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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Tuesday, September 8, 2015

अपना अस्तित्व

    वो दिन, तारीख, वार सब अब भूलने लगा है कोई जरूरत ही नहीं रही उसकी जि़न्दगी में इनकी। उसकी दुनिया, अब मकान के ऊपरी हिस्से में टीन शेड से निर्मित एक कमरे में सिमट कर रह गई है और ये बड़ी विशाल अनन्त सम्भावनाओं वाली दुनिया उसके लिए बेमानी हो गई है या यूँ कहें कि वह अब खुद ही बेमानी हो गया है इस दुनिया के लिए किसी काम का नहीं।
    जो काम करते, जिन आदर्शों पर चलने की बात करते वह गर्व का अनुभव किया करता था, कहीं अतीत के गर्भ में गर्त हो गए हैं। उसकी आन उसकी शान सब किस्से भर बन गए हैं और यह सारी बातें उसके मन और शरीर को कमजोर कर रहे हैं। उसके जीने का कोई अर्थ नहीं नज़र आता उसे, बस जिए जा रहा है अन्तर में एक आग लिए और आग यदि किसी काम न आए तो स्वयं ही जलाती है नष्ट करती है। व्यर्थ-सा ही हो गया है अब तो उसका जीवन, क्योंकि अब इस दौड़ती-भागती दुनिया के साथ दौडऩे की शक्ति तो रही नहीं मस्तिष्क भी भ्रमित-सा हो गया है कोई निर्णय नहीं ले पाता, समझ नहीं आता क्या करे। थक हार कर यही होता है कि समय काटने को वह कुछ लिखता रहे जो शायद लोगों को अच्छा लगे और उसके मन के मरुस्थल में उनकी प्रशंसा की वृष्टि थोड़ी देर को सही, अन्तर की तपन को कुछ कम कर दे। बस ऐसे ही कट रहा है वक्त और बीत रही है जि़न्दगी उसकी।
    उस दिन वह बाजार से लौटकर आया तो देखा पत्नी टी.वी. पर बागवाँ पिक्चर देख रही थी आँखें आँसुओं से भरी थी। वह अपने कमरे में ऊपर जाने लगा तो बोली-यहाँ बैठो कुछ देर मेरे पास जरा यह फिल्म देखो, क्या यह तुम्हें अपने जीवन जैसी नहीं लगती। उसने टालना भी चाहा किन्तु पत्नी न मानी तो मजबूर होकर बैठना पड़ा उसके पास और फिल्म देखने लगा। फिल्म बहुत भावुक प्रसंग लिए चलती है माता-पिता के पति संतान का उपेक्षा का व्यवहार, मर्मस्पर्शी संवाद, स्वत: आँख भर आती हैं जब कुछ ऐसा दिखाई दे जो जीवन में घट रहा हो, खैर! फिल्म का अंत सुखद था जब नायक अपनी जीवन गाथा लिखकर प्रकाशित होकर पुरस्कार से सम्मानित होता है और लाखों रुपयों का स्वामी बन जाता है।  
    फिल्म की समाप्ति के बाद पत्नी कहने लगी-देखना तुम्हारी अपनी संतान भी एक दिन तुम्हारी कद्र समझेगी, तुम्हारी जि़न्दगी भी खुशहाल होगी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। पत्नी के स्वप्निल विश्वास को वह आघात नहीं पहुँचाना चाहता था। कैसे समझाता उसे, यह फिल्म बनाने वाले सपनों के सौदागर होते हैं7 एक सपना दिखाते हैं हिम्मत न हार, एक दिन तेरे जीवन में भी दु:खों की बदलियाँ चीरकर खुशियों का सूरज चमकेगा, किन्तु ऐसा होता नहीं, फिल्म में संयोगों की भरमार होती है और समय कम होता है, वह तकलीफें जो मिनटों की दिखती हैं वास्तविक जीवन में वर्षों तक नहीं छोड़ती। कभी-कभी तो जि़न्दगी समाप्त हो जाती है उलझने नहीं और फिल्में वह तो केवल सफल व्यक्ति का ही चित्रण करती हैं, असफल व्यक्ति को तो कोई असफल व्यक्ति भी नहीं देखना चाहता। वह अपने दु:खों को भूलने के लिए ही तो फिल्म देखता है। फिल्म का अन्त इसीलिए सुखद होता है।
    आज वह भी तो एक असफल व्यक्ति ही है जो न अपने सपनों को पूरा कर पाया न उनके सपनों को, जिनके सपनों को पूरा करना ही उसकी पहली प्राथमिकता थी या यूँ कहें कि वही उसका सपना थे। इस बात का पता उसे तब चला जब वह थकने लगा और उसने उम्मीद की उन सब से अपना साथ देने की। उनसे उत्तर मिला कि- उसने किया ही क्या है उनके लिए। उस दिन से बेमानी हो गए उसके सारे सम्बन्ध और साथ ही उसका जीवन, क्योंकि अब उसके पास न धन जुटाने का कोई साधन था और न ही बैंक बैलेंस। आखिर किस लिए उसका सम्मान होता?
    सम्मान होता है योग्यता का और अब योग्यता का मापदण्ड है धन-दौलत। जब धन-दौलत न हो तब व्यर्थ हो जाते हैं दावे जो अपने किए वादों को पूरा करने में समर्थ नहीं होते। असफल व्यक्ति को उपदेश देने वाले बहुत हो जाते हैं, वह भी जिन्होंने कभी उसकी उंगली पकडक़र चलना सीखा था। जि़न्दगी का ककहरा उसकी आवाज़ से समझा था। दूसरों को छोटा बना दो, स्वयं को बड़ा, महान बनाने की कामना और अपने अहं की तुष्टि का इससे सरल ढंग कोई और होता ही नहीं। कुछ भी कहो उनके पास उत्तर मौजूद है हर बात का। ऐसा न करते-वैसा न करते आदि आदि। उसकी मजबूरियों को समझते हैं केवल वे लोग, जो भुक्त भोगी हैं, स्वयं विवश है। वे केवल संवेदना ही प्रकट कर सकते हैं उसकी खुद की तरह।
    तो क्या वह भी दूसरों की भांति मौत की प्रतीक्षा में घुट-घुट कर जिये, नहीं कभी नहीं, विचारों से तो वह कभी ऐसा नहीं रहा, उन्मुक्त खिलखिलाते हुए जीने की सदा ही भावना रही, मिल रहा अपमान उसकी जीने की इच्छा को नष्ट नहीं कर सकता। वह जीना चाहता है और अपमान की आग जीवन में एक इंधन का काम देती है। क्यों क्यों वह स्वयं को दूसरों की तरह नकार दे? क्यों वह यह प्रमाणित करे कि वही सच कह रहे हैं? नहीं अब और नहीं सोचेगा वह इस विषय में कि लोग क्या सोचते हैं या उसे क्या समझते हैं। उसे जीना है और ईश्वर ने उसे यह अधिकार दिया है। अपने आप को प्रसन्न रखना उसका अपना दायित्व है और जब वह स्वयं ही इसको पूरा नहीं कर सकता तो दूसरों से क्यों आशा रखता है कि वह इसे पूरा करें। पहले दूसरों की प्रसन्नता में सुखी होने की कामना करता था। इसलिए किसी की दृष्टि में उसका महत्त्व नहीं था। बिना माँगे देना भी एक दुर्बलता है महत्त्व उसी का होता है जो बार-बार माँगने पर भी न दिया जाए। बिना परिश्रम जो मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता। अब किसी से कोई आशा नहीं, परन्तु निराशा के गर्त में गिर कर भी क्या मिल जाएगा सिवाय मानसिक दुर्बलता के जो शरीर को और निर्बल बनाएगी, बीमारियों को स्थाई निवासस का निमन्त्रण देगी। मिटना तो एक दिन अवश्य है, किन्तु इस प्रकार घुट-घुट के मरना या मरने की प्रतीक्षा करना कहाँ की समझदारी है? विपरीत परिस्थितियों में जीने की अपनी आदत को, बिना सहारे के जीने की अपनी आदत को फिर से जगाना होगा, जो सहारों के सहारे जीने की इच्छा में कहीं गुम हो गई है। अपना अस्तित्व संभालना होगा। मशहूर शायर साहिर लुधियानवी की पंक्तियों को अपना संबल बनाकर चलेगा, जो जीने की, संपूर्ण जीने की प्रेरणा देती हैं-जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है। मरो तो ऐसे कि जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं।

-गांगेय कमल

शिवपुरी जगजीतपुर,
कनखल हरिद्वार-249408

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