विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Monday, October 28, 2019

सुशील सरना के दोहे

सुशील सरना के दोहे

माला फेरें राम की, करते गंदे काम।
ऐसे ढोंगी धर्म को, कर देते बदनाम।।
2
तुम तो साजन रात के, तुम क्या जानो पीर।
भोर हुई तुम चल दिए, नैन बहाएँ नीर।।
3
मर्यादा तो हो गई, शब्दकोष का भाग।
पावन रिश्तों पर लगे, बेशर्मी के दाग।।
4
अद्भुत पहले प्यार का, होता है आनंद।
रोम-रोम में रागिनी, श्वास-श्वास मकरंद।।
5
कहाँ गई पगडंडियाँ, कहाँ गए वो गाँव।
सूखे पीपल से नहीं, मिलती ठंडी छाँव।।
6
आभासी इस श्वास का, बड़ा अजब संसार।
मुट्ठीभर अवशेष हैं, झूठे तन का सार।।
7
हाथ जोड़ विनती करें, हलधर बारम्बार।
धरती की जलधर सुनो, अब तो करुण पुकार।।
8
जिसके मन की बन गई, जहाँ कहीं सरकार।
खुन्नस में वे कर रहे, भारी अत्याचार।।
9
काल न देगा श्वास को, क्षण भर की भी छूट।
खबर न होगी, प्राण ये, ले जाएगा लूट।।
10
अपनों से होता नहीं, अपनेपन का बोध।
अपने ही लेने लगे, अपनों से प्रतिशोध।।

गाफिल स्वामी के दोहे

गाफिल स्वामी के दोहे

अधिकारों की चाह में, लोग रहे सब भाग।
मगर कभी कर्तव्य की, जली न दिल में आग।।
2
झूठ द्वेष छल पाप का, पथ दुखदाई मित्र।
मिले सत्य की राह में, सुख की छाँव पवित्र।।
3
तन पर तो सत्संग का, चढ़ा हुआ है रंग।
मगर नहीं मन रह सका, कभी सत्य के संग।।
4
काया बूढ़ी हो गई, रुग्ण हुआ हर अंग।
फिर भी जीने की ललक, मन माया के संग।।
5
पैसा है तो जि़न्दगी, लगती बड़ी हसीन।
बिन पैसे संसार का, हर रिश्ता रसहीन।।
6
बिन धन के जीवन-जगत,  लगता है बेकार।
पैसे से जाता बदल, रहन-सहन व्यवहार।।
7
बिन मतलब जपता नहीं, कोई प्रभु का नाम।
दीन-दुखी धनवान सब, माँगे उससे दाम।।
8
कभी मिले यदि वक्त तो, देखो मेरा गाँव।
जहाँ पे्रम सद्भाव की, घर-घर शीतल छाँव।।
9
जाना इक दिन छोडक़र, धन-दौलत संसार।
फिर भी मूरख कर रहे, लूट ठगी व्यभिचार।।
10
काशी मथुरा द्वारिका, तीरथ किये हजार।
मगर न फिर भी खुल सका, मन मंदिर का द्वार।।
11
सुख-सुविधा से आज भी, गाँव बहुत हैं दूर।
मगर प्रकृति प्रभु प्रेम की, अनुकम्पा भरपूर।।

तारकेश्वरी सुधि के दोहे

तारकेश्वरी सुधि के दोहे

चाहा तो बेहद मगर, हुए न मन के काम।
रोजी-रोटी में हुई, अपनी उम्र तमाम।
2
ले लेंगे रिश्ते सभी, मन माफिक आकार।
लेकिन पहले कीजिए, जिव्हा पर अधिकार।।
3
लगी फैलने व्याधियाँ, जीना हुआ मुहाल।
सुविधाएँ बनने लगीं, अब जी का जंजाल।।
4
नारी कल भी देह थी और आज भी देह।
होगा शायद आपको, मुझे नहीं संदेह।।
5
द्वार खड़ी बेचैनियाँ, अनसुलझी है बात।
मन के आँगन में मचा, भावों का उत्पात।।
6
ये रिश्ते ये उलझनें, रोज नये दायित्व।
संबंधों के जाल में, उलझ गया व्यक्तित्व।।
7
रक्षा बंधन प्रेम का, सुधि विश्वस्त सबूत।
डोरी कच्चे सूत की, लेकिन नेह अकूत।।
8
आँधी ऐसी वक्त की, चली एक दिन हाय।
सपने शाखों से गिरे, भाव हुए असहाय।।
9
भावों को पहचान कर, सजी वक्त अनुरूप।
होठों की मुस्कान भी, रखती है बहुरूप।।
10
चाहे घर में कैद हों, या दफ्तर बाज़ार।
पीछी करती वासना, नारी का हर बार।।
11
पेड़ काटता माफिया, दुख फैले चहुँ ओर।
कीड़े सर्प गिलहरियाँ, बेघर चिडिय़ा मोर।।

श्रीभगवान बव्वा के दोहे

श्रीभगवान बव्वा के दोहे

हमको भी अब लग गया, सच कहने का रोग।
यार सभी नाराज हैं, कटे-कटे से लोग।।
2
इक दूजे की हम सदा, समझा करते पीर।
आँगन-आँगन खींच दी, किसने आज लकीर।।
3
सद-पथ का तुम मान लो, इतना-सा है सार।
मीठे फल ही चाह में, काँटे मिलें हजार।।
4
घर के बाहर तो लिखा, सबका है सत्कार।
नहीं दिलों में पर मिला, ढूँढ़े से भी प्यार।।
5
चौपालें सूनी पड़ी, सब में भरी मरोड़।
अब तो मेरा गाँव भी, करे शहर से होड़।।
6
बेटे को अच्छा लगे, जाना अब ससुराल।
दूरभाष पर पूछतो, अपनी माँ का हाल।।
7
सदा रोकना चाहते, पत्थर मेरी राह।
मेरे जिद्दी पैर हैं, भरते कभी न आह।।
8
तन उजला तो क्या हुआ, दिल है बड़ा मलीन।
करते ओछे काम हैं, कैसे कहूँ कुलीन।।
9
बोझ सभी का ढो रही, फिर भी है चुपचाप।
धरती माँ की देखिए, सहनशीलता आप।।
10
बच्चे मरते भूख से, तरस न खाता एक।
करते हैं पर दूध से, पत्थर का अभिषेक।।
11
कठिन डगर संसार की, हो जाये आसान।
रिश्तों का यदि सीख लें, करना हम सम्मान।।
12
आडम्बर फैला बहुत, बढ़े दिनोंदिन पीर।
अपने युग को चाहिएँ, अब तो कई कबीर।।
13
महज फलसफा एक है और एक ही पाठ।
जिस आँगन में माँ बसे, रहे वहाँ सब ठाठ।।

रामहर्ष यादव 'हर्ष' के दोहे

रामहर्ष यादव 'हर्ष' के दोहे 

जिन पर चलने चाहिएँ, कानूनों के तीर।
शासन उन्हें परोसता, सचिवालय में खीर।।
2
किसे पड़़ी कहता फिरे, पीडि़त जन की पीर।
दरबारों में चाकरी, करने लगे कबीर।।
3
बाबाजी प्रवचन करें, क्या जायेगा साथ।
चेले इधर वसूलते, चंदा दोनों हाथ।।
4
जिनको हितकारी लगें, लालच द्वेष दुराव।
उनकी आँखों किरकरी, सत्य प्रेम सद्भाव।।
5
पत्थर का होता रहा, पंचामृत अभिषेक।
इधर दुधमुँहे भूख से, रोते रहे अनेक।।
6
सहमी-सहमी द्रौपदी, कोस रही तकदीर।
दुष्ट दुशासन आज भी, खींच रहा है चीर।।
7
गोपी-गोकुल-ग्वाल सब, तकें चकित चहुँओर।
स्मृतियाँ नंद किशोर की, करतीं भाव विभोर।।
8
शोषित का शोषण रुके, हो समान व्यवहार।
संविधान की भावना, तब होगी साकार।।
9
लोगों की मतदान पर, मंशा ऊल-जलूल।
बोकर खेत बबूल का, चाह रहे फल-फूल।।
10
दागदार चेहरे हुए, लोगों के सिरमौर।
ऐसे में ईमान पर, कौन करेगा गौर।।
11
मजहब से लिपटे हुए, मानवता को छोड़।
लिखी ग्रंथ में बात का, है क्या यही निचोड़?
12
सहयोगी दल रुष्ट हो, कर बैठे हड़ताल।
चाह रहे वे लूट से, मिले बराबर माल।।
13
कमा-कमा कर थक गए, भरी न मन की जेब।
जीवन भर करते रहे, सारे झूठ फरेब।।
14
सावन सखी-सहेलियाँ, पावस कजरी गीत।
तेरे बिन बैरी लगें, ओ! मेरे मनमीत।।
15
ये कैसी उपलब्धियाँ, कैसा हुआ विकास।
दौलत की चाहत बढ़ी, रिश्तों का उपहास।।

चित्रा श्रीवास के दोहे

चित्रा श्रीवास के दोहे

मंदिर मस्जिद छोडक़र, करो ज्ञान की बात।
होती कोई है नहीं, मानवता की जात।।
2
चावल सब्जी दाल पर, महँगाई की मार।
कीमत सुरसा-सी बढ़ी, चुप बैठी सरकार।।
3
भेदभाव छल झूठ का, रचते माया जाल।
सत्ता सुख को भोगकर होते मालामाल।।
4
बाँट रहे हैं देश को, जाति-धर्म के नाम।
अपनी रोटी सेकना, नेताओं का काम।।
5
पीपल बरगद भी कटे, उजड़ गये हैं नीड़।
गौरैया बेचैन है, किसे सुनाये पीड़।।
6
फितरत सबकी एक-सी, किसको देवें वोट।
जन की आशा रौंदते, करते अक्सर चोट।।
7
जात-पात के भेद में, उलझ गया इंसान।
खून सभी का लाल है, कब समझे नादान।।
8
गुणवत्ता की आड़ में, निजीकरण का खेल।
सत्ता-साहूकार का, बड़ा अजब है मेल।।
9
उजले कपड़ों में मिलें, मन के काले लोग।
जनसेवा के नाम पर, करते सुख का भोग।।
10
अमरबेल से फैलते, कुछ परजीवी रोज
औरों का हक छीनकर, करते शाही भोज।।
11
रिश्ते-नातों से बड़ा, अब पैसा श्रीमान।
पैसे खातिर बेच दें, लोग यहाँ ईमान।।
12
बही बाढ़ में झोपड़ी, महल देखता मौन।
बेबस-बेघर की यहाँ, व्यथा सुनेगा कौन।।
13
बेटी तुलसी मंजरी, है पूजा का फूल।
हरी दूब की ओस है, सब खुशियों की मूल।।
14
दाँव-पेच से हिल गई, रिश्तों की बुनियाद।
जड़ें हुई हैं खोखली, तृष्णा से बर्बाद।।
15
बेटी मारें कोख में, देवी पूजें रोज।
मंदिर-मस्जिद घूमकर, करें देव की खोज।।
16
मनुज बड़ा है दोगला, अंदर-बाहर और।
करे दिखावा दान का, छीने मुँह का कौर।।
17
पाकर सत्ता सुन्दरी, फ़र्ज़ गये हैं भूल।
दोनों हाथों लूटते, छोड़े सभी उसूल।।

हरिओम श्रीवास्तव के दोहे

हरिओम श्रीवास्तव के दोहे

छलनी बोली सूप से, गुप्त रखूँगी भेद।
नहीं कहूँगी मैं कभी, तुझमें कितने छेद।।
2
पति-पत्नि संतान में, सिमट गया परिवार।
मात-पिता ऐसे हुए, ज्यों रद्दी अ$खबार।।
3
टप-टप टपकी रातभर, रमुआ की खपरैल।
बाढ़ बहाकर ले गई, बछड़ा बकरी बैल।।
4
जिसको जो मिलता नहीं, लगे उसे वह खास।
लगे निरर्थक वह सभी, जो है जिसके पास।।
5
सावन से बरसात का, टूट गया अनुबंध।
मेघों को भाती नहीं, अब सौंधी-सी गंध।।
6
जिसको मिल जाए जहाँ, जब भी अपना मोल।
आदर्शों की पोटली, देता है वह खोल।।
7
अपनी भूलों पर सभी, बनते कुशल वकील।
गलती हो जब और की, देते तनिक न ढील।।
8
लक्ष्य प्राप्ति उसको हुई, जिसने किया प्रयास।
प्यासे को जाना पड़े, स्वयं कुए के पास।।
9
जो भी आया है यहाँ, जाएगा हर हाल।
निकट निरंतर आ रहा, काल साल दर साल।।
10
रखना हो जब व्यक्ति को, अपना कोई पक्ष।
मंदबुद्धि भी उस समय, लगता है अति दक्ष।।
11
फैशन की इस देश में, ऐसी चली बयार।
महिलाओं को लग रहा, वस्त्रों का ही भार।।
12
करता है वनराज भी, उठकर स्वयं शिकार।
मृग खुद सोते सिंह का, बने नहीं आहार।।



आशा देशमुख के दोहे

आशा देशमुख के दोहे

इस दुनिया में हो रहा, लक्ष्मी का सम्मान।
विद्या है परिचारिका, चुप बैठे गुणवान।।
2
आडंबर को देखकर, मन हो जाता खिन्न।
लोग हुए हैं दोगले, कथनी करनी भिन्न।।
3
माटी छूटी गाँव की, छूट गया खलिहान।
ऐसी नगरी आ बसे, मुख देखे पहचान।।
4
आदिम युग की वापसी, पाया फैशन नाम।
खान-पान पशुवत हुआ, असुर सरीखे काम।।
5
राह तकें नदियाँ सभी, रख निर्जल उपवास।
कब बरसोगे मेघ तुम, बुझे सभी की प्यास।।
6
महलों की सब क्यारियाँ, हरी-भरी आबाद।
प्यासे हलधर कर रहे, सावन से फरियाद।।
7
दूध दही नवनीत से, पाषाणों का स्नान।
एक बूँद जल के लिए, तरस रहे इंसान।।
8
मौन हुई है साधना, मंत्र हुए वाचाल।
किया स्वेद से आचमन, पूजा हुई निहाल।।
9
कुछ कुत्तों के भोज में, शाही मटन पुलाव।
मरते मानव भूख से, झेलें नित्य अभाव।।
10
असुर सरीखा आचरण, पशुवत है व्यवहार।
मानव से अब साँप भी, माँगे ज़हर उधार।।
11
माया के परिवेश में, घटा ज्ञान का मान।
खड़ी हासिये पर कला, फैशन का अनुदान।।
12
रूढि़-रीति, विज्ञान में, छिड़ा हुआ है द्वंद।
अंध आस्था ने किये, प्रगति द्वार सब बंद।।

Sunday, September 22, 2019

सीमा पाण्डेय मिश्रा के दोहे

सीमा पाण्डेय मिश्रा के दोहे

सरस, सलीकेदार थे, जिन मंचों के कथ्य।
रूखे औ फूहड़ मिले, उनके ही नेपथ्य।।
2
सहमे जैसे नायिका, ऐसे डरे पगार।
महँगाई खलनायिका, खलनायक त्योहार।।
3
सागर के घर जा नदी, लगती है अनिकेत।
भीतर खारा जलमहल, बाहर सूखी रेत।।
4
धरती ऐसे सह रही, बारिश की बौछार।
जैसे बच्चा कर रहा, माँ पर नन्हे वार।।
5
भीख माँगते हाथ ही, हम क्या जानें पीर।
काँधे पर झोला नहीं, लटका हुआ ज़मीर।।
6
रही गरीबी छेंकती, जिनके ड्योढ़ी द्वार।
मुश्किल से आये कभी, उनके घर त्योहार।।
7
दूरी से ही जागते, मोह पाश के राग।
नजदीकी से चाँद में, दिखते काले दाग।।
8
गिरिवर की गोदी पली, नन्हीं पतली धार।
उद्गम का विश्वास है, नदिया का आधार।।
9
गहन प्रेम के भाव भी, नहीं चाँद का ज्ञात।
झाँक रहा है झील में, पर सूखा है गात।।
10
प्रेम सदा रहता नहीं, सदा रहे कब बैर।
लहर डुबो जाती वही, जो छूती है पैर।।
11
फूल सियासी हो गए, भँवरे हैं हैरान।
रंग चुनें अब कौन-सा, कहाँ करे मधुगान।।
12
लगातार संपर्क से, खोती मधुर सुगंध।
है दूरी और प्रेम में, सीधा सा संबंध।।
13
जिन शाखों ने ली तपिश, कर शीतलता दान।
उन शाखों को काटते, हत्यारे इंसान।।
14
याद पड़ा कुछ देर से, मेरे भी अरमान।
लेकिन तब तक हो गया, जीवन ही कुर्बान।।
15
रोटी के आकार से, कम वेतन का माप।
गरम तवे पर नीर के, छींटे बनते भाप।।
16
मैंने तो सींचा फ$कत, इक मुरझाया नीम।
दबे बीज भी हँस पड़े, क़ुदरत हुई करीम।।
17
चख पाते हम प्रेम का, अमरित स्वाद असीम।
उससे पहले चाट ली, घातक धर्म अफीम।।