विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Monday, August 10, 2015

ब्लैकमेल-डॉ.सुरेन्द्र मंथन

भजन चलने लगा तो मैंने सोचा, फिजूल रिक्शा पर आठ-दस रुपये फूँक देगा। सामान साइकिल के कैरियर पर लाद कर कहा-''चलो, बस स्टैंड साथ ही है, छोड़े आता हूँ।"
भजन ने रास्ते में फिल्मी-पत्रिका खरीद ली। मैंने मन को समझाया-'चलो, सफर की बोरियत से बचेगा।'
भजन जब भी आता, अनाप-शनाप पैसा बहाता रहता। राजकुमारों जैसा शाही दिल है उसका। दोस्तों के बीच बैठता है तो क्या मजाल कोई दूसरा बिल अदा कर जाए।
एक मैं हूँ, पैसा-पैसा दाँत से पकडऩा पड़ता है। बड़ा होने की मजबूरी है। अब तो भजन शादी-शुदा है। उसका फर्ज़ नहीं बनता था, बापू को साथ ले जाने की बात कहता। कितना बढिय़ा बहाना है, 'यहाँ पोते-पोतियों में बापू का मन बहल जाता है।'
घर पहुँचने पर पत्नी ने कहा-''क्या जरूरत थी कुली बन कर सामान ढोने की?"
''अरे भागवान, दस रुपये बच गए। चूल्हे अलग हुए तो क्या हुआ, घर का पैसा घर में रह गया।"
''तब पड़ोसियों की नम्बर दो कमाई पर क्यों चिढ़ते हो? काला धन ही सही, देश से बाहर तो नहीं जा रहा।"
मुझेे महसूस हुआ, कोई मुझे लगातार ब्लैकमेल करता आ रहा है।
-डॉ.सुरेन्द्र मंथन

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