विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, August 8, 2015

बात तो बोलेगी

बात बोलेगी मुरादाबाद के चर्चित रचनाकार श्री योगेन्द्र वर्मा व्योम की सद्य प्रकाशित कृति है। जिसे गुँजन प्रकाशन, मुरादाबाद ने प्रकाशित किया है। इस कृति में देश के पन्द्रह प्रसिद्ध गीत/नवगीतकारों और शायरों के साक्षात्कार प्रस्तुत किए गए हैं। जिनमें डॉ.शिवबहादुर सिंह भदौरिया, श्री ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग, श्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, श्री सत्यनारायण, श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव, श्री शचीन्द्र भटनागर, डॉ.माहेश्वर तिवारी, श्री मधुकर अष्ठाना, श्री मयंक श्रीवास्तव, डॉ.कुँवर बेचैन, श्री ज़हीर कुरैशी, डॉ.ओमप्रकाश सिंह, डॉ.राजेन्द्र गौतम, श्री आनन्दकुमार गौरव और डॉ.कृष्णकुमार राज शामिल हैं।
साक्षात्कार का सबसे महत्वपूर्ण पहलु है कि साक्षात्कार करने वाले को खुद इस बात का पूरी तरह से ज्ञान होना चाहिए कि वह सामने वाले से क्या जानना चाहता है और इसी आधार पर प्रश्रोत्तरी तैयार की जानी चाहिए। श्री योगेन्द्र व्योम ने यह कार्य पूरी दक्षता के साथ किया है। उन्होंने ने न सिर्फ देश के वरिष्ठ रचनाकारों से उनके साहित्य के संदर्भ में चर्चा की है अपितु गीत-नवगीत और $गज़ल की दशा और दिशा के बारे में भी महत्त्वपूर्ण सवाल किए हैं। वरिष्ठ रचनाकारों के साथ की गई चर्चा नये कलमकारों के पथ-प्रदर्शक का काम करेगी। नये रचनाकार और पाठक जान सकेंगे कि गीत और नवगीत में क्या अंतर है, $गज़ल और गीत-नवगीत में क्या अंतर है और इनके सृजन के लिए क्या-क्या बातें ध्यान में रखना जरूरी है कि साहित्य टिकाऊ बने।
गीत-नवगीत के भविष्य के प्रति पुरानी पीढ़ी की सोच क्या है और वे किस हद तक आश्वस्त हैं, शायर गीत के साथ और गीतकार गज़ल के साथ न्याय कर रहे हैं या नहीं, गीत के कथ्य में क्या परिवर्तन आया है, नवगीत के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं, हिन्दी $गज़ल को कहाँ तक सफलता मिली है आदि सवालों के जवाब श्री व्योम ने उन रचनाकारों से पूछे हैं जिनका इन विधाओं को बुलंदियों पर ले जाने में अहम योगदान है।
बात बोलेगी के माध्यम से केवल गीत और गज़ल की ही जानकारी पाठकों को नहीं मिलेगी बल्कि वरिष्ठ रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व से भी पाठक रूबरू हो सकेंगे। अगर यह कहा जाए कि कृति हर लिहाज से एक एतिहासिक दस्तावेज बन गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आकर्षक आवरण, सुन्दर और शुद्ध छपाई वाली इस 208 पृष्ठ वाली कृति का मूल्य 300 रुपये वाजिब ही कहा जाएगा। कृति पठनीय है और व्योम जी बधाई के पात्र।

-रघुविन्द्र यादव 

समय से संवाद करते मुक्तकों का संग्रह : आँसू का अनुवाद

काव्य के विषयगत दो भेद होते हैं-प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य। प्रबंध काव्य में विषय विशेष को छंदोबद्ध कविता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि मुक्तक काव्य की विषय सामग्री स्वतंत्र होती है और चार सममात्रिक पंक्तियों में ही स्वतंत्र भाव अथवा विचार को किसी छंद में प्रस्तुत करती है। मुक्तक काव्य में छंद विशेष की बाध्यता नहीं होती और यह किसी भी छंद में लिखा जा सकता है, मगर जिस भी छंद का चुनाव किया जाये उसका निर्वाह किया जाना अपेक्षित है। सामान्यत: मुक्तक में चार सममात्रिक पंक्तियाँ होती हैं। जिसकी पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति में तुकान्त या समान्त होता है, जबकि तीसरी पंक्ति में तुकान्त/समान्त होता भी है और नहीं भी, लेकिन कथ्य का उद्वेग अवश्य होता है। आपाधापी के इस दौर में लोगों के पास लम्बी कविताओं को पढऩे का वक्त नहीं है इसलिए दोहे की तरह मुक्तक भी लोकप्रिय होते जा रहे हैं।
बाल साहित्यकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर ख्याति पाने वाले कवि घमंडीलाल अग्रवाल छंदोबद्ध कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अब तक बाल साहित्य की 37 पुस्तकों सहित उनकी कुल 42 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें उनके तीन गीत संग्रह-'नेह की परछाइयाँ', 'आस्था का सूरज', 'चाँदनी की व्यथा', दो $गज़ल संग्रह-'सन्नाटा बुनते दिन' और 'गणित बनती जिन्दगी' व एक दोहा संग्रह- 'चुप्पी की पाजेब' शामिल हैं। वे पिछले 40 वर्षों से निरन्तर साहित्य साधना में लगे हुए हैं। 'आँसू का अनुवाद' उनके चार सौ मुक्तकों का सद्य प्रकाशित संग्रह है। जिसमें उन्होंने सरल और सहज भाषा में सामाजिक विसंगतियों, राजनीति के उतार-चढ़ाव, जीवन-यथार्थ, मूल्यहीनता, भ्रष्ट व्यवस्था, आतंकवाद, गाँवों की दुर्दशा, पर्यावरण हा्रस, कलुषित प्रेम, स्वार्थपरता, संबंधों की मृदुता, हिन्दी की महत्ता, लचर न्याय व्यवस्था, बेटियों की महत्ता, पाश्चात्य संस्कृति आदि पर प्रभावी और धारदार मुक्तक लिखे हैं। इन मुक्तकों में छंदों का पूर्ण निर्वाह किया गया है वहीं अलंकार और बिंब योजना से सजे ये मुक्तक कथ्य और शिल्प की कसौटी पर भी खरे हैं। कवि चाहता है कि समाज में समरसता रहे, लोगों की सोच सकारात्मक हो, सभ्यता और संस्कृति का सम्मान हो, रिश्तों में स्वार्थ न आये, नारी को सम्मान मिले, पर्यावरण का संरक्षण हो, मगर उसका कोमल मन मूल्यहीनता, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और सामाजिक विसंगतियों से आहत होता है।
आज की पीढ़ी जिस तरह बुजर्गों और माता-पिता की उपेक्षा कर रही है, उससे कवि का संवेदनशील हृदय आहत है। कवि की नजर में असली देव माँ-बाप ही हैं -
वृद्ध माता-पिता तो ताले हैं,
घरों के वास्ते उजाले हैं,
सदा ही आस्था इनमें रखिए-
मस्जिदें ये हैं, ये शिवाले हैं।
लोकराज लोकलाज से चलता है, मगर अब राजनीति से नीति और लोकतन्त्र से लोक गायब हो चुके हैं। इसलिए अब लोक-कल्याण की बात बेमानी लगती है-
नीति अब राजनीति से गायब,
रीति अब राजनीति से गायब,
लोक-कल्याण किस तरह संभव-
प्रीति अब राजनीति से गायब।
स्वशासन में भी लोग भूख से मर रहे हैं और अनाज गोदामों में सड़ रहा है। कवि पूछता है कि क्या इसी व्यवस्था को प्रजातंत्र कहते हैं- न कोई पूजा, न कोई तंत्र है,
आदमी का खुला षड्यंत्र है,
साल-दर-साल भुखमरी बढ़ती-
कहो यह कैसा प्रजातंत्र है।
कवि शब्द की शक्ति को तो महत्व देता ही है वह कविताओं से छंद के गायब होने से भी आहत नजर आता है। इस मुक्तक में उनकी इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है-
काव्य है गद्यमय हुआ जाता,
दर्द को अब नहीं छुआ जाता,
इस नये दौर में तो हाथों से-
व्याकरण का उड़ा सुआ जाता।
कवि आशावादी दृष्टिकोण अपनाने का पक्षधर है। वह चाहता है कि जीवन में सकारात्मक सोच रखी जाये-
अश्रु के बीच तुम खुशी खोजो,
मौन के बीच तुम हँसी खोजो,
जि़न्दगी वह जो प्यार में गुजरे-
वैर के बीच दोस्ती खोजो।
भोगवादी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण अब पैसे को बहुत महत्व दिया जाने लगा है। अब तो रिश्ते-नातों का वजन भी पैसे से तोला जाने लगा है-
रिश्तों का आधार बना पैसा,
आपस का व्यवहार बना पैसा,
पैसा जिसके पास नहीं वह पंगु-
खुशियों की रफ्तार बना पैसा।
कवि ने अपने लंबे अनुभव के आधार पर जीवन और जगत से जुड़े विविध विषयों को आधार बनाकर प्रभावी मुक्तक लिखे हैं जो पाठक के मन पर प्रभाव छोड़ते हैं। सरल भाषा में होने के कारण लोगों की जुबान पर चढऩे का मादा भी इन मुक्तकों में है। मगर इतने प्रभावशाली मुक्तकों वाले संग्रह में भी कुछ जगह प्रूफ की अशुद्धियाँ रह गई हैं। आलोच्य कृति का आवरण आकर्षक तथा छपाई सुन्दर है। कुल मिलाकर 'आँसू का अनुवादÓ मुक्तक विधा की श्रेष्ठ कृति है। वरिष्ठ साहित्यकार और पुस्तक की भूमिका लेखिका श्रीमती सुकीर्ति भटनागर की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि 'आँसू का अनुवादÓ समय से संवाद करते मुक्तकों का संग्रह है। इस कृति का साहित्य जगत में व्यापक स्वागत होगा-ऐसी आशा है। रघुविन्द्र यादव

Friday, August 7, 2015

विद्रूपताओं को बेपर्दा करता गीतिका संग्रह : कौन सुने इकतारा

भद्रजनों को संबोधित कर पद्य में बात कहने की परम्परा काफी पुरानी है। कबीर साहब जहाँ 'साधो' संबोधन का प्रयोग करते थे, वहीं उर्दू-फारसी के रचनाकार 'शैख जी' को संबोधित कर अपनी बात कहते रहे हैं। श्री रमेश जोशी का सद्य प्रकाशित गीतिका संग्रह 'कौन सुने इकतारा' इसी शैली की रचनाओं का संग्रह है, जिसे डॉ.रणजीत ने कबीर की चौथी विधा बताया है। जोशी जी ने अपनी बात 'भगत जी' और 'भगतो' संबोधनों का प्रयोग करते हुए गीतिका में कही है। जोशी जी ने कबीर की शैली को ही आत्मसात नहीं किया है वरन् उनकी रचनाओं की धार और मार भी कबीर जैसी ही है-
सुने न कोई हाल भगत जी
भूलो दर्द मलाल भगत जी
राजा बहरा जनता गूँगी
पूछे कौन सवाल भगत जी
भूख मज़ूरी मौज़ दलाली
बुरा देश का हाल भगत जी
अब घडिय़ालों के कब्ज़े में
है बस्ती का ताल भगत जी
कवि ने राजनीति, समाज, मंच, मीडिया, पर्यावरण, शिक्षा, नारी, पश्चिम के अंधानुकरण, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, जीवन की विसंगतियों, मूल्यहीनता, गाँवों की बदहाली आदि जीवन और जगत से जुड़े अनेक विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है। आलोच्य कृति में कुल 105 गीतिकाएँ शामिल की गई हैं।
जोशी जी का संवेदना-संसार व्यापक है और सहज-सरल भाषा में अपनी बात कहने में निपुणता हासिल है। कवि सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण से आहत है, उसे लगता है कि अब 'मंच मीडिया और सत्ता सभी पर लम्पट भाँड और नचनिया काबिज़ हो गए हैं', 'उपभोक्ता को ललचाने के लिए मॉडल वस्त्र उतार रही हैं', 'संयम गायब है और सबको भोग का बुखार चढ़ा है', 'सत्ता काजल की कोठरी बन चुकी है, जिसमें कोई दूध का धुला नहीं है', 'ब्रेक डाँस की महफिलें हैं, जहाँ इकतारा सुनने वाला कोई नहीं है' और 'पूर्व के अंधों को पश्चिम में उजियाला नज़र आ रहा है।' कवि ने जीवन के जटिल यथार्थ को भी धारदार भाषा में सहजता से प्रकट किया है।
नारी पूजक इस देश में आज यदि कोई सबसे अधित असुरक्षित है तो वह है नारी। जो गर्भ में भी सुरक्षित नहीं वह घर और समाज में कैसे सुरक्षित होगी? कवि जब नारी की दशा का वर्णन करते हुए कहता है-
हवा धूप से डरता जिसकी
बेटी हुई जवान भगत जी
---
द्रौपदियों पर ही लगता है
दुर्योधन का दाँव भगत जी
तो आज के समाज का नंगा यथार्थ अपने विद्रूपित चेहरे के साथ सामने आ जाता है। इसी प्रकार जब कवि मौजूदा व्यवस्था के षड्यंत्रकारी शोषक चेहरे को बेनकाब करते हुए कहता है-
सस्ते शिक्षा ऋण पर चाहे
ध्यान न दे सरकार भगत जी
मगर कार ऋण देने खातिर
बैंक खड़े तैयार भगत जी
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जाने दस्यु-मुक्त कब होगी
लोकतंत्र की चम्बल भगतो
---
लोकतंत्र में कुत्ता करता
हड्डी की रखवाली भगतो
तो भारतीय राजनीति का कड़वा सच सामने आ जाता है कि किस तरह लोकतंत्र में लोक उपेक्षित है।
कवि की पैनी नज़र से समाज की विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ छुपी नहीं हैं। बुजुर्गों को आज जिस प्रकार से उपेक्षित और अपमानित किया जा रहा है वह दुखद और विचारणीय है-
जब से नई बहू आई है
बाहर बैठी माँ जी भगतो
कवि की भाषा मुहावरेदार है और कथ्य को प्रभावशाली बनाने के लिए उर्दू, फारसी, पंजाबी, अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ देशज शब्दों का भी प्रयोग किया है-
छाछ शिकंजी को धमकाता
अमरीका का ठंडा भगतो
है बंदर के हाथ उस्तरा
कर डालेगा कुंडा भगतो
कवि अपने परिवेश के प्रति सजग और संवेदनशील है। जल को व्यापार की वस्तु बना दिए जाने और अब तक स्वच्छ पेयजल उपलब्ध न होने पर कटाक्ष किया है-
क्या दारू क्या गंदा पानी
हमको मरना पीकर भगतो
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ढोर पखेरू निर्धन प्यासे
पानी के भी दाम भगत जी
चौतरफा पतन और गिरावट के बावजूद कवि निराश नहीं है, उसे यकीन है कि सुबह ज़रूर आएगी-
आशा से आकाश थमा है
कभी न छोड़ो आस भगत जी
अंधियारे के पीछे-पीछे
आता सदा उजास भगत जी
मीथकों का प्रयोग अत्यंत प्रभावी है। द्रौपदी, दुर्योधन, कृष्ण, कंस, राम, सीता, दसानन आदि का प्रयोग करके कवि ने अभिव्यक्ति को दमदार बनाया है। पेपर बैक इस 112 पृष्ठ वाली कृति की साज-सज्जा आकर्षक और मूल्य 125 रुपए बहुत वाजि़ब है। कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले इस संग्रह का साहित्य जगत से व्यापक स्वागत होगा, ऐसा विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है।

कृति-कौन सुने इकतारा
कवि-रमेश जोशी
पकाशक-अनुज्ञा बुक्स, शहादरा, दिल्ली
पृष्ठ-112 मूल्य-125 रुपए 

-रघुविन्द्र यादव

Wednesday, August 5, 2015

कबीर की शैली में धारदार रचनाएं- सुभाष रस्तोगी

रघुविन्द्र यादव के दो दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तथा ‘मुझ में संत कबीर’ उनका प्रथम कुंडलिया छंद संग्रह है। कुंडलिया एक मुश्किल छंद है और इसे साधना सहज नहीं है। इसे तो वही साध सकता है जिसे खांडे की धार पर नंगे पांव चलने में महारत हासिल हो। वे अपने प्रथम कुंडलिया छंद संग्रह‘मुझमें संत कबीर’ में एक छंदसिद्ध कवि के रूप में सामने आये हैं। हिंदी कविता में कुंडलियां छंद कवि गिरधर के नाम से जाना जाता है, लेकिन रघुविन्द्र यादव ने अपना संबंध कबीर से जोड़ा है और इसकी वजह भी अब हम कवि से ही जानें :-मरने मैं देता नहीं, अपना कभी ज़मीर।इसीलिए ज़िंन्दा रहा, मुझमें संत कबीर।।मुझमें संत कबीर बैठकर दोहे रचता।कहता सच्ची बात, कलम से झूठ न बचता।(पृ.55)इस कृति की राह से गुजरने पर पता चलता है कि कवि का रास्ता वाकई कबीर का है। उनकी कविता ऐन मुहाने पर चोट करती है। देखें यह पंक्तियां जो पाठक की चेतना पर चोट करती है—
शोषक-शोषित रह गई, दुनिया में दो जात।मूरख जन ही अब करें, वर्ण भेद की बात।।वर्ण-भेद की बात,समझ है जिनकी छोटी।जाति-धर्म की आड़, बिठाते शातिर गोटी।(पृष्ठ 68)इन दिनों जब गंगा शुद्धीकरण का बहुत शोर बरपा है, तब ऐसे में यह पंक्तियां बहुत वाजिब सवाल उठाती हैं—गंदा नाला बन गई, नदियों की सिरमौर।गंगाजी को चाहिए, एक भगीरथ और।।(पृ. 19)धर्म के पाखंड को बेपर्दा करती कवि की यह पंक्तियां उसकी पक्षधरता के साक्ष्य के तौर पर देखी जा सकती हैं—गाड़ी, बंगले, चेलियां, अरबों की जागीर।ये सब जिसके पास हैं, वे ही आज फकीर।।उत्तर पूंजीवाद ने कैसे उस ‘नारी’ को जो कभी ‘नारायणी’ थी ‘उत्पाद’ बनाकर बाजार में उतार दिया और उसे इस साजिश का पता ही नहीं चला, इसी सत्य को उकेरती यह पंक्तियां देखें—नारी थी नारायणी, बनी आज उत्पाद।लाज-शर्म को त्यागकर, करे अर्थ को याद।।(पृ. 66)और यह पंक्तियां सीधे सत्ता की तरफ एक सवाल उछालती हैं—
अब तक भी है गांव में कष्टों की भरमार।साठ साल में आपने, क्या बदला सरकार।।(पृ.59)समग्रत: रघुविन्द्र यादव का प्रथम कुंडलियां छंद संग्रह इसलिए अपनी उपस्थिति अलग से दर्ज करता है क्योंकि इस संग्रह की कुंडलियों में कबीर जैसा अक्खड़पन और सच्चाई मौजूद है। रघुविन्द्र के कबीर की जमात का कवि होने का इससे बड़ा साक्ष्य और क्या हो सकता है?


0पुस्तक : मुझमें संत कबीर 
0लेखक : रघुविन्द्र यादव 
0प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली-30 
0पृष्ठ संख्या : 79 0मूल्य :रुपये 180.
दैनिक ट्रिब्यून से साभार 

Sunday, April 15, 2012

पत्रिका की समीक्षा

दैनिक ट्रिब्यून में बाबूजी का भारतमित्र पत्रिका की समीक्षा

पत्रिकाएं मिलीं

Posted On April - 15 - 2012
अरुण नैथानी

बाबूजी का भारत मित्र

हरियाणा की अर्धवार्षिक साहित्यिक पत्रिका 'बाबूजी का भारत मित्र' के दूसरे अंक में साहित्य की तमाम विधाओं की रचनाओं का सुरुचिपूर्ण संकलन है। समीक्ष्य अंक में गज़ल-नज़्म, दोहे, नवगीत, गीत, कविताओं का स्तरीय संकलन किया गया है। स्मृति-अशेष स्तंभ में जहां अदम गोंडवी व शहरयार का भावपूर्ण स्मरण है, वहीं रिपोर्ताज शैली में कुछ पठनीय रचनाएं संकलित हैं। इसी के साथ कथा संसार में मर्मस्पर्शी कहानियां संकलित हैं। पुस्तक का आवरण खासा प्रेरक है। कुल मिलाकर अंक पठनीय है।०पत्रिका : बाबूजी का भारत मित्र ०संपादक : रघुविन्द्र यादव ०प्रकाशक : प्रकृति भवन, नीरपुर, नारनौल-123001 ०मूल्य : रुपये 15/-.


हरियाणा की अर्धवार्षिक साहित्यिक पत्रिका 'बाबूजी का भारत मित्र' के दूसरे अंक में साहित्य की तमाम विधाओं की रचनाओं का सुरुचिपूर्ण संकलन है। समीक्ष्य अंक में गज़ल-नज़्म, दोहे, नवगीत, गीत, कविताओं का स्तरीय संकलन किया गया है। स्मृति-अशेष स्तंभ में जहां अदम गोंडवी व शहरयार का भावपूर्ण स्मरण है, वहीं रिपोर्ताज शैली में कुछ पठनीय रचनाएं संकलित हैं। इसी के साथ कथा संसार में मर्मस्पर्शी कहानियां संकलित हैं। पुस्तक का आवरण खासा प्रेरक है। कुल मिलाकर अंक पठनीय है।०पत्रिका : बाबूजी का भारत मित्र ०संपादक : रघुविन्द्र यादव ०प्रकाशक : प्रकृति भवन, नीरपुर, नारनौल-123001 ०मूल्य : रुपये 15/-.

Tuesday, January 3, 2012

नागफनी के फूल - समीक्षा

अपनी माटी वेब पत्रिका में रघुविन्द्र यादव के दोहा संग्रह "नागफनी के फूल" की समीक्षा

जिन्दगी की डाल से तोड़े गये- ‘नागफनी के फूल’

रघुविन्द्र यादव बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील रचनाधर्मी हैं। आलोक प्रकाशन, नीरपुर, नारनौल से सद्य प्रकाशित 80 पृष्ठीय ‘नागफनी के फूल’ उनके 25 शीर्षकों में बंटे 424 दोहों का मनभावन संग्रह है। इसमें सरल भाषा में लिखे गये दोहों में जीवन, राजनीति, यथार्थ, जीवन की विसंगतियों, मूल्यहीनता, भ्रष्ट व्यवस्था, आतंकवाद, गाँव की बदलती हालत, पर्यावरण प्रदूषण, रिश्तों में फैलती स्वार्थपरता, संबंधों की मृदुता, हिन्दी की महत्ता आदि अनेक विषयों पर प्रभावी दोहे अनुस्यूत हैं। इन दोहों में मिथकों का नवीनीकरण करते हुए यथार्थ को वाणी दी गई है और सरल प्रतीकों से जीवन के सत्य को रुपापित किया गया है। इनका संवेदना-संसार व्यापक है। वे व्यक्ति से लेकर विश्व और अंतरिक्ष तक को अपना कथ्य बनाते हैं। भाषा पर कवि का अधिकार है और समन्वय का परिपालन करते हुए दोहाकार ने परिमार्जित शब्दावली से लेकर विदेशी और देशज शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है। लोक-संस्कृति और लोक-जीवन के प्रति कवि का गहरा अनुराग है। इसीलिए तो शहर की जिन्दगी उसे ‘घर में ही वनवास’ भोगने जैसी लगती है। सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण से कवि आहत है, इसीलिए उसे लगता है कि अब ‘लोग नागों से भी अधिक विषैले हो गए हैं’, ‘आँगन में नागफनी’ उग आई हैं, चीखती द्रौपदी की लाज बचाने वाला कोई नहीं क्योंकि आज के केशव स्वंय गुण्डों से मिल गए हैं, नेता और दलाल देश को लूट कर खा रहे हैं और हमारी संवेदनाएं सूख गई हैं। धारदार भाषा में जीवन के जटिल यथार्थ को प्रकट करने की कवि की क्षमता प्रसंशनीय है। महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और पुलिस के खौफनाक भक्षक चेहरे को उजागर करते हुए जब यादव जी कहते हैं-

संसद में होती रही, महिला हित की बात।
थाने में लुटती रही, इज्जत सारी रात।।

तो आज का नंगा यथार्थ अपने विद्रूपित चेहरे के साथ सामने आ जाता है। इसी तरह जब वे आज की व्यवस्था के षडय़ंत्रकारी शोषक चेहरे को निरावृत्त करते हुए कहते हैं-

हत्या, डाका, रहजनी, घूस और व्यभिचार।
नेता करने लग गये, लाशों का व्यापार।।

तो आज की राजनीति का सच सामने आ जाता है। भू्रणहत्या जैसे दुर्दान्त पाप हों, या प्रकृति का अनियन्त्रित और अंधाधुंध दोहन, नेताओं की धूर्तता हो या पुलिस का अत्याचार, आज की पीढ़ी में पनपती अनास्था हो या पारिवारिक मूल्यों का क्षरण, फैलते बाजारवाद का दुर्दान्त चेहरा हो गया वैश्वीकरण के अंतहीन दुष्परिणाम, कवियों की गिरती छवि हो या पत्रकारिता का थ्रिल तलाशता बाजारी चेहरा, महँगाई की मार से बेदम हुआ अवाम हो या संबंधों में पनपी स्वार्थपरता, मूल्यों की टूटन हो या संस्कृति का क्षरण यादव जी सच को सच की भाषा में उकेरना जानते हैं। वे आज की समस्याओं और प्रश्रों से सीधे-सीधे मुठभेड़ करते हैं। यथार्थ जीवन की विकृतियों और दुर्दान्तताओं पर सीधे-सीधे चोट करते कुछ दोहे दृष्टव्य हैं-

विद्वानों पर पड़ रहे, भारी बेईमान।
हंसों के दरबार में, कौवे दें व्याख्यान।।
* * *
दो रोटी के वास्ते, मरता था जो रोज।
मरने पर उसके हुआ, देशी घी का भोज।।
* * *
जब से उनको मिल गई, झंडी वाली कार।
गुण्डे सारे हो गये, नेताजी के यार।।
* * *
नफरत बढ़ती जा रही, घटा आपसी प्यार।
जब से पहुँचा गाँव में, केबल का व्यापार।।
* * *
नारी थी नारायणी, बनी आज उत्पाद।
लाज-शर्म को त्याग कर, करे अर्थ को याद।।

इन दोहों की धार बड़ी तीखी है। भाषा के संबंध में कवि अत्यंत उदारवादी है। उसने एक ओर ख्वाहिश, उसूल, अदब, गिरवी, ज़लसे, तमन्ना, रहबर, राहजनी, अवाम तथा शान जैसे उर्दू फारसी शब्दों का प्रयोग किया है तो केबल टी.वी.जैसे अंग्रेजी शब्द भी इनमें उपलब्ध हैं। कुछ शब्दों को कवि ने देशज शैली में भी प्रयुक्त किया है, यथा मन्तरी, डूबन आदि। मिथकों का प्रयोग अत्यंत शानदार है। द्रौपदी, कृष्ण, देवकी, केशव आदि का प्रयोग करके कवि ने अभिव्यक्ति को दमदार बनाया है परन्तु यथार्थ की ऐसी दमदार अभिव्यक्ति वाले कुछ दोहों में भी कहीं-कहीं संरचनात्मक त्रुटियाँ रह गयीं हैं, परन्तु ये दोष अपवाद स्वरूप हैं, अन्यथा ये दोहे निर्दोष हैं। हमारा विश्वास है कि ‘‘नागफनी के फूल’’ के ये दोहे साहित्य जगत में सम्मान पायेंगे।

योगदानकर्ता / रचनाकार का परिचय :-

डॉ.रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’

डी.लिट.
86, तिलकनगर, बाईपास रोड़, फीरोजाबाद (उत्तर प्रदेश)-283203

http://www.apnimaati.com/2012/01/blog-post.html

Sunday, July 3, 2011

दैनिक ट्रिब्यून में दोहा संग्रह "नागफनी के फूल" की समीक्षा

समर्थ दोहाकार का यथार्थ बोध

पुस्तक समीक्षा
अरुण नैथानी
भारतीय लोकजीवन के कवियों ने आदिकाल से अपनी बात कहने के लिए दोहों का सहारा लिया। कल्हड़ आदि से शुरू हुई यह परंपरा वीरगाथा काल में तब समृद्ध हुई जब पृथ्वीराज रासो से लेकर वीसल देव ने हृदयस्पर्शी रचनाओं को जन-जन तक पहुंचाया। दोहों की सरलता इनका अभीष्ट गुण है। कालांतर आध्यात्मिक सत्यों को उद्घाटित करने के लिए दोहों का खूबसूरत उपयोग हुआ। कबीर, नानक, रैदास, दादू, रहीम आदि ने जाति-बंधनों व धार्मिक आडंबरों पर गहरी चोट करते हुए इस छंद विधा को सार्थक बनाया। लेकिन समय ने करवट ली और रीतिकाल के बाद आधुनिक काल तक दोहा परंपरा हाशिये पर चली गई। छायावाद में दोहे नजर नहीं आये। लेकिन बदलते वक्त के साथ आज $गज़लकारों के साथ दोहा लिखने वालों की बाढ़ आई हुई है। यही वजह है कि पद्मभूषण गोपाल दास नीरज को लिखना पड़ा कि ‘दोहा, काव्य की वह कला है जो होंठों पर तुरंत बैठ जाती है, इसलिए इसकी भाषा प्रसाद गुण लेकिन काव्य गाम्भीर्य होना चाहिए।’
इसमें दो राय नहीं कि दोहा एक मारक छंद रहा है। कविराज बिहारी लाल के दोहों की मारक क्षमता का अवलोकन करते हुए समीक्षकों ने कहा था—देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर। हालांकि, आज दोहों में वह भाषा सौंदर्य व मारक क्षमता नजर नहीं आती, लेकिन इस प्रभावकारी विधा में खूब लिखा जा रहा है। अत: अड़तालीस मात्राओं वाला छंद खासा लोकप्रिय है। चर्चित दोहाकार डॉ. रामनिवास मानव लिखते हैं कि तीन दशक पूर्व मैंने जब हरियाणा में दोहे लिखने शुरू किए तो इक्का-दुक्का लोग छिटपुट रूप में, दोहे लिख रहे थे लेकिन आज तमाम दोहाकार इस विधा में हाथ आजमा रहे हैं। इसी क्रम में अपने पहले दोहा-संग्रह ‘नागफनी के फूल’ के जरिये कवि रघुविन्द्र यादव भी इस पंक्ति में शामिल हो गए हैं। उनकी मान्यता है कि हमारे जनजीवन में हर जगह कैक्टस उग आए हैं। सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करते 25 शीर्षकों में विभाजित उनके सवा चार सौ दोहे समीक्ष्य कृति में शामिल हैं।
समीक्ष्य कृति में रचनाकार दोहों की प्रस्तुति में पाठकों से संवाद करता प्रतीत होता है। रचनाकार का दायित्व है कि वह देशकाल व समकालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यथार्थ की कसौटी पर खरा उतरे और नीर-क्षीर विवेचन के साथ भावों को अभिव्यक्त करे। इस दायित्व को रचनाकार ने दोहों को 25 विषयों के अनुरूप विभाजित किया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या रचनाकार को सिर्फ निर्मम आलोचक के रूप में सामने आना चाहिए? क्या इससे पाठक वर्ग में हताशा उत्पन्न नहीं होती है? क्या छंदकार को क्षरण के पराभव से उबरने का संदेश नहीं देना चाहिए? क्या समाज सौ फीसदी पतनशील है? बहरहाल, रचनाकार विम्ब विधान के जरिये कथन के सम्प्रेषण की सार्थक कोशिश करते हैं। प्रस्तुत दोहे में कनक शब्दों के दो अर्थों का वे सटीक उपयोग करके भाषा के अलंकारिक पहलू की सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं :-
कनक हुई जब खेत में, दो कौड़ी था मोल,
लाला के गोदाम से, बिकी कनक के मोल।
‘बेटी ऐसी फूल’ शीर्षक जहां सकारात्मक सोच व आशावाद की बानगी पेश करता है, वहीं संकलन का प्रस्तुत दोहा परंपरावादी सोच का प्रतिनिधित्व करता है :-
बेटी किसी गरीब को, मत देना भगवान,
पग-पग पर सहना पड़े, अबला को अपमान।
समीक्ष्य कृति में रचनाकार कवि, लेखकों, पत्रकारों व संपादकों को खूब खरी-खोटी सुनाने से नहीं चूकते। वह लगभग सभी कलमकारों (एकाध अपवाद छोड़कर) को एक तराजू में तोलते हैं :-
कलमकार बिकने लगे, गिरवी रख दी शर्म,
बस नेता की चाकरी, समझें अपना धर्म।
छपे नहीं अखबार में, आमजनों की पीर,
संपादक को चाहिए, गुंडों पर तहरीर।
इसके अलावा रचनाकार मौजूदा समय की धड़कनों को गहरे तक महसूस करते हैं। वे आपाधापी के माहौल में दरकती आस्थाओं, धर्म के पाखंड, जातीय आडंबर तथा राजनीतिक विद्रूपताओं को बेनकाब करने से गुरेज नहीं करते। यह बात अलग है कि उनके तेवर तीखे ज़हर-बुझी कटार सरीखे हैं। बानगी देखिए :-
‘यादव’ का है कुल बड़ा, फूट गले की फांस,
केशव की बंसी बजी, बजे वंश में बांस।
सास-ससुर लाचार हैं बहू न पूछे हाल,
डेरे में ‘सेवा’ करे, बाबा हुआ निहाल।
रघुविन्द्र यादव के संकलित दोहे भाषा की सहजता, कथ्य की दृष्टि, अलंकार-बिंब योजना व सम्प्रेषण के नजरिये से अपने उद्देश्य में सफल प्रतीत होते हैं। अलीगढ़ के ख्यातिनाम दोहाकार अशोक ‘अंजुम’ की टिप्पणी सटीक है—बहुत बड़ा परिवार है दोहाकारों का… कहां तक नाम गिनाएं जाएं… रघुविन्द्र यादव इस परिवार के नये व सशक्त सदस्य हैं। बहरहाल, कलेवर की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक, पठनीय व दोषमुक्त है।
०समीक्ष्य कृति : नागफनी के फूल (दोहा संग्रह) ०रचनाकार : रघुविंद्र यादव ०प्रकाशक : आलोक प्रकाशन, नीरपुर, नारनौल ०पृष्ठ : 80 ०मूल्य : रुपये 100/-.
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