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Tuesday, September 8, 2015

शिवदत्त शर्मा के दोहे

आज धरा ने कह दिया, अपने मन का हाल।
अश्कों से तर हो गया, सूरज का रूमाल।।
कड़ी धूप में स्वेद से, लथपथ हुई जमीन।
बरसी रहमत मेघ से, रूप हुआ नमकीन॥
वादों की झडिय़ां लगी, चढ़ा चुनावी रंग।
अजब सियासत मुल्क की, पड़ी कुएं में भंग।।
राह न कोई सूझती, दुविधा में आवाम।
बाजारू संसार में, कलम हुई नीलाम।।
पल में मानवता मरी, शहर बना शमशान।
शासन तब सोता रहा, लम्बी चादर तान।।
नदिया हो तुम नेह की, ममता बहे अपार।
तेरी धारा ले चले, जहां प्यार ही प्यार॥
नद नाले सूखे सभी, विकट हो गई पीर।
धनिया के नैना बहें, कतरा कतरा नीर।।
दुर्गम सागर सामने, मंजिल है उस पार।
स्पर्श एक कहता सदा, हिम्मत कभी न हार॥
चूल्हे हांडी काठ की, चढती बारम्बार।
सौदा कर ईमान का, खूब फला व्यापार॥
धुंधली है संवेदना, पड़ी मनों पर गर्द।      
दर्द आज घट घट उठे, पर न मिले हमदर्द ॥ 
घर घर में कुत्ते बँधे, कैसी चली मुहीम।
मां-बाबा लाचार हैं, खूब फली तालीम।।
तड़प रहा इंसाफ अब, बेबस लोकाचार।
चूहे बिल्ली का मिलन,दिल्ली के दरबार।।
जिनके मन में भाव ना,नैनों में  ना नीर।
समझ नहीं अहसास की,परखें आज कबीर॥

- शिवदत्त शर्मा

9416885264


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