विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Tuesday, September 8, 2015

न आरती में न अज़ान में - अहमना भारद्वाज 'मनोहर'

बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में, 
मजबूर की आह में हूँ, मासूम की मुस्कान में।
आये थे मिलने मुझे कब तुम मेरे आवास में,
ढूँढ़ा मुझे तुमने कभी काबा कभी कैलाश में,
मैं बरकतें बरसा रहा हूँ खेत में, खलिहान में,
बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
मैने तो हर इंसान में बख्शा खुदाई नूर है,
तुमने लिखे अपने लिए मज़हबी दस्तूर हैं,         
ये फर्क तुमने ही किया गीता और कुरान में,          
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।  
मैंने कहा कब आपसे मुझको चढ़ावा चाहिए,
ये भी न चाहा मंदिरों में धूप दीप जलाइए,
इतना ही चाहा आपसे, न खोट हो ईमान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
लडऩे लगे आपस में क्यूँ, मैं आपसे नाराज़ हूँ,      
मैं न किसी मंदिर न मस्जि़द के लिए महोताज हूँ,                 
मुझे कैद करना चाहते क्यूँ तंग बंद मकान में,      
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।

-अहमना भारद्वाज 'मनोहरÓ

रेवाड़ी (हरियाणा)


त्रिलोक सिंह ठकुरेला का गीत

कृष्ण!  निशिदिन घुल रहा है सूर्यतनया में जहर।
बांसुरी की धुन नहीं है,
भ्रमर की गुन-गुन नहीं है,
कंस के व्यामोह में पागल हुआ सारा शहर।
पूतना का मन हरा है,
दुग्ध, दधि में विष भरा है,
प्रदूषण के पक्ष में हैं ताल, तट, नदियां, नहर।
निशाचर-गण हँस रहे  हैं,
अपरिचित भय डस रहे हैं,
अब अँधेरे से घिरे हैं सुवह, संध्या, दोपहर।
शंख में रण-स्वर भरो अब ,
कष्ट वसुधा के  हरो  अब,
हाथ में लो चक्र, जाएँ आततायी पग ठहर ।

- त्रिलोक  सिंह  ठकुरेला, अबू रोड

Monday, August 17, 2015

मेरा देश ...मेरा घर - विजया भार्गव

मां....
तेरे चरणों को छू के
सरहद पे जाना चाहता हूं
...जाने दे ना मां मुझे...
मेरे .इस घर की रक्षा
भाई..पापा...कोमल बहना
मेरी दुर्गा कर लेंगे
अबं..मुझ को तो सरहद पे
उस मां की रक्षा करनी है
ताकी मेरे देश के.
घर घर मे खुशहाली हो...
जाने दे ..मुझे
हर घर मेरा घर है
हर घर की सुरक्षा करनी है
मां का आंचल बेदाग रहे
हर सांस प्रतिज्ञा करनी है

मत रोक री बहना
जाने दे
तेरे जैसी कितनी .
मासूम चिडियाओं की
रक्षा करनी है
हर घर आगंन की
चहक महक
मुस्कान की
रक्षा करनी है..

मत रोको दुर्गा .
आसूं से
तुम ही तो मेरी शक्ती हो
तुम को तो ..मैं बन के
इस घर को खुशियां देनी है
मत रो पगली
जाने को कह
इक बार तो हंस के
कह भी दे
तुझ सी दुर्गाओं के
मांगों के
सिन्दूर की रक्षा करनी है
बहुत विस्ञित है घर मेरा
जाने दे
दुआ करना...जब आऊं मैं
तान के सीना आऊंगा
जो ना आ पाया
तो भी मैं
तान के सीना जाऊंगा

कभी ना रोना तुम
मैं यहीं कहीं दिख जाऊँगा
जब-जब मुस्काएगा बच्चा
मैं मुस्काता दिख जाऊँगा
जाता.हूँ ....आऊंगा ...........

-विजया भार्गव 'विजयंती', मुंबई

vijayanti.b@gmail.com

Thursday, August 13, 2015

गीत - लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वसुधा पर छाई हरियाली
खेतों में भी रंगत आई |
धरती के आँगन में बिखरी
मखमल-सी हरियाली छाई ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

उमड़ घुमड़ बदली बरसाए
सावन मन बहकाता जाए |
साजन लौट जब घर आये
गाल गुलाबी रंगत लाये ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |


जिया पिया का खिलखिल जाए नयनों से अमरित बरसाए |
तन मन में यौवन छा जाए
पिया मिलन के पल जब जाए ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |


साजन ने गजरे में गूंथा गेंदे की मुस्काई कलियाँ |
बागों में झूला डलवाया
झूला झूले सारी सखियाँ ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

शीतल मंद हवा का झोंका
मस्त मधुर यौवन गदराया |
मटक-मटक कर चमके बिजुरी
सजनी का भी मन इतराया ||


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

हरियाली तीज त्यौहार में
चंद्रमुखी सी सजती सखियाँ
शिव गौरी की पूजा करती
मेहंदी रचे हाथों से सखियाँ |


रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

चंद्रमुखी मृगलोचनी-सी
नवल वस्त्र में सजकर सखियाँ |
झूम-झूम कर नाचे गावें
दृश्य देख हर्षाएं रसियाँ ||


रिमझिम रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

-लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

गीत - कल्पना रामानी

बरखा रानी नाम तुम्हारे 

बरखा रानी! नाम तुम्हारे,
निस दिन मैंने छंद रचे।
रंग-रंग के भाव भरे,
सुख-दुख के आखर चंद रचे।

पाला बदल-बदल कर मौसम,
रहा लुढ़कता इधर उधर।
कहीं घटा घनघोर कहीं पर,
राह देखते रहे शहर।

कहीं प्यास तो कहीं बाढ़ के,
सूखे-भीगे बंद रचे।

कभी वादियों में सावन के,
संग सुरों में मन झूमा।
कभी झील-तट पर फुहार में,
पाँव-पाँव पुलकित घूमा।

कहीं गजल के शेर कह दिये,
कहीं गीत सानंद रचे।

कभी दूर वीरानों में,
गुमनाम जनों के गम खोदे।
अतिप्लावन या अल्प वृष्टि ने,
जिनके सपन सदा रौंदे।

गाँवों के पैबंद उकेरे,
शहर चाक-चौबन्द रचे।

-कल्पना रामानी