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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Tuesday, September 8, 2015

त्रिलोक सिंह ठकुरेला का गीत

कृष्ण!  निशिदिन घुल रहा है सूर्यतनया में जहर।
बांसुरी की धुन नहीं है,
भ्रमर की गुन-गुन नहीं है,
कंस के व्यामोह में पागल हुआ सारा शहर।
पूतना का मन हरा है,
दुग्ध, दधि में विष भरा है,
प्रदूषण के पक्ष में हैं ताल, तट, नदियां, नहर।
निशाचर-गण हँस रहे  हैं,
अपरिचित भय डस रहे हैं,
अब अँधेरे से घिरे हैं सुवह, संध्या, दोपहर।
शंख में रण-स्वर भरो अब ,
कष्ट वसुधा के  हरो  अब,
हाथ में लो चक्र, जाएँ आततायी पग ठहर ।

- त्रिलोक  सिंह  ठकुरेला, अबू रोड

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