जैसा तेरा साज-बाज, वैसा मेरा गान
दोहाप्रेमियों के लिए खुशखबरी। हर बार की तरह, प्रतीक-बिम्ब-प्रतिमानों का सुदृढ़ गठबंधन कर, विभिन्न अलंकारों से सज-धज कर आ गया नया दोहा संकलन - जाने-माने सम्पादक द्वय रघुविन्द्र यादव तथा डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के सम्पादकत्व में – नयी सदी के दोहे। दोहे, जो धारदार हैं, समकालीन हैं, अपने रचनाकारों की पहचान हैं और सम्पादक द्वय की इस जिद का प्रमाण हैं कि संकलन में केवल और केवल मानक दोहे शामिल किये जायेंगे। यह बताते हुए प्रसन्नता अनुभव कर रही हूँ कि एक भी दोहा ऐसा नहीं मिला, जो मानकता की कसौटी पर खरा न उतरा हो। दोहाकारों को दृदय की गहराइयों से सलाम।
वैविध्यपूर्ण जीवन का एकांगीपन दर्शाया तो क्या दर्शाया? यानी – खायेंगे तो गेहूँ, वरन् रहेंगे ऐहूँ। यद्अपि संकलन में सादगीपूर्ण रचाव के उदाहरण भी हैं, परन्तु छुअन की गहराई से भरे-पूरे, जैसे –
धागा, बाती, तेल औ’, माचिस, लकड़ी, मोम।
एक उजाले के लिए, कई ज़िन्दगी होम।। (सत्यशील राम त्रिपाठी)
खिचड़ी बन जब तक रहे, रिश्ते थे अनमोल।
जब से चावल-दाल हैं, रहा न कोई मोल।।(रवि खण्डेलवाल)
रूप बदलते गाँव में, लोक-रंग बेहाल।
मोबाइल में खुल गये, कई सिनेमा हाल।। (रमेश गौतम)
वक़्त देख बदला अगर, माली का बर्ताव।
नामुमकिन है रोकना, फूलों का बिखराव।। (राजेश जैन राही)
मोती-माला की सभी, करते हैं तारीफ़।
कोई तो अनुभव करे, धागे की तकलीफ़।। (डॉ. हरिप्रकाश श्रीवास्तव)
छत पर चढ़ जो मारते, सीढ़ी को ही लात।
जीवन में बनती नहीं, उनकी बिगड़ी बात। (डॉ. सुरेश अवस्थी)
उपरोक्त के अतिरिक्त बहुत कुछ और भी। निवेदन इतना-सा कि इन दोहों के खारे-कड़वेपन के लिए दोहाकारों को दोष न देना। सच तो यह है, उनकी लेखनी की नोक पर वही टिक पाया, जो उन्होंने खुली आँखों से देखा, चेतन मन से भोगा और संवेदनशील हृदय से महसूस किया। कम शब्दों में – जैसा तेरा साज-बाज, वैसा मेरा गान।
पृष्ठभूमि समाज, राजनीति, प्रशासन की हो या सामान्य जीवन की, विरोधाभास-विसंगतियाँ-विडम्बनाएँ कब नहीं थीं? रचनाकार भी इनके विषय में तब तक लिखते रहेंगे, जब तक वे सुसंगतियों का रूप धारण नहीं कर लेतीं। अब मिलते हैं अपने परिवेश की छलनागत तथा छिछलेपन से ग्रस्त परिस्थितियों से–
सम्भव है इस देश में, ऐसा ही व्यवहार।
फ़सल उजाड़ी साँड ने, पकड़े गये सियार।। (डॉ. सतीशचन्द्र शर्मा)
मरने पर उस व्यक्ति के, बस्ती करे विलाप।
पेड़ गिरा तब हो सकी, ऊँचाई की माप।। ( हरेराम समीप)
विसंगतिपूर्ण स्थितियाँ कवि को बेचैनी के लिहाफ में लपेट देती हैं, उसकी छटपटाहट उससे लिखवाती है -
भावों में चिनगारियाँ, शब्द-शब्द में क्रोध।
सुनते हैं वह कर रहा, ‘अमर-प्रेम’ पर शोध।।(हरीलाल ‘मिलन’)
सागर के विस्तार को, सदा चुभा यह शूल।
अदने-से तालाब में, खिले कमल का फूल।।(सीमा पाण्डे मिश्रा)
रोज बिछाते गोटियाँ, रोज़ खेलते दाँव।
जिन्हें सिखाया दौड़ना, काट रहे वे पाँव।। (डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’)
पत्थर-सी ठोकर कभी, कभी जोंक-सा प्यार।
रह-रह कर देता मुझे, यह निष्ठुर संसार।। (शैलेन्द्र शर्मा)
जिसे मसीहा मान कर, नमन किया हर बार।
वही हमें देता रहा, आँसू का उपहार।। (रामबाबू रस्तोगी)
फलक सियासी पर हुये, मेघ वही आबाद।
नहीं बरसते जो कभी, करते केवल नाद।। (राजपाल सिंह गुलिया)
प्रायोजन अब बन गया, इस युग की पहचान।
प्रायोजित विद्वान हैं, प्रायोजित सम्मान।। (रमेश प्रसून)
खड़े बिजूके खेत में, बनकर पहरेदार।
भोले-भाले डर रहे, चतुर चरें सौ बार।। (त्रिलोक सिंह ठकुरेला)
जवाँ सभ्यता हो रही, तोड़ समय का खोल।
आग बुझाते लोग अब, डाल-डाल पेट्रोल।। (नज़्म सुभाष)
मधुर बोल की डाल पर, खिलें झूठ के फूल।
हरियाली ओढ़े खड़ी, नागफनी के शूल।। (नीलमेन्दु सागर)
केवल विज्ञापन हुये, संवेदन-आक्रोश।
निर्धन को बस शून्य है, भरे हुये हैं कोश।। (डॉ. भावना तिवारी)
विकास के नाम पर हमने ऐसा कुछ खो दिया, जिसका हमारे पास रहना ज़रूरी था। इस कचोट को कवि ने इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है –
चिड़िया, दाना, घोंसला, चूज़े, कलरव, शाम।
सुधियों में अब रह गये, पीपल, बरगद, आम।। (प्रभु त्रिवेदी)
हरियाणवी कहावत है– बड़बोलेके डूण्डल़े (मोटे तिनके) बी बिक ज्याँ, ना बोलणिए की रास (अन्न का ढेर) बी पड़ी रह ज्या। ऐसा ही कुछ कहता है यह दोहा –
साँठ-गाँठ कर बच गया, था जिसका सब दोष।
अपराधी घोषित हुआ, बैठा जो खामोश।। (डॉ. जे. पी. बघेल)
वृद्धजनों की वर्तमान स्थिति पर क्या खूब लिखा है, देखिये –
सरकारों से जूझकर, पाये सब अधिकार।
पर घर ने रखवा लिये, बूढ़े से हथियार।।(शशिकांत गीते)
बूढ़े बरगद की जड़ें, भूख-प्यास से त्रस्त।
शाखा-गूलर-पत्तियाँ, सब अपने में मस्त।। (अवनीश त्रिपाठी)
पुरातनता से टूटते मोह के मुँह बोलते चित्रण की बानगी –
तुलसी, कोठी, चिट्ठियाँ, गौरैया, सन्दूक।
कल तक थे जितने मुखर, उतने ही अब मूक।। (राहुल शिवाय)
प्रतीकात्मकता के काबिले गौर उदाहरण –
आपस में लड़ने लगे, प्रत्यय, सन्धि, समास।
देख-देख कर व्याकरण, रहता बहुत उदास।। (स्व. रामानुज त्रिपाठी)
काग बने दरबार के, जब से ख़ासमख़ास।
बगुलों को चौधर मिली, हंसों को वनवास।। (रघुविन्द्र यादव)
सन्तान हित माँ की भूमिका का एक उत्कृष्ट शब्द चित्र देखिये –
सबने अपना सुख जिया, सबको हुई थकान।
माँ गौरैया की तरह, भरती रही उड़ान।। (रमेश गौतम)
सबने अपना सुख जिया, सबको हुई थकान।
माँ गौरैया की तरह, भरती रही उड़ान।। (रमेश गौतम)
देश की आबोहवा को, सांस्कृतिक प्रदूषण, किस क़द्र बिगाड़ रहा है, इसकी एक झलकी –
जब से अपने देश में, पछुआ बही बयार।
शील हुआ घायल मृदुल, नैतिकता बीमार।। (डॉ. मृदुल शर्मा)
संकलन के पृष्ठों को व्यंग्य की छलछल से भिगोये बिना दोहाकारों को तसल्ली कहाँ –
शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख।
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।। (डॉ. मिथिलेश दीक्षित)
सहम गयी यह देखकर, चिड़ियों की चौपाल।
गिद्ध नाश्ते के लिए, अण्डे रहे उबाल।। (डॉ. महेश मनमीत)
जीना है तो सीख लो, कोयल रहना मूक।
नई व्यवस्था ने लिखा, देशद्रोह है कूक।। (डॉ. नीरज कुमार सिन्हा)
एकलव्य यों कर रहे, गुरुकुल में अभ्यास।
तोड़ अँगूठा द्रोण का, बदल रहे इतिहास।। (मनीष कुमार झा)
रात स्वप्न में दोस्तो, देखे अजब प्रसंग।
संसद में मुजरा हुआ, चम्बल में सत्संग।। (अशोक ‘अंजुम’)
मोटा तगड़ा हो गया, मन्दिर का दरबान।
जैसा था वैसा रहा, अन्दर का भगवान।। (दीनानाथ सुमित्र)
बाबू को जिसने दिया, धन के बदले फूल।
उसकी फ़ाइल पर जमी, मोटी-मोटी धूल।। (बजरंग श्री सहाय)
जब से अपने देश में, पछुआ बही बयार।
शील हुआ घायल मृदुल, नैतिकता बीमार।। (डॉ. मृदुल शर्मा)
संकलन के पृष्ठों को व्यंग्य की छलछल से भिगोये बिना दोहाकारों को तसल्ली कहाँ –
शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख।
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।। (डॉ. मिथिलेश दीक्षित)
सहम गयी यह देखकर, चिड़ियों की चौपाल।
गिद्ध नाश्ते के लिए, अण्डे रहे उबाल।। (डॉ. महेश मनमीत)
जीना है तो सीख लो, कोयल रहना मूक।
नई व्यवस्था ने लिखा, देशद्रोह है कूक।। (डॉ. नीरज कुमार सिन्हा)
एकलव्य यों कर रहे, गुरुकुल में अभ्यास।
तोड़ अँगूठा द्रोण का, बदल रहे इतिहास।। (मनीष कुमार झा)
रात स्वप्न में दोस्तो, देखे अजब प्रसंग।
संसद में मुजरा हुआ, चम्बल में सत्संग।। (अशोक ‘अंजुम’)
मोटा तगड़ा हो गया, मन्दिर का दरबान।
जैसा था वैसा रहा, अन्दर का भगवान।। (दीनानाथ सुमित्र)
बाबू को जिसने दिया, धन के बदले फूल।
उसकी फ़ाइल पर जमी, मोटी-मोटी धूल।। (बजरंग श्री सहाय)
जीवन की भागदौड़ में आदमी इतना बेखबर हो गया कि रिश्तों का ताना-बाना कमज़ोर पड़ता चला गया; त्रासदी यह कि उससे उसका सर्वोत्तम छिन गया –
कब धागा कच्चा हुआ, दिया न कुछ भी ध्यान।
गठरी की गाँठें खुली, बिखरे मोती धान।। (डॉ. मधु प्रधान)
कहीं-कहीं सन्देशपरकता के छींटे भी गिरे हैँ–
वर्षों से सब सह रहा, होकर हल्कू मौन।
ऐसे में उसके लिये, लड़े बताओ कौन।। (डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव)
और अब देखते हैं लोकतन्त्र और उसकी प्रशासन व्यवस्था का हाल –
केसरिया, नीले, हरे, काले, पीले व्याल।
लोकतन्त्र की देह पर, रंग-बिरंगे व्याल।। (जय चक्रवर्ती)
बिके मेघ कुछ कैद हैं, कुछ हैं कहीं फ़रार।
चार दिनों में गिर गई, सावन की सरकार।। (अरुण कुमार निगम)
अंधे-बहरों की सभा, काने का है राज।
जिसने लज्जा त्याग दी, उसके सर पर ताज।। (चित्रा श्रीवास)
विश्व बैंक से कर्ज़ ले, देश हुआ धनवान।
अजगर भी पाने लगा, सरकारी अनुदान।। (राजेन्द्र वर्मा)
वन पाखी वनफूल की, व्यर्थ हुई हर आस।
आकर राजोद्यान तक, लौट गया मधुमास।। (रामनाथ बेख़बर)
पानी आँखों का मरा, ढीठ हो गये लोग।
पानी, पानी था कभी, आज हुआ उद्योग।। (चक्रधर शुक्ल)
इस दोहे को पढ़कर मेरे नवगीत की पंक्ति अनायास ज़ुबां पर आन विराजी –
पानी बेच रहा बोतलबंद
किसना प्याऊवाला।
समय किसी का सगा नहीं, वह क्या से क्या कर दे, कहा नहीं जा सकता, उदाहरण पेश हैं–
रातरानियों को मिला, आँगन का अधिकार।
तुलसी विस्थापित हुई, खोज रही है प्यार।। (गरिमा सक्सेना)
बदल गये हैं माज़रे, बदल गये अंदाज।
शेर दिहाड़ी कर रहे, गीदड़ के घर आज।। (कमलेश व्यास)
रोते-रोते पुण्य ने, धरे पाप के पाँव।
कहाँ बसूँ, किस ठौर मैं, तू ही तू हर गाँव।। (पार्थ तिवारी)
समर्थ का कौन क्या बिगाड़ सकता है, इस ओर संकेत देखिये –
क्या कर लेगी रूप का, कड़ी धूप संगीन।
चश्मा, छाता, ओढ़नी, सब जिसके रंगीन।। (केशव शरण)
किसी का दर्द किस रूप में मुखरित होता है, एक बानगी –
बैठी हैं घेरे हुये, यादें मन का घाव।
जैसे हो चौपाल में, जलता हुआ अलाव।। (डॉ. कृष्ण कुमार ‘नाज़’)
सकार भाव को पोसता यह दोहा भी किसी से कम नहीं –
रंगी प्रीत से खिड़कियाँ, द्वार धरी मुस्कान।
तब जाकर यह घर बना, इतना आलीशान।। (कुँअर उदयसिंह)
मन है तो मानुष है, मानुष है तो कामनाएँ भी हैं –
मन का पौधा हो हरा, हर ले जीवन-पीर।
सच्चाई की खाद हो, और प्रेम का नीर।। (डॉ. नलिन)
बिटिया की विदाई-घड़ी का भावुक करने वाला जीवंत दृश्य है –
सोन चिरैया उड़ चली, पकड़ पिया का हाथ।
व्याकुल स्वजन-सहेलियाँ, आँगन हुआ अनाथ।। (रामहर्ष यादव)
जीवन के विविध रंगों के बीच जीवन-दर्शन न हो तो कुछ खालीपन रह जाता, अच्छी बात यह कि संकलन में इसे स्थान मिला है –
पक्षी जैसे साथियो, मान, समय, विश्वास।
एक बार यदि उड़ गये, कभी न लौटे पास।। (शिव कुमार दीपक)
प्राकृतिक आपदाएँ जीवन को बेबसी की सौगात देती रहतीं हैं, बानगी स्वरूप –
कभी बाढ़, सूखा कभी, आग कभी भूडोल।
भूखी धनिया बाँचती, रोटी का भूगोल।। (ब्रजनाथ श्रीवास्तव)
अंधेरा चाहे लाख षड्यंत्र रचे, उजाला आकर रहता है, इस भाव का एक उदाहरण देखिये -
जीत उजाले की हुई, हार गया फिर स्याह।
बिटिया ने घर में रचा, फिर गुड़िया का ब्याह।। (शुभम श्रीवास्तव)
कभी बाढ़, सूखा कभी, आग कभी भूडोल।
भूखी धनिया बाँचती, रोटी का भूगोल।। (ब्रजनाथ श्रीवास्तव)
अंधेरा चाहे लाख षड्यंत्र रचे, उजाला आकर रहता है, इस भाव का एक उदाहरण देखिये -
जीत उजाले की हुई, हार गया फिर स्याह।
बिटिया ने घर में रचा, फिर गुड़िया का ब्याह।। (शुभम श्रीवास्तव)
संकलन में शामिल प्रत्येक (कुल 53) दोहाकार के एक-एक प्रतिनिधि दोहे की बानगी बता रही है कि बात शिल्प की हो, भाव की या गेयता की, कोई किसी से कम नहीं। ऐसे पठनीय-संग्रहणीय, त्रुटिरहित छपाई वाले संकलन के लिए दोहाकार-सम्पादक द्वय पुन: पुन: बधाई के पात्र हैं। दोहा-शोधार्थियों, विद्यार्थियों के लिए यह लाइट-हाउस का काम करेगा, ऐसी उम्मीद है।
समीक्षक- कृष्णलता यादव
677, सेक्टर 10ए
गुरुग्राम 122001
9811642789
पुस्तक – नयी सदी के दोहे
सम्पादक द्वय – रघुविन्द्र यादव, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
प्रकाशक – श्वेतवर्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ – 136, मूल्य – 160रु
पृष्ठ – 136, मूल्य – 160रु
बहुत विस्तार से संकलन की विशेषताओं को प्रतिबिंबित किया है। उद्धरण के दोहों में भावों के वैविध्य का ध्यान रखा है। समीक्षक जी को साधुवाद।
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