणेश चतुर्थी / विश्वकर्मा जयंती

अलंकार चर्चा १० :

यमक अलंकार

भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
काव्य पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण- आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद यमक
अधरान = पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति

अलंकार चर्चा ११ :

श्लेष अलंकार

भिन्न अर्थ हों शब्द के, आवृत्ति केवल एक
अलंकार है श्लेष यह, कहते सुधि सविवेक
किसी काव्य में एक शब्द की एक आवृत्ति में एकाधिक अर्थ होने पर श्लेष अलंकार होता है. श्लेष का अर्थ 'चिपका हुआ' होता है. एक शब्द के साथ एक से अधिक अर्थ संलग्न (चिपके) हों तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२. बलिहारी नृप-कूप की, गुण बिन बूँद न देहिं
राजा के साथ गुण का अर्थ सद्गुण तथा कूप के साथ रस्सी है.
३. जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह जानत सब कोइ
गाँठ तथा रस के अर्थ गन्ने तथा मनुष्य के साथ क्रमश: पोर व रस तथा मनोमालिन्य व प्रेम है.
४. विपुल धन, अनेकों रत्न हो साथ लाये
प्रियतम! बतलाओ लाला मेरा कहाँ है?
यहाँ लाल के दो अर्थ मणि तथा संतान हैं.
५. सुबरन को खोजत फिरैं कवि कामी अरु चोर
इस काव्य-पंक्ति में 'सुबरन' का अर्थ क्रमश:सुंदर अक्षर, रूपसी तथा स्वर्ण हैं.
६. जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय
बारे उजियारौ करै, बढ़े अँधेरो होय
इस दोहे में बारे = जलाने पर तथा बचपन में, बढ़े = बुझने पर, बड़ा होने पर
७. लाला ला-ला कह रहे, माखन-मिसरी देख
मैया नेह लुटा रही, अधर हँसी की रेख
लाला = कृष्ण, बेटा तथा मैया - यशोदा, माता (ला-ला = ले आ, यमक)
८. था आदेश विदेश तज, जल्दी से आ देश
खाया या कि सुना गया, जब पाया संदेश
संदेश = खबर, मिठाई (आदेश = देश आ, आज्ञा यमक)
९. बरसकर
बादल-अफसर
थम गये हैं.
बरसकर = पानी गिराकर, डाँटकर
१०. नागिन लहराई, डरे, मुग्ध हुए फिर मौन
नागिन = सर्पिणी, चोटी

​-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन ४८२००१
​94251 83244

Friday, September 11, 2015

प्रेमचंद का पशु प्रेम : एक परिचय

    मुंशी प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के एक ऐसे रचनाकार थे जिनका साहित्य भारतीय जनमानस मे हमेषा से ही लोकप्रिय रहा है, उन्होने साहित्य की लगभग सभी विधाओ मे खूब लिखा परन्तु जितनी ख्याति उन्हे कहानियों के माध्यम से मिली वह अन्य विधा मे लिखे साहित्य से नही । उनकी लिखी कहानियों ने हमेषा से ही पाठको का भरपूर मार्गदर्षन व ज्ञानवर्धन किया । उनका लिखा साहित्य हमेषा से ही प्रासंगिक रहा है । प्रेमचंद साहित्य के प्रसिद्ध मनीषी व चिंतक डॉ0 कमल किषोर गोयनका अपनी पुस्तक 'प्रेमचंद: कहानी रचनावली' (भाग-6) मे प्रेमचंद की उपलब्ध 298 एवं अनुपलब्ध 03 हिन्दी-उर्दू कहानियों के संबंध मे सूचना प्रदान करते है । इस पुस्तक मे प्रेमचंद की उपलब्ध सभी 298 कहानियां कालक्रमानुसार अर्थात् कहानी के प्रथम प्रकाषन वर्ष चाहे वह सर्वप्रथम उर्दू मे हुई हो या हिन्दी मे हो, के रूप मे संकलित की गई है । प्रेमचंद की इन 298 हिन्दी-उर्दू कहानियों का अवलोकन करने के पश्चात् ज्ञात होता है कि प्रेमचंद ने इन कहानियों मे कई विषयों को लेकर बेहतरीन कहानियों की रचना की है । इन कहानियों मे दलित-विमर्ष की कहानियां, नारी चितंन की कहानियां, गांवो से संबंधित कहानियां, सामाजिक कहानियां, हिन्दू-मुस्लिम संबंधी कहानियां, देषप्रेम संबंधी कहानियां, पशु पक्षियों पर आधारित कहानियां, हाष्य व्यग्ंय पर आधारित कहानियां, बालको के लिये लिखी गयी कहानियां आदि देखने को मिलती है ।
    प्रेमचंद की पत्नी श्रीमती षिवरानी देवी अपनी पुस्तक 'प्रेमचंद: घर में' भी एक जगह प्रेमचंद के पशुप्रेम की जानकारी देती है । उनके अनुसार-''एक बार की बात है । मैं बीमार थी । मुझे दस्त की बीमारी थी । मेरा लडका धुन्नू आठ महीने का था । बीमार कई महीने रही । डाक्टरो को आषंका थी कि अपने बच्चे को मैं दूध पिलाती रही तो तपेदिक हो जाने का पूरा खतरा है......इस पर प्रेमचंद जी ने एक बकरी मंगवायी । बच्चे के लिये जब भी दूध पीने की जरूरत पडी, खुद दुहते । चाहे कोई समय क्यो न हो ।'' (प्रेमचंद: घर मे, पृष्ठ: 61-62) इसी पुस्तक मे षिवरानी देवी प्रेमचंद के गाय प्रेम के संबंध मे एक रोचक प्रसंग की जानकारी देते हुये कहती है कि-''जब मै गोरखपुर में थी, तो मेरे गाय थी । वह गाय एक दिन कलेक्टर के हाते मे चली गई । कलेक्टर ने कहला भेजा कि अपनी गाय ले जाये । नही तो मैं गोली मार दूंगा......साहब के पास जाकर आप बोले-'आपने मुझे क्यों याद किया ? ' 'तुम्हारी गाय मेरे हाते मे आई । मैं उसे गोली मार देता । हम अंग्रेज हैं ।' 'साहब, आपको गोली मारनी थी तो मुझे क्यो बुलाया ?' 'आप जो चाहे सो करते । या आप मेरे खडे रहते गोली मारते ?' 'हां, हम अंग्रेज है, कलक्टर है । हमारे पास ताकत है । हम गोली मार सकता है ।' 'आप अंग्रेज है, कलक्टर है । सब कुछ है, पर पब्लिक भी तो कोई चीज है ।' 'मैं आज छोड देता हॅू, आइन्दा आई तो हम गोली मार देगा ।' (प्रेमचंद: घर मे, पृष्ठ: 64) इस प्रकार प्रेमचंद अंग्रेज कलेक्टर से अपनी गाय को छुडाकर ले आते है जो उनकी पशुओ के प्रति प्रेम व वफादारी को दर्षाता है ।
    प्रेमचंद कहानियों मे पुरूष पात्रों के माध्यम से अपनी बातो को कहने का सामथ्र्य तो रखते ही थे उन्होने पशु पक्षियों के माध्यम से भी अपने विचारों को पाठको तक बखूवी पहुंचाया है । प्रेमचंद की उपलब्ध 298 कहानियों का अवलोकन करने पर हमे पशु पक्षियों पर आधारित कई बेहतरीन कहानियां देखने को मिलती है इन कहानियों के केन्द्र मे कहीं न कहीं पशु पक्षियों का योगदान रहा है । यह सभी कहानियां रोचक व षिक्षाप्रद है ।
    प्रस्तुत आलेख मे प्रेमचंद की पशु पक्षियों पर आधारित कहानियों के संबंध मे विस्तृत चर्चा करने का प्रयास किया गया है, ताकि पाठक जान सके कि प्रेमचंद पुरूष पात्रों के अलावा मूक पशु पक्षियो से भी बात कहलवा सकते थे । प्रेमचंद की इन पशु पक्षियो पर आधारित कहानियों मे ऐसा जान पडता है जैसे ये निरीह पशु पक्षी बोलना जानते हो । यह एक विलक्षण रचनाकार की लेखनी का ही जादू था जो पाठको को ऐसी-ऐसी सुन्दर रचनाये प्राप्त हुई । नीचे ऐसी ही पशु पक्षियों पर आधारित कहानियों की चर्चा है जिनके केन्द्र मे पशु पक्षी ही थे । जो अपनी उपस्थिति से रचना को मनोरंजक बनाने के साथ-साथ एक षिक्षा भी प्रदान करते है ।
    प्रेमचंद की पशुओ को लेकर बनाई कई सर्वप्रथम प्रकाषित कहानी 'अदीब', उर्दू पत्रिका के अप्रैल 1913 के अंक मे 'सगे-लैल' (लैला का कुत्ता) नामक शीर्षक से प्राप्त होती है । इस कहानी मे कुत्ते की महत्वपूर्ण भूमिका है । यह एक रोचक प्रेम पर आधारित कहानी है जिसमे एक प्रेमिका जिसका नाम लैला है उसके दो प्रेमी है । यह दोनो ही लैला को पाना चाहते है परन्तु कहानी का प्रमुख पात्र एक कुत्ता है जो इन दोनो के बीच मे आता है और कहानी मे कई रोचक व हाष्यास्पद घटनायें घटित होती है जो पाठको का भरपूर मनोरजंन करती है । इस कहानी मे कुत्ते का योगदान महत्वपूर्ण है । कहानी तो साधारण है परन्तु पाठको का मनोरजंन भरपूर होता है ।
    'जमाना', उर्दू मासिक पत्रिका के जनवरी 1920 के अंक मे प्रकाषित कहानी 'आत्माराम' को प्रेमचंद ने 'तोत' को केन्द्र मे रखकर कहानी की रचना की है । कहानी मे महादेव नामक सुनार वेदो ग्राम मे रहता है उसके पास एक तोता है जिसे वह हर रोज सुबह-सुबह घुमाने के लिये ले जाता है और 'सत्त गुरूदत्त षिवदत्त दाता, राम के चरण मे चित्त लागा' का बारवार उच्चारण करता । एक दिन किसी बालक ने तोते के पिजंरे को खोल दिया और तोता उड गया । काफी प्रयासों के बाद भी तोता पकड मे नही आया । महादेव रातभर तोता के इन्तजार मे बैठा रहा जहां उसे एक पेड के नीचे मोहरो से भरा कलसा प्राप्त होता है । सुबह होने पर तोता भी पिजंरे मे आकर बैठ जाता है । कहानी मे महादेव सुनार और तोता के द्वारा जीवन के यथार्थ की चर्चा की गई है । कहानी मे कुछ-कुछ आध्यात्म का पुट भी है । कहानी साधारण है जो पाठको को बांधकर रखने मे असफल रहती है ।
   'स्वत्व रक्षा' कहानी जो 'माधुरी', हिन्दी मासिक पत्रिका के जुलाई 1922 के अंक मे प्रकाषित हुई थी, मे प्रेमचंद एक घोडे को केन्द्रीय पात्र बनाकर हाष्यबोध की उत्कृष्ट कहानी की रचना करते है । कहानी मे एक घोडे द्वारा किस प्रकार अपने स्वत्व की रक्षा की जाती है वह बडे ही हास परिहास के रूप मे चित्रित किया गया है । कहानी अनुसार मीर दिलावर अली के पास एक बडी रास का कुम्मैत घोडा है यहां घोडा केवल पशु ही नही है बल्कि वह देखता है, सोचता है, विचार करता है, जिद करता है, वह स्वामी भक्त है तथा इतवार के दिन कोई भी कार्य नही करता है । इतवार का दिन उसके आराम करने का दिन होता है । एक दिन मीर साहब के मित्र मुंषी सौदागरलाल अपने पुत्र की बारात ले जाने के लिये मीर साहब से घोडा मांगकर ले जाते है परन्तु इतवार का दिन होने के कारण घोडे के द्वारा कोई कार्य करना दुष्कर था इस तरह बारातियों और घोडे को लेकर कहानी मे कई प्रकार के रोचक व हाष्यास्पद प्रसंग देखने को मिलते है । कहानी पूर्ण रूपेण हास्य व्यंग्य की चाषनी मे डूबी हुई है । जो पाठक को अंत तक बांधे रखती है ।
    'माधुरी', हिन्दी मासिक पत्रिका के अगस्त 1922 के अंक मे प्रकाषित कहानी 'अधिकार चिन्ता' मे प्रेमचंद एक बार फिर अपने प्रिय पात्र कुत्ते को नायक बनाकर प्रस्तुत करते है । कहानी मे टामी नामक कुत्ता किस प्रकार अपने अधिकार की चिन्ता करता है, खूबसूरती के साथ दर्षित किया गया है । टॉमी को प्रतिद्वन्दी की चिंता, राजा बनने की आकांक्षा, नदी को पार कर रमणीय स्थल मे प्रवेष करना आदि कई घटनायें कहानी मे रोमाचंक रूप से घटित होती है जिसका नायक टॉमी ही है ।
    उर्दू पत्रिका 'तहजीबे-निस्वां' के 5-22 अगस्त 1922 के अंक मे प्रकाषित कहानी 'नागपूजा' मे प्रेमचंद इस बार सांपो को लेकर एक चमत्कारी कहानी की रचना करते है । वैसे भी हिन्दू समाज मे सावन की पंचमी को नागो को पूजने की परम्परा है क्योकि इस दिन नागो की पूजा करने से लोगो की मनोकामनायें पूर्ण होती है । कहानी मे तिलोत्तमा नामक प्रमुख पात्रा के पति को नाग काटता है ऐसा तिलोत्तमा के साथ दो बार होता है और दोनो ही बार नाग तिलोत्तमा के पति को काटता है तथा दोनो ही बार वह विधवा हो जाती है । अंत मे तिलोत्तमा का विवाह तीसरी बार ढाका विष्वविद्यालय के अध्यापक दयाराम के साथ होना निष्चित होता है । दयाराम सांपो के विषय मे जानते थे तथा उन्होने सांपो के आचार व्यवहार के संबंध मे विषेष रीति से अध्ययन किया था । शादी पश्चात् एक दिन सांप तिलोत्तमा के रूप मे दयाराम पर हमला करता है परन्तु दयाराम तिलोत्तमा पर पिस्तौल से हमलाकर तिलोत्तमा के शरीर मे प्रवेषित सांप की आत्मा का खात्मा करता है व तिलोत्तमा को इस कष्ट से मुक्त करता है । कहानी मे भरपूर रहस्य, रोमांच व अंधविष्वास को प्राथमिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है ।
    'माधुरी', हिन्दी मासिक पत्रिका के दिसम्बर 1922 के अंक मे प्रकाषित 'पूर्व संस्कार' नामक कहानी मे बछडे से बैल बने धर्मपरायण षिवटहल नामक पात्र के द्वारा एक अद्भुत कहानी की रचना देखने को मिलती है । धर्म की राह पर चलने वाला षिवटहल नामक पात्र एक अपराध के कारण बछडे के रूप मे अपने ही भाई रामटहल के घर मे जन्म लेता है । इस बछडे के रूप मे उसका नाम 'जवाहिर' रखा जाता है । प्रेमचंद ने कहानी मे इस बछडे का वर्णन कुछ इस तरह से किया है-''बछडा श्वेत वर्ण था । उसके माथे पर एक लाल तिलक था । आंखे कजरी थी । स्वरूप का अत्यंत मनोहर और हाथ-पांव का सुडौल था । दिन भर किलोले किया करता ।'' (प्रेमचंद कहानी रचनावली, डॉ0 गोयनका, भाग-3, पृष्ठ: 121) एक महात्मा द्वारा इस बछडे के भविष्य के संबंध मे बताया जाता है कि अगर यह छठंवा वर्ष पार कर लेगा तो इसके जीवन को कोई कष्ट नही है । जवाहिर की अवस्था ढाई वर्ष की होने पर वह बछडे से बैल हो गया था । परन्तु छठंवा वर्ष आते ही जवाहिर अपना पूर्व जन्म का प्रायष्चित पूर्णकर निर्वाण पद को प्राप्त होता है । क्योकि पूर्व जन्म मे षिवटहल ने अपनी व अपने भाई की पूंजी को सद्कर्मो, धर्म के कार्यो मे लगाकर नष्ट कर दिया था इस कारण उसी परिणाम के फलस्वरूप रामटहल को हुई हानि की पूर्ति करने हेतु बछडे के रूप मे जन्म लेकर पश्चाताप पूर्ण करना था । कहानी हिन्दी धर्म को प्रदर्षित करती उत्कृष्ट रचना है तथा कहानी के अंत मे रामटहल सोचता है कि......''ऐसे धर्मात्मा प्राणी को जरा से विष्वासघात के लिये इतना कठोर दण्ड मिला तो मुझ जैसे कुकर्मी की क्या दुर्गति होगा ।'' (प्रेमचंद कहानी रचनावली, डॉ0 गोयनका, भाग-3, पृष्ठ: 125) कहानी मे पुर्नजन्म लेकर अपने पश्चाताप को पूर्ण कर निर्वाण पद प्राप्त करना व ह्दय परिवर्तन की उम्दा कहानी है ।
    'सैलानी बंदर' नामक कहानी जो माधुरी', हिन्दी मासिक पत्रिका के फरवरी 1924 के अंक मे प्रकाषित हुई थी, में प्रेमचंद इस बार एक 'बंदर' को लेकर आते है जो जीवनदास नामक मदारी और उसकी पत्नी बुधिया की आजीविका का एकमात्र सहारा है । बंदर अपनी लीलाओ के कारण पकडा जाता है । मदारी और उसकी पत्नी द्वारा दस रूपये का हरजाना न दे पाने के कारण वह बंदर को छुडा नहीं पाते है । कहानी मे विभिन्न घटनाक्रम घटित होते है । मदारी बंदर के इंतजार मे मर जाता है और उसकी पत्नी बुधिया पागल हो जाती है । लेकिन अंत मे बंदर छूटकर आता है वह बुधिया को पहचान जाता है । बुधिया को भी लगता है कि बंदर के न होने के कारण ही मेरी दषा पागलो जैसी हो गयी थी । प्रेमचंद इस कहानी का अंत इस प्रकार करते है कि-''लोग बुधिया के प्रति बंदर का यह प्रेम देखकर चकित हो जाते थे और कहते थे कि यह बंदर नही, कोई देवता है ।'' (प्रेमचंद कहानी रचनावली, डॉ0 गोयनका, भाग-3, पृष्ठ: 245) इस प्रकार यह कहानी मनुष्य और पशु के प्रेम की कहानी है ।
    'माधुरी', हिन्दी मासिक पत्रिका के मई 1924 के अंक मे प्रकाषित कहानी 'मुक्तिधन' गाय के प्रति प्रेम व अनुराग की कहानी है । कहानी मे एक गरीब मुस्लिम किसान रहमान अपनी जान से प्यारी गाय को बाजार मे बेचने जाता है परन्तु वह अपनी गाय को ज्यादा दाम मिलने के वावजूद कम दामो मे लाला दाऊदयाल को बेच देता है । क्योकि रहमान को लगता है कि लालाजी हिन्दू है और गाय की संपूर्ण सेवा करेंगे । एक मुस्लिम पात्र के द्वारा इस प्रकार की भावना एक पशु के प्रति रखना हिन्दू मुस्लिम एकता के सौहार्द को दर्षाता है जिसे प्रेमचंद ने इस कहानी मे बखूवी दर्षाया है । दाऊदयाल पैसे के लेनदेन का व्यवसाय करते थे । एक मुस्लिम व्यक्ति द्वारा कम दामो मे लाला जी को गाय बेचना लालाजी को  बहुत प्रभावित करता है । कहानी कई घटनाक्रम से गुजरती है । यह कहानी एक प्रकार से नई थी जो अपने कथ्य के कारण काफी लोकप्रिय रही थी । प्रेमचंद ने भी चतुराई से एक जानवर को लेकर हिन्दू मुस्लिम संबंधो के प्रेम की खूब वकालत की है । इस प्रकार यह एक आष्चर्यजनक घटना थी जो कम ही देखने को मिलती है । प्रेमचंद हिन्दू और मुस्लिम दोनो पात्रो को मनुष्यता, सद्भाव तथा विष्वास की चरम स्थिति तक ले जाते है और दोनो को बडा बनाते है ।
    गुप्तधन भाग-2, हिन्दी कहानी संग्रह, जुलाई 1962 मे संकलित कहानी Óनादान दोस्तÓ भाई बहन के आपसी प्यार व भोलेपन की कहानी है । इस कहानी मे प्रेमचंद चिडियों के संबंध मे व्याख्या करते है । कहानी मे केषव और श्यामा नामक भाई बहन के घर के कार्निष पर चिडियां ने अण्डे दिये है । दोनो बालक चिडियों के बच्चो के लिये खाने पीने की व्यवस्था करते है, व उनकी देखभाल करते है । परन्तु अंजाने मे बच्चो के भोलेपन के कारण चिडियों के अण्डे टूट जाते है जिस पर दोनो भाई बहन को गहरा दुख होता है । कहानी भाई बहन के अबोध प्यार व मासूमियत को दर्षाती है जिन्हे इस बात का अहसास नही है कि चिडियों के अण्डे छूने पर वह गन्दे हो
    जाते है और चिडियां फिर उन्हे नही सेती है । कहानी मे बालको का भोला संसार है जो रोचक है । कहानी बाल पाठको को केन्द्र मे रखकर लिखी गयी है जो रोचक व पठनीय है ।
    'माधुरी', हिन्दी मासिक पत्रिका के मई 1930 के अंक मे प्रकाषित कहानी 'पूस की रात' मुख्यत: एक किसान हल्कू और उसकी पत्नी मुन्नी की गरीबी बयां करती एक उच्चकोटि की कहानी है परन्तु इस कहानी मे 'जबरा' नामक कुत्ते का भी प्रयोग प्रेमचंद ने बखूवी किया है । जबरा हल्कू के साथ रात मे खेत की रखवाली करते वक्त उसके साथ खेलता है । हल्कू जब सर्दी अत्यधिक होने के कारण जबरा से चिपककर सोता है तो जबरा हल्कू को गर्मी का अहसास कराता है । रात मे जब खेत पर नीलगायों का झुण्ड आक्रमण करता है तो जबरा ही जोर-जोर से भूंककर हल्कू को नीलगायों द्वारा खेत पर आने को लेकर सूचित करता है व उनको भगाता है । जबरा पूर्ण रूपेण स्वामीभक्त है तथा अपने स्वामी व उसके कार्यो के लिये सदैव तत्पर रहता है । कहानी मे इस प्रकार जबरा कुत्ते की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जा सकती है ।
    'हंस', हिन्दी मासिक पत्रिका के अक्टूबर 1931 के अंक मे प्रकाषित कहानी 'दो बैलों की कथा' आज भी अपने सुन्दर कथ्य के कारण हिन्दी साहित्य जगत् मे अपना सर्वोच्च स्थान रखती है । इस कहानी की गणना प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियों मे की जाती है । कहानी मे हीरा मोती नामक दो बैलो को लेकर प्रेमचंद ने महत्वपूर्ण कहानी की रचना की थी । इन दोनो बैलों मे अद्भुत भाईचारा व प्रेम है इन बैलों के मालिक का साला अपने यहां बैलों को लेकर आता है परन्तु नई जगह व नये आदमी को देखकर दोनो बैल यहां से भाग जाते है । कहानी विभिन्न घटनाक्रम से होते हुये अंत मे दोनो बैल अपने मालिक के पास आकर ही दम लेते है । प्रेमचंद ने बैलों को लेकर एक मार्मिक कहानी की रचना की जो उनकी अद्भुत प्रतिभा को दर्षाता है । इस कहानी मे कई प्रभावोद्पादक दृष्य विद्यमान होते है जो पशुओ द्वारा मनुष्य को कई प्रकार के संदेष प्रदान करते है । कहानी की लोकप्रियता की वजह से इस पर हीरा मोती नामक एक फिल्म भी बनाई जा चुकी है ।
    प्रेमचंद की पशु पक्षियों पर आधारित अंतिम कहानी के रूप मे 'वारदात', उर्दू कहानी संग्रह, मार्च 1935 मे संकलित कहानी 'कोई दुख न हो तो बकरी खरीद लोÓ देखने को मिलती है । इस कहानी से पूर्व प्रेमचंद कुत्ता, बैल, गाय, चिडियां, सांप, घोडा, तोता व बंदर आदि पशु पक्षियो को लेकर अद्भुत कहानियों की रचना कर चुके थे । इस कहानी मे प्रेमचंद 'बकरी' को लेकर उपस्थित होते है । यह एक हास्य व्यंग्य की कहानी है जो पाठको का भरपूर मनोरजंन करने के साथ-साथ एक सीख भी देती है । कहानी मे कथावाचक दूध की समस्या से ग्रसित होने के कारण अपने दोस्त के साथ गाय खरीदता है परन्तु इसी दौरान कथावाचक के दोस्त का तबादला हो जाता है और दूध की समस्या एक बार फिर उपस्थित हो जाती है अंत मे कथावाचक पंडित जी के आग्रह पर एक बकरी को खरीद कर लाते है । परन्तु बकरी को चराने जैसा दुस्कर कार्य कथावाचक को ही करना पडता है । कहानी मे बकरी को लेकर कथावाचक व बकरी के बीच कई प्रकार के हास्यबोध दर्षाने वाले मनोरजंक दृष्य उपस्थित होते है जिन्हे पाठक पढते वक्त लोटपोट हुये बगैर नही रह सकता है । कहानी पूर्णत: मनोरजंक व हास्यव्यंग्य मे डूबी हुई है जिसे एक बार पाठको को अवष्य ही पढना चाहिये ।
    प्रेमचंद ने इन उपरोक्त कहानियों के अतिरिक्त बालको के लिये भी पशु पक्षियों को लेकर उच्चतम कहानियों की रचना की थी इन्हे भी देखा जाना उचित होगा । इनमे सर्वप्रथम 'हंस', हिन्दी मासिक पत्रिका के फरवरी 1936 के अंक मे 'जंगल की कहानियां' नामक संकलन के प्रकाषित होने का विज्ञापन मिलता है तथा इसका प्रथम संस्करण जनवरी 1936 मे 'सरस्वती प्रेस बनारस' से प्रकाषित हुआ था, की चर्चा की जाना आवष्यक है । इस संकलन मे बच्चो के लिये लिखी बारह कहानियां संकलित थी, जो पूर्णत: पशु पक्षियो पर ही आधारित थी । यह इनके शीर्षको को देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है । इन कहानियों के नाम इस प्रकार है-'षेर और लडका', 'वनमानुष की दर्दनाक कहानी', 'दक्षिण अफ्रीका मे शेर का षिकार', 'गुब्वारे पर चीता', 'पागल हाथी', 'सांप की मनी', 'बनमानुष खानसांमा', 'मि_ू', 'पालतू भालू', 'बाघ की खाल', 'मगर का शिकार' और 'जुडंवा भाई' आदि । इन कहानियों मे पुरूष पात्रों के साथ-साथ शेर, वनमानुष, चीता, हाथी, सांप, मि_ू, भालू, बाघ, मगर आदि पशु पक्षी भी अपनी गरिमामयी उपस्थिति से कहानियों को भरपूर रोचक बनाते है । इन कहानियों के द्वारा बालको का भरपूर मनोरजंन होने के साथ-साथ एक प्रेरणा भी प्राप्त होती है ।
    बच्चो को लेकर पशु पक्षियों पर आधारित दूसरा संकलन 'कुत्ते की कहानी' नामक शीर्षक से देखने को मिलता है जिसका 'हंस', हिन्दी मासिक पत्रिका के वर्ष नबम्वर 1935 के अंक मे प्रकाषित होने का विज्ञापन प्रकाषित हुआ था तथा इसका प्रथम संस्करण जुलाई 1936 मे 'सरस्वती प्रेस, बनारस' से प्रकाषित हुआ था । इस पुस्तक मे प्रेमचंद की एक भूमिका है जिस पर वर्ष जुलाई 1936 की तिथि मुद्रित है । इस पुस्तक मे प्रेमचंद ने एक कुत्ते को केन्द्र मे रखकर आदर्ष कहानी की रचना की है जो अपनी वफादारी से कहानी को पढनीय व रोचक बनाता है । इस प्रकार पशुओ के प्रति प्रेमचंद का प्रेम देखकर यह बखूवी अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होने इस बार एक स्वतंत्र पुस्तक कुत्ते को पात्र बनाकर तैयार कर दी थी ।
    उपरोक्त विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने अपनी कहानियों मे किस प्रकार पशु पक्षियो को लेकर उच्चकोटि की कहानियों की रचना की है । उनके पुरूष पात्रों की तरह ही पशु पक्षी भी कहानियों मे बोलते हुये नजर आते है जो सब समझते है, जानते है, वे स्वामी भक्त है जो अपने स्वामी के लिये कुछ भी करने को सदैव तत्पर रहते है । इस प्रकार वे कहानियों मे जीवंत हो गये जान पडते है । पाठक प्रेमचंद के इस पशु प्रेम पर आधारित कहानियों को पढे और देखे कि वे इन कहानियों की रचना मे किस कदर सर्वश्रेष्ठ दिखाई देते है। व पशुओ को लेकर बनाये गये संसार मे वे बीस ही साबित हुये है ।

कृष्णवीर सिंह सिकरवार

आवास क्रमांक एच-3,
राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विष्वविद्यालय,
एयरपोर्ट वायपास रोड, गांधी नगर,
भोपाल-462033 (म0प्र0)
मो0 09826583363

Saturday, August 8, 2015

लोक संस्कृति की लय है कजरी - के.के. यादव



सावन के मौसम में प्रेम की अनुभूति है कजरी

भारतीय परम्परा का प्रमुख आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। यहाँ लोक कोई एकाकी धारणा नहीं है बल्कि इसमें सामान्य-जन से लेकर पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, ऋतुएं, पर्यावरण, हमारा परिवेश और हर्ष-विषाद की सामूहिक भावना से लेकर श्रृंगारिक दशाएं तक शामिल हैं। ‘ग्राम-गीत‘ की भारत में प्राचीन परंपरा रही है। लोकमानस के कंठ में, श्रुतियों में और कई बार लिखित-रूप में यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होते रहते हैं। पं. रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों में-‘ग्राम गीत प्रकृति के उद्गार हैं। इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है। छन्द नहीं, केवल लय है। लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है। ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति मानो गान करती है। प्रकृति का यह गान ही ग्राम गीत है....।’ इस लोक संस्कृति का ही एक पहलू है- कजरी। ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रकृति की अनुपम छटा के बीच कजरी की धारायें समवेत फूट पड़ती हैं। यहाँ तक कि जो अपनी मिटटी छोड़कर विदेशों में बस गए, उन्हें भी यह कजरी अपनी ओर खींचती है। तभी तो कजरी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि देशों में भी अपनी अनुगूंज छोड़ चुकी है। सावन के मतवाले मौसम में कजरी के बोलों की गूंज वैसे भी दूर-दूर तक सुनाई देती है -
रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयां गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै न
वो ही धानियां की कियरिया
मोर सविरया भीजै न।
वस्तुतः ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ गायन भर नहीं है बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। प्रतीक्षा, मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी, आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर, उन्हें जीवंत करने वाली ‘कजरी’ सावन की हरियाली बहारों के साथ जब फिज़ा में गूंजती है तो देखते ही बनता है। प्रतीक्षा के पट खोलती लोकगीतों की श्रृंखलाएं इन खास दिनों में गजब सी हलचल पैदा करती हैं, हिलोर सी उठती है, श्रृंगार के लिए मन मचलता है और उस पर कजरी के सुमधुर बोल! सचमुच ‘कजरी’ सबकी प्रतीक्षा है, जीवन की उमंग और आसमान को छूते हुए झूलों की रफ्तार है। शहनाईयों की कर्णप्रिय गूंज है, सुर्ख लाल मखमली वीर बहूटी और हरियाली का गहना है, सावन से पहले ही तेरे आने का एहसास! महान कवियों और रचनाकारों ने तो कजरी के सम्मोहन की व्याख्या विशिष्ट शैली में की है। मौसम और यौवन की महिमा का बखान करने के लिए परंपरागत लोकगीतों का भारतीय संस्कृति में कितना महत्व है-कजरी इसका उदाहरण है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं-
घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी साँवरिया।
छेड़छाड़ भरे इस माहौल में जिन महिलाओं के पति बाहर गये होते हैं, वे भी विरह में तड़पकर गुनगुना उठती हैं ताकि कजरी की गूँज उनके प्रीतम तक पहुँचे और शायद वे लौट आयें-
सावन बीत गयो मेरो रामा
नाहीं आयो सजनवा ना।
........................
भादों मास पिया मोर नहीं आये
रतिया देखी सवनवा ना।
यही नहीं जिसके पति सेना में या बाहर परदेश में नौकरी करते हैं, घर लौटने पर उनके सांवले पड़े चेहरे को देखकर पत्नियाँ कजरी के बोलों में गाती हैं -
गौर-गौर गइले पिया
आयो हुईका करिया
नौकरिया पिया छोड़ दे ना।
एक मान्यता के अनुसार पति विरह में पत्नियाँ देवि ‘कजमल’ के चरणों में रोते हुए गाती हैं, वही गान कजरी के रूप में प्रसिद्ध है-
सावन हे सखी सगरो सुहावन
रिमझिम बरसेला मेघ हे
सबके बलमउवा घर अइलन
हमरो बलम परदेस रे।
नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परन्तु शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की खास लोक संगीत विधा है। कजरी के मूलतः तीन रूप हैं- बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है-
बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी।
..................
रिमझिम पड़ेला फुहार
बदरिया आई गइले ननदी।
विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसन्द करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-
पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना
जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे
तोरे जेवना पे लगिहेैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।
विंध्य क्षेत्र में पारम्परिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चौपालों में जाकर स्त्रियाँ उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जाता। कजरी गीतों की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परम्परा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरम्भ होता है। स्वस्थ परम्परा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वन्दता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है। केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है-
कइसे खेलन जइबू
सावन में कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।
बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यह ‘हरे रामा‘ और ‘ऐ हारी‘ के कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है-
हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हारी।
सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु न तड़पेगा, फिर वह चाहे चन्द्रमा ही क्यों न हो-
चन्दा छिपे चाहे बदरी मा
जब से लगा सवनवा ना।
विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है। फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-
पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
जायके साइकील से ना
पिया मेंहदी लिअहिया
छोटकी ननदी से पिसईहा
अपने हाथ से लगाय दा
कांटा-कील से
जायके साइकील से।
..................
धोतिया लइदे बलम कलकतिया
जिसमें हरी- हरी पतियां।
ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहाँ मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ है, जिसमें महिलायें झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुयी अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबन्धन पर्व को ‘कजरी पूर्णिमा’ के तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरम्भ होता है, जिसे ‘कजरी नवमी’ के नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलायें खेतों से मिट्टी सहित फसल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसकी साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं। घर को खूब साफ-सुथरा कर रंगोली बनायी जाती है और पूर्णिमा की शाम को महिलायें समूह बनाकर पूजी जाने वाली फसल को लेकर नजदीक के तालाब या नदी पर जाती हैं और उस फसल के बर्तन से एक दूसरे पर पानी उलचाती हुई कजरी गाती हैं। इस उत्सवधर्मिता के माहौल में कजरी के गीत सातों दिन अनवरत् गाये जाते हैं।
कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाये रखना है तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा। कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गायी जाती हो पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने का भी कार्य किया है। कजरी सिर्फ राग-विराग या श्रृंगार और विरह के लोक गीतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की भी गूँज सुनायी देती है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। आजादी की लड़ाई के दौर में एक कजरी के बोलों की रंगत देखें-
केतने गोली खाइके मरिगै
केतने दामन फांसी चढ़िगै
केतने पीसत होइहें जेल मां चकरिया
बदरिया घेरि आई ननदी।
1857 की क्रान्ति पश्चात जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी हुकूमत को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें कालापानी की सजा दे दी गई। अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला ‘कजरी‘ के बोलों में गाती है-
अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा
नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियां रामा
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरी।
स्वतंत्रता की लड़ाई में हर कोई चाहता था कि उसके घर के लोग भी इस संग्राम में अपनी आहुति दें। कजरी के माध्यम से महिलाओं ने अन्याय के विरूद्ध लोगों को जगाया और दुश्मन का सामना करने को प्रेरित किया। ऐसे में उन नौजवानों को जो घर में बैठे थे, महिलाओं ने कजरी के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेरित किया-
लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु
मरद से बनिके लुगइया आए हरि
पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु
राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।
सुभाष चन्द्र बोस ने जंग-ए-आजादी में नारा दिया कि- ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हंे आजादी दूंगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएं भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठीं। तभी तो कजरी के शब्द फूट पड़े-
हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी
कड़ा-छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा
हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।
महात्मा गाँधी आजादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातने द्वारा उन्होेंने स्वावलम्बन और स्वदेशी का
रूझान जगाया। नवयुवतियाँ अपनी-अपनी धुन में गाँधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानतीं और एक स्वर में कजरी के बोलों में गातीं-
अपने हाथे चरखा चलउबै
हमार कोऊ का करिहैं
गाँधी बाबा से लगन लगउबै
हमार कोई का करिहैं।
कजरी में ’चुनरी’ शब्द के बहाने बहुत कुछ कहा गया है। आजादी की तरंगंे भी कजरी से अछूती नहीं रही हैं-
एक ही चुनरी मंगाए दे बूटेदार पिया
माना कही हमार पिया ना
चद्रशेखर की बनाना, लक्ष्मीबाई को दर्शाना
लड़की हो गोरों से घोड़ांे पर सवार पिया।
जो हम ऐसी चुनरी पइबै, अपनी छाती से लगइबे
मुसुरिया दीन लूटै सावन में बहार पिया
माना कही हमार पिया ना।
.................
पिया अपने संग हमका लिआये चला
मेलवा घुमाये चला ना
लेबई खादी चुनर धानी, पहिन के होइ जाबै रानी
चुनरी लेबई लहरेदार, रहैं बापू औ सरदार
चाचा नेहरू के बगले बइठाये चला
मेलवा घुमाये चला ना
रहइं नेताजी सुभाष, और भगत सिंह खास
अपने शिवाजी के ओहमा छपाये चला
जगह-जगह नाम भारत लिखाये चला
मेलवा घुमाये चला ना
उपभोक्तावादी बाजार के ग्लैमरस दौर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है और इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तोें को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परम्परा से जन-जन तक पहुँचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को भी बचाया जा सकता है। 

-कृष्ण कुमार यादव,

निदेशक डाक सेवाएँ,
राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र, जोधपुर -342001 

साहित्यकार भी थे क्रन्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांति समर्थक युवाओं का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनमें रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिहँ, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाकुल्ला खॉन, राजेन्द्र सिंह लाहड़ी, रोशन सिंह, राजगुरू, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा, उधम सिंह और करतार सिंह सराभा जैसे असंख्य नामवर और गुमनाम राष्ट्रभक्त शामिल थे। किंतु आजादी के बाद देश की बागडोर गांधीवादी कांग्रेसियों के हाथों में आ जाने के परिणामस्वरूप क्रांतिवीरों को सरकारी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा जिसके चलते आज तक उन अमर शहीदों के व्यक्तित्व और कृतित्व का सही मूल्यांकन नहीं हो सका है। किसी को काकोरी कांड का शहीद और किसी को असेम्बली बम कांड के शहीद नाम देकर दरकिनार कर दिया गया। जबकि वास्तविकता यह है कि ये शहीद न केवल आजादी के सर्वोच्य आदर्श के लिए अपना सर्वोच्य बलिदान देने वाले थे बल्कि वे उच्च कोटी के चिन्तक और साहित्यकार भी थे।
काकोरी कांड के नायक पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल एक उच्च कोटी के कवि और शायर थे, मगर देश को आजाद हुए छह दशक बीत जाने के बाद भी उन्हें शायर के रूप में पहचान नहीं मिली है।
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुएँ कातिल में है।
रामप्रसाद बिस्मिल की यह रचना आजादी के आंदोलन में क्रांतिवीरों का राष्ट्रीय तराना होती थी और आज भी देशभक्ति के कार्यक्रमों और आंदोलनों में इसे शान से गाया जाता है। बिस्मिल जी की एक और गज़ल जो उन्होंने जेल में रहते हुए लिखी थी और अवध अखबार में प्रकाशित हुई थी, उनके उत्कृष्ट शायर होने का पुख़्ता प्रमाण है-
मिट गया जब मिटने वाला, फिर सलाम आया तो क्या? 
दिल की बर्बादी के बाद, उनका पयाम आया तो क्या?
मिट गई ज़ुमला उम्मीदें, जाता रहा सारा ख्य़ाल,
उस घड़ी फिर नामवर, लेकर पयाम आया तो क्या?
पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल आर्य समाज से बेहद प्रभावित थे और ईश्वर की सर्वोच्य सत्ता को ही वे अनन्त मानते थे। उनकी यह रचना काबिले गौर है-
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जि़क्र या, तेरी ज़ुस्तजू रहे।
ब्रिटिश सरकार जब अन्यायपूर्ण तरीके से काकोरी कांड के वीरों को सजा-ए-मौत देने पर आमादा हुई तो सरकार को चेताते हुए बिस्मिल ने लिखा था-
मरते बिस्मिल रोशन लहरी अशफाक अत्याचार से।
होंगे पैदा सैंकड़ों इनके रुधिर की धार से।
बिस्मिल और उनके साथी अपने लक्ष्य के लिए पूरी तरह समर्पित थे और अपने उस लक्ष्य के लिए कोई भी बलिदान देने को तत्पर थे। जैसा कि उनकी यह रचना बयाँ करती है-
यदि देश हित मरना पड़े, मुझको सहस्त्रों बार भी,
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी।
मात्र 27 वर्ष की आयु में शहीद हो जाने वाले रामप्रसाद बिस्मिल बेहद परिपक्व चिंतक थे और वे किसी दुर्घटना के कारण क्रांतिकारी नहीं बने थे बल्कि पूरी तरह सोच-समझकर आजादी के आंदोलन में कूदे थे। उन्होंने लिखा था-
हम भी आराम उठा सकत थे घर पर रहकर,
हमको भी माँ-बाप ने पाला था दुख सहकर।
अपने ही दोस्तों द्वारा दगा दे दिए जाने और गवाही से मुकर जाने पर भी बिस्मिल ने उन्हें कोसा नहीं। उनके कोमल कवि हृदय से यही निकला-
वह फूल चढ़ाते हैं, तुर्बत भी दबी जाती है,
माशूक के थोड़े से भी एहसान बहुत हैं।
उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी दोस्तों की बेवफाई पर दुखी न होने का संदेश देते हुए लिखा-
सताये तझको जो कोई बेवफा बिस्मिल,
तो मुहं से कुछ न कहना, आह कर लेना।
बिस्मिल जंगे आजादी के कूदने से पूर्व ही अपने अंजाम से वाकिफ थे। इसलिए उन्होंने लिखा था-
हम शहीदाने वफा का दीनों ईमाँ और है,
सिजदे करते हैं हमेशा पाँव पर जल्लाद के।
इतने परिपक्व और उम्दा शायर रामप्रसाद बिस्मिल को आज महज काकोरी कांड के नायक के रूप में ही जाना जाता है, जो उनके शायर रूप के साथ बेहद नाइन्साफी है। आवश्यकता है उनकी रचनाओं को एक साथ संकलित करने और उन पर शोधात्मक कार्य करवाने की।

-रघुविन्द्र यादव