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Sunday, September 4, 2011

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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए!

Posted On September - 4 - 2011

पिछले छह माह के रिकार्ड तोड़ती खाद्य पदार्थों की महंगाई एक बार फिर दहाई का आंकड़ा पार कर गई है। सरकार द्वारा महंगाई पर काबू पाने के तमाम दावे खोखले साबित हो रहे हैं। आरबीआई द्वारा मार्च, 2010 से अब तक महंगाई पर काबू पाने के लिए जो ग्यारह बार बैंकों की ब्याज दर बढ़ाई गई, वह भी बेअसर नजर आ रही है। अब जब फल, सब्जियों, आलू-प्याज, दूध व प्रोटीन पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं, देश के वित्तमंत्री इसे चिंताजनक बताते हुए खाद्य आपूर्ति में सुधार की बात कर रहे हैं। बात तो अब चिंता से ऊपर पहुंच गई तो आपूर्ति में सुधार की बात की जा रही है। वास्तव में महंगाई रोकने के नाम पर केंद्र सरकार जो हवाई कसरतें करती रही है, उसका कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ रहा है। अर्थशास्त्री लगातार कह रहे हैं कि मौद्रिक उपायों से महंगाई कम होने वाली नहीं है। जरूरत महंगाई के वास्तविक कारणों को समझने की है। लेकिन केंद्र सरकार के मंत्री जैसे गैर-जिम्मेदाराना बयान जारी करते रहे हैं, उससे महंगाई थमने की बजाए बढ़ती रही है। प्रधानमंत्री कहते हैं कोई जादू की छड़ी नहीं है। सरकार के हाथ में कानून का डंडा तो है, बिचौलियों व जमाखोरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई क्यों नहीं होती? जब वित्तमंत्री कहते हैं महंगाई गायब नहीं होगी तो महंगाई बढ़ाने वालों के हौसले बुलंद होते हैं। कृषि मंत्री के महंगाई बढ़ाने वाले बयान किसी से छिपे नहीं हैं। यह एक हकीकत है कि महंगाई कुशासन की देन है। देश के हुक्मरानों पर तंज़ करते हुए कवि दुष्यंत ने ठीक ही लिखा है :-
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है, जेरे-बहस ये मुद्दआ।
वास्तव में देश में आर्थिक उदारीकरण के दौर में जो असमान आर्थिक विकास हुआ है उसी का नतीजा है कि खेती की कीमत घटी है और खेत महंगे हो गए हैं। कामगार हाशिये पर आये और बिचौलिये मालामाल हो गए। किसान बदहाल है और मंडियों में बैठा ठेकेदार व आढ़ती मोटी कमाई कर रहे हैं। गैर-खेती कार्यों के लिए बिल्डरों द्वारा मोटे मुनाफे के साथ ज़मीनों की जो खरीद-फरोख्त शुरू हुई उसने खेती के क्षेत्रफल को कम किया। इसके फलस्वरूप उत्पादन कम हुआ। बाजार में खाद्य पदार्थों की कालाबाजारी तथा दुकानदारों के मोटे मुनाफे ने महंगाई को हवा दी। सरकारों की तुगलकी नीतियां कालाबाजारी व मुनाफाखोरी पर अंकुश लगाने में नाकाम रहीं। पिस रहा है तो आम आदमी। सरकार सिर्फ बयानबाजी कर रही है। यूपीए सरकार की दूसरी पारी शुरू होते ही महंगाई का जो दौर शुरू हुआ वह थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस भयावह महंगाई को देखकर कैफी आजमी ने शायद यह पंक्ति लिखी होगी :-
ऐसी महंगाई है कि चेहरा भी,
बेच के अपना खा गया कोई।
यह एक हकीकत है कि समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता ही महंगाई के मूल में है। ऐसे तमाम सामाजिक कारण हैं जिनके चलते महंगाई को गति मिली है। समाज के एक तबके की आय अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है तो दूसरी ओर आधी जनसंख्या ऐसी है जो सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक बीस रुपये रोज में जीवनयापन कर रही है। एक तरफ होटलों में सार्वजनिक व सामाजिक समारोहों में रोज लाखों लोगों का खाना बर्बाद हो जाता है तो दूसरी तरफ एक तबके को दो वक्त की रोटी नहीं मिल रही है। एक तरफ भूख है तो दूसरी तरफ लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ रहा है। खुले आसमान तले अनाज सड़ रहा है। अनाज का भंडारण वैज्ञानिक तरीके से नहीं हो पा रहा है। इसी हालात पर तंज़ करते हुए कवि स्वयं योगेन्द्र बख्शी लिखते भी हैं :-
आंसू की यह डुगडुगी नाच रहे सब लोग,
कोई रोटी चाहता कहीं अपच का रोग।
बढ़ती महंगाई और बढ़ती ब्याज दरों का नकारात्मक असर हमारे औद्योगिक उत्पादन व विकास दर पर भी पड़ रहा है। आर्थिक विकास की दर 7.7 फीसदी घटकर रह गई है। अब खाद्य मुद्रास्फीति दर पांच महीने में दूसरी बार दहाई के अंक तक जा पहुंची है। अब यदि रिजर्व बैंक महंगाई पर काबू पाने के लिए ब्याज दरों को बढ़ाता है तो निश्चय ही आर्थिक विकास बाधित होगा। उद्योग-जगत व व्यापारिक घराने ब्याज दरों में बढ़ोतरी को आर्थिक विकास के लिए घातक बता रहे हैं। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि देश में दूसरी हरित क्रांति लाई जाए। पहली हरित क्रांति का लाभ कुछ चुने राज्यों को ही मिला था। अब तो इसे समग्र रूप से पूरे देश में लाया जाना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि खाद्य आपूर्ति में सुधार लाया जाए, खाद्य पदार्थों का वैज्ञानिक ढंग से सुरक्षित भंडारण किया जाये। इसके साथ ही कालाबाजारी करने वालों तथा बिचौलियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए। लेकिन सरकार इस दिशा में गंभीर नजर नहीं आती। ऐसे हालात पर कवि रघुविंद्र यादव सटीक टिप्पणी करते हैं :-
भ्रष्ट व्यवस्था कर रही, सारे उल्टे काम,
अन्न सड़े गोदाम में, भूखा रहे अवाम।
उधर एशियन डेवेल्पमेंट बैंक भी चेतावनी दे रहा है कि यदि उपभोक्ता सामग्री की बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण न लगा तो इसका नकारात्मक प्रभाव उभरती अर्थव्यवस्था के विकास पर पड़ेगा। खाद्य पदार्थों व ईंधन की बढ़ती कीमतों की वजह से महंगाई लगातार बढ़ रही है जो सामाजिक असंतोष का कारण बनता जा रहा है। घरेलू बाजार में बढ़ती मांग से यह महंगाई और बढऩे की आशंका है। सरकार को समझ लेना चाहिए कि मौद्रिक उपायों से महंगाई थमने वाली नहीं है। इसके लिए सरकार को कुछ कड़े फैसले लेने होंगे। आपूर्ति व्यवस्था में सुधार उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए। जनता अब अधिक समय तक ये हालात बर्दाश्त करने वाली नहीं है। जैसा कि कवि दुष्यंत ने लिखा भी है :-
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

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