विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Thursday, September 19, 2019

संजीव गौतम के दोहे

संजीव गौतम के दोहे

भीड़ धुआँ चुप्पी घुटन, गूँगे बहरे लोग।
कस्बों को भी हो गए, महानगर के रोग।।
2
नए दौर ने गढ़ लिए, अपने नये वसूल।
झूठों को सम्मान दे, सच की आँखों धूल।।
3
सावन सूखा माघ लू, जेठ मास बरसात।
क्या से क्या हैं हो गये, मौसम के हालात।।
4
सोने चाँदी-सी कभी, ताँबे जैसी धूप।
दिन भर घूमे गाँव में, बदल-बदल कर रूप।।
5
कल आँगन में रातभर, रोया बूढ़ा नीम।
दो हिस्सो में देखकर, घर आँगन तकसीम।।
6
एक हुए सब उस जगह, राजा रंक $फकीर।
जहाँ मृत्यु ने खींच दी, अपनी अमिट लकीर।।
7
सबको कमियाँ हैं पता, फिर भी हैं सब मौन।
केवल इतनी बात है, पहले बोले कौन।।
8
सब के सब बेकार हैं, ज्ञानी सिद्ध $फकीर।
खींच अगर पाये नहीं, कोई नयी लकीर।।
9
थोड़ा सा ईमान है, थोड़ी सी पहचान।
मुझमें जि़न्दा है अभी, थोड़ा सा इंसान।।
10
खूब खूब फूले फले, मज़हब के सरदार।
भोली जनता ही मरी, दंगों में हर बार।।
11
कल आँगन में रातभर, रोया बूढ़ा नीम।
दो हिस्सों में देखकर, घर-आँगन तकसीम।।
12
कुछ भी तो जानें नहीं, हम कविता के भेद।
उल्टे कर पढ़ते रहे, अपने-अपने वेद।।
13
बापू तेरे देश में, यह कैसा संयोग।
अंधों से बातें करें, गूँगे बहरे लोग।।
14
फूलों से तो प्यार कर, जड़ में म_ा डाल।
महानगर से सीख ले, कुछ तो मेरे लाल।।
15
थोड़ा-सा ईमान है, थोड़ी-सी पहचान।
मुझमें जि़न्दा है अभी, एक अदद इन्सान।।
16
बुरा वक्त क्या आ गया, बदले सबने रंग।
पत्ते भी जाने लगे, छोड़ पेड़ का संग।।

Wednesday, September 18, 2019

श्लेष चन्द्राकर के दोहे

श्लेष चन्द्राकर के दोहे

निशिदिन अब होने लगी, धरा रक्त से लाल।
नहीं समझती भीड़ क्यों, राजनीति की चाल।।
2
मिलती उसको नौकरी, जिसे किताबी ज्ञान।
अनुभव जिसके पास है, भटके वह इन्सान।।
3
कहो समय पर फैसला, देगा कैसे कोर्ट।
आती बरसों बाद जब, कोई जाँच रिपोर्ट।।
4
मन को अपने मार कर, देनी पड़ती घूस।
अर्जी को स्वीकार तब, करते हैं मनहूस।।
5
बात-बात पर आजकल, उगल रहे विष लोग।
इंसानों को भी लगा, सर्पांे वाला रोग।।
6
भ्रष्टाचारी भेडि़ए, मिलकर करें शिकार।
जनता इनके सामने, हो जाती लाचार।।
7
दिखलाना इन्सानियत, मनुज गया है भूल।
सत्य अहिंसा प्यार अब, हैं गूलर के फूल।।
8
पहले अस्मत लूटते, फिर कर देते खून।
अपराधी बे$खौफ हैं, सोया है कानून।।
9
औरों की आलोचना, करना है आसान।
मूल्यांकन खुद का करें, वे ही बनें महान।।
10
रात-रात भर जागता, सोता कम इन्सान।
सेहत से देता अधिक, मोबाइल पर ध्यान।।
11
नेताओं पर भूलकर, करना मत विश्वास।
घी पीते हैं वे स्वयं, हमें न डालें घास।।
12
न्यूज चैनलों पर चले, दिनभर नित बकवास।
नाटक वाद-विवाद का, तनिक न आये रास।।
13
गायब होती जा रही, मुखड़े से मुस्कान।
रहता है इस दौर में, व्यथित बहुत इन्सान।।
14
भूूल रहे निज सभ्यता, जिस पर था अति गर्व।
मना रहे पाश्चात्य के, नये-नये हम पर्व।।
15
रोजी-रोटी के लिए, हुआ बहुत मजबूर।
आज पलायन कर रहा, श्रम साधक मजदूर।।
16
बिका हुआ है मीडिया, आकाओं के हाथ।
देता रहता है तभी, कुछ लोगों का साथ।।
17
उल्टे-पुल्टे काम से, बन जाती पहचान।
खबरों में रहना हुआ, अब बेहद आसान।।
18
शोर शराबे को कहे, नव-पीढ़ी संगीत।
सुन्दर गीतों का सखे, आता याद अतीत।।




Sunday, September 15, 2019

शिव कुमार दीपक के दोहे

शिव कुमार दीपक के दोहे

मेघा भी करने लगे, द्वेष पूर्ण व्यवहार।
हम जल से लाचार हैं, वे जल से लाचार।।
2
कैसे सुधरेगी यहाँ, हलधर की तकदीर।
गेहूँ से महँगा बिके, व्यापारी का नीर।।
3
कविता में जिनकी नहीं, आम जनों की पीर।
काम भाट का कर रहे, खुद को कहें कबीर।।
4
शोषण दहशत सिसकियाँ, पनपा घोर विषाद।
चोर सिपाही मिल गए, कौन सुने फरियाद।।
5
संकट का पर्वत उठा, पाली थी औलाद।
बूढ़ों की सुनता नहीं, अब कोई रूदाद।।
6
मापा सागर आपने और धरा का भार।
नाप सके कब भूख का, कितना है आकार।।
7
लूट अपहरण धमकियाँ, शोषण अत्याचार।
यक्ष प्रश्र हैं सामने, चुप है चौकीदार।।
8
मोबाइल ने कर दिए, सरल बहुत-से काम।
घर के अंदर लड़कियाँ, फिर भी नींद हराम।।
9
पंखों में कूवत कहाँ, जो भर सकें उड़ान।
पक्षी रखकर हौसला, नापे नभ का मान।।
10
गर्दन में लटका रहे, राम और हनुमान।
चाल-चलन से दिख रहे, रावण की संतान।।
11
जड़ें स्वर्ण के फ्रेम में, या कर दें दो टूक।
दर्पण सच ही बोलता, कभी न रहता मूक।।
12
जिस घर के मुखिया हुए, अवगुण के शौकीन।
उस घर में आदर्श की, बंजर रहे ज़मीन।।
13
क्यों दबंग तू बन रहा, ले टीले की आड़।
माँझी बन हम तोड़ते, मद में खड़े पहाड़।।
14
कहते भ्रष्टाचार पर, किया करारा वार।
दूनी रिश्वत माँगते, बाबू, थानेदार।।
15
निर्धनता करती मिली, हाथ जोड़ मनुहार।
पैसा आया, मद बढ़ा, गया हृदय से प्यार।।
16
दुनिया में मजदूर का, कैसा हाय नसीब।
अपने काँधे उम्रभर, ढोता रहे सलीब।।
17
अल्लाह हु अकबर कहें, या फिर जय श्रीराम।
उन्मादी इस भीड़ में, नफरत भरी तमाम।।
18
आशा रही न भोर की, चेहरे हुए निराश।
जब से तम के जुर्म में, शामिल हुआ प्रकाश।।
19
कवि का होना चाहिए, दर्पण-सा व्यवहार।
सच्चाई जिंदा रखे, करे झूठ पर वार।।
20
हरी मखमली चादरें, दिनभर चढ़ीं मजार।
ठिठुर-ठिठुर बुढिय़ा मरी, उसी पीर के द्वार।।
21
माखन मटकी से कहे, ध्यान न मेरी ओर।
अब मोबाइल माँगता, नन्हा नन्द-किशोर।।
22
आजादी के मायने, क्या जाने सय्याद।
पिंजरे में जो बंद है, करे सही अनुवाद।।







जे.सी. पाण्डेय के दोहे

पाण्डेय जे.सी. के दोहे

कहने को तो सब कहें, माँ से है घर-बार।
छोड़ गया वो कौन था, वृद्धाश्रम के द्वार।।
2
जीना तो संयोग है, साँसें मिली उधार।
मौत खड़ी महबूब-सी, लिए हाथ में हार।।
3
कहाँ चले तुम बाँधकर, पाँवों में ज़ंज़ीर।
तन-मन दोनों पर लगे, घाव बड़े गम्भीर।।
4
हुआ बैल-सा आदमी, बदल गयी है चाल।
किश्तों की रस्सी गले, डाल हुआ बेहाल।।
5
रिश्ते अपने बीच में, कैसे बनें प्रगाढ़।
तू सूखा है जेठ-सा, मैं सावन की बाढ़।।
6
चलता है हर रोज ही, लूटपाट का खेल।
कोई लूटे आबरू, कोई लूटे मेल।।
7
कठिन चुनौती है मगर, उठा हाथ हथियार।
बाहर दुश्मन हैं खड़े, भीतर कुछ गद्दार।।
8
इतराना किस बात का, पूजा के हम फूल।
पल भर को माथे चढ़ें, मिल जायें फिर धूल।।
9
मनसा वाचा कर्मणा, भाँवर लीं थी सात।
जीने दो सुख चैन से, मत देखो अब जात।।
10
दीन-हीन पर आपको, आ जाता है क्रोध।
महाबली को देखकर, हाथ जोड़ अनुरोध।।
11
कैसा ये संयोग है, कैसा मन का भाव।
सहलाया तुमने वहीं, जहाँ बना था घाव।।
12
मरघट में जलती चिता, देती मौन सलाह।
जलकर कुछ मिलता नहीं, मत कर मानव डाह।।
13
कैसे छू लूँ ये बता, हवा नहीं अनुकूल।
माथे का तू है तिलक, मैं चरणों की धूल।।
14
पीपल जैसा प्रेम है, उगे फाड़ चट्टान।
किसके उर में कब उगे, कौन सका है जान।।
15
आँखें उसको ढूँढ़ती, हो जिसकी दरकार।
कौन भला ढूँढ़े मुझे, मैं कल का अ$खबार।।
16
शील नहीं यदि रूप में, कौन कहे नायाब।
शोभा पाता है कहाँ, बिन पानी तालाब।।
17
कितना भी ऊँचा उठें, रहें सदा शालीन।
आसमान हो हाथ में, पाँवों तले ज़मीन।।
18
संघर्षों का दौर है, होना नहीं हताश।
थाम हथौड़ा ज्ञान का, खुद को तनिक तराश।।
19
साहस की दिल में कमी, मंजि़ल हो कुछ दूर।
तब कहती है लोमड़ी, खट्टे हैं अंगूर।।
20
हुआ बैल-सा आदमी, बदल गई है चाल।
किश्तों की रस्सी गले, डाल हुआ बेहाल।।


मिथलेश वामनकर के दोहे

मिथलेश वामनकर के दोहे

लाख लिखो यशगान तुम, मर्यादा के नाम।
सिर्फ विभीषण खोजते, अक्सर देखे राम।।
2
लोग मिले निष्ठुर सदा, देव मिले पाषाण।
केवल भिक्षुक ही रहे, देवालय के प्राण।।
3
लेकर आया राजपथ, जाने कैसी छाँव।
जब-जब चलते हैं पथिक, तब-तब जलते पाँव।।
4
खुश थे रावण को सभी, अग्नि कूप में डाल।
ज़ख्म हरे ले जानकी, देख रही चौपाल।।
5
केसर से बारूद की, रह-रह आती गंध।
घाटी के बन्दूक से, ऐसे हैं अनुबंध।।
6
निश्चित मानो टूटना, तब प्यासे का ख्वाब।
जब सागर के वंशधर, बन जाएँ तालाब।।
7
भूख गरीबी के लिए, निश्चित किया किसान।
सोचो बाकी लोग हैं, कितने चतुर सुजान।।
8
फिर सत्ता के गीत में, खोये हैं मतिमंद।
बिखरे हैं फुटपाथ पर, लोकतंत्र के छंद।।
9
केवल देखे आपने, मेरे शब्द अधीर।
मैंने भोगी है मगर, अक्षर-अक्षर पीर।।
10
अब चिंतित बेचैन-सी, रहती सारी रात।
सीता ने जब से सुनी, रामराज की बात।।
11
कोई कहता पक्ष में, कोई कहे विरुद्ध।
कलयुग में उपलब्ध हैं, सबको अपने बुद्ध।।
12
आँखें ही बेशर्म तो, घूँघट से क्या आस।
नग्न मिला हर आदमी, पहने सभ्य लिबास।।
13
आई सत्ता की कलम, वर्तमान के पास।
बैठे-बैठे अब वही, बदल रहे इतिहास।।
14
दीपक के विश्वास को, आज अचानक तोड़।
देख हवा ने कर लिया, आँधी से गठजोड़।।
15
जहाँ धरा के वक्ष पर, जंगल हो आबाद।
बादल का होगा वहीं, वर्षा में अनुवाद।।
16
खलिहानो के प्रश्र पर, क्या दे खेत जवाब।
मंडी में बेसुध पड़े, पगडंडी के ख्वाब।।
17
सीख रहा हो जब हृदय, पत्थर से व्यवहार।
हँसना भी बेकार तब, रोना भी बेकार।।
18
बुझते चुल्हे से उठी, फिर झुग्गी में गंध।
फिर छप्पर ने कर लिया, वर्षा से अनुबंध।।
19
नार बनी है नीर से, या नारी से नीर।
बहते काजल ने लिखी, युगों-युगों की पीर।।



फणीन्द्र कुमार भगत के दोहे

फणीन्द्र कुमार भगत के दोहे

मुझे शत्रु का एक भी, चुभा नहीं था तीर।
खंज़र अपनों के मगर, गए कलेजा चीर।।
2
अपने कद से हैं बड़े, यूँ तो वृक्ष हजार।
लेकिन छायादार हैं, गिनती के दो चार।।
3
नौका जर्जर हो गई, टूट गई पतवार।
लगती है हर धार अब, मुझको तो मँझधार।।
4
उमरा बैठे हैं सभी, आज लगा चौपाल।
खोज रहे हैं लूट की, सारे मिल नव चाल।।
5
वैर भाव मन में पला, कलुषित हुए विचार।
मरहम विष लगने लगा, कैसे हो उपचार।।
6
गागर छलकी याद की, हुए नयन तट लाल।
पलको ने भी भीगकर, कहा हृदय का हाल।।
7
काँटों ने उलझा लिया, जब-तब रहे झँझोड़।
बिखरेगा गुल टूटकर, कहता यही निचोड़।।
8
सारी राहें बंद हैं, होता एक न काज।
मिली सजा की ही तरह, मुझे गरीबी आज।।
9
फूलों की मुस्कान पर, लगा रहे प्रतिबंध।
पंखुडिय़ों के लालची, जिन्हें न भाती गंध।।
10
कैसा है इन्सान का, यह निज से ही वैर।
कर बैठा है आज खुद, हर अपने को गैर।।
11
खुश था चंदा रात भर, मन में लिए उमंग।
भोर हुई तो चाँदनी, छोड़ गई सब संग।।
12
खाली बरतन और भी, लगने लगे उदास।
गुजरा जब आषाढ़-सा, सावन कर उपहास।।
13
पानी से सरकार के, जलने लगे चिराग।
फोहे केरोसीन के, बुझा रहे हैं आग।।
14
खुले द्वार दालान सब,मिट्टी की दीवार।
वक्त छीनकर ले गया, आपस का वह प्यार।।
15
चिंता करते लोग सब, बातें हर सरकार।
किस्मत मगर किसान की, लिखता सदा उधार।।
16
स्वप्न और सच्चाइयाँ जब हो जाएँ भिन्न।
तब होता है आदमी, हद से ज्यादा खिन्न।।
17
सावन ने नदियाँ भरी, कहीं तोड़ दी झील।
सींचे हैं बिन भेद के, बरगद और करील।।
18
नेह खत्म होने लगा, दिन-दिन घटती छाँव।
बहुत भुरभुरा हो गया, अब रिश्तों का गाँव।।
19
दीपक से भी आँधियाँ, छीन रही हैं नूर।
कैसे होगा रात का, यह अँधियारा दूर।।
20
मैं मानव ही था मगर, जग के पाल उसूल।
काँटे-सा सबको चुभा, क्या पत्ते क्या फूल।।

रमेश शर्मा के दोहे

रमेश शर्मा के दोहे

हुई कागजी योजना, कहाँ कभी साकार।
हुआ नहीं धनहीन का, इसीलिए उद्धार।।
2
कागज पर लिखना नहीं, राज एक भी यार।
कब हो जाए क्या पता, कागज भी गद्दार।।
3
दिखलाओगे जो उसे, वही दिखेगा चित्र।
दर्पण की औ$कात क्या, तुम्हें चिढ़ाए मित्र।।
4
अज्ञानी समझूँ उसे, या बोलूँ नादान।
खाकर ठोकर भी नहीं, सुधरे जो इन्सान।।
5
बँटवारे का हो गया, उनको जब आभास।
बरगद पीपल आम सब, रहने लगे उदास।।
6
बैठाता है नाव में, देता कभी उतार।
जाने कैसा हो गया, नाविक का किरदार।।
7
लहरें उठें दुलार की, सजे हृदय का गाँव।
आँगन में जब भी पडें़, बेटी के दो पाँव।।
8
दिल तोड़े जो आपका, नहीं करूँगा भूल।
मैंने तो तोड़ा नहीं, कभी शाख से फूल।।
9
चले नहीं कानून की, उन पर कभी कटार।
होते हैं जो जुर्म के, असली ठेकेदार।।
10
हो जाते हैं वाकई, सीने में तब छेद।
कोई घर का भेदिया, गैरों को दे भेद।।
11
करें काव्य की आड़ मे, औरों का अपमान।
पंडित वे साहित्य के, होते नहीं महान।।
12
एक छोर पर ख्वाहिशें, दूजे पर औ$कात।
जिनमें फँसकर रह गये, जन, जीवन, जज्बात।।
13
उल्टी-सीधी बेतुकी, अगर करेगा बात।
होना तेरा लाजमी, दुनिया में कुख्यात।।
14
चाहे तो जड़ लीजिए, सोने में श्रीमान।
दर्पण झूठ न बोलता, सच का करे बखान।।
15
सूरत से तासीर की, मुश्किल है पहचान।
मिश्री हो या फिटकरी, दिखतीं एक समान।।
16
औरों को ओछा समझ, निज को कहे महान।
पंडित के पांडित्य का, तब ही घटता मान।।
17
खाने लग जाये अगर, स्वयं फसल को बाड़।
होना है फिर तो वहाँ, निश्चित समझ उजाड़।।
18
खाया जिसने तामसी, जीवन भर आहार।
कैसे होंगे फिर बता, उसके शुद्व विचार।।
19
आते हैं इस देश में, जब भी पास चुनाव।
हिचकौले खाने लगे, सहिष्णुता की नाव।।







Tuesday, September 10, 2019

टीकम चन्दर ढोडरिया के दोहे

टीकम चन्दर ढोडरिया के दोहे

धर्म सत्य की है डगर, सद्गुण का आगार।
हम मूरख करने लगे, उसका ही व्यापार।।
2
बूँदे बरसी रात भर, उठी धरा से गंध।
हरियाएँ फिर से सखी, सुप्त हुए संबंध।।
3
सुबह हिलें इस द्वार पर, शाम हिलें उस द्वार।
आज काइयाँ दौर में, दुमें बनी हथियार।।
4
जाता हूँ जब-जब कभी, मैं पुरखों के गाँव।
लिपट-लिपट जाती सखे, माटी मेरे पाँव।।
5
आजादी का अर्थ हम, समझे नहीं हुज़ूर।
पहले भी मजदूर थे, अब भी हैं मजदूर।।
6
संसाधन लूटे सभी, लूटे पद सम्मान।
हमने अपने हित रचे, सारे नियम विधान।।
7
राजतंत्र से है बुरा, आज तंत्र का रूप।
दो कोड़ी के आदमी, बने फिरे हैं भूप।।
8
खेत बिके जंगल कटे, गयी नदी भी सूख।
गाँवों को नित डस रही, महानगरिया भूख।।
9
काँकड़ से पहुँची नज़र, ज्यों ही मेरे गाँव।
अगवानी को आ गयी, यादें नंगे पाँव।।
10
कभी किया विष-पान तो, कभी पिया मकरंद।
हर पल का लेता रहा, जीवन में आनंद।।
11
सच का मैंने सच लिखा, लिखा झूठ को झूठ।
राजाजी चाहे भले, जायें मुझ से रूठ।।
12
यादों से भीगे हुए, महके-महके राज।
बहा दिये मैंने सभी, $खत दरिया में आज।।
13
जाति मनुज की सब कहें, सबसे उत्तम खास।
उसने ही सबसे अधिक, किया धरा का नाश।।
14
माना होती है कला, ईश्वर का वरदान।
मिलता है पर अब कहाँ, कलाकार को मान।।
15
आँखों पर जाले नहीं, ना मन में है चोर।
कैसे कह दें रात को, बोलो उजली भोर।।
16
औरों की तो बात क्या, तन भी जाता छूट।
जाने है सब कुछ मनुज, फिर भी करता लूट।।
17
मेडें़ सिमटी खेत की, कुएँ हुए वीरान।
आबादी ने डस लिए, सभी खेत-खलिहान।।
18
टूटी हैं कसमें कहीं, किया किसी ने याद।
आयी फिर से हिचकियाँ, मुझको बरसों बाद।।
19
बाँच सको तो बाँच लो, उसके उर की पीर।
अश्कों से लिक्खी हुयी, गालों पर तहरीर।।
20
स्वेद बिंदुओं ने लिखी, पाषाणों पर पीर।
फुरसत हो तो बाँच लें, आओ यह तहरीर।।
21
रोता है पहले सखे, कवि उर सौ-सौ बार।
तब पीड़ा के छंद का, होता है शृंगार।।

विकास रोहिल्ला प्रीत के दोहे

विकास रोहिल्ला प्रीत के दोहे

दृश्य देखकर मंच भी, आज हुआ हैरान।
चंद चुटकुले ले गये, कविता का सम्मान।।
2
भरी कचहरी झूठ ने, किए वार पर वार।
घुटनों के बल आ गया, सच का ताबेदार।।
3
नये दौर में, जी रहे, लेकर सब अवसाद।
सन्नाटों से कर रहे, देखो अब संवाद।।
4
नहीं समझता मर्म को, लिखे काल्पनिक पीर।
देखो बनना चाहता, वो भी आज कबीर।।
5
जंगल में तब्दील है, बस्ती का माहौल।
मूल्यों का उडऩे लगा, अब तो यहाँ मखौल।।
6
थकी-थकी-सी भोर है, भरी उदासी साँझ।
मुस्कानों की तितलियाँ, अब लगती हैं बाँझ।।
7
किसको हम अपना कहें, किसको गैर ज़नाब।
मिलता हर कोई यहाँ, पहने हुए न$काब।।
8
ज़हनों में चालाकियाँ, उर में मिलती घात।
बस्ती से अच्छे मिले, जंगल के हालात।।
9
झूठी हैं खुशियाँ सभी, मिथ्या है मुस्कान।
लिए उदासी घूमता, देखो हर इंसान।।
10
नारी को जिसने सदा, समझा एक शरीर।
वो क्या जानेगा भला, उसके मन की पीर।।
11
राजनीति के ताल में, होगी तेरी जीत।
घडिय़ालों के सीख ले, तौर-तरीके मीत।।
12
ज़हनों में चालाकियाँ, उर में मिलती घात।
जंगल जैसे हो गए, बस्ती के हालात।।
13
गश्त $गमों की बढ़ चली, खुशियों की हड़ताल।
सदियों की ले वेदना, बीत रहे हैं साल।।
14
दिवस लगे हैं हाँफने, थककर बैठी रैन।
अंधी-बहरी दौड़ ने, छीना मन का चैन।।
15
उड़ती हैं अब चिंदियाँ, उड़े रोज उपहास।
सच रफ पुर्जे-सा हुआ, कोई न रखे पास।।
16
नमक छिडक़ना ही रहा, दुनिया का दस्तूर।
कर देती है घाव को, देख बड़ा नासूर।।
17
शेर लोमड़ी, तेंदुए, बिच्छू साँप सियार।
जंगल में चलती सदा, धूर्तों की सरकार।।
18
सोने से तोलो नहीं, दिल के ये जज्बात।
बेशकीमती है सखे, आँखों की बरसात।।
19
तोड़ रही है बेडिय़ाँ, काट रही जंजीर।
नारी अब लिखने लगी, खुद अपनी तकदीर।।
20
पीड़ा की है रागिनी, दर्द भरा है राग।
जाने कैसी वेदना, लेकर आया फाग।।
21
दर्द छुपाता जो रहा, मुख पर ले मुस्कान।
जीवन मे उसका सदा, ऊँचा रहा मचान।।
22
मुस्कानों की याद में, रहे पालते पीर।
हमने तोड़ी ही नहीं, यादों की जंजीर।।
23
जश्र हुआ जब झूठ का, लगे ठहाके खूब।
सच की ऐसी दुर्दशा, जैसे कुचली दूब।।
24
टूट गईं सब डालियाँ, चटके सारे फूल।
अदा तुम्हारी जि़न्दगी, ये भी हमें कबूल।।
25
सीलन से कमरा भरा, आँखों ठहरा नीर।
अन्तर्मन की शाख पर, घाव बहुत गम्भीर।।
26
देख जरा-सा भी हिले, भाई अपना नीड़़।
तभी तमाशा देखने, आ जाती है भीड़।।
27
उतर गया है प्रीत का, रिश्तों से अब ताप।
लिए वेदना मौन की, सभी खड़े चुपचाप।।
28
जिह्वा पर तो मौन है, अंतर्मन में नाद।
जीने के आदि हुए, लेकर हम अवसाद।।
29
लोग यहाँ छलने लगे, करके मीठी बात।
मुख पर तो अपने बनें, करें पीठ पर घात।।
30
मरहम होती बेटियाँ, हर लेती हैं पीर।
मन को ये शीतल करें, चंदन-सी तासीर।।
31
निभर्य घूमें भेडि़ए, हिरनी हैं भयभीत।
बस्ती में भी आ गई, जंगल की यह रीत।।
32
तोड़ रही है बेडिय़ाँ, काट रही जंजीर।
नारी खुद ही लिख रही, अब अपनी तकदीर।।