विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Sunday, June 5, 2016

जीवन का नव दौर - घमंडीलाल अग्रवाल

आज़ादी के अर्थ को, देनी होगी दाद।      
जो भी मन हो कीजिए, दंगे, खून, फसाद।।

नदी किनारे वह रहा, प्यासा सारी रात।  
समझ नहीं पाई नदी, उसके मन की बात।।

गजदन्तों से सीखिए, जीवन का नव दौर।
खाने के हैं दूसरे, दिखलाने के और।।

मंत्री जी का आगमन, हर्षाता मन-प्राण।
सडक़ों की तकदीर का, हो जाता कल्याण।।

कोई तो हँसकर मिले, कोई होकर तंग।
दुनिया में व्यवहार के, अपने-अपने ढंग।।

जायदाद पर बाप की, खुलकर लड़ते पूत।
बहनें सोचें किस तरह, रिश्ते हों मतबूत।।

यश अपयश कुछ भी मिले, अपनाई जब पीर।
मीरा ने भी यह कहा, बोले यही कबीर।।

बीयर की बोतल खुली, पास हुए प्रस्ताव।
बाज़ारों में बढ़ गए, नून, तेल के भाव।।

करते हैं कुछ लोग यों, जीवन का शृंगार।  
एक आँख में नीर है, एक आँख अंगार।।

यह रोटी को खोजता, वह सोने की खान।
अपने प्यारे देश में, दो-दो हिन्दुस्तान।।

-घमंडीलाल अग्रवाल

785/8, अशोक विहार, गुडग़ाँव-122006
9210456666

झूठों का गुणगान - (प्रो.) डॉ.शरद नारायण खरे

गहन  तिमिर का दौर है, घबराता आलोक। 
हर्ष खुशी पर है ग्रहण, पल पल बढ़ता शोक।।
हवा चल रही विष भरी, संशय का संसार।
रिश्ते नाते बन गये, आज एक व्यापार।।
ताकतवर की जीत है, झूठों का गुणगान।   
जो जितना कपटी हुआ, उसका उतना मान।।
गणित वोट का हल करो, तब पाओगे जीत।
सत्य, न्याय , ईमान का, कौन सुने अब गीत।।
लोकतंत्र में लोक की, उधड़ रही है खाल। 
तंत्र हो गया भोथरा, प्रहरी खाते माल।।
राहत पहुँचाने जुटें, जब सरकारी वीर।  
रूखा सूखा बाँटकर, खा जाते खुद खीर।।
फैशन के रंग में रंगी, देखो अब तो नार। 
अपना बदन उघाडक़र, करियर रही सँवार।।
मंदिर मस्जि़द एक हैं, अल्लाह ईश समान।
फिर कटुता किस बात की, क्यों लड़ता इंसान।
वह उतना ऊपर उठा, जो जितना मक्कार।
सीधा सच्चा पा रहा, अब तो नियमित हार।।
कर्मठता गुम हो गई, शेष दिखावा आज।
चमक दमक में खो गया, देखो आज समाज।।

-(प्रो.) डॉ.शरद नारायण खरे

शासकीय महिला महाविद्यालय, मण्डला, म.प्र.
9425484382

गए ये दीमक चाट - रमेश सिद्धार्थ

जात, पात, अरु धर्म पर, देखे विकट कलेश।
सुधेरेगा किस वक्त में, उ$फयह भारत देश।।
मंदिर मुद्दा आ रहा, नेताओं को रास।
साधू तो पाँसे बने, चौपड़ सम हैं न्यास।।
सत्ता की सीढ़ी बने, धर्म, जात अरु पात।
संख्याओं के खेल से, देते सब को मात।।
चहुँ दिस टूटे बुत दिखें, जले हुए अखबार।
घोटालों की पोटली, झूठों के अम्बार।।
मंत्री पद होने लगा, अब सचमुच बेजोड़।
सुख सत्ता के साथ में, जोड़ो लाख करोड़।।
रहे सदा से लूटते, जग को अंधा मान।
न्याय तराजू में तुले, अब मुश्किल में जान।।
कुछ ने गुपचुप लूट की, कुछ ने बंदरबाँट।
जड़ दुखियारे देश की, गए ये दीमक चाट।।
ऊँट अचम्भे में पड़े, जैसे देख पहाड़।
हर घोटालेबाज को, वैसी लगे तिहाड़।।
कल थी मन में आस्था, नैतिकता, विश्वास।
आज वहाँ आसीन हैं, स्वार्थ, भोग, विलास।।
खादी, कुर्ते हैं वही, बदल गए बस माप।
सत्य, अहिंसा, न्याय के, भाषण मात्र प्रलाप।।

-रमेश सिद्धार्थ

हाऊसिंग बोर्ड कॉलोनी, रेवाड़ी
9812299221

नेता हुए दलाल - राहुल गुप्ता

गाँधी जी के देश में, कैसा मचा बवाल।
गुंडे ठेकेदार हैं, नेता हुए दलाल।।
रस्ते कठिनाई भरे, मंजिल हो गयी दूर।
महँगाई के दौर में, सपने चकनाचूर।।
रोटी कपड़ा दाल की, बातें हुयी हजार।
नेताओं को भा रहा, वोटों का व्यापार।।
भूखे को कब मिल सके, रोटी चावल दाल।
नेता जी की पाँत में, मुर्गे हुए हलाल।।
सूख चली यमुना नदी, सूख चले हैं घाट।
कैसे यमुना फिर बहे, देख रहे सब बाट।।
यमुना मंगलदायनी, समझो इसकी पीर।
करो जतन जी जान से, शुद्ध कराओ नीर।।
दागी बागी भ्रष्ट बद, राजनीति की शान।
गुंडई नंगई लुच्चई, बनी नई पहचान।।
नेता भिखमंगे हुए, मतदाता बेज़ार।
वादों के असवाब से, अटा पड़ा बाज़ार।
मुझको ही मत दीजिये, मैं ही तारनहार।
कहते फिरें चुनाव में, नेता जी हर बार।
मन्दिर में गाते भजन, मन रत्ना की आस।
कलयुग में ऐसे मिले, कितने तुलसीदास।।

- राहुल गुप्ता

 अध्यक्ष, संकेत रंग टोली, लोहवन, मथुरा
9412538550

अधरों पर मुस्कान - अंसार 'कम्बरी'

मन से जो भी भेंट दे, उसको करो कबूल।
काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल।।
सागर से रखती नहीं, सीपी कोई आस।   
एक स्वाति की बूँद से, बुझ जाती है प्यास।।
प्यासे के जब आ गयी, अधरों पर मुस्कान।
पानी-पानी हो गया, सारा रेगिस्तान।।
रातों को दिन कह रहा, दिन को कहता रात।
जितना ऊँचा आदमी, उतनी नीची बात।।
जब तक अच्छा भाग्य है, ढके हुये हैं पाप। 
भेद खुला हो जायेंगे, पल में नंगे आप।।
तुम्हें मुबारक हो महल, तुम्हें मुबारक ताज। 
हम फकीर हैं 'कम्बरी', करें दिलों पर राज।।
हमको ये सुविधा मिली, पार उतरने हेतु।
नदिया तो है आग की, और मोम का सेतु।।
पंछी चिंतित हो रहे, कहाँ बनायें नीड़।   
जंगल में भी आ गयी, नगरों वाली भीड़।।
जाने कैसी हो गयी, है भौरों से भूल।  
कलियाँ विद्रोही हुयीं, बा$गी सारे फूल।।
हवा ज़रा सी क्या लगी, भूल गयी औकात।
पाँवों की मिट्टी करे, सर पर चढक़र बात।।

-अंसार 'कम्बरी'

ज़फर मंजि़ल,11/116,
ग्वाल टोली, कानपुर