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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Thursday, September 24, 2015

छोटी सीपियों के बड़े मोती : यतीन्द्रनाथ राही

    अभी पढ़ा है कृष्णलता यादव का लघुकथा संग्रह पतझड़ में मधुमास। सोचता हूँ जब अप संस्कृतियों की तेज हवाओं में साँझे परिवार पीले पत्तों की तरह टूट कर एकल परिवारों में बिखर रहे हों। न्याय-नीति-निष्ठा के टूटे डंठलों पर बैठे कुछ गीध चील कौवे, समय की खाल नोच रहे हों, तब एक प्रबुद्ध रचनाकार के सम्वेदनशील हृदय में, शांति-शुचिता और नैसर्गिक सौन्दर्य युक्त मधुमय बसंत के सुखद स्वप्र के अतिरिक्त और आएगा ही क्या?
    कृष्णलता यादव का पतझड़ में मधुमास इसी अवतरण की मोहक सृष्टि ही तो है, जो उनकी 90 लघुकथाओं के रूप में पल्लवित हो उठी है। इन कथाओं के दृश्य पटल पर पतझड़ का रूखा यथार्थ भी है और वसन्त के फू टते पीकों से उठती भीनी महक, नीड़ों में कुलबुलाती चहक, पंखों में कसमसाती उड़ान, संवादों की गुटरगूँ, चिन्तन की मौन गहराइयों, आदर्शों की ऊँचाइयों, धरती की कसक, रिश्तों की खनक, ममता के सागर, प्यार के निर्झर, सभी को बटोर कर, इन लघुकथाओं की छोटी-छोटी सीपियों के सम्पुट में बाँधकर रख दिया है लेखिका ने। इनमें करवटें लेता अतीत भी है और शोर मचाता वर्तमान भी परन्तु दोनों ही इस वसन्त के साथ एक रस हो गए हैं।
    मैंने इन सीपियों को खोला है, मोतियों का एक-एक दाना परखा है, तोला है। इनमें आव है, आकर्षण है, मूल्य है। लगता है उठाते चले जाओ, किन्तु रखूँ कहाँ? इतनी बड़ी डिबिया भी तो नहीं है मेरे पास कि सुरक्षित कर लूँ। बिखर भी कैसे जाने दूँ, सो कलम की नोक से पिरो लिया है इनको। कभी विपन्नता में काम आएँगे।
    कृष्णलता से मेरा परिचय तब हुआ जब उनकी छोटी मोटी 6 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं और वे बाल साहित्यकार के रूप में अपना एक सम्माननीय स्थान बना चुकी थीं। उनकी प्रथम कृति जो मुझे पढऩे को मिली वह थी-'मन में खिला बसंतÓ (दोहा संग्रह) जिसमें मुझे वे दोहाचार्य कविवर रहीम के चिह्नों पर चलती नीति निर्देशिका  कवयित्री के रूप में दर्शित हुईं। मैंने उनकी एक सामान्य-सी समीक्षा भी लिखी और हम परिचित हो गए। उम्र के लिहाज से वे मेरी बेटी ही हैं, सो मैं उनका चाचाजी भी बन गया। हम एक दूसरे को पढऩे-समझने और सीखने भी लगे। कुछ ही दिनों बाद उनका व्यंग्य संग्रह फायदे गरीबी के आया और अब यह पतझड़ में मधुमास। इसी संग्रह के साथ उनके आगामी और शीघ्र प्रकाश्य गीत संग्रह के कुछ गीत भी पढऩे को मिले, जिनमें यथार्थ की पीठिका पर संवेदना के रचे कुछ सहज गीतों को पढक़र लगा कि बहुत शीघ्र ही नवगीतकार के रूप में भी वे अपना एक स्थान सुनिश्चित कर लेंगीं। वे अच्छी आलेखिका और समीक्षाकार भी हैं। उनकी समीक्षाएँ अक्सर प्रकाशित होती रहती हैं। मैं उनकी इस बहुमुखी प्रतिभा को नमन करता हूँ और आशान्वित हूँ कि सेवा-निवृति से प्राप्त इन मुक्त क्षणों से वे साहित्य सृजन में बहुत कुछ दे सकेंगी।
    जहाँ तक इन लघुकथाओं का संबंध है, ये कथाएँ जैसा मैंने महसूस किया है, कृष्णलता के जीवन के भोगे हुए सत्य हैं। कृष्णलता ने इन्हें जिया है तभी तो इनके रूपांकन इतने जीवन्त हैं। इनमें घर है, परिवार है, परिवेश है, समाज है, राष्ट्र है, जगत है, जिसमें घटित होती ये छोटी-छोटी घटनाएँ हैं जिनमें लेखिका दर्शक मात्र नहीं रही, स्वयं उतर आई है। वह लिख नहीं रही, घटनाएँ उससे लिखवा रही हैं।
    कथाएँ गल्प भी होती हैं। किसी सत्य, अद्र्ध सत्य या कल्पित सत्य के आधार पर कल्पना प्रसूत कथा से भी, उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है, किन्तु प्रभावकारी कथानक वही बन पाती हैं जिनमें विचार और संवेदन का जीवन्त समन्वय होता है। कोरे विचार को तो लेखिका ने भी फूटे ढोल कहा है। लेखिका के सभी कथानक ऐसे ही संवेदन प्लुत सत्य या अद्र्ध सत्य हैं, जिन्हें अपने ही आस-पास से उठाकर, संवेदन से सींचकर नैसर्गिक सत्य बना दिया है। और अब वे घटनाएँ हमें सबके घर-आँगन की धूल में, गली-चौपाल-चौबारों में खेलती, उछलती-मचलती मिलती, बतियाती हृदय में बस जाती हैं। साहित्य में साधारणीकरण की ऐसी शक्ति देखना सहज नहीं होता। यह कौशल इन लघुकथाओं में है। ये लघुकथाएँ टॉर्च लाईट नहीं, जुगनुओं के ऐसे नन्हें प्रकाश हैं, जो एक मोहक ललक देकर, दूर तक हमें अपने पीछे चले आने की विवशता दे जाते हैं। इनमें वह सब है, जो मानवीयता के लिए श्रेय भी है और प्रेय भी। कर्म-धर्म, प्यार, ममता, अधिकार, कर्तव्य, वर्ग-भेद, जीवनानुभूति, श्रम की साधना, पसीने की खुशबू, परिवार से लेकर समाज, राष्ट्र, विश्वबन्धुत्व और तेजी से फैलता हुआ बाज़ारवाद भी है इन लघुकथाओं में। परिवार में लेखिका अधिक रमी है। जिसमें उनके गहरे परम्परागत संस्कार प्रतिबिम्बित होते हैं। वह एकल परिवारों में विघटित होते संयुक्त परिवारों के दर्द जानती हैं। उसने लक्ष्मण रेखाओं में बंद वृद्धों को देखा है। वात्सल्य से वंचित खिलौनों और विलासितापूर्ण उपहारों में भटके बच्चों का दर्द जाना है। बहुओं को मिलती उपेक्षा और शोषण, रिश्तों के बीच उगती दूरियाँ, जि़न्दगी में पसरती रुक्षता उसने अनुभूत की है। इसलिए इनमें अनेक कथाएँ जैसे-कौन जाने, बड़े दिल वाली, रिश्तों के रंग, माँग पत्र, दृष्टिकोण, बुढ़ापे की लाज, शब्दों की धरोहर ऐसी ही लघुकथाएँ हैं, जिनके माध्यम से लेखिका सास-बहू, ननद-भाभी आदि परिवारजनों के बीच, रिश्तों के रंग भरती, स्नेह-सूत्र बुनती दृष्टिगत होती है। परन्तु ठोकर खाकर घूँघट की पनिहारिन को सास का स्नेह तो दिलवा देती है, घूँघट हटाने का साहस बहू में जागृत नहीं कर पायी, जिसकी ज़रूरत है। इन सारी कथाओं में परम्परागत स्नेह-सूत्रों को कसने का प्रयास तो है, परन्तु जाग्रत स्वाभिमान के साथ नारी की विश्वास भरी स्वतन्त्र आवाज़ के स्वर सुनाई नहीं दिए, जिसकी अपेक्षा एक प्रबुद्ध संवेदनशील लेखिका से की जानी चाहिए। शबनम जैसी लड़कियों के स्वर अकेले क्यों रह जाते हैं? अनीति का अन्त करने के लिए, मौन की नहीं विद्रोही स्वरों की आवश्यकता है।
    समाज के गरीब और विपन्न वर्ग पर किए कटाक्ष हिला देते हैं। जब पढ़ता हूँ-बच्चे नाचना भूल गए और बियर की खाली बोतलें बीनने लगे, भूख का भूगोल, असलियत, घेरे अपने-अपने, ऐसी ही कुछ लघुकथाएँ हैं जो हमें यह सोचने को विवश कर देती हैं कि भूख ही तो है जो व्यक्ति को पाप करने के लिए विवश करती है। जहाँ पेट खाली हो, वहाँ कैसी शिक्षा, कैसा विकास और कैसा धर्म? 
    मीता का टैंशन है कि महात्मा का प्रसाद वह अपने प्यारे टॉमी को नहीं खिला पायी, रूपाली को दाने चुगते कबूतरों की आँखों में उनके बच्चों की भूख दिखाई देती है। ऐसी कुछ कथाएँ हैं जो जीव जगत के प्रति ममता जाग्रत करने की प्रेरणा बन जाती हैं।
    हम कितना समय, शक्ति और धन तीर्थ यात्राओं के ढोंग और प्रदर्शन में तो व्यय कर देते हैं, घर में पड़े जीवन्त तीर्थ बुजुर्गों को बूँद पानी और भोजन के लिए तरसते देखते रहते हैं। कैसे तीर्थाटन?
    संस्कारों का क्षरण, अप संस्कृति का तीव्रता से प्रवेश। निरन्तर संकीर्ण होते हुए हमारे सोच, स्वार्थ और साधने के हर संभव भ्रष्ट उपाय, आदर्श वाक्यों के दुहरे अर्थ दर्शाती लघुकथाएँ निश्चित ही अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, एक स्वस्थ दिशा देती हैं।
    ग्लोबलाइज़ेशन के नाम पर हम बसुधैवकुटुम्बकम की व्यापक परिधि तो नहीं छू पाए, वैसा प्रयास भी नहीं करते, हाँ अपने घर-गाँव शहर यहाँ तक कि देश भावना को भी अवश्य भूल गए हैं। सकल भूमि गोपाल की कह तो लेते हैं, उसका अर्थ तक नहीं जानते। अर्थ है तो सिर्फ अपना सोच, अपना हित।
    लेखिका हिन्दी की प्राध्यापिका रही हैं। एक अच्छे शिक्षक के रूप में अपने भाव और विचार अपने छात्रों को हृदयंगम करा सकने की कला उन्हें आती है। उन्होंने साहित्य साधना का प्रारम्भ भी बुनियादों को शिक्षित और संस्कारित करने से ही किया है। लम्बे व्याख्यान देने की अपेक्षा, मंत्र रूप में सूत्र वाक्यों में बात कहने की कला में वे पारंगत हैं। वही सब कुछ व्यक्त हुआ है इन लघुकथाओं में, जो समय सापेक्ष्य भी है और युग सापेक्ष्य भी।
    जीवन भले ही क्षण भंगुर और निरर्थक हो, पर कथा उसे सार्थक शाश्वत करने की क्षमता रखती है। कृष्णलता कथा की गल्पता में नहीं, सार्थक सृजन में विश्वास करती हैं। साहित्य समाज का दर्पण भी है और दिशा-दर्शक, निर्मायक भी। कभी-कभी जब कोई सत् साहित्य, निर्देशक होता हुआ निर्मायक का गौरव प्राप्त कर लेता है तब वह कालातीत और अमर हो जाता है। उस दिशा में लेखिका का यह अति लघु प्रयास, मूल्य तो अवश्य रखता है। मुझे विश्वास है कि लघुकथा साहित्य में कृष्णलता की ये कथाएँ समादरित होंगी।
    इन कथाओं की भाषा प्रांजल और पात्रानुकूल है। संवादों में क्षिप्रता, कथा सूत्रों की बुनावट चातुरी पूर्ण है। विशेष बात यह है कि हरियाणा में जन्मी पली बढ़ी होने पर भी उनकी खड़ी बोली विशुद्ध है। कहीं कोई शब्द आ भी गया है तो दूध में मिश्री-सा घुल गया है।
बधाई! शुभकामनाएँ और अपेक्षाओं की सम्पूर्ति हेतु आशीष।                      
                                                                                                    -यतीन्द्रनाथ राही
                                                                                                     भोपाल 462026
पुस्तक - पतझड़ में मधुमास
लेखिका -कृष्णलता यादव
प्रकाशक -अयन प्रकाशन, महरौली
पृष्ठ संख्या -104  मूल्य -220  रुपये

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