विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Showing posts with label छंद. Show all posts
Showing posts with label छंद. Show all posts

Tuesday, September 10, 2019

वैशाली चतुर्वेदी के दोहे

वैशाली चतुर्वेदी के दोहे

कैसी मंगल की दशा, कैसी शनि की चाल।
रहना पृथ्वी पर हमें, चलो सुधारें हाल।।
2
कितने भी धारण करो, मूंगा पन्ना रत्न।
श्रम बिन कुछ हासिल नहीं, हैं फिजूल ये यत्न।।
3
सब ने पूजा चाँद को, छत पर था उल्लास।
सूने कमरे में मगर, विधवा रही उदास।।
4
तन्हाई से डर नहीं, लगी डराने भीड़।
जाने कब किस बात पर, उजड़े किसका नीड़।।
5
साँकल सूने द्वार की, आहट को बेचैन।
बूढ़ा पीपल गाँव का, तरस रहा दिन रैन।।
6
नेताजी के शेर पर, संसद में था शोर।
बेटी के अधिकार पर, खामोशी हर ओर।।
7
अधिकारों की माँग पर, मिलते हैं आघात।
बेटी कैसे बच सके, ऐसे जब हालात।।
8
आँगन से जो थे जुड़े, खत्म हुए व्यवहार।
ऊन सलाई क्रोशिया, पापड़ बड़ी अचार।।
9
थाली में भोजन नहीं, छत भी नहीं नसीब।
आजादी के जश्र को, देखे मूक गरीब।।
10
धीरे-धीरे ही सही, बदला जीवन रूप।
यादों में ही रह गई, आँगन की वो धूप।।
11
शामिल होकर भीड़ में, नहीं मिलाते ताल।
सच का पथ हमने चुना, चलते अपनी चाल।।
12
मीरा-सी पीड़ा कहाँ, जो कर ले विषपान।
इस तकनीकी दौर में, भाव हुए बेजान।।
13
भाई-भाई के लिए, होगा तभी अधीर।
जब दिल से महसूस हो, उसके दिल की पीर।।
14
उनके हक में भी लिखो, जिनके खाली हाथ।
सफल वही है लेखनी, जो है सच के साथ।।
15
शायर जी चुन कर कहें, कुछ मुद्दों पर शेर।
जोड़-जोड़ कर रख रहे, सम्मानों के ढेर।।
16
अधिकारों की माँग पर, मिलते हैं आघात।
बेटी कैसे बच सके, ऐसे जब हालात।।
17
आँसू सूखे आँख में, लिए बर्फ-सी पीर।
झील शिकारे देखते, सूना-सा कश्मीर।।
18
कैसे कर दे लेखनी, सत्ता का गुणगान।
जिसमें निर्धन पिस रहा, पनप रहा धनवान।।
19
नहीं जानता योग वो, नहीं जानता ध्यान।
श्रम ही जिसकी साधना, उसका नाम किसान।।

अरुण कुमार निगम के दोहे

अरुण कुमार निगम के दोहे

काट नहीं सकता अगर, कम से कम फँुफकार।
तब तेरे अस्तित्व को, जानेगा संसार।।
2
स्वर्ण जडि़त पिंजरे मिले, पंछी मद में चूर।
मालिक के गुण गा रहे, खा कर नित अंगूर।।
3
बच्चे बिलखें भूख से, पाषाणों को दुग्ध।
ऐसी श्रद्धा देखकर, क्या प्रभु होंगे मुग्ध।।
4
बिके मेघ कुछ कैद हैं, कुछ हैं कहीं फरार।
चार दिनों में गिर गई, सावन की सरकार।।
5
वंचित की आवाज़ को, जिसने किया बुलंद।
शासक ने फौरन उसे, किया जेल में बंद।।
6
ले दे के थे जी रहे, जाग गई तकदीर।
ले दे के मुखिया बने, ले दे हुए अमीर।।
7
वे कहते कुछ और हैं, करते हैं कुछ और।
खिला रहे हैं आँकड़े, बना-बना कर कौर।।
8
भोग रहे हैं कर्मफल, कर के अति विश्वास।
है विनाश चहुँ ओर अब, दिखता नहीं विकास।।
9
नहीं सुहाता आजकल, शब्दों में मकरंद।
इसीलिए लिखता अरुण, कटु सच वाले छंद।।
10
अजगर जैसे आज तो, शहर निगलते गाँव।
बुलडोजर खाने लगे, अमरइया की छाँव।।
11
अंधियारे पर बैठकर, सिर पर रखता आग।
उजियारा तब बाँटता, धन्य दीप का त्याग।।
12
वृक्ष कटे छाया मरी, पसरा है अवसाद।
पनपेगा कंक्रीट में, कैसे छायावाद।।
13
पौष्टिकता लेकर गई, भाँति-भाँति की खाद।
सब्जी और अनाज में, रहा न मौलिक स्वाद।।
14
आहत मौसम दे रहा, रह रह कर संकेत।
किसी नदी में बाढ़ है और किसी में रेत।।
15
वे कहते कुछ और हैं, करते हैं कुछ और।
खिला रहे हैं आँकड़े, बना-बना कर कौर।।
16
वन उपवन खोते गए, जब से हुआ विकास।
सच पूछें तो हो गया, जीवन कारावास।।
17
मनुज स्वार्थ ने मेघ धन, लिया गगन से छीन।
सावन याचक बन गया, भादों अब है दीन।।
18
रोजगार का दम घुटा, अर्थ व्यवस्था मंद।
ऐसे में शृंगार पर, कैसे गाऊँ छंद।।
19
कुछ कहता है मीडिया, कुछ कहते हालात।
किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ, मानूँ किसकी बात।।
20
तंत्र मत्र षड्यंत्र से, बचकर रहना मित्र।
पग-पग पर माया खड़ी, दुनिया बड़ी विचित्र।।
21
एकलव्य कौन्तेय में, रखे न कोई भेद।
ऐसा गुरुवर ढूँढ़ता, अरुण बहा कर स्वेद।।
22
धनजल ऋणजल का गणित, सिखा रही बरसात।
दिखा रही इंसान की, कितनी है औकात।।
23
भोग रहे हैं कर्मफल, करके अति विश्वास।
है विनाश चहुँओर अब, दिखता नहीं विकास।।
24
प्रायोजित सम्मान हैं, इनका क्या है मोल।
इन्हें दिखाकर बावरे, मत पीटाकर ढोल।।
25
राज हमारा है कहाँ, अब हैं हम भी दास।
दिल्ली भेजा था जिन्हें, तोड़ चुके विश्वास।।
26
अब कलियुग जीवंत है, संत लूटते लाज।
सत्य उठाता सिर जहाँ, गिरे वहीं पर गाज।।
27
कोठी आलीशान है, सम्मुख हैं दरबान।
जन सेवक के ठाठ को, देख सभी हैरान।।
28
मूढ़ बने विद्वान हैं, आज ओढक़र खाल।
इसीलिए साहित्य का, बहुत बुरा है हाल।।

Monday, September 9, 2019

मास्टर रामअवतार के दोहे

मास्टर रामअवतार के दोहे

गाथा गाओ भूप की, मिले बड़ी जागीर।
या मर जाओ भूख से, बनकर संत कबीर।।
2
देखो आरा चल रहा, होते पेड़ हलाल।
हत्या करता माफिया, शामिल रहें दलाल।।
3
नारी की महिमा लिखी, खूब किया गुणगान।
मगर कागजों में मिला, है उसको सम्मान।।
4
ज्ञानी, ज्ञाता था बड़ा, सर्वश्रेष्ठ विद्वान।
उस रावण को अंत में, ले डूबा अभिमान।।
5
गाए जब फनकार ने, जा दरबारी राग।
पद पैसा दोनों मिले, धुले पुराने दाग।।
6
आग लगे इस आग को, जो बदले की आग।
स्वाह करे, सब कुछ हरे, सुलगें सावन फाग।।
7
वर्षा हुई किसान के, मुखड़े पर थी आब।
मगर वही दुख दे गई, बनकर के सैलाब।।
8
सच होता कड़वा बहुत, मत कह सच्ची बात।
वरना प्यारे मित्र भी, कर जाएँगे घात।।
9
जान बूझ परिवेश में, लगा रहे हम आग।
वृक्ष काट कंक्रीट के, लगा दिए हैं बाग।।
10
ऑडी गाड़ी में चलें, आलीशान मकान।
रहें बगल में रूपसी, लोग कहें भगवान।।
11
इतना भी तो मत बना, मालिक उन्हें गरीब।
लाशों को भी हो नहीं, जिनकी क$फन नसीब।।
12
रोगों की मिलती दवा, ले लेता इन्सान।
अंधभक्ति वह रोग है, जिसका नहीं निदान।।
13
भीड़ जुटी मजमा लगा, मगर सभी थे मौन।
कातिल पूछे दो बता, मार गया है कौन?
14
मर्यादा को त्याग कर, देते गहरे घाव।
वे जालिम इस दौर में, जीतें सभी चुनाव।।
15
करनी है गर नौकरी, नखरा करना छोड़।
इच्छाओं का कर दमन, गम से नाता जोड़।।
16
रक्षक ही खुद खेलते, भक्षक वाला खेल।
दीवारें बनती सदा, नारी खातिर जेल।।
17
जहाँ धर्म के नाम पर, होता धन बबार्द।
हिल जाती उस देश की, नीचे तक बुनियाद।।
18
धरती धन पोशाक का, था बेहद शौकीन।
अंत कफन से तन ढका, दो गज मिली ज़मीन।।
19
गई हमारी नौकरी, लोग पूछते हाल।
मुझको लगता घाव पर, नमक रहे हैं डाल।।
20
मिटा दिया है आपने, अब तो भ्रष्टाचार।
केवल सुविधा शुल्क है, दो के बदले चार।।
21
रूह लगी है काँपने, देख संत का भेष।
लूट ले गया अस्मिता, छोड़ी काया शेष।।
22
दुनिया को देते रहे, जीवन भर उपदेश।
संतति को ना दे सके, सुखद सत्य संदेश।।
23
खाओ गोश्त गरीब का, जैसे पूरी खीर।
प्यास मिटाओ रक्त से, धन से अगर अमीर।।






सुबोध श्रीवास्तव के दोहे

सुबोध श्रीवास्तव के दोहे

जानें यह संसार का, कैसा अजब उसूल।
दुर्जन तो हैं मौज में, सज्जन फाँकें धूल।।
2
चाहे कितनी बार भी कर दो तुम संहार।
गाँधी करते हैं नहीं, कोशिश करो हज़ार।।
3
पण्डित ने गीता पढ़ी, मुल्ला ने कुरआन।
मन ही मन में कर लिया, हमने माँ का ध्यान।।
4
वाणी से टपके सुधा, मन में भरा गुरूर।
सज्जनता ऐसी भला, किसको है मंज़ूर।।
5
कितनी भी तब्दीलियाँ, कर ले यह संसार।
अपनी ही रफ्तार से, बहे समय की धार।।
6
हिंसा मुक्त समाज पर, नेता बाँटें ज्ञान।
अपराधी बेखौ$फ हैं, डरा-डरा इन्सान।।
7
सर्दी का मौसम रहे, या गरमी बरसात।
राम-राम करके कटें, निर्धन के दिन-रात।।
8
सारा ही सामथ्र्य था, मुखिया जी के पास।
वादे ही करते रहे, किया नहीं कुछ खास।।
9
मन में तो विष है भरा, रखें सुधा की चाह।
कैसे सुखमय हो भला, उनकी जीवन राह।।
10
महँगाई जालिम करे, रोज वार पर वार।
निर्धन के परिवार का, जीना है दुश्वार।।
11
दुनिया में कोई नहीं, है ऐसी तदबीर।
चाल समय की रोक दे, बदल सके तकदीर।।
12
सब अपने में ही रमें, देखें अपनी पीर।
बतलाओ कैसे मिलें, जग को नए कबीर।।
13
मेरी बातों पर भला, वह करता क्यों गौर।
उसका मत कुछ और था, मेरा था कुछ और।।


डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दोहे

उनके अपने हित सधे, तोड़ गये जज्बात।
जिनके हम सम्मान में, मगन रहे दिन रात।।
2
नीति-न्याय बौने हुए, छलका नेह अगाध।
द्रौण अँगूठा ले गये, अर्जुन का हित साध।।
3
तुम प्रपंच, तुम झूठ हो, मैं जीवित विश्वास।
तुम सत्ता के बुलबुले, मैं शोषित की आस।।
4
मैं बैठा इस ठौर जब, वह बैठा उस ठौर।
आपस की त$करार में, जीता कोई और।।
5
सूरज को अब रोकिए, नहीं सहूँगा ताप।
सावन शिकवा कर रहा, मेघ सुनें चुपचाप।।
6
रोज बिछाते गोटियाँ, रोज खेलते दाँव।
जिन्हें सिखाया दौडऩा, काट रहे वे पाँव।।
7
मेरी-उसकी मित्रता, कब तक चलती यार।
चॉकलेट का केक मैं, वह चाकू की धार।।
8
बढ़ी आँख की रोशनी, फूले पिचके गाल।
बेटे ने परदेस से, पूछा माँ का हाल।।
9
आते हैं जब सामने, करें न कोई बात।
मोबाइल से भेजते, संदेशे दिन रात।।
10
राजा अपने काम का, करता रहा बखान।
सच से कोसों दूर थे, उसके दोनों कान।।
11
राह कँटीली हो भले, जीत मिले या हार।
आजीवन हमने किया, संकल्पों से प्यार।।
12
की घंटों लफ्$फाजियाँ, जिसने सीना तान।
आज मंच पर फिर हुआ, उसका ही सम्मान।।
13
जिप्सी क$फ्र्यू सायरन, आज़ादी का जश्र।
कब टूटेंगी चुप्पियाँ, शहर पूछता प्रश्र।।
14
सबने तय जब कर लिया, बदलेंगे सरदार।
राजा ने तब फिर गढ़ा, एक नया किरदार।।
15
अम्बर में ऊँचे उडूँ, तो भी रहूँ कबीर।
पैरों तले ज़मीन हो, जि़न्दा रहे ज़मीर।।
16
पढक़र उसने चुटकुले, दे दी सबको मात।
फूट-फूट रोती रही, कविता सारी रात।।
17
बुना भूख ने जाल यों, समझ न पाया चाल।
सत्ता के पट बन्द थे, बुधिया मरा अकाल।।
18
सम्मेलन में मसखरे, चला रहे हैं तीर।
इक-दूजे को कह रहे, तुलसी सूर कबीर।।
19
शब्द-शब्द मोती मिले, अक्षर-अक्षर भोग।
राजा के गुणगान का, लगा कलम को रोग।।
20
कलम भूप के सामने, जब-जब करती योग।
शील्ड शाल ईनाम का, बन जाता संजोग।।
21
भ्रष्ट आचरण भुखमरी, शोषण साजिश घूस।
कुर्सी सदियों से रही, आमजनों को चूस।।
22
कलुष नहीं होगा नहीं, होगी केवल प्रीत।
लिखती रहना लेखनी, मानवता के गीत।।
23
बच्चों को रोटी मिले, नेह मनाये गेह।
जैसे फिरकी नाचती, नाच रही है देह।।
24
हत्या डाका रेप के, जिन पर ढेरों केस।
वही जीतते अब यहाँ, भीड़तंत्र की रेस।।
25
मिलन विरह अनुभूतियाँ, मिथ्या थे संकल्प।
नेह पराया हो गया, आये नये विकल्प।।
26
कब तक उनको हम गुनें, कब तक करें प्रणाम।
संत वेष में भेडि़ए, बोल रहे हैं राम।।
27
कल के जैसा आज है, कल वाली ही चाल।
पाण्डव जंगल में फिरें, शकुनी मालामाल।।
28
तब पासे का खेल था, अब गाली बंदूक।
मदद माँगती द्र्रौपदी, सभा आज भी मूक।।
29
सूखे पोखर ताल हैं, पशु पक्षी बेचैन।
ज़र्रा-ज़र्रा जानता, किसने छीना चैन।।









राजपाल सिंह गुलिया के दोहे

राजपाल सिंह गुलिया के दोहे

याद करे क्या जानकी, राम दशानन नेह।
इक मन में थी वासना, दूजे में संदेह।।
2
दया धर्म सद्भाव के, जो थे ठेकेदार।
आज वही हैं फिर रहे, लहराते हथियार।।
3
हालत मेरी जानते, फिर भी पूछें हाल।
कुछ ऐसे भी खींचते, लोग बाल की खाल।।
4
पिता पुत्र बोलें नहीं, सास बहू में रार।
कदम-कदम मिलने लगे, अब ऐसे परिवार।।
5
अर्थ लालसा कर रही, रिश्तों से खिलवाड़।
बुढिय़ा यौवन काल के, किस्से रही उघाड़।।
6
लोकतंत्र बस सिर गिने, देखे सिफ्त न खोट।
मैं भी इसमें वोट हूँ, तू भी इसमें वोट।।
7
दया धर्म सद्भाव के, जो थे ठेकेदार।
आज वही हैं फिर रहे, लहराते हथियार।।
8
बहुतेरे कहते मिले, क्या जाएगा साथ।
लेकिन मिला न एक भी, धरे हाथ पर हाथ।।
9
कोसो मत सरकार को, देखो अपना खोट।
किस लालच में डालकर, आये उस दिन वोट।।
10
आया है बदलाव का, जन में अनुपम दौर।
सुबह बात कुछ और थी, मिली शाम कुछ और।।
11
दूर नज़र से कर भले, दिल से नहीं निकाल।
जुड़ते कब फिर पात वो, तज दे जिनको डाल।।
12
फैला आज समाज में, खुदगर्जी का रोग।
फँूक झोपड़ा गैर का, चिलम भरें अब लोग।।
13
ऊँची पदवी आपकी, बड़ा आपका नाम।
लेकिन आती लाज है, देख आपके काम।।
14
निर्दोषी को दोष दें, करें मूढ़ का मान।
बिन माँगी जो सीख दे, अहम$क वे इंसान।।
15
इनको धन का गर्व तो, उनको रूप गुमान।
नाज़ किसी को ज्ञान पर, दंभी हर इंसान।।
16
रख लो अपने पास ही, राजा जी सौगात।
सबको खुश रखना नहीं, मेरे वश की बात।।
17
कटी तिमिर में जि़ंदगी, देखा नहीं चिराग।
वंशज उनके गा रहे, हैं अब दीपक राग।।
18
दिल को भी राहत मिली, मिली चैन की स्वाँस।
आखिर दिया निकाल ही, आज फाँस से फाँस।।
19
दुविधा में अब सत्य है, चुने कौन-सी राह।
लिए आँकड़े झूठ के, अड़ी खड़ी अफवाह।।
20
कैसे हम इकरार का, मानें यार सुझाव।
रँगे हाथ ये आपके, हरा हमारा घाव।।
21
जाने किस सैलाब की, जोह रहे वे बाट।
नदी किनारे बैठकर, ओस रहे हैं चाट।।
22
लोक लाज ने इस तरह, किया हृदय लाचार।
चाहत भी भयभीत थी, दुविधा में इजहार।।






त्रिलोक सिंह ठकुरेला के दोहे

त्रिलोक सिंह ठकुरेला के दोहे
कुछ दिन दुख के आ गये, क्यों करता है खेद।
कौन पराया, कौन निज, खुल जायेगा भेद।।
2
हम दोनों के बीच में, क्या उपमा, उपमान।
तुम मधु ऋतु की वाटिका, मैं मरु का उद्यान।।
3
मन में सौ डर पालकर, किसको मिलती जीत।
शिखरों तक वे ही गये, जो न हुए भयभीत।।
4
चाहे सब अनुकूल हो, चाहे हो प्रतिकूल।
जीवन के हर मोड़ पर, रखना साथ उसूल।।
5
उसका सरल स्वभाव है, लोग कहें मतिमंद।
इस कारण वह आजकल, सीख रहा छलछंद।।
6
अधरों पर मुस्कान है, मन में गहरी पीर।
होठों पर ताला जड़े, रिश्तों की जंजीर।।
7
खुद ही विष विपणन करे, खुद ढूँढ़े उपचार।
नई सदी की सोच में, जीवन है बाज़ार।।
8
कीमत नहीं मनुष्य की, मूल्यवान गुण बोल।
दो कौड़ी की सीप है, मोती है अनमोल।।
9
कौन महत्तम, कौन लघु, सबका अपना सत्व।
सदा जरूरत के समय, जाना गया महत्त्व।।
10
जीवन के इस गाँव में, ठीक नहीं आसार।
मुखिया के संग हर घड़ी, गुंडे हैं दो चार।।
11
बहुत अधिक बदली नहीं,नारी की तस्वीर।
उसके हिस्से आज भी, आँसू आहें पीर।।
12
बतरस हुआ अतीत अब, हास हुआ इतिहास।
यह नवयुग की सभ्यता, तकनीकों की दास।।
13
गायब है वह बतकही, वह आँगन की धूप।
नई सदी की जि़न्दगी, बदल चुकी है रूप।।
14
दर्पण जैसा ही रहा, इस जग का व्यवहार।
जो बाँटे जिस भाव को, पाये बारम्बार।।
15
नयी पीढिय़ों के लिए, जो बन जाते खाद।
युगों-युगों तक सभ्यता, रखती उनको याद।।
16
मृग मरीचिका दे सकी, जग को तपती रेत।
जीवन के संदर्भ हैं, फसलों वाले खेत।।
17
सब अपने दुख से दुखी, सब ही दिखे अधीर।
कौन सुने किससे कहें, अपने मन की पीर।।
18
मॉल खड़ा है गर्व से, लेकर बहुविधि माल।
स्वागत पाता, जो वहाँ, सिक्के रहा उछाल।।
19
रात-दिवस, पूनम-अमा, सुख-दुख, छाया-धूप।
यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप।।
20
इतनी सारी उलझनें, जीवन है जंजाल।
उगते खरपतवार से, हर दिन नये सवाल।।
21
दुनिया में मिलता नहीं, कुछ भी बिना प्रयत्न।
गहरे सागर में छिपे, मोती, मणि,नग, रत्न।।
22
जो समर्थ उनके लिए, अगम कौन-सी बात।
खारे सागर से करे, सूरज मृदु बरसात।।
23
जीवन के बाज़ार में, गिरे अचानक भाव।
रिश्तों की चौपाल पर, ठंडे पड़े अलाव।।
24
भौतिकवादी सभ्यता, बाँट रही अवसाद।
रिश्तों की वह मधुरता, किसे रही अब याद।।
25
संसाधन की होड़ को, कैसे कहें विकास।
मिलता नैतिक मूल्य को, हर दिन ही वनवास।।
26
जीवन से गायब हुआ, अब निश्छल अनुराग।
झाड़ी उगीं विषाद की, सूखे सुख के बाग।।
27
जब से सीमित हो गए, खुद तक सभी विकल्प।
जीवन से गायब हुए, सुखपूरित संकल्प।।
28












सत्यवीर 'नाहडिय़ा' के दोहे

सत्यवीर 'नाहडिय़ा' के दोहे
सच लिखती थी लेखनी, खतरे में थी जान।
इक दरबारी लेख से, मिले तीन सम्मान।।
2
बिना वर्तनी ज्ञान के, लिखी पुस्तकें तीस।
एक पेज में गलतियाँ, करते बस दस बीस।।
3
नाम देख लाइक करें, बिना पढ़े झट वाह।
ऐसे मित्रों ने किया, रचनाकर्म तबाह।।
4
मात-पिता हैं खाट में, बिना दवा बदहाल।
कावड़ लेने है गया, इकलौता ही लाल।।
5
भागदौड़ के दौर में, लोक हुआ बेढंग़।
सावन के झूले गए, फागुन के सब रंग।।
6
चहक उठें फिर वादियाँ, महक उठे परिवेश।
अमन-चैन जिंदा रहे, एक रहे यह देश।।
7
जनता को देने लगे, नेता जी यदि भाव।
ऐसा है तो मानिए, आए निकट चुनाव।।
8
कलयुग के इस दौर में, दरका है विश्वास।
इज्जत उसने लूट ली, जो था खासमखास।।
9
खपना होगा आप ही, रचना $गर इतिहास।
खुद में शामिल है खुदा, खुद में रख विश्वास।।
10
त्योहारों के बीच कल, आता था बाज़ार।
बाज़ारों के बीच अब, आते सब त्योहार।।
11
न्यायालय भी मौन हैं, क्या अब करें उपाय।
मिले वहाँ तारीख बस, मिले कहाँ कब न्याय?
12
फेसबुकी इस दौर में, यारों का यह सार।
वक्त पड़े पर एक ना, वैसे पाँच हजार।।
13
कोठी बँगला कार है, प्लॉट फ्लैट जागीर।
धेले की इज्ज़त नहीं, कैसे कहूँ अमीर।।
14
चुप हैं तुलसी-जायसी, कबिरा भी है मौन।
कालजयी दोहे कहो, आज लिखेगा कौन?
15
घर कच्चे थे जब सुनो, थे सब पक्के लोग।
घर जब से पक्के हुए, उलट हुआ संजोग।।
16
पत्रकारिता थी मिशन, आज हुई व्यापार।
लिखते थे दमदार वो, लिखते अब दुमदार।।
17
बिना बताये आपका, दर्द सदा ले जान।
मतलब के संसार में, उसको अपना मान।।
18
आदर सबका कीजिए, पर इतना हो ध्यान।
आँटी, मौसी से अधिक, हो माँ का सम्मान।।






सुवेश यादव के दोहे

सुवेश यादव के दोहे

पूँछ हिलाने लग गए, आगे पीछे श्वान।
भीखू चाचा गाँव के, जब से हुए प्रधान।।
2
मु_ी का जुगनू मरा, शोक करूँ या जश्र।
राजमहल की रोशनी, से मेरा यह प्रश्र।।
3
हँस मत रे अट्टालिके, तेरी क्या औ$कात।
जाग चुकी है झोपड़ी, देगी तुझको मात।।
4
रहा भरोसे वक्त के, होता रहा निराश।
कैंची उसके पास है, कतरन अपने पास।।
5
पूजन हवन उपासना, सबमें है बाज़ार।
सोशल से डिजिटल हुए, भारत के त्योहार।।
6
उपयोगी तकनीक का, करते गलत प्रयोग।
तितली के पर नोचकर, खुश होते हैं लोग।।
7
जय जय बोलें शेर की, गीदड़ से आदाब।
इतने बौने हो गए, वर्दी वाले साब।।
8
राजघरानो छोड़ दो, रक्तपान की चाह।
ले डूबेगी आपको, झोपडिय़ों की आह।।
9
झर-झर बूँदें झर रहीं, सुन्दर सुघर सुवेश।
माना पावस सुन्दरी, झटके गीले केश।।
10
क्यों करते हो दिल्लगी, दिल्ली के महबूब।
गाँव सियाना हो गया, तुम्हें समझता खूब।।
11
सागर समझी है जिसे, है वो गंदा ताल।
मछली! तू नादान है, नहीं समझती चाल।।
12
जंक फूड की चाह ने, छीनी रोटी दाल।
चूल्हा ठंडी राख से, कहता दिल का हाल।।
13
तेरा $कद भी कम नहीं, मत हो अभी निराश।
अरी झोपड़ी! छोड़ दे, राजमहल से आस।।
14
सैलानी परदेश का, गाथा करे बखान।
भारत की पहचान है, मरता हुआ किसान।।
15
कंगूरों पर है लिखा, चारण जी का नाम।
छुपी नींव की ईंट-सा, जनकवि है गुमनाम।।
16
गैया ने बछिया जनी, छाया था आनंद।
मैया ने बिटिया जनी, मुँह के ताले बंद।।
17
अपनी मिट्टी पर उसे, कैसे होगा नाज़।
जिसने पहना ही नही, खुद्दारी का ताज।।
18
ओ रे मांझी! छोड़ दे, दुविधा की पतवार।
मन में है विश्वास तो, हारेगी मझधार।।
19
उजियारे भी बाँटते, अलग-अलग परिणाम।
कुछ के हिस्से चाँदनी, कुछ से हिस्से घाम।।
20
मुआ मदारी दे गया, फिर नकली ताबीज़।
बदले में लेकर गया, बहुत कीमती चीज़।।
21
परदे पर तो दिख रहा, पर्वत-सा मजबूत।
लेकिन असली जि़ंदगी, इक कुचला शहतूत।।
22
किससे अपना दुख कहें, किससे जोड़ें प्रीत।
भय होता है देखकर, जग की उल्टी रीत।।