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Saturday, August 8, 2015

समय से संवाद करते मुक्तकों का संग्रह : आँसू का अनुवाद

काव्य के विषयगत दो भेद होते हैं-प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य। प्रबंध काव्य में विषय विशेष को छंदोबद्ध कविता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि मुक्तक काव्य की विषय सामग्री स्वतंत्र होती है और चार सममात्रिक पंक्तियों में ही स्वतंत्र भाव अथवा विचार को किसी छंद में प्रस्तुत करती है। मुक्तक काव्य में छंद विशेष की बाध्यता नहीं होती और यह किसी भी छंद में लिखा जा सकता है, मगर जिस भी छंद का चुनाव किया जाये उसका निर्वाह किया जाना अपेक्षित है। सामान्यत: मुक्तक में चार सममात्रिक पंक्तियाँ होती हैं। जिसकी पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति में तुकान्त या समान्त होता है, जबकि तीसरी पंक्ति में तुकान्त/समान्त होता भी है और नहीं भी, लेकिन कथ्य का उद्वेग अवश्य होता है। आपाधापी के इस दौर में लोगों के पास लम्बी कविताओं को पढऩे का वक्त नहीं है इसलिए दोहे की तरह मुक्तक भी लोकप्रिय होते जा रहे हैं।
बाल साहित्यकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर ख्याति पाने वाले कवि घमंडीलाल अग्रवाल छंदोबद्ध कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अब तक बाल साहित्य की 37 पुस्तकों सहित उनकी कुल 42 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें उनके तीन गीत संग्रह-'नेह की परछाइयाँ', 'आस्था का सूरज', 'चाँदनी की व्यथा', दो $गज़ल संग्रह-'सन्नाटा बुनते दिन' और 'गणित बनती जिन्दगी' व एक दोहा संग्रह- 'चुप्पी की पाजेब' शामिल हैं। वे पिछले 40 वर्षों से निरन्तर साहित्य साधना में लगे हुए हैं। 'आँसू का अनुवाद' उनके चार सौ मुक्तकों का सद्य प्रकाशित संग्रह है। जिसमें उन्होंने सरल और सहज भाषा में सामाजिक विसंगतियों, राजनीति के उतार-चढ़ाव, जीवन-यथार्थ, मूल्यहीनता, भ्रष्ट व्यवस्था, आतंकवाद, गाँवों की दुर्दशा, पर्यावरण हा्रस, कलुषित प्रेम, स्वार्थपरता, संबंधों की मृदुता, हिन्दी की महत्ता, लचर न्याय व्यवस्था, बेटियों की महत्ता, पाश्चात्य संस्कृति आदि पर प्रभावी और धारदार मुक्तक लिखे हैं। इन मुक्तकों में छंदों का पूर्ण निर्वाह किया गया है वहीं अलंकार और बिंब योजना से सजे ये मुक्तक कथ्य और शिल्प की कसौटी पर भी खरे हैं। कवि चाहता है कि समाज में समरसता रहे, लोगों की सोच सकारात्मक हो, सभ्यता और संस्कृति का सम्मान हो, रिश्तों में स्वार्थ न आये, नारी को सम्मान मिले, पर्यावरण का संरक्षण हो, मगर उसका कोमल मन मूल्यहीनता, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और सामाजिक विसंगतियों से आहत होता है।
आज की पीढ़ी जिस तरह बुजर्गों और माता-पिता की उपेक्षा कर रही है, उससे कवि का संवेदनशील हृदय आहत है। कवि की नजर में असली देव माँ-बाप ही हैं -
वृद्ध माता-पिता तो ताले हैं,
घरों के वास्ते उजाले हैं,
सदा ही आस्था इनमें रखिए-
मस्जिदें ये हैं, ये शिवाले हैं।
लोकराज लोकलाज से चलता है, मगर अब राजनीति से नीति और लोकतन्त्र से लोक गायब हो चुके हैं। इसलिए अब लोक-कल्याण की बात बेमानी लगती है-
नीति अब राजनीति से गायब,
रीति अब राजनीति से गायब,
लोक-कल्याण किस तरह संभव-
प्रीति अब राजनीति से गायब।
स्वशासन में भी लोग भूख से मर रहे हैं और अनाज गोदामों में सड़ रहा है। कवि पूछता है कि क्या इसी व्यवस्था को प्रजातंत्र कहते हैं- न कोई पूजा, न कोई तंत्र है,
आदमी का खुला षड्यंत्र है,
साल-दर-साल भुखमरी बढ़ती-
कहो यह कैसा प्रजातंत्र है।
कवि शब्द की शक्ति को तो महत्व देता ही है वह कविताओं से छंद के गायब होने से भी आहत नजर आता है। इस मुक्तक में उनकी इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है-
काव्य है गद्यमय हुआ जाता,
दर्द को अब नहीं छुआ जाता,
इस नये दौर में तो हाथों से-
व्याकरण का उड़ा सुआ जाता।
कवि आशावादी दृष्टिकोण अपनाने का पक्षधर है। वह चाहता है कि जीवन में सकारात्मक सोच रखी जाये-
अश्रु के बीच तुम खुशी खोजो,
मौन के बीच तुम हँसी खोजो,
जि़न्दगी वह जो प्यार में गुजरे-
वैर के बीच दोस्ती खोजो।
भोगवादी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण अब पैसे को बहुत महत्व दिया जाने लगा है। अब तो रिश्ते-नातों का वजन भी पैसे से तोला जाने लगा है-
रिश्तों का आधार बना पैसा,
आपस का व्यवहार बना पैसा,
पैसा जिसके पास नहीं वह पंगु-
खुशियों की रफ्तार बना पैसा।
कवि ने अपने लंबे अनुभव के आधार पर जीवन और जगत से जुड़े विविध विषयों को आधार बनाकर प्रभावी मुक्तक लिखे हैं जो पाठक के मन पर प्रभाव छोड़ते हैं। सरल भाषा में होने के कारण लोगों की जुबान पर चढऩे का मादा भी इन मुक्तकों में है। मगर इतने प्रभावशाली मुक्तकों वाले संग्रह में भी कुछ जगह प्रूफ की अशुद्धियाँ रह गई हैं। आलोच्य कृति का आवरण आकर्षक तथा छपाई सुन्दर है। कुल मिलाकर 'आँसू का अनुवादÓ मुक्तक विधा की श्रेष्ठ कृति है। वरिष्ठ साहित्यकार और पुस्तक की भूमिका लेखिका श्रीमती सुकीर्ति भटनागर की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि 'आँसू का अनुवादÓ समय से संवाद करते मुक्तकों का संग्रह है। इस कृति का साहित्य जगत में व्यापक स्वागत होगा-ऐसी आशा है। रघुविन्द्र यादव

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