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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Wednesday, November 22, 2023

हाँ मैं गंवार हूँ - रघुविन्द्र यादव

हाँ मैं गंवार हूँ

हाँ मैं गंवार हूँ
आज भी रहता हूँ अपने माँ-बाप के साथ
उनके ही बनाये घर में|
मैं नहीं बन सका आधुनिक
न शहर में जाकर बसा और
न ही माँ-बाप को भेजा अनाथ आश्रम|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं हैं चमचमाती टाइलें
महँगे कालीन या रेशमी पर्दे|
मेरा आँगन आज भी है कच्चा,
जिसकी मिट्टी में खेलकर ही
मेरे बच्चे बड़े हुए हैं|
मैंने उन्हें नहीं भेजा किसी 'क्रेच' में
नहीं रखी उनके लिए आया
मेरी माँ ने ही दिये हैं उन्हें संस्कार|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं है
विदेशी नस्ल का कुत्ता,
जिसे मैं बाज़ार से लाकर
गोश्त खिला सकूं|
मेरे दरवाजे पर बैठते हैं
आज भी तीन आवारा कुत्ते
जिन्हें हम डालते हैं बासी
और बची हुई रोटियाँ|
वे करते हैं, जी-जान से पहरेदारी|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं है बोनसाई|
मेरे आँगन में तो आज भी खड़े हैं दर्जनों फल-फूलों के देशी पौधे

नीम, इमली, शहतूत,

तुलसीदल, दूब और ग्वारपाठा |

जिन पर दिनभर चहकती हैं गौरया
मंडराते हैं भंवरे और तितलियाँ,
कूकती हैं कोयले और फूलों का रस
चूसती हैं मधुमखियाँ|

हाँ मैं गंवार हूँ
मेरे घर में नहीं है महंगा
सजावटी सामान|
यहाँ तो हैं चिड़ियों के घोंसले,
मधुमखियों के छत्ते,
मोरों की विश्रामस्थली|

हाँ मैं गंवार हूँ
हमारे घर में नहीं है
नक्कासीदार फूलदान और
आयातित नकली फूल|
हमारे यहाँ तो क्यारियों में ही

गुलदाउदी, गुडहलगेंदा और सदाबहार खिलते हैं

रात को हारसिंगार झरते हैं|

हाँ मैं गंवार हूँ
मैंने नहीं पढाये अपने बच्चे कान्वेंट सकूलों मेंनहीं भेजे वातानुकूलित बसों में|
मेरे बच्चे तो पढ़े हैं
गाँव के बस अड्डे वाले स्कूल में|
अपनी प्रतिभा से बन गए हैं-
इंजिनियर और डॉक्टर|
उन्हें नहीं आते नखरे
आज भी चलते हैं सरकारी बसों में
ईमानदारी से निभाते हैं अपना फ़र्ज़|

हाँ मैं गंवार हूँ
हमने नहीं रखी है 'मेड
खाना बनाने और सफाई करने को
मेरी पत्नी ही करती है घर का काम|
प्यार से बनाती है खाना
और करती ही सफाई|

हाँ मैं गंवार हूँ
खुद ही करता हूँ अपने
पेड़-पौधों की नलाई-गुड़ाई|
बोता हूँ पौध और करता हूँ सिंचाई,
भरता हूँ सकोरों में पानी|
बच्चे खिलाते हैं पक्षियों को दाने|

हाँ मैं गंवार हूँ
नहीं होती हमारे यहाँ
कथाएं और प्रवचन,
नहीं होते जागरण और उपवास|
हम तो प्रकृति के उपासक हैं,
उसके हर रूप से है प्यार,
देते हैं सुरक्षा और करते हैं सम्मान|

हाँ मैं गंवार हूँ
मैं नहीं बनना चाहता
इतना सभ्य कि माँ-बाप को घर से निकालना पड़े,
बेटी को गर्भ में मारना पड़े,
दिखावे के लिए दहेज़ मांगना पड़े,
जायदाद के लिए भाइयों से दुश्मनी पालनी पड़े
मैं तो जीना चाहता हूँ सकून से
गंवार रहकर ही सही|

जिन्हें मेरा गंवार होना स्वीकार है
उनका बाँह फैलाकर स्वागत|
- रघुविन्द्र यादव

Monday, March 7, 2016

मुग्ध - हास बोयें

बचपन के होंठों पर
मुग्ध - हास बोयें ।

आओ, उनसे छीन लें
चिंता की आरियां,
सबको सुनायी दें
उनकी किलकारियां,

इंद्रधनुषी स्वप्नों को
वे फिर सजोयें ।

बाल-सुलभ लीलाऐं
पाती हों पोषण,
कोई न कर पाये
बच्चों का शोषण,
भावों - अभावों में
बच्चे न रोयें ।

संस्कार, संस्कृति के
दीपक जलायें,
सब मिलकर
खुशियों के नवगीत गायें,

विकृत विचारों को
वे अब न ढोयें ।
बचपन के होंठों पर
मुग्ध - हास बोयें ।।

- त्रिलोक सिंह ठकुरेला

बंगला संख्या- 99,
रेलवे चिकित्सालय के सामने,
आबू रोड -307026 ( राजस्थान )

Friday, January 1, 2016

गुरु सच्चे भगवान् रे

अरे अकल से अंधे मानव
आँख खोल पहचान रे
गुरु से बड़ा नहीं है कोई 
गुरु सच्चे भगवान् रे..........

गुरु ज्ञान के दीप जलाये
जीवन पथ का तिमिर भगाये
अंतस की आँखों को खोले
परमपिता का दरश कराये
गुरु ज्ञान का अतुलित सागर
गुरु करे कल्याण रे.......

रख दृढ़ता विश्वास गुरू में
उर श्रृद्धा का भाव गुरु में
गुरु की कृपा तरे नर भव से
महा कृपा आगार गुरु में
राम-कृष्ण ने गुरु को पूजा
जग में गुरू महान रे......

गुरु ब्रह्मा है गुरु महेश है
गुरु विष्णु है गुरु शेष है
गुरु शारदा गुरु माँ अम्बे
परम ब्रहम है गुरु वेश में 
गुरु में देवलोक है पूरा
गुरु में सकल जहान रे....

गुरु वाणी में अमृत धारा
गुरू कृपा ने सबको तारा
गुरु ही तीन लोक के स्वामी
ताबिश गुरु लोक है न्यारा
छोडि सकल जंजाल जगत के
धरो गुरु का ध्यान रे......

-आचार्य राकेश बाबू 'ताबिश' 

निकट द्वारिकापुरी कोटला रोड, मंड़ी समिति के सामने
फिरोजाबाद 

Tuesday, December 1, 2015

चाँद -चकोर

आकाश की आँखों में
रातों का सूरमा
सितारों की गलियों में
गुजरते रहे मेहमां
मचलते हुए चाँद को
कैसे दिखाए कोई शमा
छुप छुपकर जब
चाँद हो रहा है जवां

चकोर को डर
भोर न हो जाएँ
चमकता मेरा चाँद
कहीं खो न जाए
मन बेचैन आँखे
पथरा सी जाएगी
विरह मन की राहे
रातें निहारती जाएगी

चकोर का यूँ बुदबुदाना
चाँद को यूँ सुनाना
ईद और पूनम पे
बादलो में मत छुप जाना

याद रखना बस
इतना न तरसाना
मेरे चाँद तुम खुद
चले आना

-संजय वर्मा "दृष्टि "

125 शहीद भगत सिंह मार्ग
मनावर जिला धार (म प्र )
454446

Sunday, November 8, 2015

गीत - इसीलिए दीपक जलता है

कितने ही तुम दीप जलाओ,
अग्निपुंज से तिलक लगाओ,
जलती लौ की करो हिफाज़त,
फिर चाहे मन में इतराओ,
लेकिन दीपक तले अँधेरा, बसता ही बसता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

उम्मीदों में प्रेम कहाँ है,
निश्छल मन संदेश कहाँ है,
मन की कटुता बंद करे जो,
ऐसी पावन जेल कहाँ है,
ग्रहण लगे चन्दा को राहू, ग्रसता ही ग्रसता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

चपल दामिनी पर बन बादल,
करते हो क्यों खुद को घायल,
अन्दर की ज्वालायें अक्सर,
मन पर नहीं देह पर पागल,
'वन' के तन्हा राही को, डर डसता ही डसता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

जीवन इक संगीत लड़ी है,
जीवन की हर बात बड़ी है,
चलते चलते थक मत जाना,
नये कदम पर जीत खड़ी है,
आग में तपकर सोना, कुंदन बनता ही बनता है ।
इसीलिए दीपक जलता है ।

- राहुल गुप्ता, लोहवन, मथुरा

अध्यक्ष- संकेत रंग टोली, मथुरा