विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Monday, September 9, 2019

डॉ. सत्यवीर 'मानव' के दोहे

डॉ. सत्यवीर 'मानव' के दोहे

तेरी क्या औकात है, तेरी कौन बिसात।
घुटनों के नीचे रहे, सदा भेड़ की लात।।
2
सत्य हमेशा ही लगे, कडुआ जैसे नीम।
उससे बढक़र है नहीं, लेकिन मीत हकीम।।
3
बड़े-बड़े ज्ञानी गए, कितने दास कबीर।
जन-मन की बाकी रही, कहनी अब तक पीर।।
4
सत्य यही है जि़ंदगी, बदले हर पल रूप।
हरदम छाया ही नहीं, छाँव कभी हो धूप।।
5
बाधाओं से जो कभी, होता नहीं निराश।
अपने हाथों से लिखा, उसने ही इतिहास।।
6
मार-मार कर ठोकरें, देता वक्त तराश।
बदला हरदम है यहाँ, उसने ही इतिहास।।
7
जीवन के संग्राम में, हुई उसी की जीत।
अपने कदमों से लिखी, जिसने नूतन रीत।।
8
कड़वे बोल कबीर के, चुभते जैसे तीर।
लेकिन चूका कब कहाँ, कहने से सतवीर।।
9
समझ सत्य को बावरे, दुनिया एक सराय।
खातिर फिर इसकी करे, हाय-हाय क्यों हाय।।
10
नीचे धरती एक है, ऊपर अम्बर एक।
फिर क्यों हैं इंसान के, मजहब-जाति अनेक।।
11
बदले लय, सुर-ताल भी, बदला छंद विधान।
रस अब रिश्तों में नहीं, घर सब हुए मकान।।
12
सत्ता तो आई यहाँ, बोती सदा बबूल।
उससे करना आम की, आशा मीत फिजूल।।
13
यही जीत का सूत्र है, मीत यही है सार।
रखना हरदम पास में, हिम्मत के हथियार।।
14
होती हरदम एक-सी, पीर प्रीत की रीत।
दोनों अधरों पर धरें, आँसू भीगे गीत।।
15
बेटी को बेटी नहीं, समझे जो शैतान।
फाँसी क्यों उसको नहीं, देता चढ़ा विधान।।
16
वक्त-वक्त की बात है, वक्त-वक्त का खेल।
एक वक्त तो घी घना, एक वक्त ना तेल।।
17
क्या था, अब क्या हो गया, मत कर मीत मलाल।
खुद से होता कौन है, करता वक्त हलाल।।
18
नेता भरें तिजोरियाँ, जनता माँगे भीख।
सीख यही जनतंत्र की, सीख सके तो सीख।।
19
खस्ता हालत देश की, नेता मालामाल।
सत्ता फिर भी कह रही, जनता है खुशहाल।।
20
जब भी जीवन ने लिखे, बुरे दिनों के छंद।
तभी बंध-अनुबंध से, टूट गए संबंध।।
21
घाटी रह-रह रो रही, खड़ा हिमालय मौन।
आग लगी है बर्फ में, उसे बुझाये कौन?
22
सत्ता हमने क्या दई, हुए नशे में चूर।
हम से ही अस्तित्व है, हमसे ही हैं दूर।।
23
वेद सुने, गीता सुनी, गुरुओं के उपदेश।
अब संसद की गालियाँ, सुने विवश यह देश।।
24
प्यासी धरती पूछती, पूछें बंजर खेत।
ऐसी क्यों करनी करी, मानव उड़ता रेत।।
25
जनता ने ही है धरा, उनके सिर पर ताज।
जनसेवक फिर क्यों डरें, जनता से ही आज।।
26
राजनीति के रास में, सिमट गया संसार।
भरी पड़ी हैं सुर्खियाँ, पढ़ देखो अ$खबार।।
27
सच्चे साधक शब्द के, बेचें नहीं ज़मीर।
रहें पुजारी सत्य के, बनकर दास कबीर।।
28
लिखना सुरभित पुष्प से, तुम जीवन के छंद।
मुरझाने के बाद भी, बाकी बचे सुगंध।।
29
खाली भूखे पेट-सा, ढोता हुआ अभाव।
जीवन हुआ गरीब का, बुझता हुआ अलाव।।
30
दर्द जहां भर का सहा, एक लिखा तबगीत।
दर्द, दर्द, बस दर्द दे, गर है सच्चा मीत।।


-डॉ सत्यवीर मानव
642 सेक्टर-1, नारनौल
















यादराम शर्मा के दोहे



यादराम शर्मा के दोहे

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जय चक्रवर्ती के समसामयिक दोहे

जय चक्रवर्ती के समसामयिक दोहे

वन वे ट्रैफिक जिंदगी, चलना ही संकल्प।
पीछे मुडऩे का यहाँ, कोई नहीं विकल्प।।
2
खंज़र उनके हाथ था, इनके हाथ त्रिशूल।
दोनों ही करते रहे, अपना क़र्ज़ वसूल।।
3
नुचे पंख लेकर कहाँ, चिडिया करे अपील।
साथ शिकारी के खड़े, सत्ता और वकील।।
4
चलने को हमने चुनी, खुद अपनी ही राह।
नहीं किसी की राह से, माँगी कभी पनाह।।
5
सदियों लम्बे दौर में, इतना हुआ विकास।
फुटपाथों पर दुधमुँहें, मुर्दों को आवास।।
6
लुटी भक्त की अस्मिता, मौन रहे भगवान।
जैसी थी वैसी रही, चेहरे की मुस्कान।।
7
रोटी का इस मुल्क ने, जब-जब किया सवाल।
राजनीति ने धर्म का, जुमला दिया उछाल।।
8
झूठ और पाखण्ड से, जूझूँगा दिन-रात।
मुझमें जि़न्दा है अभी, कहीं एक सुकरात।।
9
मैं हँसता हूँ ओढक़र, सिर पर दुख का ताप।
इनमें या उनमें कभी, मुझ न ढूँढ़ें आप।।
10
शब्द हमारे ले सकें, ताकि समय से होड़।
क़तरा-क़तरा जिस्म से, हमने दिया निचोड़।।
11
मिले लेखनी को प्रभो, बस इतनी सौगात।
मौन रहूँ मैं सर्वथा, बोले मेरी बात।।
12
सच बोलूँ तो हर कदम, दुश्मन यहाँ हज़ार।
झूठ कहूँ तो खुद मरूँ, रोज हज़ारों बार।।
13
राम हुए जिस रोज से, नारों में तबदील।
जानी-दुश्मन हो गए, जमुना और जमील।।
14
चमन भोगता रात-दिन, पतझड़ का अभिशाप।
सावन के अंधे करें, हरियाली का जाप।।
15
यही प्रेम का अर्थ है, यही प्रेम का राग।
इधर-उधर दोनों तरफ, आँसू, आहें आग।।
16
छौनों के सपने छिने, गोरैया के नीड़।
लालकिला बुनता रहा, वादे, भाषण, भीड़।।
17
जो कुछ कहना था कहा, मुँह पर सीना तान।
एक आइना उम्र भर, मुझमें रहा जवान।।
18
राजा नंगा है मगर, कौन करे ऐलान।
सबकी आँखें बंद हैं, सबकी सिली ज़बान।।
19
वसुंधरा पर छेड़ कर, सर्वनाश का राग।
खोज रहे हम चाँद पर, मिट्टी पानी आग।।
20
कविता भाषण लेख अब, सब हो गए अनाथ।
धर्म और मजहब खड़े, हत्यारों के साथ।।
21
दरिया था, तूफान था, थी कागज की नाव।
पार उतरने का मिला, यूँ हमको प्रस्ताव।।
22
दिया किसी को कुछ कभी, कभी लिया कुछ छीन।
कुदरत तेरे न्याय का, प्रति-पल अर्थ नवीन।।
23
चली जि़न्दगी मौत की, क़दम-क़दम तकरार।
और अंतत: जि़न्दगी, गई मौत से हार।।
24
मोमबत्तियाँ, क्षोभ, दुख, बातों की तलवार।
मासूमों से रेप पर, सिर्फ़ यही हर बार।।
25
जो भी आया दे गया, जलता एक अलाव।
मिले जि़न्दगी तू अगर, तो दिखलाएँ घाव।।
26
संविधान की देह पर, झपट रहे हैं चील।
मुर्दाघर में हो गया, लोकतंत्र तब्दील।।
27
महलों ने बुनियाद को, दिया क्रूस पर टाँग।
मिले हमें भी रोशनी, थी इत्ती-सी माँग।।
28
दुनियाभर के हल किये, यूँ तो कठिन सवाल।
काट नहीं पाये मगर, हम अपना ही जाल।।
29
समय लूटकर ले गया, सपनों की टकसाल।
जिये उम्र भर पेट के, हमने कठिन सवाल।।
30
कहाँ तलक चिडिय़ा जिये, ले साहस का नाम।
सैयादों के साथ है, सारा यहाँ निज़ाम।।
31
जब तक थे पूछा नहीं, कभी किसी ने हाल।
रुखसत होते ही जुटे, अजब गजब घडिय़ाल।।
32
दरबारों की गोद में, आप मनाएं जश्न।
हम तो पूछेंगे सदा, भूख-प्यास के प्रश्न।।

-जय चक्रवर्ती
एम.1/149, जवाहर विहार


Wednesday, August 7, 2019

युगबोध से ओतप्रोत दोहों का संग्रह: पानी जैसा रंग


युगबोध से ओतप्रोत दोहों का संग्रह: पानी जैसा रंग

‘पानी जैसा रंग’ वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरेराम समीप का नव प्रकाशित दोहा संग्रह है| जिसमें उनके 871 दोहे और एक दोहा ग़ज़ल संकलित किये गए हैं| जीवन जगत के विविध रंगों को समेटे दोहे कथ्य और शिल्प दृष्टि से सराहनीय हैं| अनुभूति की कसौटी पर ये दोहे बड़े मार्मिक, प्रभावपूर्ण और दूर तक अर्थ संप्रेषण करने वाले कहे जा सकते हैं। सहजता में ही इनका सौष्ठव निहित है। कवि ने जीवन के विभिन्न पहुलुओं को छूते हुए सहज और मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करके अपने कथ्य को प्रभावशाली बनाया है, वहीँ बिम्ब, प्रतीक और अलंकारों का यथोचित प्रयोग करके दोहों की संप्रेषणीयता भी बढाई है|  
      संत करें व्यापार अब, शासक बने महंत|
      काँटों पर भी आजकल, छाने लगा बसंत||

समीप जी के दोहे कल्पना पर आधिरित न होकर अपने आसपास की सुनी, देखी और भोगी हुई सच्चाइयों के जीवन्त मंज़र पेश करते हैं| इन दोहों में व्यंग्य एक महत्वपूर्ण तत्व है। चुटीले व्यंग्य के माध्यम से दोहाकार राजनीतिक विसंगति और सत्ता के छद्म का खुलासा प्रभावी ढंग से कर पाते हैं।
एक अजूबा देश यह, अपने में बेजोड़|
यहाँ मदारी हांक ले, बंदर कई करोड़||

देखा तानाशाह ने, ज्यों ही आँख तरेर|
लगा तख़्त के सामने, जिव्हाओं का ढेर||

अजब सियासत देश की, गज़ब आज का दौर|
ताला कोई और है, चाबी कोई और||

कवि ने समसायिक संदर्भों को नजरअंदाज नहीं किया । इसका प्रमाण उनके कतिपय दोहे हैं जो भरपूर संवेदना के साथ हमारे हृदय को झकझोर कर रख देते हैं।
      
      करुणा बेची जा रही, भावुकता के संग|
      भीख मांगने के लिए, बच्चे किये अपंग||

      रिश्वत दे सकता नहीं, नहीं जान-पहचान|
      दुखिया ऐसे भी कहीं, मिलता है अनुदान||

संग्रह के दोहे व्यवस्थागत विसंगतियां को चिन्हित करते और व्यवस्था की अमानवीय स्थितियों के विरुद्व संघर्ष की घोषणा करते दोहे हमारा ध्यान खींचते हैं-
पुलिस पकड़ कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ|
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ||

बस थोड़ी-सी आग हो और हवा का साथ|
अंधियारे से कर सकूं, मैं भी दो-दो हाथ||

समीप जी के दोहे वर्तमान की विसंगतियों की प्रस्तुति से जनमानस को यथार्थ का बोध कराते हैं। आज बाजार में प्रत्येक व्यक्ति को जहां गलाकाट प्रतियोगिता जन्म से ही मिल जाती हो वहां संवेदना, सहृदता या अपनेपन के लिए कितना स्पेस बच पाया है। वैश्वीकरण के बढ़ते इस प्रभाव से उत्पन्न व्यक्ति मन की पीड़ा को उन्होंने पूरी मार्मिकता से व्यक्त किया है-
अस्पताल से मिल रही, उसी दवा की भीख|
जिसके इस्तेमाल की, निकल गई तारीख||

संघर्षरत ग्रामीण जीवन के प्रति भी उनके सरोकार स्पष्ट हैं। इन दोहों में आधुनिक जीवन की त्रासदियों की कराह हमें स्पष्ट सुनाई दे रही है। जीवन मूल्यों में आ रहे सामाजिक धार्मिक राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों के बदलाव के प्रति दोहाकार ने जागरूकता दिखाई है। गरीब मजदूर किसान दलित जीवन का चित्रण किया है। इस तरह उनके सरोकार मनुष्य की अस्मिता उसकी सोच और सम्बंधों पर आधारित हैं। इसीलिए इन दोहों में जीवन यथार्थ से साक्षात्कार की अनेक स्थितियाँ दृष्टिगत होती हैं।
क्यों रे दुखिया! क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज़|
मुखिया के घर आ गया पहने नयी कमीज़||

कवि खुद को उन लोगों के साथ खड़ा करना चाहता है जो आज भी दबे-कुचले हैं, दुख में हैं| इस का उद्घोष भी वे अपने दोहों में करता है-

मेरे दोहों का रहा, सिर्फ यही इक रंग|
जो भी दुख में है कहीं, मैं हूँ उसके संग||
तमाम विसंगतियों और विद्रूपताओ के बावजूद कवि निराश नहीं है, उसका नजरिया आशावादी है और यह उनके दोहों में अभिव्यक्त हुआ है-

फिर निराश मन में जगी, नव जीवन की आस|
चिड़िया रोशनदान पर, फिर लाई है घास||
हालांकि संग्रह के अधिकांश दोहे धारदार और प्रभावशाली हैं किन्तु प्रूफ की अशुद्धियों की भरमार खीर में कंकर की तरह स्वाद ख़राब करती है| लगता है प्रकाशक ने कतई मेहनत नहीं की और यूनिकोड में टाइप पाण्डुलिपि का फॉण्ट कन्वर्ट करके ज्यों का त्यों छाप दिया गया है| ‘क’ और ‘फ’ के नीचे की मात्राएँ उचित स्थान पर नहीं हैं| एकाध जगह को छोड़कर उर्दू-फारसी के शब्दों के नीचे से नुक्ते गायब हैं| चन्द्र बिंदु के स्थान पर कहीं केवल बिंदु का प्रयोग है तो दूसरी जगह उसी शब्द पर चन्द्र बिंदु| शब्दों के ऊपर लगे ‘र’ के बाद या ‘ई’ पर बिंदु उचित ढंग से नहीं लगाये गए हैं| कवि ने जहाँ ‘य’ का प्रयोग किया था उसे ये/ए बना दिया गया है, जिससे दोहों में छंद दोष पैदा हो गए हैं|
किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी द्वारा प्रकाशित इस 120 पृष्ठीय पेपरबैक कृति का आवरण, छपाई, कागज स्तरीय हैं और 195 रूपये मूल्य भी वाजिब कहा जा सकता है| कुल मिलकर समीप जी ने हिंदी साहित्य को एक स्तरीय संग्रह प्रदान किया है जो दोहा साहित्य को समृद्ध करेगा और नवोदित दोहकारों को श्रेष्ठ दोहा लेखन के लिए प्रेरित करेगा ऐसी आशा है|
दोहाकार को बहुत-बहुत बधाई|

रघुविन्द्र यादव



Sunday, October 28, 2018

जय चक्रवर्ती की गज़लें

जय चक्रवर्ती की गज़लें

लिखना मेरा शौक नहीं है ये मेरी मजबूरी है
अपनी आग बचाए रखने को ये बहुत ज़रूरी है

खामोशी जिनके होठों पर उनका स्वर बनकर उन तक
खुद को यदि पहुँचा पाऊँ तो समझो यात्रा पूरी है

सोचो, बीस दिनों तक उसके बच्चे क्या खाते होंगे
एक महीने में दस दिन मिलती जिसको मजदूरी है 

संसद-वंसद आज़ादी-वाजादी तब तक बेमानी
कायम जब तक लोकतन्त्र की लोकतन्त्र से दूरी है

दिल का दर्द बताए कोई किसको ऐसे में कैसे
सूरज नादिरशाह हुआ है और हवा तैमूरी है

                             2

चोट कर अन्याय पर हरदम हथौड़ों की तरह
या कि नंगी पीठ पर दस-बीस कोड़ों की तरह

रुक भी जा दो-चार पल कुछ सोच भी कुछ देख भी
ज़िंदगी - भर दौड़ता ही रह न घोड़ों की तरह

मुश्किलों की ही तरह कर मुश्किलों का सामना
मुश्किलों से भाग मत हरगिज़ भगोड़ों की तरह

तय करो, लाखों-करोड़ों मे बनोगे एक, या –
एक दिन मर जाओगे लाखों-करोड़ों की तरह 

रख न पाये साथ यदि प्रतिरोध की चिनगारियाँ
रोज कुचले जाओगे कीड़ों –मकोड़ों की तरह 

जो प्रथाएँ – मान्यताएं रोज डसतीं हों तुम्हें
काटकर फेंको उन्हें अब ज़र्द फोड़ों की तरह

                       3

ये जो झुक कर कमान हैं साहब
देश के ही किसान हैं साहब 

एक मुँह, सौ बयान हैं साहब
आप कितने महान हैं साहब !

छिन गए घर हैं आजकल हमसे
आजकल तो मकान हैं साहब

हाथ खाली हैं पेट भी खाली
मुल्क के नौजवान हैं साहब

हुक्मराँ संविधान क्यों मानें
ये तो खुद संविधान हैं साहब

                    4

न डरता था न डरता हूँ किसी से
लड़ूँगा वक़्त की हर ज़्यादती से 

मिला है दर्द इतना रोशनी से
मुहब्बत हो गई है तीरगी से 

दिखाऊँगा उसे मैं ज़ख्म सारे
मिलूँ तो ज़िंदगी में ज़िंदगी से ?

हमारे पात बिछड़े फूल बिछड़े
हुए जब दूर हम अपनी ज़मी से .

 दिये हैं घाव यूँ तो पत्थरों ने
सफर का सुख मगर पूछो नदी से .

किलक कर हँस रहा है एक बच्चा
खुशी कोई बड़ी है इस खुशी से ?

-एम.1/149, जवाहर विहार , रायबरेली -229010
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e-mail: jai.chakrawarti@gmail.com