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Sunday, July 31, 2011

दैनिक ट्रिब्यून के 31 जुलाई अंक के सम्पादकीय में एक दोहा

तलवार से मौसम कोई बदला नहीं जाता

Posted On July - 31 - 2011
सामयिक और ज्वलंत मुद्दों पर यूं तो फिल्म बनाना आसान नहीं होता। बॉलीवुड में गिनती के ऐसे निर्माता-निर्देशक हैं जिन्होंने यह कोशिश की है। इनमें अब निर्माता-निर्देशक अजय सिन्हा भी शामिल हो गये हैं। अपना मकान और एक ऑफिस बेचकर देश के एक ज्वलंत मुद्दे पर ‘खाप’ फिल्म बनाने वाले अजय सिन्हा को तब घोर निराशा का सामना करना पड़ा जब खापों के फरमान इस फिल्म ‘खाप’ पर भारी पड़े। पुलिस-प्रशासन मूकदर्शक बना रहा और फिल्म सिनेमाघरों तक पहुंच ही नहीं पाई। यद्यपि पूरे देश में फिल्म रिलीज हुई और दर्शकों का ठीक-ठाक प्रतिसाद भी मिला। फिल्म के केंद्र में ऑनर किलिंग जैसा गंभीर मुद्दा था जिसके बहाने बहुत कुछ कहने की कोशिश की गई। फिल्म ने गोत्र विवाद को भी छुआ है। निर्माता ने एक गंभीर विषय को सहजता से उकेरा है। लेकिन सवाल उठता है कि हमारा समाज कितना असहिष्णु हो चला है कि चंद मु_ीभर लोगों के प्रतिरोध के चलते लाखों लोग एक हकीकत से रूबरू होने से वंचित रह गये। सीधे-सीधे यह अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कुठाराघात है। स्वनामधन्य संस्थाओं के तालिबानी फरमानों के चलते एक फिल्म की भ्रूणहत्या हो गई। लेकिन यह भी एक हकीकत है कि फरमानों से सबकुछ नहीं बदला जा सकता। देश के दर्शकों ने काला सच देखा। ऐसे ही लोगों से मुजफ्फर वारसी कहते हैं :-
फरमानों से पेड़ों पर कभी फल नहीं लगते,
तलवार से मौसम कोई बदला नहीं जाता।
इसमें दो राय नहीं कि पुलिस-प्रशासन की उदासीनता व नेताओं की दोगली भूमिका के चलते फिल्म सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पाई। इसके पीछे सीधे-सीधे वोट बैंक की राजनीति भी काम करती है। लेकिन इस तूफान के खिलाफ कुछ दीये जरूर जलते रहे। हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति समेत कई बुद्धिजीवी संगठनों ने फिल्म के बहिष्कार के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह दबकर रह गई। इस मुद्दे पर उन्हें व्यापक जनसमर्थन से वंचित होना पड़ा। रूढि़वादी व खाप समर्थकों के विरोध पर तंज करते हुए प्रकाश फिक्री लिखते हैं :-
ऐसा भी क्या मिजाज कि इतना उबल पड़े,
बस इक जरा-सी बात पर खंजर निकल पड़े।
इसमें दो राय नहीं कि अपने देश में संविधान द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को बोलने और अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया है। इसका हनन करने की आज़ादी किसी को नहीं दी जा सकती। विरोध के लिए हमारे पास तमाम संवैधानिक अधिकार हैं। यदि फिल्म में कुछ अनुचित पाया जाता है तो पुलिस-प्रशासन से इसकी शिकायत की जा सकती है। यदि फिल्म से कोई आपत्ति है तो सेंसर बोर्ड में विरोध व्यक्त किया जा सकता है। लेकिन महज विरोध के लिए विरोध करना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता। वास्तव में फिल्म विरोधियों को भी सहिष्णुता का परिचय देना चाहिए। पहले फिल्म देखनी चाहिए फिर विरोध दर्ज करवाना चाहिए। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हो पाया। ये सरासर नागरिक अधिकारों का हनन सरीखा है। विरोध करते वक्त यह ध्यान रखना चाहिए कि विरोध कानूनसम्मत हो और संवैधानिक मर्यादाओं को अक्षुण्ण बनाये रखा जाए। ऐसे ही महज विरोध के लिए विरोध करने वालों पर तंज़ करते हुए कवि केशू लिखता है :-
जो तर्क से खाली होते हैं पूरे,
वे फौरन तलवार हैं तान लेते।
इसमें दो राय नहीं कि इस देश में खाप पंचायतों का गौरवशाली अतीत रहा है। सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित इन संस्थाओं ने ग्राम्य जीवन की विसंगतियों को दूर करने में महती भूमिका निभाई। विदेशी आक्रांताओं के भारत आने पर ये खाप-पंचायतें एकजुट हो हमलावरों का डटकर मुकाबला करती रही हैं। छोटे-मोटे विवादों का निपटारा हो या फिर सामाजिक विसंगतियों पर अहम फैसला लेना हो, ये खाप पंचायतें निर्णायक भूमिका निभाती रही हैं। ऐसी ही पंचायतों की सफल कार्यप्रणाली देखकर गांधी जी ने सर्वाधिकार संपन्न ग्राम-पंचायतों का सपना देखा था जिसमें स्वावलंबी ग्राम समाज का सपना साकार करने की कोशिश की गई। पहले कभी भी खाप-पंचायतों से किसी को मौत का फरमान जारी करते नहीं सुना गया। लेकिन कालांतर राजनीतिक हस्तक्षेप व चौधराहट दिखाने की कवायद जारी होने लगी, जिसके चलते देश में खापों की छवि प्रभावित हुई। लेकिन आज सारे देश में खापों की जो छवि उकेरी जा रही है उसका जिक्र रघुविन्द्र यादव की पंक्तियों में मिलता है :-
गला प्यार का घोंटते, खापों के फरमान,
जाति, धर्म के नाम पर, कुचल रहे अरमान।
खाप पंचायतों की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि रिश्तों की गरिमा व परंपराओं का निर्वहन नई पीढ़ी को करना चाहिए। मां-बाप बड़े अरमानों से बच्चों को पालते हैं और धूमधाम से उनकी शादी करने का मन बनाते हैं। ऐसे में बच्चों को भी उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। हम कितने भी आधुनिक हो जाएं अंग्रेज नहीं हो सकते हैं। तमाम विदेशी आक्रमणों व सैकड़ों साल की गुलामी के दौर भी हमें कमजोर न कर सके तो इसके मूल में हमारे रीति-रिवाज, संस्कार आदि रहे हैं। लेकिन एक टकसाली सत्य यह भी है कि प्यार की सज़ा मौत नहीं हो सकती है। नये जमाने के बच्चों को जन्म से ऐसे संस्कार दिये जाने चाहिए कि वह जल्दबाजी में कोई गलत फैसला न लें जो परंपरा व परिजनों को आहत करता हो। टीवीजनित संस्कारों ने तमाम सामाजिक वर्जनाओं व सदियों पुरानी परंपराओं को ध्वस्त किया है। लेकिन हमें बीच का रास्ता तो निकालना ही होगा। कहीं ऐसा न हो कि हमें किसी मुहब्बत का हश्र देखकर शकील बदायूंनी की ये पंक्तियां दोहरानी पड़ें :-
ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया,
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया।

http://dainiktribuneonline.com/2011/07/%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%AE%E0%A5%8C%E0%A4%B8%E0%A4%AE-%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%88-%E0%A4%AC%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80/

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