विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Sunday, March 18, 2012

सम्पादकीय में दोहा

15 मार्च के "दैनिक ट्रिब्यून" के सम्पादकीय में 'नागफनी के फूल' का एक दोहा कोट किया गया है| सम्पादकीय का शीर्षक भी इसी के दोहे की पंक्ति है/

सरकारें आयीं-गयीं, भूखा रहा अवाम!

Posted On March - 18 - 2012

वर्ष 2011 की जनगणना के दौरान जुटाये गये आंकड़ों से भारत की जो तसवीर उभरती है, वह देश को शर्मसार करने वाली है। शाइनिंग इंडिया, विश्व की चौथी बड़ी आर्थिक शक्ति और न जाने ऐसे तमाम जुमलों से देश की जनता को बहलाने वाले राजनेता किस तरह सच्चाई पर पर्दा डालते रहे हैं, उसकी हकीकत ये आंकड़े बयां करते हैं। देश की आधी आबादी के पास शौचालयों का न होना राष्ट्रीय शर्म का विषय ही कहा जा सकता है। कई राज्यों खासकर झारखंड में यह आंकड़ा 70 फीसदी दर्ज किया गया है। इसके मूल में आर्थिक मजबूरी, परंपरागत कारण व अशिक्षा निहित है। विडंबना देखिये कि पचास फीसदी जनता के पास मोबाइल तो हैं लेकिन पचास फीसदी जनता के पास शौचालय नहीं है। देश के 48 फीसदी लोगों के घर में जल निकासी की व्यवस्था नहीं हैं। विडंबना यह भी है कि 36 फीसदी लोग एक कमरे के मकान में रहते हैं। ऊंची-ऊंची विकास दर के दावों के बावजूद नंगी हकीकत यह भी है कि देश में मात्र 4.7 फीसदी लोगों के पास चौपहिया वाहन हैं और 44 फीसदी लोगों के यातायात का साधन साइकिल है। ये आंकड़े देश में लोकतंत्र की असली तसवीर दिखाते हैं कि लूटतंत्र में तबदील हो चुके लोकतंत्र का फायदा वास्तव में किसे हो रहा है। इन आंकड़ों से उभरती तसवीर से आहत कवि रघुविंद्र यादव सटीक टिप्पणी करते हैं:-
बड़े-बड़े जलसे हुए, वादे हुए तमाम,
सरकारें आयीं गयीं, भूखा रहा अवाम।
जनगणना आयुक्त और रजिस्ट्रार जनरल सी. चंद्रमौली द्वारा जारी आंकड़े हमें बताते है कि ग्रामीण भारत की 62 फीसदी आबादी आज भी खाना बनाने के लिए लकड़ी के ईंधन का इस्तेमाल करती है, जबकि 28 फीसदी लोग ही खाना बनाने हेतु गैस का इस्तेमाल करते हैं। आंकड़ों का एक निष्कर्ष यह भी है कि आज विकास सिर्फ महानगरों व बड़े शहरों तक सिमट कर रह गया है। इनके निष्कर्ष यह भी हैं कि देश के विकास का मॉडल इस विभेद का कारक है, जो ग्रामीण समाज को हाशिये पर धकेल देता है। विकास के नाम पर उन्हें सिर्फ और सिर्फ आश्वासन ही मिले। जैसा कि कवि ज्ञानप्रकाश ‘विवेक’ लिखते भी हैं :-
आश्वासनों के घड़े में डालकर वादों का जल,
मुफलिसों की प्यास को इस तरह बहलाया गया।
दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार भारत के बारे में यह तथ्य चौंकाता है कि 2001 के मुकाबले चौपहिया वाहनों में 2.5 फीसदी के मुकाबले वृद्धि कुल 4.7 हो गई है। रोचक बात यह है कि शहरों व ग्रामीण इलाकों में दोपहिया वाहनों के प्रति रुझान बढ़ा है। देश के 21 प्रतिशत घरों में दोपहिया वाहन हैं, इसमें 9.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। यह भी कम चौंकाने वाली बात नहीं है कि आम आदमी का वाहन मानी जाने वाली साइकिल में 1.1 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। देश में 44.8 प्रतिशत घरों में साइकिल है। लेकिन शहरों में साइकिलों के प्रति रुझान घटा है। देश में लक्षद्वीप ऐसा संघीय शासित क्षेत्र है जहां साइकिल के प्रति लोगों में खासा रुझान है। तसवीर यह बताती है कि ऊंची-ऊंची विकास दरों और शेयर मार्केट की उछाल से आम आदमी का कोई सरोकार नहीं है। आम आदमी के दुख-दर्द और शेयर मार्केट की उछाल की विसंगति को कवि केशू कुछ इस तरह शब्द देता है :-
यहां भूख को लेकर बहस बेकार है शायद,
तरक्की का पैमाना शेयर बाजार है शायद।
जनगणना के आंकड़ों में सबसे चौंकाने वाली जानकारी यह सामने आई है कि देश में स्कूल-अस्पतालों से ज्यादा मंदिर-मस्जिद हैं। देश के पंजीयक एवं जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में शैक्षणिक संस्थान एवं अस्पताल 27.89 लाख हैं जबकि पूजास्थल 30 लाख से अधिक हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के मुकाबले धार्मिक स्थलों में तीव्र वृद्धि दर्ज हुई। इस अवधि में शैक्षणिक संस्थान व अस्पताल 6.7 लाख बढ़े, जबकि पूजास्थल 7.15 लाख बढ़े। विडंबना यह है कि अस्पताल करीब 80 हजार ही बढ़े जबकि शिक्षण संस्थान 6.5 लाख बढ़े। ये आंकड़े हमारी सोच तथा विकास की दशा व दिशा को दर्शाते हैं। ऐसे हालात को देखकर कवि उदयभानु ‘हंस’ लिखते हैं :-
हमने जितने थे बुने इंद्रधनुष के सपने,
चिथड़े हो गये सब विधवा के आंचल की तरह।
इन्हीं आंकड़ों के बीच खबर आई कि बसपा सुप्रीमो मायावती की संपत्ति 2007 के 52 करोड़ के मुकाबले 2012 में 111 करोड़ 64 लाख हो गई है। उनकी संपत्ति पिछले दो साल में 25 फीसदी की दर से बढ़ी है। उधर बिजनेस इनसाइडर की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के तमाम रईस राजनेताओं में सोनिया गांधी का नंबर चौथा है। साइट के मुताबिक कांग्रेस अध्यक्षा की संपत्ति 45 हजार करोड़ आंकी गई है। ये आंकड़े बताते हैं कि देश के राजनेता उत्तरोत्तर आर्थिक उन्नति कर रहे हैं, लेकिन आम आदमी हाशिये पर जा रहा है। आम आदमी के पास थोड़े पैसे आते हैं तो आयकर विभाग समेत तमाम विभाग छानबीन में जुट जाते हैं लेकिन बड़ी मछलियों पर कोई हाथ नहीं डालता। जैसा कि वसीम बरेलवी लिखते भी हैं :-
गरीब लहरों पे पहरे बिठाये जाते हैं,
समन्दरों की तलाशी कोई नहीं लेता।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि जनतंत्र में जब जन हाशिये पर जा रहा है और तंत्र फल-फूल रहा है देश की संसद में तीन सौ सांसदों का करोड़पति होना यही दर्शाता है कि देश में आर्थिक असमानता की क्या स्थिति है। एक तरफ आधी आबादी बीस रुपये रोज की आय पर गुजर-बसर कर रही है, वहीं दूसरी ओर अरबपतियों की बढ़ती संख्या गरीबी का मजाक उड़ा रही है। लेकिन इतना तो तय है कि हमारे सत्ताधीश जनमानस के सरोकारों के प्रति संवेदनहीन बने हुए हैं। यदि हमारे शासक आम आदमी की समस्याओं के प्रति गंभीर होते तो जनगणना के ये आंकड़े शर्मसार न करते। इसी हकीकत का बयां करते हुए कवि अंजुम सटीक टिप्पणी करते हैं :-
देश हो गया आपके, अब्बा की जागीर,
जैसे चाहे भोगिए, जनता हुई फकीर।

Wednesday, January 25, 2012

प्रतियोगिता का परिणाम

ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा आयोजित चित्र से काव्य प्रतियोगिता में हरियाणा के दोहाकार रघुविन्द्र यादव को तृतीय पुरस्कार मिला|  
राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन आयोजित इस प्रतियोगिता में देशभर के रचनाकारों ने भाग लिया और अपनी रचनाएं प्रस्तुत की| निर्णायक मंडल ने सभी रचनाओं का अवलोकन करने उपरांत श्री अरुण निगम की रचना को प्रथम और रघुविन्द्र यादव की रचना को तीसरा स्थान प्रदान किया|
श्री यादव को नगद पुरस्कार के साथ प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किया जाएगा| रघुविन्द्र यादव हरियाना के एकमात्र युवा कवि हैं जिनकी दोहाकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान है| वे बाबूजी का भारतमित्र नामक साहित्यिक पत्रिका के संपादक हैं और उनकी दोहा कृति "नागफनी के फूल" बेहद चर्चित रही है|
ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा घोषित परिणाम
http://www.openbooksonline.com/group/pop/forum/topics/5170231:Topic:184618?commentId=5170231%3AComment%3A184475&groupId=5170231%3AGroup%3A68907#

ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा आयोजित चित्र से काव्य प्रतियोगिता में हरियाणा के दोहाकार रघुविन्द्र यादव को तृतीय पुरस्कार मिला|  
राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन आयोजित इस प्रतियोगिता में देशभर के रचनाकारों ने भाग लिया और अपनी रचनाएं प्रस्तुत की| निर्णायक मंडल ने सभी रचनाओं का अवलोकन करने उपरांत श्री अरुण निगम की रचना को प्रथम और रघुविन्द्र यादव की रचना को तीसरा स्थान प्रदान किया|
श्री यादव को नगद पुरस्कार के साथ प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किया जाएगा| रघुविन्द्र यादव हरियाना के एकमात्र युवा कवि हैं जिनकी दोहाकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान है| वे बाबूजी का भारतमित्र नामक साहित्यिक पत्रिका के संपादक हैं और उनकी दोहा कृति "नागफनी के फूल" बेहद चर्चित रही है|
ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा घोषित परिणाम
http://www.openbooksonline.com/group/pop/forum/topics/5170231:Topic:184618?commentId=5170231%3AComment%3A184475&groupId=5170231%3AGroup%3A68907#

Sunday, January 15, 2012

दैनिक ट्रिब्यून 15 जनवरी का सम्पादकीय


ज्यादा उम्र तक सुखद जीवन जीने और पीने की इच्छा रखने वालों के लिए यह खबर नसीहतभरा पैगाम ले आयी है। हाल ही में ब्रिटेन के एक सर्वाधिक उम्रदराज दंपति की शादी की 86वीं सालगिरह की खबर अखबारों की सुर्खियों में आयी। खबर के मुताबिक 106 साल के करमचंद और उनकी 99 साल की पत्नी करतारी, जो 1965 में पंजाब से ब्रिटेन जाकर बसे थे, ने पिछले दिनों अपनी शादी की 86वीं सालगिरह मनायी। उनका दावा है कि वे ब्रिटेन के सबसे लंबे वक्त तक जीवित विवाहित जोड़ा बने रहने का खिताब हासिल कर सकते हैं। जब उनसे चिरायु तक शारीरिक एवं ‘वैवाहिकÓ रूप से सेहतमंद रहने का रहस्य पूछा गया तो उनका कहना था कि आप जो चाहते हैं खाइये-पीजिए लेकिन अत्यधिक नहीं। करमचंद रोजाना रात के खाने से पहले एक सिगरेट पीते हैं और सप्ताह में तीन और चार बार व्हिस्की तथा ब्रांडी भी लेते हैं। करम चंद के इस दावे से उन शायर महोदय को तकलीफ जरूर हुई होगी जिसने कहा था :-
मद भरे जाम से डर लगता है,
प्यार के नाम से डर लगता है।
जिसका आगाज़ चोरी-चोरी हो,
उसके अंजाम से डर लगता है।
करमचंद और उनकी धर्मपत्नी करतारी ने तंदुरुस्ती और लंबी उम्र तक जीने का अगला गुर बताया—परस्पर अथाह प्रेम। इसमें संदेह नहीं कि वृद्धावस्था में पति और पत्नी ही एक-दूसरे की शून्यता के पोषक होते हैं क्योंकि बेटे-बेटियां और उनकी अगली पीढिय़ां अपने कामकाज और परिवारों में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसे माहौल में पति और पत्नी ही एक-दूसरे के पोषक और पूरक बन सकते हैं। ब्रिटेन के इस वयोवृद्ध जोड़े से भारत के युवाओं को उन जोड़ों को नसीहत लेनी चाहिए जो आज की भागदौड़ और जि़ंदगी में झगड़ालु, तुनकमिजाज और असहिष्णु होते जा रहे हैं। कितनी हैरत की बात है कि एक भारतीय दंपति पूर्व से जाकर पश्चिम में हमारे देश की समृद्ध संस्कृति तथा संस्कारों का संदेश दे रहा है जबकि रघुविन्दर यादव की इन पंक्तियों पर गौर करें तो लगता है कि हमारे यहां तो गंगा उलटी ही बहने लगी है :-
मृत हुई संवेदना, खत्म हुआ सद्भाव,
पूर्व पर भी हो गया पश्चिम का परभाव।
उधर, प्रख्यात एवं वयोवृद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह द्वारा बताये गये जवान बने रहने के टोटके भी काबिलेगौर हैं। उनका कहना है कि वृद्धावस्था को जीने लायक बनाये रखने के लिए शरीर की नियमित रूप से मालिश करनी चाहिए। वह सुबह का नाश्ता तो अमरूद के रस से शुरू करते हैं लेकिन सांझ ढलते ही सिंगल माल्ट व्हिस्की का प्याला हाथ में ले लेते हैं। यहां हमारा अभिप्राय यह नहीं कि व्हिस्की सेहत के लिए लाभदायक होती है। लेकिन खुशवंत सिंह के रोजमर्रा के जीवन के कई और ऐसे पहलु हैं जो इस उम्र में भी उन्हें जि़ंदादिल इनसान बनाये हुए हैं। उनका मानना है कि अपनी दिनचर्या पर सख्त अनुशासन रखो। जरूरी हो तो स्टॉप वॉच का प्रयोग करो। वह सुबह ठीक 6 बजे अमरूद के रस का नाश्ता लेते हैं, 12 बजे पतली खिचड़ी, सब्जी से लंच और डिं्रक के उपरांत रात 8 बजे भोजन। उनका कहना है कि मन को शांत रखो और हमेशा अपने राष्ट्रीय प्रतीक सत्यमेव जयते का अनुपालन करो। खुशवंत सिंह जैसी शख्सियत से हम न केवल स्वस्थ रहने की सीख ले सकते हैं बल्कि प्रेरणा भी पा सकते हैं। हम अपनी बात की ताकीद यादव जी की इन पंक्तियों के माध्यम से भी कर सकते हैं :-
मंजि़ल उसको ही मिली जिसमें उत्कट चाह,
निकल पड़ा जो ढूंढने पाई उसने राह।
परिवार के बच्चों, युवा सदस्यों की दिनचर्या में बेमतलब का दखल, निठल्लापन, चिड़चिड़ापन और निंदा-चुगली करते रहना बुढ़ापे का विष है जबकि सुबह की सैर, योगाभ्यास, ध्यान, पूजा-अर्चना और संवेदनशीलता बुढ़ापे के अमृत माने जा सकते हैं। पति-पत्नी अगर एक-दूसरे से दु:ख-सुख को समझने का संवेदन-भाव रखते हों तो यह दोनों के लिए अमृतपान समान हो सकता है। ऐसा न होने पर जीवन का हाल क्या होगा, इसका अनुमान टॉलस्टॉय के जीवन से भलीभांति लगाया जा सकता है। संत स्वभाव के टॉलस्टॉय के पास धन-दौलत और ख्याति की कोई कमी नहीं थी लेकिन पत्नी के कटु व्यवहार से जीवनभर पीड़ा झेलते रहे और अंतत: पराजित होकर 82 वर्ष की आयु में शांति की तलाश में घर छोड़ गये। इस प्रकरण को याद करते हैं तो कवि की यह पंक्तियां सहज मन-मस्तिष्क में आ जाती है :-
हम रूठें तो किसके भरोसे रूठें,
कौन है जो आयेगा हमें मनाने के लिए,
हो सकता है तरस आ भी जाये आपको,
पर दिल कहां से लायें आप से रूठ जाने के लिए?
ब्रिटेन में बसे करमचंद तथा करतारी के 27 पोते-पोतियां और 23 परपौत्र-परपौत्रियां हैं और वे जीवन के हर लम्हे को बोनस और भगवान का प्रसाद मानकर मजे से जी रहे हैं। यदि हम बुढ़ापे को अभिशाप न मानें और इसे लेकर रोना न रोयें तो यह सकारात्मक दृष्टिकोण आपकी वृद्धावस्था को विचलित नहीं होने देगा। तो आइये, कवि के इस आह्वान पर चलें :-
वक्त कहता है बदल दो जि़ंदगी के मायने,
रूप पहला देखने को पर खड़े हैं आईने।

Monday, January 2, 2012

अपनी माटी वेब पत्रिका में दोहे

अपनी माटी वेब पत्रिका में रघुविन्द्र यादव के दोहे 

होती हैं जिस देश में, नौकरियां नीलाम.
रिश्वत बिन कैसे वहां, होगा कोई काम.

बेशक मैं हर दिन मरा, जिन्दा रहे उसूल.
जीना बिना उसूल के, मुझको लगे फिजूल.

बहुत दिनों तक जी लिए, शीश झुका कर यार.
अब तो सच का साथ दो, बन जाओ खुद्दार.

कहीं उगे हैं कैक्टस, कांटे, कहीं बबूल.
दौर गिरावट का चला, मरने लगे उसूल

गन्दा कह मत छोडिये, राजनीति को मीत.
बिना लड़े होती नहीं, अच्छाई की जीत.

जनता के दुःख दर्द का, नहीं जिसे अहसास.
कैसे उस सरकार पर, लोग करें विश्वास ?

http://www.apnimaati.com/2011/12/blog-post_9639.html?utm_source=BP_recent

Sunday, December 11, 2011

11 दिसंबर के दैनिक ट्रिब्यून में रघुविन्द्र यादव का दोहा

दैनिक ट्रिब्यून के 11 दिसंबर के अंक में 'नागफनी के फूल' का भी एक दोहा कोट किया गया है| 

संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवार!

Posted On December - 11 - 2011

अपसंस्कृति के इस दौर में टेलीविजन जो कुछ हमारे घरों में परोसता आया है, वह किसी से छिपा नहीं है। सास-बहू के धारावाहिकों के नाम पर परिवार के भीतर कल्पित षड्यंत्रों को परोसने से जब चैनलों का मोह भंग हुआ तो तथाकथित ‘रियलिटी शो’ का दौर शुरू हुआ। जिसमें आम आदमी की संवेदनाओं से खेलने तथा चौंकाने वाला मसाला परोसकर टीआरपी बढ़ाने का खेल बदस्तूर जारी है। इस खेल का नया एपिसोड है बिग बॉस नामक धारावाहिक। इस धारावाहिक में चोर-लुटेरों से जघन्य अपराधों में लिप्त खलनायकों को नायक बनाने का खेल कई सालों से बदस्तूर जारी है। छल-कपट, धोखा, प्यार का प्रपंच, षड्यंत्र, पागलपन की हद तक लड़ाई-झगड़े, कलह, झूठ-फरेब जैसे कृत्यों को दर्शकों के समक्ष पेश करके विज्ञापन बटोरने का कृत्य चल रहा है। विवादों के सरताज इस कार्यक्रम में अमेरिका की अश्लील फिल्मों की तारिका भारतीय मूल की सन्नी लियोन की एंट्री से ताजा विवाद और गहरा गया है। भारतीय संस्कृति को तार-तार करने वाली पश्चिमी संस्कृति का रंग भारतीयों पर किस कदर गहरा रहा है, वह इस बात से पता चलता है कि सन्नी लियोन के बिग बॉस में आने के बाद उनकी अश्लील चित्रों की तलाश में विभिन्न साइटों को दो करोड़ से अधिक बार खंगाला गया। यह भयावह आंकड़ा बताता है कि अश्लील दृश्यों को तलाशने की भूख भारतीय समाज में किस कदर बढ़ रही है। शायद ऐसे ही हालात से दुखी होकर, टीवी द्वारा फैलायी जा रही अपसंस्कृति पर चर्चित कवि गोपालदास नीरज ने लिखा होगा :-
टीवी ने हम पर किया यूं छुप-छुप कर वार,
संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवार।
बिग बॉस में सन्नी लियोन की उपस्थिति को भले ही कार्यक्रम के आयोजकों तथा चैनल ने अपनी टीआरपी बढ़ाने का शार्टकट मान लिया हो, लेकिन जागरूक अभिभावक भी अपने बच्चों के भविष्य की चिंता को लेकर सक्रिय हुए हैं। उसकी उपस्थिति को लेकर सूचना प्रसारण मंत्रालय भी खासा चिंतित है। लेकिन समाज के जागरूक लोगों खासकर किशोर-वय के बच्चों के अभिभावकों ने ब्रॉडकॉस्टिंग कंटेट कम्प्लेन काउंसिल (बीसीसीसी) को बड़ी संख्या में शिकायतें दर्ज कराई हैं कि बिग बॉस में सन्नी लियोन की उपस्थिति से बच्चों की मन:स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। उनकी शिकायत वाजिब है क्योंकि इंटरनेट पर सन्नी लियोन की शर्मसार करने वाली तस्वीरों की भरमार है। यदि अश्लील फिल्मों की कथित नायिका को भारतीय चैनलों द्वारा महिमामंडित किया जाए तो अभिभावक अपने बच्चों को पथभ्रष्ट होने से कैसे रोक पाएंगे? वास्तव में पश्चिमी खुले समाज में जिस नंगाई को सहजता से लिया जाता है, हमारा गरिमामाय समाज उसे सदा से नकारता रहा है। इंटरनेट नामक बेकाबू दैत्य उस ज़हर को अब धीरे-धीरे भारतीय समाज में उड़ेल रहा है जो कि हर भारतीय की चिंता का विषय है। इसके चलते किशोर पथभ्रष्ट हो रहे हैं और यौन-अपराधों का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। ऐसे हालातों पर तंज़ करते हुए डॉ. बलजीत लिखते हैं :-
पश्चिम का हम पर चढ़ा, ऐसा गहरा रंग,
उलट-पलट सब हो गए, रहन-सहन के ढंग।
वास्तव में सवाल बिग बॉस व सन्नी लियोन का ही नहीं है, टेलीविजन के अधिकांश कार्यक्रम प्रेम-प्रसंगों के नाम पर फूहड़ता व विवाहेत्तर संबंधों को महिमामंडित करने में लगे हैं। नारी आज़ादी की दुहाई देकर लिव-इन-रिलेशनशिप, समलैंगिक तथा विवाहेत्तर संबंधों को जैसे महिमामंडित विभिन्न धारावाहिकों में किया जा रहा है, वह बच्चों के दिलो-दिमाग में ज़हर घोल रहा है। लेकिन देश के नीति-नियंता खामोश बैठे हैं। पैसा कमाने की होड़ में चैनल किसी भी हद तक जा रहे हैं। पिछले दिनों आये ‘सच का सामना’ जैसे कार्यक्रमों में नानी-पोते वाले शख्स अपने अवैध संबंधों को ऐसे बता रहे थे जैसे उन्होंने कोई बड़ा बहादुरी का काम किया हो। पश्चिमी जीवनशैली पर तैयार किये गये कार्यक्रमों की भारत में नकल की जा रही है। लेकिन दोनों समाजों के स्वरूप में ज़मीन-आमसान का अंतर है। टीवी की इस अपसंस्कृति पर व्यंग्य करते हुए कवि डॉ. वी. सिंह लिखते हैं :-
इस कमरे में चल रहा, पति-पत्नी संवाद,
उसमें बच्चे चख रहे, ब्लू फिल्मों का स्वाद।
यह एक हकीकत है कि वैश्वीकरण व खुली अर्थव्यवस्था के नाम पर पश्चिमी देशों ने अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए जो हथकंडे अपनाये, उसके साथ पश्चिमी देशों की गंदगी भी हमारे समाज में घुल रही है। सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के साथ उनकी अपसंस्कृति के वायरस हमारे तंत्र में घुल रहे हैं। इंटरनेट पर लाखों अश्लील साइटें देश में खोली जा रही हैं। मोबाइल-कंप्यूटर के जरिये वे लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंच रही हैं। सोशल साइट्स के नाम पर इसका विस्तार घर-घर तक पहुंच रहा है। हो सकता है जो बात पश्चिम की खुली संस्कृति में स्वीकार्य हो, वह भारत में वर्जित हो। कुल मिलाकर रिश्तों की पवित्रता तथा यौन-शुचिता की भारतीय अवधारणा तार-तार हो रही है। देश पर हुए तमाम आक्रमणों ने भारतीय संस्कृति को उतना नुकसान नहीं पहुंचाया जितना पश्चिम की अपसंस्कृति ने पहुंचाया है। वे इंटरनेट व विभिन्न साइटों से मोटा कारोबार कर रहे हैं। वेलेंटाइनी संस्कृति हम पर थोप रहे हैं। यह उनका व्यापार है, लेकिन भारतीय संस्कृति पर मार है। यह भी एक हकीकत है कि अपसंस्कृति अभिजात्य व धनाढ्य वर्ग से नीचे की ओर चलती है। फिल्मी सितारों से लेकर धनाढ्य वर्ग खुलेपन की अपसंस्कृति को सर्वप्रथम अंगीकार करता है फिर उनकी देखादेखी उच्च व मध्यमवर्ग भी करने लगता है। इस सामाजिक विद्रूपता को बेनकाब करते हुए कवि रघुविंद्र यादव लिखते हैं :-
चोली धनिया की फटे, लोग करें उपहास,
बेटी धन्ना सेठ की, फिरती बिना लिबास।
वास्तव में बाज़ार आज हमारे जनजीवन में इतने गहरे उतर गया है कि समझना मुश्किल है कि कहां-कहां खेल है। देसी से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना कारोबार चलाने के लिए जो हथकंडे अपना रही हैं, उनको समझना जरूरी है। टीवी पर भी लोगों की संवेदनाओं से खेलने का जो खेल जारी है उस पर अंकुश लगाने के लिए कोई प्रभावी नियामक संस्था की आवश्यकता तत्काल महसूस की जा रही है। टीवी कार्यक्रम बनाने वाली कंपनियों से लेकर इंटरनेट तथा मोबाइल कंपनियों ने तो सिर्फ अपना कारोबार करना है। उनके नापाक मंसूबों को समझने की जरूरत है। बाज़ार के गणित की हकीकत बयां करते राजकुमार सचान होरी लिखते हैं :-
लैला-मजनूं कर रहे एसएमएस से मेल,
इश्क के संग-संग बढ़े कंपनियों की सेल।