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Sunday, September 20, 2015

रजनी मोरवाल के दोहे

टेसू पर मस्ती चढ़ी, वन-उपवन सब लाल।
घाटी  मारे  शर्म के,  पोंछ  रही  है गाल।।

वासंती परिधान में, सरसों  हुई  जवान।
वधु बनकर रितुराज की, पियराई परवान।।

मौसम आवारा हुआ, पीकर आया भंग।
ढपली भोंपू चंग पर, छिड़े द्विअर्थी रंग।।

धूप खिली दिन हो गए, रंगीले बेशर्म।     
फागुन की रातें हुई, सेमल से भी नर्म।।

मन मेरा मधुमास है, तन से फूटे गंध।
फागुन ने तोड़े सखी, सुधियों के प्रतिबंध।।

बिन  तेरे  फागुन  हुआ,  बेमानी  बेरंग।     
सूनी अँखियाँ सो गई, लेकर आँसू संग।।

रिश्तों  में  सीलन  भरी, फिर  दरकी  दीवार।
आँगन  में  उगने  लगी, तब  से खरपतवार।।


दर्द मिला  तो हो गया, जीने  का  सामान।
चाक जिग़र ने कर दिया, जीवन ही आसान।।

तेरी  चाहत  में  हुए, हम  कितने  मजबूर।
तुझसे तो हम दूर थे, अब ख़ुद से भी दूर।।

उनके  तानों  से  बढ़ा,  मेरा  तो  विश्वास।
शायद उनको दीखता, मुझमें कुछ है ख़ास।।

बुरे  वक्त  में आदमी, हो  जाता  गुमराह।
दंभ कभी टिकता नहीं, निर्धन हो या शाह।।

बँगले  में  नौकर रहे, बालकनी  में बाप।
प्रायोगिक संसार में, स्वार्थ हुआ संताप।।

प्रेम  ढूँढता  रह  गया, संवादों  के  अर्थ।
कही  अनकही  हो गई, शब्द  हुए असमर्थ।।

                        -रजनी मंगल मोरवाल, जयपुर      

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