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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Wednesday, October 5, 2011

दोहे

रघुविन्द्र यादव के दोहे

कौरव ताक़तवर हुए, भोग रहे हैं राज.
सरे-आम लुटने लगी, द्रौपदियों की लाज.

शीश कटे जो सत्य पर, मुझको नहीं मलाल.
दया, धरम, ईमान की जलती रहे मशाल.

स्वागत बेटी का करें, बेटी घर की शान.
जिस घर में बेटी नहीं, वो घर है शमशान

मेरे तो माँ बाप ही, हैं देवों के देव.
पत्थर की पूजा मुझे, लगती सदा कुटेव.

संसद में भी पड़ रहे, धन के बदले वोट
कहें चोर को चोर तो, मर्यादा पर चोट.

खींचे जिसने उमरभर, अबलाओं के चीर.
वो भी अब कहने लगा, खुद को सिद्ध फकीर.

डाकू जैसा आचरण, संतों-सा सन्देश.
नेताओं की दुष्टता, देख रहा है देश.

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