विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Monday, June 27, 2011

केवल नंगा सच लिखता हूँ

केवल नंगा सच लिखता हूँ, शब्दों के अंगारों से,
खौफ नहीं है मुझको ज़ालिम सत्ता के दरबारों से,
तुच्छ स्वार्थों की खातिर जब कलमकार बिक जाते हैं,
जब दागी-बागी नेता बन कुर्सी पर टिक जाते हैं,
जो फांसी के लायक हैं वो पूजे जाने लगते हैं
शेर शावकों को भी जब गीदड़ धमकाने लगते हैं
तब सोते सिंह जगाता हूँ मैं जहर बुझी ललकारों से
केवल नंगा सच लिखता हूँ,.................................

रहबर ही खुद जब रास्ता भटकने लगते हैं,
जनता के नौकर ही जब जनता को हड़काने लगते हैं,
धर्मगुरु भी स्वार्थवश नफरत भड़काने लगते हैं,
न्यायधीश जब निर्दोषों को सूली लटकाने लगते हैं,
तब सोये विक्रम जगाता हूँ मैं वैताली ललकारों से
केवल नंगा सच लिखता हूँ,.............................

गाँधी के अनुयायी भी जब हिंसा फ़ैलाने लगते हैं,
गौतम के बेटे भी जब हथियार उठाने लगते हैं,
वीर शिवा के वारिश भी जब पूंछ हिलाने लगते हैं,
दिनकर के वंशज भी जब प्रशस्ति गाने लगते हैं,
तब सोये वीर जगाता हूँ मैं जोशीली हूंकारों से
केवल नंगा सच लिखता हूँ,.............

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