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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, November 8, 2015

कहानी - दीप खुशी के जल उठे

दफ्तर से आते-आते रात के आठ बज गये थे।घर में घुसते ही प्रतिमा के बिगड़े तेवर देख श्रवण भांप गया कि जरूर आज घर में कुछ हुआ है, वरना मुस्करा कर स्वागत करने वाली का चेहरा उतरा न होता । सारे दिन मोहल्ले में होने वाली गतिविधियों की रिपोर्ट जब तक मुझे सुना न देती उसे चैन नहीं मिलता था ।जलपान के साथ-साथ बतरस पान भी करना पड़ता था। पंजाब केसरी पढ़े बिना अड़ोस-पड़ोस के सुख-दुख के समाचार मिल जाते थे। शायद देरी से आने के कारण ही प्रतिमा का मूड बिगड़ा हुआ है ।
प्रतिमा से माफी मांगते हुए बोला, "सारी, मैं तुम्हें फोन नहीं कर पाया। महीने का अन्तिम दिन होने के कारण बैंक में ज्यादा कार्य था।"
" तुम्हारी देरी का कारण मैं समझ सकती हूं, पर मैं इस कारण दुखी नहीं हूं।" प्रतिमा बोली।
"फिर हमें भी तो बताओ इस चांद से मुखड़े पर चिन्ता की कालिमा क्यों? " श्रवण ने पूछा
" दोपहर को अमेरिका से बड़ी भाभी (जेठानी) जी का फोन आया था कि कल माता जी हमारे पास पहुंच रही हैं ।" प्रतिमा चिन्तित होते हुए बोली
"इसमें इतना उदास व चिन्तित होने कि क्या बात है? उनका अपना घर है वो जब चाहें आ सकती हैं । श्रवण हैरान होते बोला।
"आप नहीं समझ रहे। अमेरिका में माँ जी का मन नहीं लगा अब वो हमारे ही साथ रहना चाहती हैं ।" प्रतिमा ने कहा। "अरे मेरी चन्द्रमुखी, अच्छा है ना, घर में रौनक बढ़ेगी, कथा कीर्तन सुनने को मिलेगा। बरतनों की उठा पटक रहेगी। एकता कपूर के सीरियलों की चर्चा तुम मुझसे न करके माँ से कर सकोगी। सास बहू मिलकर मोहल्ले की चर्चाओं में बढ़ -चढ़ कर भाग लेना।" श्रवण चटखारे लेते हुए बोला।
" तुम्हें मज़ाक सूझ रहा है और मेरी जान सूख रही है।" प्रतिमा बोली। 'चिन्ता तो मुझे होनी चाहिये, तुम सास -बहू के शीत-युद्ध में मुझे शहीद होना पड़ता है। मेरी स्थिति चक्की के दो पाटों के बीच में पिसने वाली हो जाती है। ना माँ को कुछ कह सकता हूं, ना तुम्हें । कुछ सोचते हुए श्रवण फिर बोला, मैं तुम्हें कुछ टिप्स बताना चाहता हूं, यदि तुम उन्हें अपनाओगी तो तुम्हारी सारी की सारी परेशानियां एक झटके में छूमन्तर हो जाएंगी॥"
"यदि ऐसा है तो, आप जो कहेंगे मैं करूंगी। मैं चाहती हूं माँ जी खुश रहें । आपको याद है पिछली बार छोटी सी बात से माँ जी नाराज़ हो गयी थीं!"
देखो प्रतिमा, जब तक पिताजी जीवित थे तो हमें उनकी कोई चिन्ता नही थी। जब से वे अकेली हो गयी हैं उनका स्वभाव बदल गया है। उनमें असुरक्षा की भावना ने घर कर लिया है। अब तुम ही बताओ, जिस घर में उनका एकछत्र राज था वो अब नहीं रहा। बेटों को तो बहुओं ने छीन लिया। जिस घर को तिनका-तिनका जोड़कर माँ ने अपने हाथों से संवारा, उसे पिता जी के जाने के बाद बन्द करना पड़ा। कभी अमेरिका कभी यहाँ हमारे पास आकर रहना पड़ता हैं तो उन्हें अच्छा नहीं लगता। वे स्वयं को बन्धन में महसूस करती है, इसलिए हमें ऐसा कुछ करना चाहिये जिसमे उन्हें अपनापन लगे । उनको हमसे पैसा या जायदाद नहीं चाहिये। उनके लिए तो पिताजी की पेन्शन ही बहुत है। उन्हें खुश रखने के लिए तुम्हें थोड़ी सी समझदारी दिखानी होगी, चाहे नाटकीयता से ही सही।"
"आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करने को तैयार हूं|"
"तो सुनो प्रतिमा, हमारे बुजुर्गो में एक 'अहं' नाम का प्राणी होता है। यदि किसी वजह से उसे चोट पहुंचती है तो पारिवारिक वातावरण प्रदूषित हो जाता है, अर्थात् परिवार में क्लेश व तनाव अपना स्थान ले लेता है। इसलिए हमें ध्यान रखना होगा कि माँ के "अहं" को चोट न लगे। बस....फिर देखो....।"
" इसका उपाय भी बता दीजिए आप!" प्रतिमा ने उत्सुकता से पूछा। "हां ....हां ..क्यों नहीं, सबसे पहले तो जब माँ आए तो सर पर पल्लू रखकर चरण स्पर्श कर लेना। रात को सोते समय कुछ देर उनके पास बैठकर हाथ-पांव दबा देना। सुबह उठकर चरण स्पर्श के साथ प्रणाम कर देना।" श्रवण ने समझाया ।
"यदि माँ जी इस तरह से प्रसन्न होती हैं तो यह कोई कठिन काम नहीं है। "
"एक बात और कोई भी काम करो माँ से एक बार पूछ लेना। होगा तो वही जो मैं चाहूंगा । जो बात मनवानी हो उस बात के विपरीत कहना, क्योंकि घर के बुजुर्ग लोग अपना महत्व जताने के लिए अपनी बात मनवाना चाहते हैं । हर बात में 'जी माँ जी' का मन्त्र जपती रहना। फिर देखना माँ की चहेती बहू बनते देर नहीं लगेगी।" श्रवण ने अपने तर्कों से प्रतिमा को समझाया।
"आप देखना, इस बार मैं माँ को कोई शिकायत का मौका नहीं दूंगी।"
"बस....बस.., उनको ऐसा लगे जैसे घर में उनकी ही चलती है। तुम मेरा इशारा समझ जाना। आखिर माँ तो मेरी है, मैं जानता हूं उन्हें क्या चाहिये !"
प्रतिमा ने सुबह जल्दी उठ कर उनके कमरे की अच्छी तरह सफाई करवा दी। उसी कमरे के कोने में उनके लिए छोटा- सा मन्दिर रखकर उसमें ठाकुर जी की मूर्ति भी स्थापित कर दी साथ ही उनकी जरूरत की सभी चीजें वहाँ रख दी।
हम दोनों समय पर एयरपोर्ट पहुंच गये। हमें देखते ही मां जी की आंखे खुशी से चमक उठी। सिर ढक कर प्रतिमा ने माँ के चरण छुए तो माँ ने सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया। पोते को न देखकर माँ ने पूछा, "अरे तुम मेरे गुड्डू को नहीं लाए,?"
"माँ जी वह सो रहा था ।" प्रतिमा बोली
"बहू ...आजकल बच्चों को नौकरों के भरोसे छोडने का समय नहीं है। आए दिन अखबारों में छपता रहता है।" माँ जी ने समझाते हुए कहा।
"जी माँ जी, आगे से धयान रखूंगी"। रास्ते भर भैया भाभी व बच्चों की बातें होती रही।
घर पहुंच कर माँ ने देखा जिस कमरे में उनका सामान रखा गया है उसमें उनके लिए पूजा करने का स्थान भी बना दिया गया है। वे खुश होते हुये बोली, "प्रतिमा बहू, तुमने तो ठाकुर जी के दर्शन करवाकर मेरे मन की इच्छा पूरी कर दी। अमेरिका में तो विधिवत् पूजा पाठ करने को तरस ही गयी थी। तभी चार वर्षीय पोता गुड्डू दौड़ता हुआ आया और दादी के पांव छूकर गले लग गया। "माँ जी, आप पहले फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं चाय बनाती हूं।"
रात के खाने में सब्जी माँ से पूछकर बनाई गयी। खाना खाते-खाते श्रवण बोला, "प्रतिमा कल आलू के परांठे बनाना, पर माँ से सीख लेना तुम बहुत मोटे बनाती हो।" प्रतिमा की आंखों में आंखें डालकर श्रवण बोला।
"ठीक है, माँ जी से पूछकर ही बनाउंगी।" प्रतिमा बोली। माँ जी के कमरे की सफाई भी प्रतिमा महरी से न करवाकर स्वयं करती थी, क्योंकि पिछली बार महरी से कोई चीज छू गयी थी तो माँ जी ने पूरा घर सर पर उठा लिया था। अगले दिन आफिस जाते समय श्रवण को एक फाइल ना मिलने के कारण वह बार-बार प्रतिमा को आवाज लगा रहा था। प्रतिमा थी की सुन कर भी अनसुना कर माँ के कमरे में काम करती रही। तभी माँ जी बोली, "बहू तू जा, श्रवण क्या कह रहा है वह सुन ले।" "जी माँ जी|".
दोपहर के समय माँ जी ने तेल मालिश के लिए शीशी खोली तो, प्रतिमा ने शीशी हाथ में लेते हुए कहा, "लाओ माँ जी मैं लगाती हूं।"
"बहू रहने दे! तुझे घर के और भी बहुत काम हैं, थक जाएगी।" "नहीं माँ जी, काम तो बाद में भी होते रहेंगे। तेल लगाते- लगाते प्रतिमा बोली, माँ जी, आप अपने समय में कितनी सुन्दर लगती होंगी और आपके बाल तो और भी सुन्दर दिखते होंगे, जो अब भी कितने सुन्दर और मुलायम हैं।"
"अरे नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, हां तुम्हारे बाबू जी जरूर कभी-कभी छेड़ दिया करते थे। कहते थे कि यदि मैं तुम्हारे कालेज में होता तो तुम्हें भगा ले जाता।" बात करते-करते उनके मुख की लालिमा बता रही थी जैसे वो अपने अतीत में पहुंच गयी हैं । प्रतिमा ने चुटकी लेते हुए माँ जी को फिर छेड़ा, "माँ जी गुड्डू के पापा बताते हैं कि आप नाना जी के घर भी कभी-कभी जाती थी, बाबू जी का मन आपके बिना लगता ही नहीं था। क्या ऐसा ही था माँ जी?"
" चल हट....शरारती कहीं की...कैसी बातें करती है..देख गुड्डू स्कूल से आता होगा!" बनावटी गुस्सा दिखाते हुए माँ जी नवयौवना की तरह शरमा गयीं । शाम की सब्जी काटते देख माँ जी बोली, बहू तुम कुछ और काम कर लो, ला सब्जी मैं काट देती हूं !"
माँ जी रसोईघर में गई तो प्रतिमा ने मनुहार करते हुए कहा, "माँ जी, मुझे भरवां शिमला मिर्च बनानी नहीं आती, आप सिखा देंगी? यह कहते हैं, जो स्वाद माँ के हाथ के बने खानें में है, वह तुम्हारे में नहीं ।"
हां ..हां ..क्यों नहीं, मुझे मसाले दे मैं बना देती हूं। धीरे-धीरे रसोई की जिम्मेदारी माँ ने अपने ऊपर ले ली थी और तो और गुड्डू को मालिश करना, उसे नहलाना, उसे खिलाना-पिलाना सब माँ जी ने सम्भाल लिया। अब प्रतिमा को गुड्डी की पढ़ाई के लिए बहुत समय मिलने लगा। इस तरह प्रतिमा के सिर से कार्य भार कम हो गया था साथ-ही-साथ घर का वातावरण भी खुशनुमा रहने लगा। श्रवण को प्रतिमा के साथ कहीं बाहर जाना होता घूमने तो वह यही कहती कि माँ से पूछ लो, मैं उनके बिना नहीं जाऊंगी।
एक दिन पिक्चर देखने का मूड बना । आफिस से आते हुए श्रवण दो पास ले आया। जब प्रतिमा को चलने के लिए कहा तो वह झट से ऊंचे स्वर में बोल पड़ी, " माँ जी चलेंगी तो मैं चलूंगी अन्यथा नहीं ।" वह जानती थी कि माँ को पिक्चर देखने में कोई रूचि नहीं है। उनकी तू-तू, मैं-मैं सुनकर माँ जी बोली, "बहू, क्यों जिद्द कर रही हो? श्रवण का मन है तो चली जा, गुड्डू को मैं देख लूंगी!" माँ जी ने शांत स्वर में कहा।
'अन्धा क्या चाहे दो आंखे' वे दोनों पिक्चर देखकर वापिस आए तो उन्हें खाना तैयार मिला। माँ जी को पता था श्रवण को कटहल पसन्द है, इसलिए फ्रिज से कटहल निकाल कर बना दिया। चपातियां बनाने के लिए प्रतिमा ने गैस जलाई तो माँ जी बोली, "प्रतिमा तुम खाना लगा लो रोटियां मैं सेंकती हूं।"
"नहीं माँ जी, आप थक गयी होंगी, आप बैठिए, मैं गरम-गरम बना कर लाती हूं।" "सभी एक साथ बैठकर खाएंगे, तुम बना लो प्रतिमा ।" श्रवण बोला।
एक साथ खाना खाते देख माँ जी की आंखें नम हो गयी। श्रवण ने पूछा तो माँ बोली, "आज तुम्हारे बाबू जी की याद हो आई, आज वो होते तो तुम सबको देखकर बहुत खुश होते?" "माँ मन दुखी मत करो।" श्रवण बोला।
प्रतिमा की ओर देखकर श्रवण बोला, "कटहल की सब्जी ऐसी बनती है, सच में माँ ...बहुत दिनों बाद इतनी स्वाद सब्जी खाई है, माँ से कुछ सीख लो प्रतिमा....!" " माँजी सच में ही सब्जी बहुत स्वादिष्ट है...मुझे भी सिखाना माँ ....।"
"बहू ....खाना तो तुम भी स्वादिष्ट बनाती हो"
"नहीं माँ जी, जो स्वाद आपके हाथ के बनाए खाने में है वह मेरे में कहाँ? "प्रतिमा बोली।
श्रवण को दीपावली पर बोनस के पैसे मिले तो देने के लिए उसने प्रतिमा को आवाज लगाई। प्रतिमा ने आकर कहा, 'माँ जी को ही दीजिए ना ....!' श्रवण ने लिफाफा माँ के हाथ में रख दिया। सुनन्दा जी (माँ ) लिफाफे को उलट- पलट कर देखते हुए रोमांचित हो उठी। आज वे स्वयं को घर की बुजुर्ग व सम्मानित सदस्य अनुभव कर रही थीं। श्रवण व प्रतिमा जानते थे कि माँ को पैसो से कुछ लेना -देना नहीं । ना ही उनकी कोई विशेष आवश्यकताएं थी। बस उन्हें तो अपना मान सम्मान चाहिये था।
अब घर में कोई भी खर्चा होता या कहीं जाना होता तो प्रतिमा माँ से ही पूछ कर करती। माँ जी भी उसे कहीं घूमने जाने के लिए मना नहीं करतीं। अब हर समय माँ के मुख से प्रतिमा की प्रशंसा के फूल ही झरते। दीपावली पर घर की सफाई करते-करते प्रतिमा स्टूल से जैसे ही नीचे गिरी तो उसके पांव में मोच आ गयी। माँ ने उसे उठाया और पकड़कर पलंग पर बिठाकर पांव में आयोडेक्स लगाई और गर्म पट्टी बांधकर उसे आराम करने को कहा। यह सब देखकर श्रवण बोला- "माँ मैंनें तो सुना था बहू सेवा करती है सास की, पर यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है।"
"चुप कर, ज्यादा बक-बक मत कर, प्रतिमा मेरी बेटी जैसी है, क्या मै इसका ध्यान नहीं रख सकती? ...बोलो !" प्यार से डांटते हुए माँ बोली।
"माँ जी, बेटी जैसी नहीं, बल्कि बेटी कहो। मैं आपकी बेटी ही तो हूं।" सुनते ही माँ जी ने सिर पर हाथ रखा और बोली, तुम सही कह रही हो बहू, तुमने बेटी की कमी पूरी कर दी।
घर में होता तो वही जो श्रवण चाहता, पर एक बार माँ की अनुमति जरूर ली जाती। बेटा चाहे कुछ भी कह दे, पर बहू की छोटी-सी भूल भी सास को सहन नहीं होती। इससे सास को अपना अपमान लगता है । यह हमारी परम्परा सी बन चुकी है। जो धीरे धीरे खत्म हो रही है।
माँ जी को थोड़ा-सा मान सम्मान देने के बदले में उसे अच्छी बहू का दर्जा व बेटी का स्नेह मिलेगा इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी प्रतिमा ने। घर में हर समय प्यार का, खुशी का वातावरण रहने लगा । दीपावली नजदीक आ गयी थी। माँ व प्रतिमा ने मिलकर पकवान, मिष्ठान्न बनाए। लगता है इस बार की दीपावली एक विशेष दीपावली रहेगी। सोचते-सोचते वह बिस्तर पर लेटा ही था कि अमेरिका से भैया का फोन आ गया। उन्होंने माँ के स्वास्थ्य के बारे में पूछा और बताया कि इस बार माँ उनके पास से नाराज होकर गुस्से में गयी हैं । तब से मन बहुत विचलित है।
यह तो हम सभी जानते हैं कि नन्दिनी भाभी और माँ के विचार कभी नहीं मिले, पर अमेरिका में भी उनका झगड़ा होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी। भैया ने बताया कि वह माफी माँग कर प्रायश्चित करना चाहता है अन्यथा हमेशा मेरे मन में एक ज्वाला-सी दहकती रहेगी। आगे उन्होंने जो बताया वो सुनकर तो मैं खुशी से उछल ही पड़ा। बस अब दो दिन का इन्तजार था, क्योंकि दो दिन बाद दीपावली थी ।
इस बार दीपावली पर प्रतिमा ने घर कुछ विशेष प्रकार से सजाया था। मुझे उत्साहित देखकर प्रतिमा ने पूछा "क्या बात है, आप बहुत खुश नजर आ रहे हैं ?" "अपनी खुशी छिपाते हुए मैनें कहा, "तुम सास-बहू का प्यार हमेशा ऐसे ही बना रहे बस....इसलिए खुश हूं।"
.'.....नजर मत लगा देना हमारे प्यार को ' प्रतिमा खुश होते हुए बोली। दीपावली वाले दिन माँ ने अपने बक्से की चाबी देते हुए कहा, 'बहू लाल रंग का एक डिब्बा है उसे ले आ।' प्रतिमा ने "जी माँ जी,कहकर डिब्बा लाकर दे दिया। माँ ने डिब्बा खोला और उसमें से खानदानी हार निकालकर प्रतिमा को देते हुए बोली, "लो बहू, ये हमारा खानदानी हार है, इसे सम्भालो। दीपावली पर इसे पहन कर घर की लक्ष्मी इसे पहनकर पूजा करे, तुम्हारे पिता जी की यही इच्छा थी। "हार देते हुए माँ की आंखें खुशी से नम हो गयी ।
प्रतिमा ने हार लेकर माथे से लगाया और माँ के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। मुझे बार-बार घड़ी की ओर देखते हुए प्रतिमा ने पूछा तो मैंनें टाल दिया। दीप जलाने की तैयारी हो रही थी। पूजा का समय भी हो रहा था, तभी माँ ने आवाज लगा कर कहा, "श्रवण पूजन का समय साढ़े आठ बजे तक है, फिर गुड्डू के साथ फुलझड़ियां भी तो चलानी हैं। मैं साढ़े सात बजने का इन्तजार कर रहा था, तभी बाहर टैक्सी रुकने की आवाज आई। मैं समझ गया मेरे इन्तजार की घड़ियां खत्म हो गयी, मैंने अनजान बनते हुए कहा, "चलो माँ पूजा शुरू करें ।" ".हां ...हां ..चलो, प्रतिमा.... आवाज लगाते हुए कुरसी से उठने लगी तो नन्दिनी भाभी ने माँ के चरण स्पर्श किए....आदत के अनुसार माँ के मुख से आशीर्वाद की झड़ी लग गयी, सिर पर हाथ रखे बोले ही जा रहीं थी....खुश रहो, सदा सुहागिनों रहो.....आदि आदि। भाभी जैसे ही पांव छूकर उठी तो माँ आश्चर्य से देखती रह गयीं। आश्चर्य के कारण पलक झपकाना ही भूल गयीं । हैरानी से माँ ने एक बार भैया की ओर एक बार मेरी ओर देखा। तभी भैया ने माँ के चरण छूए तो प्रसन्न होकर भाभी के साथ-साथ मुझे व प्रतिमा को भी गले लगा लिया। माँ ने भैया भाभी की आंखों को पढ़ लिया था। पुन: आशीर्वचन देते हुए दीपावली की शुभकामनाएं दीं।
माँ की आंखों में खुशी की चमक देखकर लग रहा था दीपावली के शुभ अवसर पर अन्य दीपों के साथ माँ के हृदयरूपी दीप भी जल उठे। जिनकी ज्योति ने सारे घर को जगन्नाथ कर दिया। प्रतिमा ने आंखों ही आंखों में पूछा, 'आपको भैया के आने की खबर पहले से ही पता थी ना! '
मैंने भी मुस्कुरा कर "हा" में जवाब दे दिया।
दीप जलाते श्रवण ने प्रतिमा को कहा, "देखा प्रतिमा तुमने अपने अहं को छोड़कर माँ के अहं की रक्षा करके पूरे घर के वातावरण को सुखमय कर दिया। इसी अहं के कारण ही तो घर-घर में झगड़े हो रहे हैं जो परिवार को तोड़ने की कगार पर पहुंचा देते हैं ।"
"आप ठीक कह रहे हैं, पर इसका सारा श्रेय तो आपको ही जाता है।" घर की मुंडेर पर दीप रखते हुए प्रतिमा बोली।
" ईश्वर से प्रार्थना है कि हमेशा इसी तरह खुशी के दीप जलते रहें ....." कहकर श्रवण ने प्रतिमा को गले लगा लिया। दोनों की आंखें खुशी से चमक उठी।

-डा.सुरेखा शर्मा 

( कार्यकारिणी सदस्या नीति आयोग, भारत सरकार)
स्वतन्त्र लेखन/समीक्षक
639/10-ए,सेक्टर गुड़गांव -122001

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