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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, February 18, 2023

चन्दन-सा चिंतन : समकालीन दोहा संग्रह

चन्दन-सा चिंतन : समकालीन दोहा संग्रह 

 (पाठकीय टिप्पणी)

'समकालीन दोहा' संग्रह के दोहों के विषय में अपनी राय देने से पहले, इसके पूर्ववर्ती दोहा-संकलन के विषय में अति संक्षेप में- ‘नई सदी के दोहे’ संकलन पढ़ा, शब्द-साधकों की साधना स्पष्ट परिलक्षित हुई, तो मन के किसी कोने से आवाज आई- काश! ये दोहाकार सकार भाव को केन्द्र में रखकर लिखें तो सुन्दरम् पक्ष कितना सुन्दर होकर निकले। इस विचार के चलते उस संकलन की पाठकीय प्रतिक्रिया के साथ सम्पादक महोदय से विनम्र आग्रह किया कि आगामी संग्रह सकारात्मक भाव-बोध पर आधारित हो तो अच्छा रहे। सम्पादक को पुन: पुन: साधुवाद कि उन्होंने मेरे आग्रह का मान रखते हुए उसी दिन प्रतिभागी दोहाकारों के नाम इस आशय कि एक पोस्ट डाल दी। कालक्रमानुसार रचनाकारों ने दोहे पोस्ट किए तो सम्पादक द्वय ने पाया कि उनमें से अधिकतर उपदेशात्मक थे। उन्होंने, बानगी के तौर पर, सकारात्मक कथ्य के दोहे पोस्ट किए। फिर भी बात पूरी तरह नहीं बनी तो समकालीन दोहा संकलन निकालने का निर्णय लिया गया। अस्तु।

मैं किसी वाद के प्रभाव में लेखन के पक्ष में नहीं, पर मन सकार भाव पर अधिक रमता है। एक कारण और वैश्विक महामारी कोरोना से जूझे-जकड़े आदमी को कुछ ऐसा चाहिए, जो सुकून-भरा हो, जो आस-विश्वास और मानवता की बात करे ताकि वह अपनी क्षीण हो चुकी ऊर्जा को पुन: प्राप्त कर सके।

36 दोहाकारों द्वारा रचित 551 दोहों से सज्जित ‘समकालीन दोहा’ संकलन पढ़ा तो मेरे अन्दर बैठा रचनाकार अपनी चाहत का ‘कुछ’ पाकर संतुष्ट हुआ। सकारात्मक कथ्यधारी दोहों को, बड़े फ़ख्र से, चन्दन-सा चिन्तन मानती हूँ। नकार-सकार का मिश्रण लिए यह दोहा संग्रह सहज भाव से बहुत कुछ कहता है –

बरसे काले मेघ जब, बुझी धरा की प्यास।
शुभ्र बादलों ने कभी, लिखा नहीं इतिहास।। (अरुण कुमार निगम)

हौसलों का अनूठापन दर्शाते दोहे देखिए –
घायल पग ने जब किया, चलने से इंकार।
मरहम बनकर हौसले, खड़े मिले तैयार।। (आशा खत्री लता)

आँधी बेहद तेज़ थी, पंछी थे कमज़ोर।
मगर हौसलों ने छुए, नभ के ऊँचे छोर।। (रघुविन्द्र यादव)

छोड़ा कभी न हौसला, लगा न जीवन भार।
कंटक पग-पग थे बिछे, फिर भी पहुँचा पार।। (डॉ. शैलेष वीर गुप्त)

युग कोई भी हो, सद्भाव की बात न्यारी है, वह भीड़ में भी पहचाना जाता है और दिग-दिगंत की यात्रा करता है सो अलग।
हवा फूल से ले रही, ख़ुशबू की सौगात।
सद्भावी उस फूल की, गयी दूर तक बात।। (कुँअर उदयसिंह)

दुनिया कभी विकल्पहीन नहीं होती, बस विकल्प ढूंढ़ने की चाह होनी चाहिए। इस भाव बोध का दोहा प्रस्तुत है –
सोचा फिर भी कथ्य का, हुआ नहीं जब बोध।
हमने मुड़कर कर लिया, पृष्ठों का ही शोध।। (क्षितिज जैन)

सुन्दर शिल्प-सौष्ठव तथा अर्थ-उत्कृष्टता की बानगी प्रस्तुत करता है यह दोहा–
मुझे कभी भाया नहीं, इत्रों का बाजार।
मैं खुद में जीती रही, बनकर हरसिंगार।।(गरिमा सक्सेना)

बेशक जीवन सुदी-बदी, भूख-प्यास, हर्ष-विषाद आदि का समुच्चय है परन्तु मन-मरुथल में मधुमास रखने की कला जान ली जाये तो कहना ही क्या –
जीवन सारा बन गया, एक चिरन्तन प्यास।
मन के मरुथल में कहीं, छिपा रहा मधुमास।। (जय चक्रवर्ती)

आस-विश्वास की प्रभावोत्पादकता से रूबरू करवाते हैं निम्नांकित दोहे–
सघन घटा विश्वास की, करती सब अनुकूल।
शैल धरातल तोड़कर, खिलते कोमल फूल।। (त्रिलोक सिंह ठकुरेला)

आज हवा में झर गये, मौसम के अनुकूल।
आ जायेंगे शाख पर, और नये कल फूल।। (प्रदीप दुबे)

कोयल फिर गाने लगी, नाच रहे हैं मोर।
चातक आशावान है, घटा देख घनघोर।। (रघुविन्द्र यादव)

अच्छी वस्तुओं-व्यक्तियों की दुर्लभता को संकेतित करता है यह दोहा –
पीड़ा मेरे घाव में, उसके दिल में टीस।
मानव ऐसे मीत कब, होते हैं दस-बीस।। (डॉ.सत्यवीर मानव)

ऐतिहासिक सत्य है कि सच्चे सेवक के लिए कठिनाई को आसानी में बदलना चुटकियों का काम है –
सत्य बहुत आसान है, आज़ादी की राह।
बस राजा के साथ हों, सेवक भामाशाह।। (सत्यशील राम त्रिपाठी)

जीवन में जीत-हार का सिलसिला जारी रहता है। हार से हार मानकर बैठना कमज़ोरी की निशानी है, वहीं इसे चुनौती-रूप में स्वीकार करने से पासा पलट जाया करता है -
जिसने अपनी हार को, लिया चुनौती मान।
मिली उसे ही जीत की, मीठी-सी मुस्कान।। (शिव कुमार दीपक)

उपरोक्त के अतिरिक्त संकलन में बहुत कुछ है जो व्यंग्यात्मक, प्रतीकात्मक, यथार्थपरक व सन्देशात्मक है। वर्तनी की केवल एक त्रुटि चिन्हित की गई (पृ. 26 अन्तिम दोहा)।

पठनीय-संग्रहणीय संकलन के लिए दोहाकारों तथा सम्पादक द्वय को हार्दिक साधुवाद।

-कृष्णलता यादव, गुरुग्राम 

पुस्तक – समकालीन दोहा
सम्पादक – रघुविन्द्र यादव, डॉ. शैलेष गुप्त वीर
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ – 96, मूल्य – 160रु.

Saturday, January 21, 2023

कबीराना अंदाज़ के दोहे : आये याद कबीर

कबीराना अंदाज़ के दोहे : आये याद कबीर

अर्द्धसम मात्रिक छंद दोहा बेहद प्राचीन सनातनी छंद रहा है। समय,काल और परिस्थितियों के साथ इसका कथ्य भले ही बदला हो, किंतु इसका मानक शास्त्रीय पक्ष एवं शिल्प ज्यों का त्यों रहा है। भक्ति काल,रीति काल तथा आधुनिक काल के दोहों का अपना-अपना महत्व है। अनेक संत कवियों को उनके दोहों की रचनाधर्मिता ही अमर कर गई। 
 
अपनी संक्षिप्तता,गागर में सागर, वक्रता, मारक क्षमता तथा कहन के अंदाज़ के चलते दोहे का जादू हर काल में सिर चढ़कर बोलता रहा है। यदि दोहे में से उपरोक्त घटकों को निकाल दिया जाए तो तेरह ग्यारह मात्राओं की इस सपाटबयानी को महज़ तुकबंदी ही कहा जाएगा।

समीक्ष्य कृति 'आये याद कबीर' दोहा के पर्याय कहे जाने वाले रचनाकार रघुविंद्र यादव का तीसरा दोहा संग्रह है,जिसमें मानक दोहा प्रारूप के तमाम मूलपक्ष देखे जा सकते हैं। कबीराना अंदाज,तल्ख मिजाज तथा विरोध की जनपक्षीय आवाज इस संग्रह की समग्र रचनाधर्मिता कि केंद्र में निहित है। 

दोहाकार सामाजिक विसंगतियों तथा विद्रूपताओं चित्रणभर ही नहीं करता, यथोचित शाब्दिक लताड़ भी मारता है। कुछ बानगियांँ देखिएगा-

पीट रहे हैं लीक को, नहीं समझते मर्म।
आडंबर को कह रहे, कुछ नालायक धर्म।।

गिरवी दिनकर की कलम,पढ़ें कसीदे मीर।
सुख-सुविधा की हाट में, बिकते रोज कबीर।।

ज्ञानी-ध्यानी मौन हैं,मूढ़ बांँटते ज्ञान।
पाखंडों के दौर है,सिर धुनता विज्ञान।।

संग्रह के तमाम दोहे व्यवस्था तथा सामाजिक दोगलेपन पर करारी चोट करते हैं। संग्रह में प्रतीकों का सहज समावेश प्रभाव छोड़ता है-

ख़ूब किया सय्याद ने, बुलबुल पर उपकार।
पंख काट कर दे दिया, उड़ने का अधिकार।।

हिम्मत टूटी हंस की, डोल गया विश्वास।
काग मिले जब मंच पर, पहने धवल लिबास।।

झूठ युधिष्ठिर बोलते, करण लूटते माल।
विदुर फिरौती ले रहे, केशव करें मलाल।।

विरोध के मूल स्वर में पगे इन दोहों से के माध्यम से सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में निरंतर हो रहे अवमूल्यन को सहज ही समझा जा सकता है-

नैतिकता ईमान से, वक्त गया है रूठ।
सनद मांगता सत्य से, कुर्सी चढ़कर झूठ।।

कहांँ रहेंगे मछलियांँ, सबसे बड़ा सवाल।
घड़ियालों ने कर लिए, कब्जे में सब ताल।।
 
विषय-विविधता, कलात्मक आवरण,सुंदर छपाई संग्रह की अतिरिक्त खूबियां हैं|
 
-सत्यवीर नाहड़िया

दुरूहता से दूर, काव्य-रस से भरपूर दोहे

दुरूहता से दूर, काव्य-रस से भरपूर दोहे

शब्द-कुठारा चल पड़ा, करने जमकर वार।
केवल शुचिता बच रहे, सुन्दर हो संसार।।

आये याद कबीर दोहाकार रघुविन्द्र यादव का तीसरा दोहा संग्रह है| कवि का आक्रोश है– व्यवस्था की कुचालों, सत्ता के दुराचरण, वैयक्तिक आडम्बरप्रियता, रिश्तों के खोखलेपन, अंधभक्ति, तथाकथित संतों की शर्मनाक करतूतों, माता-पिता के प्रति संतान के उपेक्षित व्यवहार, स्वार्थ की पराकाष्ठा, किसान-मजूर की दुर्दशा, घटते भाईचारे, मीडिया की कारगुजारी, नशाखोरी, संवेदनहीनता, कूपमण्डूकता तथा सामाजिक भेदभाव के प्रति। विसंगतियों, विद्रूपताओं को केन्द्र में रखकर कलम चलाई गई है, वहीं कवि मानव मात्र को संदेश देना नहीं भूला है। पीड़ा के इन मजमूनों में खुदा को भी नहीं बख़्शा गया–

ऊपर बैठे लिख रहा, सबके जीवन लेख।
हिम्मत है तो या खुदा, जग में आकर देख।।

जीवन है तो समस्याएँ हैं; उनके निराकरण हेतु कवि का आह्वान है–

हाथ बढाओ साथियो, मन से खौफ निकाल।
आओ सत्ता से करें, खुलकर रोज़ सवाल।।

संग्रह के अनेक दोहे कालजयी कोटि के हैं, यथा –

कुत्ता बेशक भौंक ले, कितनी ऊँची टेर।
वही रहेगा उम्र भर, नहीं बनेगा शेर।।

दौलत देती है कहाँ, कभी किसी का साथ। 
सभी सिकंदर लौटते, जग से खाली हाथ।।
 
छंद तपस्या माँगते, यादव रखना याद।
बिना तपे बनता नहीं, लोहा भी फौलाद।।

दिन-दिन बिगड़ते माहौल को देखकर कवि चेताता है-

गलत-सही का फैसला, अगर करेगी भीड़।
भाईचारा छोड़िये, नहीं बचेंगे नीड़।।

आमजन को सचेत किया है कि कुपात्र को सत्ता सौंपने से बचें अन्यथा–

झूठों को सत्ता मिले, भांड़ों को सम्मान।
हिस्से में ईमान के, तपता रेगिस्तान।।

दोहाकार की प्रश्नाकुलता साझी प्रश्नाकुलता हो जाती है जब वे कहते हैं–

भूखा है हर आदमी, सबके लब पर प्यास।
सरकारें करती रहीं, जाने कहाँ विकास।।

पाठक की अंतश्चेतना को झकझोरता एक अन्य उदाहरण है–

हिम्मत टूटी हंस की, डोल गया विश्वास।
काग मिले जब मंच पर, पहने धवल लिबास।।

भाव-गहनता के आधार पर मैं इस दोहे को सबसे ऊपर रखती हूँ–

जीवन भर लड़ता रहा, मैं औरों से युद्ध।
वो खुद से लड़कर हुआ, पल भर में ही बुद्ध।।

भाव व कला की उत्कृष्टता का नमूना देखिए–

कनक खेत में खप गई, सस्ती बिकी कपास।
रामदीन रुखसत हुआ, खा गोली सल्फास।।

कवि की व्यंजना-क्षमता को प्रमाणित करता है यह दोहा–

कितने दर्द अभाव हैं, झोपड़ियों के पास।
फिर भी महलों की तरह, रहती नहीं उदास।।

कवि पुन: पुन: सत्ता के स्वभाव पर चुटकी लेता नहीं थकता–

सत्ता ने अब कर लिए, आँख, कान सब बंद।
उसको शब्द विरोध के, बिलकुल नहीं पसंद।।

प्रतीक शैली, विरोधाभास अलंकार तथा कटूक्तियों का खुलकर प्रयोग किया गया है, प्रत्येक का एक-एक उदाहरण पेश है–

सूरज की पेशी लगी, जुगनू के दरबार।
हुई गवाही रात की, दोषी दिया करार।।

खुद को अब हीरा कहो, बढ़-चढ़ बोलो बोल।
जितना बढ़िया झूठ है, उतना ऊँचा मोल।।

भात-भात करते मरी, भारत की संतान।
शासक गंगा गाय की, छेड़ रहे हैं तान।।

दोहों में लयात्मकता, गेयता, ध्वन्यात्मकता के गुण विद्यमान हैं। कला पक्ष, भाव-पक्षपर खरे उतरते हैं ये दोहे। संग्रह का मुखपृष्ठ अर्थपूर्ण व मूल्य वाज़िब है। दोहाकार ने आत्मकथ्य में अपने दोहों की चोरी की बात लिखी है। देखिए न, मोतियों के सामने कंकरों की क्या बिसात? चोरी करनी ही है तो यूनीक की करे। मेरे कथन का अर्थ चौर्य-कर्म को मान्यता देने से नहीं, कवि के रचना-कौशल से है। साहित्यिक गलियारों में प्राय: पाठकों की कमी का रोना रोया जाता है। मेरे मतानुसार लेखन में दम हो तो पाठकों की कमी नहीं। वस्तुत: यही है लेखन की सार्थकता और कवि/लेखक की सफलता। कवि की इस चाहना से भला कौन सहमत नहीं होगा–

पढ़ पायेंगे क्या कभी, ऐसा भी अख़बार।
जिसमें केवल हो लिखा, प्यार, प्यार बस प्यार।।

रघुविन्द्र यादव डंके की चोट पर नाद करते हैं–

बेशक जाए जान भी, सत्य लिखूँगा नित्य।
क्या है बिना ज़मीर के, जीने का औचित्य?

कामना है, कवि का यह हौंसला नित नई बुलंदी पाता रहे। संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएँ।

-कृष्णलता यादव
गुरुग्राम 122001

Monday, January 16, 2023

उजालों की ओर अग्रसर करती लघुकथाएँ

उजालों की ओर अग्रसर करती लघुकथाएँ 

हिन्दी लघुकथा के ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में नजर घुमा कर देखें तो हिन्दी लघुकथा को डेढ़ शताब्दी पूर्ण होने को है। हिन्दी लघुकथा काल विभाजन के अनुसार हिन्दी लघुकथा काल (1875 से 1970) व आधुनिक हिन्दी लघुकथा, हिन्दी लघुकथा का ही एक परिष्कृत एवं संवर्द्धित रूप है, जो उसकी भाषा शैली, शिल्प एवं प्रस्तुतीकरण में साफ़ तौर से देखने को मिलता है। इस डेढ़ सदी के समय में सैंकड़ों लघुकथाकार आये और हजारों लघुकथाएँ लिखी गईं। सामान्य आँकड़ों को देखा जाये तो पिछली सदी के आधुनिक हिन्दी कथाकाल (1971-2000 तक) में रचित लघुकथाओं की संख्या से 21वीं सदी के प्रारम्भिक दो दशकों (2001-2021 तक) में लिखी लघुकथाएँ लगभग पाँच गुना अधिक हैं, जिसमें दूसरे दशक में लघुकथा लेखन अनुपातिक दृष्टि से कहीं अधिक हुआ है। इस पन्द्रह दशकीय लघुकथा लेखन से गुजरने तक एक तथ्य और सामने आया है कि इक्कीसवीं सदी में महिला लघुकथाकारों की संख्या में आश्चर्यजनक इजाफा हुआ है। निश्चित तौर पर इनमें से कुछ महिला लघुकथाकार अच्छा लेखन लेकर लघुकथा साहित्य में आई हैं। कुछ ऐसी महिला लघुकथाकार हैं जो बीसवीं सदी से लघुकथा लेखन से वर्तमान समय तक निरन्तरता बनाए हुए हैं, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य को नये आयाम दिये हैं। उन महिला लघुकथाकारों की प्रथम पंक्ति में खड़ी दिखाई देती हैं श्रीमती कृष्णलता यादव, जिन्होंने अपने पाँच मौलिक एकल लघुकथा संग्रह देकर आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य में श्रीवृद्धि की है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर लघुकथा लेखन की एक समर्पित रचनाकार हैं श्रीमती यादव। इन्होंने बाल साहित्य, काव्य, व्यंग्य व समीक्षात्मक लेखन में भी कलम चलाई है लेकिन मूल रूप से ये एक लघुकथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में पहचानी जाती हैं।

कृष्णलता जी की लघुकथाओं को मैं, इनके शुरुआती लेखन से ही पढ़ता रहा हूँ। इनका लेखन, अपने आप में मौलिक लेखन होने की छाप छोड़ता है। इनकी लघुकथाओं में नकारात्मक सोच नहीं होती, सीधी-सपाट, बिना कोई लाग-लपेट लिये सामान्य भाषा शैली की हुआ करती हैं, जिनके मर्म को पाठक आसानी से समझ सकता है।

कृष्णलता यादव का पाँचवाँ लघुकथा संग्रह ‘उजालों की तलाश’ मेरे सामने है, जो मुझे हर दृष्टि से अच्छा लगा। इस संग्रह के पठनोपरान्त, मुझे साहित्यिक नजरिये से जैसा लगा, वही मैं समीक्षात्मक दृष्टि से आपके समक्ष रख रहा हूँ।

संग्रह की कुछ लघुकथाएँ भावनाप्रधान कथ्य, सुदृढ़ शैली में, वास्तव में मन को छू लेने वाली हैं, जैसे सुबह का भूला, संकीर्णता, मीठी छुअन आदि। मैंने पाया कि लघुकथाकार सकारात्मक सोच की धनी हैं क्योंकि अधिकतर लघुकथाएँ घनात्मक पहलू लिये हुए हैं। किसी भी रचना में ऋणात्मक नजरिया दिखाई नहीं देता। ये लघुकथाएँ लेखकीय मूल्यों को बनाये रखने में सफल रही हैं। उदाहरण के तौर पर खुशियों का मूल्य, नजरिया, पकना उम्र का, सन्मार्ग की ओर, अस्तित्व का अहसास, डरा हुआ मन, पसीने का स्वाद, मुक्ति की तलाश, जेबकतरा, अंजुरी भर सुख आदि।

वर्तमान लघुकथा लेखन में अधिकतर रचनाओं में बुजुर्ग जीवन शैली में उपहास, परेशानी, अपनों द्वारा प्रताडना तथा उपेक्षाभाव दिखाया जाता है लेकिन श्रीमती यादव ने लीक से हटकर बुजुर्गों के प्रति
श्रद्धा व्यक्त करती लघुकथाओं की रचना की है, जो प्रशंसनीय एंव अनुकरणीय लेखन है। पावनता प्यार की, उलझनें, दादी का महात्म्य, भविष्य की चारपाई, सेतु, आत्मा का नाद, दुलार, मन की परतों का खुलना, पनियायी आँखें, संवेदनाएँ, पुरखों की गंध जैसी लघुकथाएँ बुजुर्गों के प्रति मान- सम्मान, अपनापन व श्रद्धा अभिव्यक्त करती हैं।

गरीबी अभिशाप नहीं अपितु एक आर्थिक परिस्थिति है, और जिस पुरुष ने उक्त युक्ति को समझ लिया वह मानव के रुप में मसीहा होता है। निदान, प्रवेश शुल्क, सुपोषण, बेड़ियाँ, समाज, मजबूरी, मापदंड, रतजगा, थिगली जैसी लघुकथाओं के माध्यम से ऐसा ही कुछ बताने की कोशिश लेखिका ने की है।

शाश्वत सत्य माना जाता है कि नारी का कोमल हृदय होना एक नारीत्व मूल्य है। इसी कथन को प्रमाणित करती मानवीय मूल्यों की पक्षधर लघुकथाएँ इस संग्रह में पढ़ने को मिलती हैं। संवेदन के पहलू, जीवन दर्शन, सुधियों के गीत, दुविधा के दोराहे पर, एक समझदार निर्णय, मनोबल, युद्ध का सत्य, हृदय निधि, साझा खाता, वात्सल्य पर्व, ममता का तकाजा, कोरोना काल आदि रचनाओं को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

नारी होने के नाते कृष्णलता जी ने नारी जीवन को नजदीक से देखा-परखा-भोगा है। अपनी अनुभवी दृष्टि से, नारी जीवन शैली को, सुन्दर शब्दों में नारी विमर्श हित कुछ लघुकथाएँ पाठकों के समक्ष रखी हैं, जैसे कर्मफल, चाहत के पायदान, कायान्तरण, दुनिया के रंग, सयानी औरत, उतरना माँ का, गरीबनी, पत्नी-धर्म तथा कितने वहम।

बाल जीवन अपने आप में एक अनमोल जीवनावस्था है, जो बेबाक, निश्चल, निडर एवं समस्याओं से परे होता है, बात-बात में न जाने कब क्या कह जाये। बाल मनोविज्ञान पर आधारित कला की मूर्तता, भुक्खड़, खुशियों के रंग, आवरण, कुछ उथला कुछ गहरा, प्रतिभा संरक्षण, असली बसंत, मारकता आदि रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं। लेखिका ने ऐसी शख्शियतों की भी पोल खोलने की हिमाकत की है जो कहते कुछ औऱ करते कुछ हैं। चेहरे पर मुखौटा लगाये, समाज के प्रतिनिधि की भूमिका निभाते देखा जाता है उन्हें। करनी-कथनी के अंतर को इंगित करती इनकी रचनाएँ हैं - दिखावे का सत्य, आईना दिखाना, शब्द सुनामी, अनूठी बात, वाह से आह तक, मैं शिव नहीं आदि । सनातन सत्य है कि कला को एक कला पारखी ही समझ पाता है बाकियों के लिये तो वे बेस्वादली हरकतें हैं, इस तथ्य को प्रमाणिकता प्रदान करती लघुकथाएँ भी इनकी कलम से निकली हैं, मन तरंग, भावों की दुनिया, लोकार्पण, किरचें और मरहम, कहानी का संसार लघुकथाएँ इस श्रेणी में गिनी जा सकती हैं।

अपने ही वंश का एक सामाजिक समूह होता है परिवार। परिवार में दुख-सुख व खुशियों भरे पलों की घटनाएँ घटना आम जीवन की सौगातें हैं। ये क्षण ही पारिवारिक सदस्यों को अटूट बंधन में बाँधे रखते हैं। पारिवारिक मोह को दर्शाती लघुकथाएँ संग्रह में अलग ही चमकती दिखाई देती हैं, जो वास्तव में परिवार में सामंजस्य बिठाती, स्नेह-श्रद्धा व अपनेपन को प्रेरित करती लाजवाब रचनाएँ बन पड़ी हैं, बतौर उदाहरण मदद, अपनी मिट्टी अपना देश, यथार्थ बनाम कल्पना, एक दूजे के लिए, दृश्य बदल गया, यूँ बनी बात और शांति के लिए।

वैसे तो लेखिका ने लगभग सभी विषयों पर लेखनी चलाई है लेकिन कुछ विषयों पर बहुत कम लिखा है जैसे पंडे-पुजारियों के आचरण पर, आत्मविश्वास, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ। कुछ विषय लेखिका की नजरों से छूट गये जिन पर एक भी लघुकथा नहीं है, जैसे दलित विमर्श, किन्नर जीवन शैली, कन्या भ्रूण हत्या, पौराणिक संदर्भ, देश विभाजन त्रासदी तथा राजनीति।

पूरे संग्रह से गुजरने पर यह सामने आया कि कुछेक लघुकथाओं में पात्रों को नामों के द्वारा संबोधित किया गया है जैसे मारकता लघुकथा की शुरुआत ‘अपनी पोती नेहा के होठों से ....।’ की गई है। यहाँ सिर्फ पोती शब्द से काम चल सकता था। यूँ बनी बात में भी ‘धीरू, नीरू दोनों भाइयों ....’ से पंक्ति की शुरुआत की गई है जबकि दोनों भाइयों लिखे जाने पर भी लघुकथा का वही भाव रहता। कुछ और लघुकथाएँ भी हैं जो नामित संबोधन शैली में रची गईं हैं।

संग्रह में पुस्तकीय शीर्षक वाली कोई रचना नहीं, लेकिन सभी लघुकथाएँ उजालों की तलाश की ओर प्रेरित करती बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, जो पाठकों को ज्ञानप्रद- प्रेरणास्पद मार्ग की ओर अग्रसर करती हैं। इस रचना संसार में लेखिका का परिश्रम झलकता दिखाई देता है। अहसास होता है कि निश्चित तौर पर ही कृष्णलता जी हिन्दी लघुकथा साहित्य की एक सशक्त लघुकथाकार हैं। इनकी अपनी एक मौलिक शैली है, जो इन्हें भीड़ से अलग खड़ा करती है। ये सभी रचनाएँ अनुभवी जीवन एवं परिपक्व सोच से उपजी बेजोड़ लघुकथाएँ हैं।

कृष्णलता जी की लेखनी को नमन करते हुए मैं इनके सुखद, सफल एवं स्वस्थ लेखकीय जीवन की शुभकामनाएँ देता हूँ।

पुस्तक – उजालों की तलाश
लेखिका – कृष्णलता यादव
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ – 128, मूल्य – 195 रु.
डॉ. रामकुमार धोटड़
सादुलपुर ( राजगढ़ ) जिला – चूरू (राजस्थान) 
मो.– 94140 86800

कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर : एक ऐतिहासिक कुण्डलिया संकलन

कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर : एक ऐतिहासिक कुण्डलिया संकलन

कविता के लिये छन्द का अनुशासन आवश्यक माना गया है। छन्द ही कविता को गद्य से अलग पहचान देता है, परन्तु विगत वर्षों में किसी प्रकार के छन्द का पालन न करते हुए गद्यनुमा वक्तव्य को भी कविता कहा जाने लगा परिणामस्वरूप तमाम तथाकथित कवियों की बाढ़ सी आ गई। निराला जी ने कविता को छन्द से मुक्त करने की बात नहीं कही बल्कि छन्द को पारम्परिक बंधन से मुक्त करने की बात कही अर्थात कविता में छन्द तो रहे परन्तु वह मुक्त छन्द हो जिसका कवि अपने अनुसार निर्वहन करे साथ ही कविता में लय और प्रवाह भी रहे ताकि कविता कविता जैसी लगे। परन्तु परवर्ती रचनाकारों ने निराला के मुक्तछन्द को छन्दमुक्त मान लिया और गद्य को भी कविता कहने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि सुधी पाठकों का कविता से मोह भंग होने की स्थिति सी आ गई है।

छन्दयुक्त कविता पाठक को आकर्षित करती है और अपना एक प्रभाव छोड़ती है। दोहा, चौपाई, सोरठा, वरबै, सवैया, कवित्त, कुण्डलिया आदि छन्दों में लिखी न जाने कितनी कविताएँ आज भी पाठको को कण्ठस्थ हैं। लोक जीवन में तो आज भी कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाइयाँ और गिरिधर की कुण्डलियाँ बात बात पर लोगों के लिये लोकशिक्षक की तरह उनके दैनिक जीवन में प्रचलित हैं।
कुण्डलिया लोक का अपना बहुत प्रिय छन्द रहा है, कवि गिरिधर ने लोक जीवन की तमाम बातें इस छन्द में कहकर इसे लोकप्रिय बनाया। किसानों के लिये तो गिरिधर की कुण्डलियाँ लोकवेद के समान हो गई थीं, चाहे वह बैलों की पहचान कराने की बात हो या खेत में बीज बोने, निराने, पानी देने, काटने की बात हो या फिर दैनिक जीवन में काम आने वाली छोटी-छोटी बातें हो कुण्डलियों के माध्यम से हर प्रश्न का उत्तर मिलता रहा है। यही कारण रहा कि कुण्डलिया बहुत लोकप्रिय हो गई।
दुर्भाग्य यह रहा कि कुण्डलिया जैसे लोकप्रिय छन्दों को कुचक्र रचकर तिलांजलि सी दे दी गई। यह सच है कि कविता अपने समय को साथ लेकर चलती है जिस कविता में समय को पहचानने की सामर्थ्य नहीं होती है वह कविता अतिशीघ्र कालकवलित हो जाती है। कुण्डलिया में यदि समसामयिक विषयों को कविता का विषय बनाया जा सके तो आज भी कुण्डलिया अपनी पुरानी लोकप्रियता को प्राप्त कर सकती है। यह एक चुनौती भरा कार्य है क्योंकि कुण्डलिया में प्रसादात्मकता होती है इसमें बहुत सहज और सरल ढँग से बात कही जाती है।

त्रिलोक सिंह ठकुरेला बहुत अच्छे नवगीत और हाइकु लिखते रहे हैं परन्तु इस मध्य उन्होंने कुण्डलिया छन्द को पूरी तरह साध लिया। ‘कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर’ पुस्तक का सम्पादन कर उन्होंने कुण्डलिया को पुनर्जीवित करने के दिशा में एक बड़ी पहल की है। मेरे संज्ञान में संभवतः कुण्डलिया कविताओं का यह पहला संकलन है जिसमें सात कवियों की २२-२२ कुण्डलियों को सम्पादित कर प्रकाशित किया गया है। संकलन के कवियों ने समसामयिक विषयों को कुण्डलियों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

महँगाई से सब त्रस्त हैं, आम आदमी के लिये सामान्य जीवन जीना मुश्किल होता जा रहा है। आम आदमी की इस ज्वलन्त पीड़ा को डा. कपिल कुमार की इस कुण्डलिया में महसूस किया जा सकता है-

महँगाई की मार से, बचा न कुछ भी आज
तेल, मसाले, सब्जियाँ, दालें और अनाज
दालें और अनाज, दूध, घी सभी सिसकते
दुगने-तिगुने भाव, फलों को केवल चखते
कहें ‘कपिल’ कविराय, अजब बीमारी आई
मिलता नहीं निदान, नाम जिसका महँगाई।
 

-डा. कपिल कुमार, (पृष्ठ-२४)

भ्रष्टाचार से प्रत्येक व्यक्ति त्रस्त है परन्तु इसका कोई निदान निकट भविष्य में सूझ नहीं रहा है, यह एक भयानक कोढ़ है जो समाज में फैलता चला जा रहा है। ‘गाफिल स्वामी’ की यह कुण्डलिया समाज में परिव्याप्त भ्रष्टाचार त्रस्त एक आम आदमी की पीड़ा और विवशता को अभिव्यंजित कर रही है-

ऊपर वाला सो रहा, अपनी चादर ओढ़
फैल रहा संसार में, भ्रष्टाचारी कोढ़
भ्रष्टाचारी कोढ, दुःखी है जनता सारी
चाहे जग मर जाय, मौज में भ्रष्टाचारी
कह गाफिल कविराय, भ्रष्ट का जीवन आला
दीन दुःखी लाचार, सो रहा ऊपर वाला।

-गाफिल स्वामी, (पृष्ठ-३६)

पर्यावरण संतुलित रहे इसके लिये वनों का संरक्षण आवश्यक है परन्तु मनुष्य बिना सोचे समझे जंगलों को अंधाधुंध काटता जा रहा है और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचा रहा है। डा. जगन्नाथ प्रसाद बघेल की इस कुण्डलिया में जंगलों के विनाश की इसी त्रासदी को देखा जा सकता है-

जंगल हैं कंक्रीट के, शहर हमारे आज
हुआ जंगली जीव सा, सारा सभ्य समाज
सारा सभ्य समाज, मात्र सम्पति का भूखा
कुल तक सीमित नेह, रहा संवेदन सूखा
कह ‘बघेल’ कविराय, सभी के स्वार्थ प्रबल हैं
चरागाह की तरह, शहर धन के जंगल हैं।
-डा. जगन्नाथ प्रसाद बघेल, (पृष्ठ-४६)

शहरों को गाँवों में पहुँचने का सपना स्वतंत्रता से पहले देखा गया था परन्तु आज हम देख रहे हैं कि शहर तो गाँवों में नहीं पहुँच सके बल्कि गाँव शहरों में पहुँचने लगे हैं साथ ही गाँव का गाँवपन भी कहीं गुम होने लगा है। गाँवों में पनपती लोक संस्कृति, लोकभाषा, लोकगीत, लोकगाथाएँ, लोक कहावतें, लोकमुहावरे आदि सभी के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। गाँव का सहज भोलापन, रीतिरिवाज, लोकाचार, पारिवारिक अनुशासन आदि सब खोजने पर भी नहीं मिलते हैं, यह सब परिवर्तन शहरों की चकाचौंध के कारण हुआ है। अपने लोकसंस्कारों और लोकसंस्कृति से निरन्तर दूर होते जाना हमारे लिये एक आत्मघाती कदम है। डा. रामसनेही लाल शर्मा यायावर की यह कुण्डलिया लोक के छीजने की इसी वेदना को व्यक्त कर रही है-

भूख शहर की बढ़ गयी, सब कुछ लेता खाय
खेत, गाँव पगडण्डियाँ, भैंस, बैल औ गाय
भैंस, बैल औ गाय, खिलखिलाहट पनघट की
दादा की फटकार, हँसी भोले नटखट की
नेम, क्षेम, उल्लास, प्रीति छीनी घर घर की
चितवन घूँघट छीन, खा गयी भूख शहर की।
-डा. रामसनेही लाल शर्मा यायावर, (पृष्ठ-५६)

आज के बच्चे ही कल का भविष्य होते हैं, जिस देश के बच्चों की ठीक से परवरिश नहीं होती एवं बच्चों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं होती, उस देश का भविष्य कभी अच्छा नहीं हो सकता। हमारे यहाँ बच्चों की शिक्षा पर यूँ तो ध्यान दिया जा रहा है, तमाम योजनाएँ बनाई गयीं हैं फिर भी जिस तरह की शिक्षा बच्चों के लिये होनी चाहिये वह देखने को नहीं मिल रही है। कचरे के ढेर में से बचपन तलाशते बच्चे किसी भी शहर और कस्वों में प्रायः दिख जाते हैं, हमारी व्यवस्था पर यह एक बड़ा प्रश्न चिह्न है। शिवकुमार दीपक की इस कुण्डलिया में यही पीड़ा उभर कर सामने आयी है-

बाल दिवस पर शहर में, सपने मिले उदास
कचरा वाले ढेर पर, जीवन रहे तलाश
जीवन रहे तलाश, नहीं शिक्षा मिल पाती
बढ़ा उदर भूगोल, पेट की आग भगाती
कह ‘दीपक’ कविराय, पढ़ाई नहीं मयस्सर
भोजन रहे तलाश, बाल कुछ बाल-दिवस पर
-शिव कुमार दीपक, (पृष्ठ-६८)

मानव जीवन के लिये वृक्षों का बहुत बड़ा योगदान है, यदि पृथ्वी पर वृक्ष न होते तो मानव जीवन संभव ही नहीं हो पाता, इसलिये वृक्षों को ईष्वरीय वरदान भी माना गया है। सुभाष मित्तल सत्यम ने वृक्षों के द्वारा की जाने वाली प्राणियों की सेवा को प्रस्तुत कुण्डलिया में व्यक्त किया है-

परम पिता की कृपा का, वृक्ष रूप साकार
सभी प्राणियों के लिये, जीवन का आधार
जीवन का आधार, नमी कर घन बरसाते
वर्षा-जल गति रोक, भूमि जल सतह बढ़ाते
भूमि अपरदन रोक, वृद्धि मृद-उर्वरता की
‘सत्यम’ सचमुच वृक्ष, कृपा है परम पिता की।
-सुभाष मित्तल सत्यम, (पृष्ठ-७७ )

त्रिलोक सिंह ठकुरेला अपनी कविताओं में सकारात्मक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं, उनके नवगीत हों या हाइकु, सभी में वे अपने कथ्य को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करते हैं। कविता का उद्देष्य भी यही है कि पाठक को प्रगति की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दे। सफलता और असफलता तो एक दूसरे की पूरक हैं, असफलता ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है, इसलिये असफलता से कभी निराश नहीं होना चाहिए, मंजिल उन्हें ही मिल पाती है जो जीत हार की चिन्ता न करते हुए, बाधाओं का बहादुरी से सामना करते हैं और निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने अपनी इस कुण्डलिया में कर्म पथ पर चलते रहने की यही प्रेरणा दी है-

असफलता को देखकर, रोक न देना काम
मंजिल उनको ही मिली, जो चलते अविराम
जो चलते अविराम, न बाधाओं से डरते
असफलता को देख, जोश दूना मन भरते
‘ठकुरेला’ कविराय, समय टेड़ा भी टलता
मत बैठो मन मार, अगर आये असफलता।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला, (पृष्ठ-९६)

कुण्डलिया के इस अप्रतिम संकलन में सात कवियों की 154 कुण्डलियाँ हैं जो कि विविध विषयों को प्रस्तुत करती हैं। छन्द की दृष्टि से सभी कुण्डलियाँ ठीक हैं। सभी कवि अपने अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। इस संकलन के सम्पादक त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने कुण्डलिया संकलन का सम्पादन करके एक ऐतिहासिक कार्य किया है। उनका यह कार्य छान्दस कविताओं को पुनः उनका स्थान दिलाने की दिशा में संघर्ष कर रहे रचनाकारों के महायज्ञ में एक बड़ी आहुति के समान है। इस संकलन से प्रेरणा लेकर कुछ अन्य कुण्डलिया संकलन तथा कुण्डलिया संग्रह प्रकाश में आयेंगे एवं जो कवि कुण्डलिया तथा अन्य समसामयिक छान्दस कविताओं को लिखकर अपनी डायरी तक ही सीमित रख रहे हैं वे भी अपनी उन कविताओं को प्रकाशित कराने का साहस कर सकेंगे। कुण्डलिया छन्द में यदि वर्तमान सन्दर्भों को प्रस्तुत किया जा सके तो निष्चय ही कुण्डलिया को अपनी खोई हुई लोकप्रियता प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता।

पुस्तक का मुद्रण, आवरण, रचना चयन सब कुछ उत्तम है। राजस्थानी ग्रंथागार से प्रकाशित ९६ पृष्ठ की पक्की जिल्द वाली इस पुस्तक की कीमत १५० रुपए है जो उचित ही है। इस पुस्तक का छन्द प्रेमी पाठक स्वागत करेंगे।

कुण्डलिया संकलन - कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर
सम्पादक - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
प्रकाशक - राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
पृष्ठ - 96
मूल्य -150 रुपये

समीक्षक - डा. जगदीश व्योम