विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Wednesday, November 23, 2011

दोहे

लगा रहे सद्भाव को, दुश्मन से मिल आग.
केसर क्यारी में पलें, अब जहरीले नाग.

केसर क्यारी जल रही, सत्ता फिर भी मौन.
कुर्सी की चिंता बड़ी, देश बचाए कौन.

केसर क्यारी में लगी, है आतंकी आग.
चन्दन पर कब्ज़ा जमा, बैठ गए है नाग. 

परचम है जेहाद का, नफ़रत का व्यापार.
ठंडी वादी में बहे, गरम खून की धार.

बम्ब, धमाके, गोलियां, खून सने अखबार.
घाटी में अब चल रहा, नफरत का व्यापार.

नारे हों जेहाद के, या मंदिर का राग.
दोनों ही सद्भाव को, लगा रहे हैं आग.

दुश्मन ने जब-जब चले, सफल हुए सब दांव
नफरत के शोले उठे, झुलस गया सद्भाव.

प्रेम, प्यार, सद्भाव के, किये बंद अध्याय.
बना दिया इस्लाम को, दहशत का पर्याय.

धरम नहीं आतंक का, होता ना ईमान.
निर्दोषों की जान बस, लेते हैं हैवान.

खेल दरिन्दे खेलते, बैठे सीमा पार.
कैसे उनको मात दें, अपनों में गद्दार.

बाल न बांका कर सकी, दुश्मन की तलवार.
जब भी हारा देश तो, पीछे थे गद्दार||
-रघुविन्द्र यादव 


1 comment:

  1. झुलसते सद्भाव को समर्पित आपके ये दोहे अच्छे बन पड़े हैं :
    खेल दरिन्दे खेलते, बैठे सीमा पार.
    कैसे उनको मात दें, अपनों में गद्दार.

    आपकी कलम साहित्य प्रेमियों के लिए खुराक बनती जा रही है | शुभकामनाएँ |
    - शून्य आकांक्षी

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