कवि ने दोहों के माध्यम से सामाजिक
कुरीतियों, विसंगतियों और राजनैतिक विद्रूपताओं को जमकर बेनकाब किया है, वहीं मनुज
के दोगलेपन, स्वार्थ लोलुपता और रिश्तों का खोखलापन भी उजागर किया है| दोहाकार ने बढती
महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और कानून व्यवस्था की बदहाली के साथ-साथ न्याय
व्यवस्था पर भी सवाल खड़े किये हैं| श्री गुलिया ने भाई भतीजावाद, साम्प्रदायिकता
और धर्म की सियासत पर भी अपनी लेखनी चलाई है| उन्होंने मीडिया और तकनीक के
दुष्प्रभाव, पर्यावरण-प्रकृति, मदिरापान, बचपन आदि विषयों को भी अपना कथ्य बनाया है| संग्रह
में कुछ नीतिपरक दोहे भी शामिल हैं|
स्वार्थ, आपाधापी और भाई
भतीजावाद के इस दौर में आम आदमी के लिए कहीं कोई जगह नहीं है| वह हर दिन कुआँ
खोदता है और पानी पीता है| उसकी जिन्दगी कोल्हू के उस बैल जैसी हो गई है, जो चलता
तो दिनरात है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं है| कवि ने सुंदर दोहे के माध्यम से इसे
व्यक्त किया है-
हुई अश्व-सी ज़िन्दगी, दौड़
रहे अविराम|
जिस देश में कल तक
माता-पिता को देव कहा जाता था, उसी देश में आज माँ-बाप को अपने ही बच्चों की
उपेक्षा और प्रताड़ना झेलनी पड़ रही है| उन्हें प्रतिदिन दो रोटी के लिए ज़लील होना
पड़ता है तो अंतिम समय में भी बच्चे उन्हें सहारा देने नहीं आते| कवि ने इस पीड़ा को
दोहों के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत किया है-
दे दी सुत को चाबियाँ, कहकर
रीतिरिवाज|
संग्रह के लगभग सभी दोहे
कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से परिपक्व हैं| कवि ने मुहावरों, अलंकारों और
प्रतीकों का प्रयोग करके दोहों की प्रभावोत्पादकता को बढाया है|
जली-कटी सुन आपकी, बही नयन
यूँ पीर|
सहज सरल भाषा में रचे गए इन
दोहों में कहीं-कहीं देशज और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी प्रसंगवश हुआ है| कुछ
दोहों का कथ्य, शिल्प ही नहीं, भाव और भाषा भी देखने लायक है-
उतना सुलगा यह जिया, जितना
भीगा गात|
पुस्तक का शीर्षक
प्रासंगिक, आवरण आकर्षक और छपाई तथा प्रस्तुतिकरण सुंदर है| हाँ, प्रूफ की
अशुद्धियाँ कुछ जगह अवश्य दृष्टिगोचर होती हैं| एक दो दोहों में शिल्पगत दोष भी रह
गए हैं| कुल मिलाकर यह एक पठनीय दोहा संग्रह है जो पाठक को इस दौर की कडवी
सच्चाईयों से रूबरू करवाता है|
-रघुविन्द्र यादव
पुस्तक के प्रति जिज्ञासा पैदा करने वाली समीक्षा । हार्दिक आभार , यादव जी ।
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