विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Wednesday, August 12, 2015

कबीर के दोहे

साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥
 
जात न पूछो साध की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥
 
माया मुई न मन मुआ, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मुई, कह गए दास कबीर॥
 
माटी कहे कुम्हार सूँ, तू क्या रौंदे मोय।
इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय॥
 
लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीक पुरानी पर रहें, शूरा सिंह सपूत ॥
 
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥
 
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडि़त होय ॥
 
पाहन पूजै हरि मिलैं, तो मैं पूजूं पहार ।
ताते तो चक्की भली, पीस खाय संसार ॥
 
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥
 
रात गँवाई सोय के, दिवस गँवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कौड़ी बदले जाय ॥

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