विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, June 5, 2016

गाँव शहर में जा बसा - यतीन्द्रनाथ 'राही'

आँगन सूना छोडक़र, सपने छोड़ अनाथ। 
गाँव शहर में जा बसा, कुछ सपनों के साथ।।
आँसू पीकर माँ पड़ी, सपन समेटे बाप।
पूत अकेला शहर में, सडक़ रहा है नाप।।
हाथ झटक चम्पा चली, बूढ़ा हुआ रसाल।
वृद्धाश्रम के द्वार पर, खड़े करोड़ी लाल।।
सर-सरिता-बादल पिये, फिर भी रहे उदास।
अब इस आदम की कहो, कहाँ बुझेगी प्यास।
खोज रहे हो तुम जिसे, ऐसे खड़े उदास।
वह हंसों का गाँव था, अब यह काग निवास।।
पत्थर को अर्पित किए, अक्षत-चंदन-फूल।
पर जीवित इन्सान को, बोये पग-पग शूल।।
बाप रोग से मर गया, पूत कजऱ् के भार।
बची रोटियाँ खा गए, बामन-धूत-लबार।।
नन्हे दीपक ने नहीं, पल भर मानी हार।
रहा रात भर काटता, तिल तिल कर अँधियार।
हमें न आया आम को, कहना कभी बबूल।
इसीलिए फुटपाथ पर, रहे छानते धूल।।
टूट चुके कब तक सहें, ये दंशों पर दंश।  
करना है निर्मूल अब, यह साँपों का वंश।।

-यतीन्द्रनाथ 'राही'

ए-54, रजत विहार, होशंगाबाद रोड़, भोपाल-26
9425016140

किसकी बिखरी भावना - अशोक 'अंजुम'

किसकी बिखरी भावना, किसका टूटा नीड़।
नहीं समझती आँधियाँ, नहीं जानती भीड़।।
मिले सिपाही चोर से, $गायक हुए सबूत। 
दामन के धब्बे मिटे, न्याय हुआ अभिभूत।।
वही आज लेकर मिले, शीशी भर तेजाब।  
कल तक कसमें प्यार की, खाते रहे जनाब।।
अरी व्यवस्था क्या कहें, तेरा नहीं जवाब। 
जिनको पानी चाहिए, उनको मिले शराब।।
इस जनवादी सोच का, चित्र अनोखा देख।
पाँच सितारा में लिखें, होरी पर आलेख।।
पूछ रही हैं मस्जि़दें, मन्दिर करें सवाल।  
भला हमारे नाम पर, क्यों है रोज बवाल।।
मानवता की देह पर, देख-देखकर घाव।  
हम कबीर जीते रहे, सारी उम्र तनाव।।
घायल सब आदर्श हैं, सच है मरणासन्न।   
भरा-भरा याचक लगे, दाता हुआ विपन्न।।
डॉलर मद में चूर है, रुपया हुआ निढ़ाल। 
दिल्ली के दरबार में, बिखरे पड़े सवाल।।
मुट्ठी-भर थी चाँदनी, गठरी-भर थी धूप।
अंजुम जी प्यारा लगा, जीवन का हर रूप।।

-अशोक 'अंजुम'

संपादक, अभिनव  प्रयास, अलीगढ़
9258779744

जीवन का भूगोल - म.ना.नरहरि

राशन, कपड़े, पुस्तकें, चुभते गहरे डंक।   
बार-बार वेतन गिना, बढ़ा न फिर भी अंक।।
सब$क दिया जब यार ने, खुद हो गई तमीज़।
अपनी कहकर ले गया, मेरी नई कमीज़।।
राजपथों पर खो गया, जीवन का भूगोल।
खा$का सब पूरा हुआ, खास बात है गोल।।
साँस हुई शतरंज सी, कभी शह कभी मात। 
रोज बदलती रंग है, मुसीबतों की रात।।
दफ़्तर में कलमें बिकें, भाव बहुत है तेज़।    
हर फाइल है रेंगती, मेज़-मेज़ दर मेज़।।
हस्ताक्षर बेचा नहीं, ऊँचा रहा मिज़ाज।   
गाँव लौटना तय हुआ, परसों कल या आज।।
आँखों से आँखें मिला, मुझे पुकारा मीर। 
आँख झुका मैंने कहा, कहिये मुझे कबीर।।
बरगद बाबा मौन हैं, पवन हुई नाराज़।  
परत-परत हो खुल गई, संबंधों की प्याज़।।
झर-झर झरती रात से, दुखी नगर का भोर।
रस्ते बागी हो गए, सडक़ें गोता $खोर।।
दम्पति में हलचल हुई, बिखरा सब घर-बार।
चीखें सब सुनती रहीं, कान जड़ी दीवार।।

-म.ना.नरहरि

आकिॢड-एच, वैली ऑफ क्लावर्स
ठाकुर विलेज, कांदिवली (पूर्वी), मुंबई-400101     

Saturday, June 4, 2016

प्यासा पानी से मरे - शशिकांत गीते

अपना सब कुछ आज जो, कल जाएगा डूब|
प्यासा पानी से मरे, ये किस्सा भी खूब ||

अगुआ सारे व्यस्त हैं, झंझट लेगा कौन|
रजधानी  में बज रहा, खन-खन करता मौन||


पैसे से पैसा बना, सटका धन्ना सेठ|
भूखे, भूखे ही रहे, हाथों टूटी प्लेट||


पानी तो आया नहीं, डूब गए संबंध|
बातों से आने लगी, मारकाट की गंध||

कैसा रोना पीटना, कैसा हाहाकार|
नई सदी की नीव के, तुम हो पत्थर यार||

सूख गई है मंजरी, कटे किनारे पेड़|
प्यास किनारे पर पड़ी, उठती हृदय घुमेड||

सड़कें ही क्या जिन्दगी, अपनी खस्ता हाल|
पानी, बिजली भूख के, थककर चूर सवाल||

बड़ा कठिन है तैरना, धारा के विपरीत|
कूड़ा बहता धार में, तू धारा को जीत||

लोकतंत्र के नाम पर, कंप्यूटर रोबोट|
बटन दबे औ छापते, पत-पत अपने वोट||

-शशिकांत गीते
खण्डवा, मध्यप्रदेश

खुला हृदय का द्वार - चन्द्रसेन विराट

दस्तक दी जब प्रेम ने, खुला हृदय का द्वार।
पिछले दरवाजे अहम्, भागा खोल किवाड़।।

जो मेरा वह आपका, निर्णय हो अभिराम।
मिले हमारे प्रणय को, शुभ परिणय का नाम।।

तन करता इकरार पर, मन करता इनकार।
 देहाकर्षण उम्र का, वह कब सच्चा प्यार।।

देह रूप या रंग में, किसको कह दूँ अग्र।
सच तो यह है, तुम मुझे, सुन्दर लगी समग्र।।

अलग थलग होकर रहे, खुद को लिया समेट।
किंतु तुम्हारी नज़र ने, हमको लिया लपेट।।

तुमने बत्ती दी बुझा, जब हम हुए समीप।
लगा देव की नायिका, बुझा रही हो दीप।।

भरा रहा है प्रेम से, सतत आयु का कोष।
उससे मिली जिजीविषा, जीने का संतोष।।

उथली भावुकता भरा, सुख सपनों का ज्वार।
देहाकर्षण है महज, कच्ची वय का प्यार।।

सुन तो लेते हैं उन्हें, लोग न करते गौर।
जिनकी कथनी और है, लेकिन करनी और।।

गिनते हैं जब नोट सब, धन-अर्जन की होड़।
 ऐसे मे कवि कर रहा, मात्राओं का जोड़।।

-चन्द्रसेन विराट

121, बैकुंठ धाम कॉलोनी, इन्दौर
9329895540