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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, September 20, 2015

प्रोफ़ेसर रमेश 'सिद्धार्थ' की ग़ज़ल

दिल के अँधिआरों में वो ख्वाबों का मंजर डूबा
गम के सैलाब में अश्कों का समंदर डूबा

एक एक करके बुझे सारे उम्मीदों के चिराग
इतनी मायूसी की अरमानों का खंडर डूबा

यार ने वार किया पीठ के पीछे से जब
शर्म से लाल हो गद्दार का खंजर डूबा

हमसे मत पूछो कि है जाम ये कितना गहरा
मय के प्याले के भँवर में तो सिकंदर डूबा

देख कुदरत के हसीं, दिलनशीं नज्जारों को
एक रूहानी-सी मस्ती में कलंदर डूबा

चीखें बच्ची कि कँपाती रहीं हर जर्रे को
बस्तियाँ मौन थीं पर शोक में अम्बर डूबा

डूब जाऊँगा तेरी मदभरी आँखों में सनम
जैसे पीकर के गरल ध्यान में शंकर डूबा

-85, हाउसिंग बोर्ड,  रिवाड़ी

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