अपनी माटी वेब पत्रिका में रघुविन्द्र यादव के दोहे
होती हैं जिस देश में, नौकरियां नीलाम.
रिश्वत बिन कैसे वहां, होगा कोई काम.
बेशक मैं हर दिन मरा, जिन्दा रहे उसूल.
जीना बिना उसूल के, मुझको लगे फिजूल.
बहुत दिनों तक जी लिए, शीश झुका कर यार.
अब तो सच का साथ दो, बन जाओ खुद्दार.
कहीं उगे हैं कैक्टस, कांटे, कहीं बबूल.
दौर गिरावट का चला, मरने लगे उसूल
गन्दा कह मत छोडिये, राजनीति को मीत.
बिना लड़े होती नहीं, अच्छाई की जीत.
जनता के दुःख दर्द का, नहीं जिसे अहसास.
कैसे उस सरकार पर, लोग करें विश्वास ?
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